Saturday 6 January 2018

Hindu Dharm Darshan-124



वेद दर्शन - - -     
       
खेद  है  कि  यह  वेद  है  . . . 

अपने शरीर को पुष्ट करने के समान अग्नि के शरीर का पोषण एवं लकड़ियों को जलाने के इच्छुक अग्नि का प्रकट होना भी बहुत सुन्दर जान पड़ता है. 
रथ में जुता हुवा घोडा मख्खियाँ उड़ाने के किए जिस प्रकार बार बार पूंछ हिलाता है, उसी प्रकार अग्नि अपने लपटों रुपी जीभ को बार बार फेरते है.
द्वतीय मंडल  सूक्त 4-4 

पोंगा पंडित की कल्पना को देखें कि घोड़े ही दुम की हरकत को आग की लपटों से कर रहा है. कल्पना तो खैर कुछ भी की जा सकती है मगर इन पर आधारित हिन्दू आस्था  की कल्पना करें. आस्था जिसके बाद कुछ भी उसके विरुद्ध सोचना पाप जैसा होता है. 
क्या कल्पना कर सकते हैं कि हिन्दू कभी जय श्री गणेश के गुड गोबर से उबर सकता है ?
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हे अग्नि ! हमें मनुष्यों एवं देवों की शत्रुता हरा न सके. 
हमें इन दोनों प्रकार के शत्रुओं  से बचाव. 
द्वतीय मंडल  सूक्त 7-2 

लीजिए पंडित जी जिन देवों की कृपा से माला माल हुवा करते हैं उन को भी अपना शत्रु घोषित कर रहे हैं और अग्नि से सुरक्षा तलब कर रहें हैं ? 
मन्त्र में कुछ तो बोलना है, उल्टा सीधा ही सही.
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हे ऋत्वजों का भरण करने वाले अग्नि ! 
तुम हमारे हो. तुम बाँझ गायों बैलों और गर्भिणी गायों द्वारा बुलाए गए हो. 
द्वतीय मंडल  सूक्त 7-2 

कहत वेद सुनो भाई साधो - - - 
(ऋग्वेद / डा. गंगा सहाय शर्मा / संस्तृत साहित्य प्रकाशन नई दिल्ली )


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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