Wednesday 21 February 2018

Soorah anaam 6 Qist 7

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह अनआम ६
(क़िस्त -7)

ज़ेहनी ग़ुस्ल 

ज़िन्दगी एक दूभर सफ़र है, 
यह तन इसका मुसाफ़िर है. 
आसमान के नीचे धूप, धूल और थकान के साथ साथ सफ़र करके हम बेहाल हो जाते हैं. मुसाफ़िर पसीने पसीने हो जाता है, लिबास से बदबू आने लगती है, तबीअत में बेज़ारी होने लगती है, 
ऐसे में किसी साएदार पेड़ को पाकर हम राहत महसूस करते है. कुछ देर के लिए इस मरहले पर सुस्ताते हैं, पानी मिलगया तो हाथ मुंह भी धो लेते हैं   मगर यह पेड़ का साया सफ़र का मरहला होता है, हमें पूरी सेरी नहीं देता, हमें एक भरपूर स्नान कि ज़रुरत महसूस होती है. 
इस सफ़र में अगर कोई साफ़ सफ़फ़ाफ़ और महफूज़ ग़ुस्ल ख़ाना हमको मिल जाए तो हम अन्दर से सिटकिनी लगा कर, सारे कपडे उतार के फेंक देते हैं और मादर ज़ाद नंगे हो जाते हैं, फिर जिस्म को शावर के हवाले कर देते हैं. अन्दर से सिटकिनी लगी हुई है, कोई खटका नहीं है. सामने क़द्दे आदम आईना लगा हुआ है. इसमें बगैर किसी लिहाज़ के अपने पूरे जिस्म का जायज़ा लेते है, आखिर यह अपना ही तो है. बड़े प्यार से मल मल कर अपने बदन के हर हिस्से से गलाज़त छुडाते हैं. 
जब बिलकुल पवित्र हो जाते हैं तो ख़ुश्क तौलिए से शरीर को हल्का करते हैं, इसके बाद धुले जोड़े पहेन कर संवरते हैं. इस तरह सफ़र के तकान से ताज़ा दम होकर हम अपली मंजिल की तरफ़ क़दम बढ़ाते हैं.
ठीक इसी तरह हमारा दिमाग भी सफ़र में है, 
सफ़र के तकान से बोझिल है. सफ़र के थकान ने इसे चूर चूर कर रखा है. जिस्म की तरह ही ज़ेहन को भी एक हम्माम की ज़रुरत है, 
मगर इसके तक़ाज़े से आप बेख़बर हैं जिसकी वजेह से ग़ुस्ल करने का एहसास आप नहीं कर पा रहे हैं. नमाज़ रोज़े पूजा पाठ और इबादत को ही हम ग़ुस्ल समझ बैठे हैं. यह तो सफ़र में मिलने वाले पेड़ नुमा मरहले जैसे हैं, हम्मामी मरहले की नई राह नहीं. 
ज़ेहनी ग़ुस्ल है ?
बड़ी हिम्मत की ज़रुरत है कि आप अपने ज़ेहन को जो भी लिबास पहनाए हुए हैं, महसूस करें कि वह सदियों के सफ़र में मैले, गंदे और बदबूदार हो चुके हैं. इसको नए, फ़ितरी, (लौकिक) ग़ुस्ल खाने की चाहत है. 
 मज़हबी कपट के बोसीदा लिबास को उतार फेंकिए और एक दम उरियाँ हो जाइए, वैसे ही जैसे आपने अपने शरीर को प्यार और जतन से साफ़ किया था, अपने ज़ेहन को नास्तिकता और नए मानव मूल्यों के साबुन से मल मल कर धोइए. 
इल्हाद और नास्तिकता जिसे कि धर्म और मज़हब के सौदागरों ने ग़लत माने पहना रखा है, गालियों जैसा घिनावना लगता है, मगर यही साबुन है जो वास्तविकता की पहचान रखता है. 
जदीद तरीन इंसानी क़दरों की सुगंध में नहाइए, जब आप तबदीली का ग़ुस्ल कर रहे होंगे कोई आप को देख नहीं रहा होगा, अन्दर से सिटकिनी लगी हुई होगी. शुरू कीजिए दिमाग़ी ग़ुस्ल. 
धर्म व् मज़हब, ज़ात पात की मैल को खूब रगड़ रगड़ कर साफ़ कीजिए, हाथ में सिर्फ इंसानियत का कीम्याई साबुन हो. इस ग़ुस्ल से आप के दिमाग का एक एक गोशा पाक और साफ़ हो जाएगा. नए धुले जोड़ों को पहन कर बाहर निकलिए. अपनी शख़्ससियत को बैलौस, बे खौ़फ़ जसारत के ज़ेवरात से सजाइए, इस तरह आप वह बन जाएँगे जो बनने का हक़ क़ुदरत ने आप को अता किया है.
याद रखें जिस्म की तरह ज़ेहन को भी ग़ुस्ल की ज़रुरत हुवा करती है. सदियों से आप धर्म व् मज़हब का लिबास अपने ज़ेहन को पहनाए हुए हैं जो कि गूदड़ हो चुके हैं. इसे उतार के आग या फिर क़ब्र के हवाले कर दें ताकि इसके जरासीम किसी दूसरे को असर अंदाज़ न कर सकें. नए हौसले के साथ खुद को सिर्फ़ एक इंसान होने का एलान कर दें.

अब मुहम्मदी अल्लाह की ग़ैर फ़ितरी और इंसानियत सोज़ बाते सुनें - - -

''जब इब्राहीम ने अपने बाप आज़र से फ़रमाया कि क्या तू बुतों को माबूद क़रार देता है? बेशक मैं तुझको और तेरी सारी क़ौम को सरीह ग़लती में देखता हूँ.''
सूरह अनआम ७वां पारा आयत (७५)

इब्राहीम का बाप आज़र एक मामूली और ग़रीब बुत तराश (मूर्तिकार) था, जो अपने बेटे को अक्सर समझाता रहता कि बेटे हिजरत कर, हिजरत में बरकत है, यहाँ कुछ न कर पाएगा. बाहर निकल तुझे दूध और शहद की नदियों वाला देश मिलेगा. 
फ़रमा बरदार बेटे इब्राहीम ने अपनी जोरू सारा और भतीजे लूत को लेकर एक रोज़ बाहर की राह अख़्तियार की जिसको मुहम्मद ने गुस्ताख़ाना कहानी की शक्ल देकर अपना क़ुरआन बनाया है. 
मुहक्म्मद ने अब्राहम के बाप तेराह (आज़र) को बिला वजेह क़ुरआन में बार बार रुसवा किया है, ये मुहम्मद की मन गढ़ंत है. 
सच पूछिए तो वह इब्राहीम ही इंसानी इतिहास के शुरुआत हैं.

''हमने ऐसे ही तूर (एक परबत) पर इब्राहीम को आसमानों और ज़मीन की ख़्लूक़ात (जीव) दिखलाईं और ताकि वह कामिल यक़ीन करने वाले बन जाएं फिर जब रात को तारीक़ी उन पर छा गई तो उन्हों ने एक सितारा देखा तो फ़रमाया ये हमारा रब है, फिर जब वह ग़ुरूब हो गया तो फ़रमाया मैं ग़ुरूब हो जाने वालों से मुहब्बत नहीं करता. फिर जब चाँद को चमकता हुवा देखा तो फ़रमाया ये मेरा रब है. सो जब वह ग़ुरूब हो गया तो फ़रमाया कि मेरा रब मुझ को हिदायत न करता रहे तो मैं गुमराह लोगों में शामिल हो जाऊं - - -''
सूरह अनआम ७वां पारा आयत (७६-७७-७८)

इब्राहीम, इस्माईल वगैरा का नाम भर यहूदियों और ईसाइयों से उम्मी मुहम्मद ने सुन रखे थे. इन पर क़िस्से गढ़ना इनकी ज़ेहनी इख्तरा है. मुहम्मद की मंजिल ए मक़सूद थी ईसा मूसा की तरह मुक़ाम पाना जिसमें वह कामयाब रहे, मगर इंसानी क़दरों में दाग़दार, उनके पोशीदा पहलू उनको कभी मुआफ़ नहीं कर सकते. 
मुहम्मद के अन्दर छुपा हुआ शैतान उन्हें इंसानियत का मुजरिम क़रार ठहराएगा. 
जैसे जैसे इंसानियत बेदार होगी मुसलमानों के लिए बहुत बुरे दिन आने के इमकान है. 

''और ये ऐसी किताब है जिसको हमने नाज़िल किया है, जो बड़ी बरकत वाली है और पहले वाली किताबों की तस्दीक़ करने वाली है और ताकि आप मक्का वालों को और इस के आस पास रहने वालों को डरा सकें.'' 
सूरह अनआम ७वां पारा आयत (९३)

जो शै डराए वह बरकत वाली कैसे हो सकती है? 
शैतान, भूत, परेत, सांप, दरिन्दे और गुंडे, सब मख़्लूक़ को डराते हैं, 
यह सब मुफ़ीद कैसे हो सकते हैं? 
मुहम्मद की जिहालत और उनका क़ुरआन, दर असल क़ौम के लिए अज़ाब बन सकते हैं.

''और उस शख़्स से ज़्यादः ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह पर झूट तोहमत लगाए या यूं कहे की मुझ पर वही (ईश वाणी) आती है, हालाँकि उस के पास किसी बात की वही नहीं आती. और जो कहे जैसा कलाम अल्लाह ने नाज़िल किया है, इसी तरह का मैं भी लाता हूँ और अगर आप उस वक़्त देखें जब ज़ालिम लोग मौत की सख़्तियों  में होंगे और फ़रिश्ते अपने हाथ बढ़ा रहे होंगे - - - हाँ ! अपनी जानें निकालो. आज तुमको ज़िल्लत की सज़ा दी जाएगी, इस लिए कि तुम अल्लाह के बारे में झूटी बातें बकते थे और तुम इस की आयात से तकब्बुर करते थे.''
सूरह अनआम ७वां पारा आयत (९४)

मुहम्मद को पैग़म्बरी का भूत सवार था वह गली कूचे सड़क खेत और खलियान में क़ुरआनी आयतें गाते फिरते और दावा करते यह कि अल्लाह की भेजी हुई हैं. इन वहियों के मुक़ाबिले में कोई एक आयत तो बना कर दिखलाए. लोग इनकी नक़ल में जब आयतें गढ़ते तो यह राह ए फ़रार में इस क़िस्म की बकवास करते. इसे अपने अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल बतलाते. 
मुहम्मद ऐसे लोगों को ज़ालिम कहते जो इनकी नक़ल करते जब कि बज़ात ख़ुद वह ज़ालिम नंबर एक थे.

''और उस शख्स से ज़्यादः ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह पर झूट तोहमत लगाए'' 
कौन बेवक़ूफ़ रहा होगा जो ख़ालिक़े कायनात पर बोहतान जड़ता रहा होगा? मुहम्मद अपनी इन मक्र और बेशर्मी की बातों से अवाम को गुमराह कर रहे हैं. 
मुहम्मद खुद उस पाक और बेनयाज़ ज़ात को अपनी फूहड़ बातों से बदनाम कर रहे हैं. 
कैसी अहमकाना बातें हैं कि ज़ालिमों को मौत से डराते हैं जैसे ख़ुद मौज उड़ाते हुए मरेंगे.

''ऐसा होगा क़यामत के दिन का मुसलामानों का काफिरों पर तअना. जन्नत सिर्फ़ मुसलामानों को ही मिलेगी, वह भी जो नेक आमाल के होंगे," 

नेक आमाल नेक काम नहीं बल्कि मुहम्मद नमाज़ रोज़ा ज़कात और हज वग़ैरह में नेकी देखते हैं. ईसाई,यहूदी और सितारा परस्त के लिए तो जन्नत में जगह नहीं है, जिनको कि मुहम्मद साहब ए किताब मानते हैं, मगर काफ़िरों (मूर्ति-पूजक)के लिए तो दहेकती हुई दोज़ख धरी हुई है, भले ही खुद अनाथ मुहम्मद को पालने वाले दादा और चाचा ही क्यूं न हों. 
उम्मी मुहम्मद को इस दलील से कोई वास्ता नहीं कि जिसने इस्लामी पैग़ाम सुना ही न हो या जो इस्लाम से पहले हुआ हो वह भला दोजख़ी क्यूं होगा??ऐसे हठ धर्म क़ुरआन को इस्लामी जंगजूओं ने माले ग़नीमत को जायज़ क़रार देने के बाद चौथाई दुन्या को पीट पीट कर तस्लीम कराया है. 




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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