Friday 2 February 2018

Soorah Almayda -5 – Qist -5

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह अलमायदा 5 - - -छटवाँ पारा 
(क़िस्त -5)

 धर्म और ईमान के मुख़तलिफ़ नज़रिए और मअने अपने अपने हिसाब से गढ़ लिए गए हैं. 
आज के नवीतम मानव मूल्यों का तक़ाज़ा इशारा करता है कि धर्म और ईमान हर वस्तु के उसके गुण और द्वेष की अलामतें होती हैं. 
इस लम्बी बहेस में न जाकर मैं सिर्फ़ मानव धर्म और ईमान की बात पर आना चाहूँगा. 
मानव हित, जीव हित और धरती हित में जितना भले से भला सोचा और भर सक किया जा सके, 
वही सब से बड़ा मानव धर्म है और उसी कर्म में ईमान दारी है. 
वैज्ञानिक हमेशा ईमानदार होता है क्यूँकि वह धर्म मुक्त  नास्तिक होता है, इसी लिए वह अपनी खोज को अर्ध सत्य कहता है. 
वह कहता है यह अभी तक का सत्य है, कल का सत्य भविष्य के गर्भ में है. 
मुल्लाओं की तरह नहीं कि आख़िरी सत्य और आख़िर निज़ाम की ढपली बजाते फिरें. 
धर्म हर आदमी का व्यक्तिगत मुआमला होता है 
मगर होना चाहिए हर इंसान को धर्मी और ईमान दार, 
कम से कम दूसरे के लिए. 
इसे ईमान की दुन्या में ''हुक़ूक़ुल इबाद'' कहा गया है, 
अर्थात ''बन्दों का हक़'' 
आज के नवीनतम मानव मूल्य इससे दो क़दम आगे बढ़ कर कहते हैं
 ''हुक़ूक़ुल मख़लूक़ात'' अर्थात हर जीव को जीने का हक.
धर्म और ईमान में खोट उस वक़्त शुरू हो जाती है जब वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो जाता है. 
धर्म और ईमान, धर्म और ईमान न रह कर मज़हब और रिलीज़न यानी राहें बन जाते हैं. 
इन राहों में आरंभ हो जाता है कर्म कांड, वेश भूषा, नियमावली, उपासना पद्धित, जो पैदा करते हैं इंसानों में आपसी भेद भाव. 
राहें कभी धर्म और ईमान नहीं हो सकतीं. 
धर्म तो धर्म कांटे की कोख से निकला हुआ सत्य है, 
पुष्प से पुष्पित सुगंध है, 
उपवन से मिलने वाली बहार है. 
हम इस धरती को उपवन बनाने के लिए समर्पित रहें, यही मानव धर्म है. 
धर्म और मज़हब के नाम पर रची गई गाथाएँ और पताकाएँ, 
दर अस्ल अधार्मिकता के चिन्ह हैं.
लोग अक्सर तमाम धर्मों की अच्छाइयों (?) की बातें करते हैं, 
यह धर्म जिन मरहलों से गुज़र कर आज के परिवेश में क़ायम हैं, 
क्या यह अधर्म और बे ईमानी नहीं बन चुके है? 
क्या यह सब मानव रक्त रंजित नहीं हैं? 
इनमें अच्छाईयां है कहाँ? 
जिनको एह जगह इकठ्ठा किया जाय, यह तो परस्पर विरोधी हैं.

अब लीजिए क़ुरआनी बक्वासें पेश हैं - - -

"और जब वह (सूफ़ी, संत, दुरवैश और राहिब) इस को सुनते हैं जो कि मुहम्मद (इस्लाम) की तरफ़ से भेजा गया है, तो उनकी आँखें आंसुओं से बहती हुई दिखती हैं, इस सबब से कि उन्हों ने हक़ को पहचान लिया है. कहते हैं कि ए हमारे रब! हम मुसलमान हो गए, तो हम को भी इन लोगों में लिख लीजिए जो तस्दीक़ करते हैं, और हमारे पास कौन सा उज्र है कि हम अल्लाह तअला पर और जो हक़ हम पर पहुंचा है, इस पर ईमान न लाएँ और इस बात की उम्मीद रक्खें कि हमारा रब हम को नेक लोगों की जमाअत में हमें दाखिल करेगा."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (75)

सूफ़ी और दरवेश हमेशा से इसलाम से भयभीत और बेज़ार रहे हैं. इस के डर से वह ग़रीब बस्तियों को छोड़ कर वीरानों में रहा करते थे. 
प्रसिद्ध संत उवैस करनी मोहम्मद का चहीता होते हुए भी उनसे कोसों दूर जंगलों में रहता था. इस्लामी हाकिमो के खौ़फ़ से, वह हमेशा अपना पता ठिकाना बदलता रहता कि कहीं इस को मोहम्मद के क़ुर्बत में जा कर 'मोहम्मादुर रसूल अल्लाह' न कहना पड़े.
मोहम्मद के वसीयत के मुताबिक़ मरने के बाद उनका पैराहन उवैस करनी को भेंट किया जाना था, समय आने पर, जब पैराहन को लेकर अबू बकर और अली बमुश्किल तमाम उवैस तक पहंचे तो पाया की वह ऊँट चरवाहे की नौकरी कर रहा था. 
उन तथा कथित हस्तियों से मिल कर या पैराहन पाकर उसके चेहरे पर कोई ख़ास रद्दे अमल न देख कर दोनों मायूस हुए. बहुत देर तक ख़ामोशी छाई रही, जिसको तोड़ते हुए अबू बकर बोले, 
उम्मत ए मोहम्मदी के लिए कुछ दुआ कीजिए. 
फ़क़ीर दुआ के बहाने उठा और अपने हुजरे के अन्दर चला गया. 
बहुत देर तक बाहर न निकला तो इन दोनों को उस से बेज़ारी हुई, 
हुजरे के दर से सूफ़ी को आवाज़ दी कि बाहर आएं, उवैस बर आमद हुवा और कहा जल्दी कर दी आप लोगों ने वर्ना मैं पूरी उम्मते मुहम्मदी को बख्शुवा लेता.
दोनों, दरवेश के रवैयए से खिन्न होकर वापस हुए.
बदमआश ओलिमा ने ओवैस करनी की उलटी कहानियाँ गढ़ रखी हैं.
यही हाल मशहूर सूफ़ी हसन बसरी का था.
 हसन बसरी और राबिया बसरी मुहम्मद के बाद तबा ताबेईन (मुहम्मद के बाद का दौर) हुए, जो बाग़ी ए पैगंबरी थे और मुहम्मदुर रसूल अल्लाह कभी नहीं कहा. 
हसन बसरी का वाक़ेआ मशहूर है कि एक हाथ में आग और दूसरे हाथ में पानी ले कर दीवाना वार भागे जा रहे थे, 
लोगों ने पूंछा हज़रात कहाँ? 
बोले जा रहा हूँ उस दोज़ख को पानी से ठंडी करने जिसके डर से लोग नमाज़ पढ़ते हैं 
और उस जन्नत को आग लगाने जिस की लालच में लोग नमाज़ पढ़ते हैं. 
मोहम्मद की गढ़ी जन्नत और दोज़ख़ का उस वक़्त ही इन हस्तियों ने नकार दिया था जिसको आज मान्यता मिली हुई है, 
ये मुसलमानों के साथ कौमी हादसा ही कहा जा सकता है.
हम मुहम्मदी अल्लाह की एक बुरी आदत पर आते हैं - - -
क़ुरानी आयातों से ज़ाहिर होता है कि अरबों में क़समें खाने का बड़ा रिवाज हुवा करता था. यह रोग शायद भारत में वहीँ से आया है, वरना यहाँ तो "प्राण जाए पर वचन न जाय" की अटल क़सम थी. 
मुहम्मदी अल्लाह भी अरबों की ख़सलत से प्रभावित है. 
अल्लाह की क़समें भी जानें किन किन चीज़ो की और कैसी कैसी. 
वह बन्दों के लिए दो क़िस्में, कसमों की मुक़ररर करता है--
पहली इरादी क़समें, और दूसरी पुख़ता क़समें.

"अल्लाह तुम से जवाब तलबी नहीं करता, तुम्हारी क़समों पर, (जब) इरादी किस्म की हों, लेकिन जवाब तलबी इस पर करता है कि क़सम को पुख़ता करो और तोड़ दो. सो इस का क़फ्फ़ारा (प्रयश्चित) दस मोहताजों को खाना देना है या औसत दर्जे का कपड़ा देना या एक गर्दन को आज़ाद करना या कुछ न हो सके तो तीन दिन का रोज़ा रखना."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (77)

देखिए कि कितना आसान है इसलाम में मुसलमानों के लिए झूट बोलना, वह भी क़समें खा कर. इरादा (निशचय) क़समें अल्लाह की, रसूल की, क़ुरआन की, माँ बाप की, दिन भर कसमें खाते रहिए, अल्लाह इसकी जवाब तलबी नहीं करता, हाँ अगर पुख्ता (ठोंस) क़सम खा ली तो भी गज़ब हो जाने वाला नहीं, बस सिर्फ़ तीन रोज़ का दिन भर का फ़ाक़ा, 
जब  कि ग़रीब को यूँ भी उस वक़्त अन्न उपलब्ध नहीं हुवा करता था. इसको रोज़ा कहते हैं, इसमें सवाब भी है. 
किस क़दर झूट की आमेज़िश है क़ुरानी निज़ाम में जिसे अनजाने में हम "पूर्ण जीवन व्योस्था या मुकम्मल निजाम ए हयात " कहते हैं. 
अदालतों में क़ुरआन पर हाथ रख कर क़सम खाते है जो ख़ुद झूट बोलने की इजाज़त देता है. 
आर्श्चय होता है न्याय के अंधे विश्वास पर. 
देखिए कि हर मुस्लिम ही नहीं मुझ जैसा मोमिन भी इस ईमानी कमज़ोरी से कितना कुप्रभावित है, ख़ुद मेरी बीवी इरादा क़समे खाने की आदी है जिसको हज़म करने के हम आदी हो चुके हैं. 
पुख्ता यानी ठोंस झूट भी उसके बहुत से पकडे गए हैं जिसके लिए वह अक्सर पुख़ता कसमें खा चुकी है. मज़े की बात ये है कि वह क़फ्फ़रा भी मेरी कमाई से अदा करती है, पक्की मुसलमान है, क़ुरआन की तिलावत रोज़ाना करती है और इन क़ुरानी फार्मूलों से खूब वाक़िफ़ है. 
सच है कि ग़ैर मुस्लिम शरीक ए हयात बेहतर होती बनिस्बत एक मुसलमान के.

"ऐ ईमान वालो! अल्लाह क़द्रे शिकार से तुम्हारा इम्तेहान करेगा. जिन तक तुम्हारे हाथ और तुम्हारे नेज़े पहुँच सकेंगे ताकि अल्लाह समझ सके कि कौन शख़्स इस से बिन देखे डरता है. सो इसके बाद जो शख़्स हद से निकलेगा इसके लिए दर्द नाक सज़ा है"
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (94)

दिलों कि बात जानने वाला मुहम्मदी अल्लाह मुसलमानों का प्रेटिकल इम्तेहान ले रहा है और बेचारी क़ौम उसी इम्तेहान में मुब्तिला है, 
न शिकार रह गए हैं न नेज़े. आलिमान दीन ने इन आयात को गोबर सुंघा सुंघा कर कर मरी मुसरी को ज़िदा रखा है. मुस्लिम अवाम जब तक ख़ुद बेदार होकर क़ुरानी बोझ को सर से दफ़ा नहीं करते तब तक क़ौम का कुछ होने वाला नहीं.

"अल्लाह तअला ने गुज़श्ता को मुआफ़ कर दिया और जो शख़्स फिर ऐसी ही हरकत करेगा तो अल्लाह तअला उस से इंतकाम ले सकते हैं."
सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (95)

अल्लाह न हुवा बल्कि बन्दा ए बद तरीन हुआ जो इन्तेकाम (प्रतिशोध) भी लेता है. 
इसी आयत पर शायद जोश मलीहा बादी कहते हैं - - - 

गर मुन्तकिम है तो खोटा है खुदा, 
जिसमें सोना न हो, वह गोटा है खुदा,
शब्बीर हसन खाँ नहीं लेते बदला,
शब्बीर हसन खाँ से भी छोटा है खुदा. 

पिछले सारे गुनाह मुआफ़ आगे कोई ख़ता न हो, 
बस कि बद नसीब मुसलमान बने रहो. 
इस मुहम्मदी अल्लाह से इंसानियत को ख़ुदा बचाए. 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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