Monday 26 March 2018

Soorah taubah 9 – Q- 1

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह-ए-तौबः 9
(क़िस्त-1)

सूरह-ए-तौबः एक तरह से अल्लाह की तौबः है . 
अरबी रवायत में किसी नामाक़ूल, नामुनासिब, नाजायज़ या नाज़ेबा काम की शुरूआत अल्लाह या किसी मअबूद के नाम से नहीं की जाती थी, 
आमद ए इस्लाम से पहले यह क़ाबिल ए क़द्र अरबी क़ौम के मेयार का एक नमूना था. 
क़ुरआन में कुल 114 सूरह हैं, एक को छोड़ कर बाक़ी 113 सूरतें - - -
"आऊज़ो बिल्लाहे मिनस शैतानुर्र्र्जीम , बिमिल्लाह हिररहमान निर रहीम " से शुरू होती हैं . 
वजह ? 
क्यूंकि सूरह तौबः में ख़ुद अल्लाह दग़ा बाज़ी करता है इस लिए अपने नाम से सूरह को शुरू नहीं करता.  
बक़ौल मुहम्मद क़ुरआन अल्लाह का कलाम है तो इंसानी समाज का इसमें दख्ल़ क्यूँ ? 
क्या अल्लाह भी समाजी बंदा है ?
मुहम्मद ने अपने पुरखों की अज़मत को बरक़रार रखते हुए इस सूरह की शुरूआत बग़ैर "बिस्मिल्लाह हिररहमा निररहीम" से अज़ ख़ुद किया. 

मुआमला यूँ था कि मुसलामानों का मुशरिकों के साथ एक समझौता हुआ था कि आइन्दा हम लोग जंगो जद्दाल छोड़ कर पुर अम्न तौर पर रहेंगे. "लकुम दीनकुम वले यदीन" 
ये मुआहदा कुरआन का है, गोया अल्लाह कि तरफ़ से हुवा. 
इस समझौते को कुछ रोज़ बाद ही अल्लाह निहायत बेशर्मी के साथ तोड़ देता है और बाईस-ए-एहसास जुर्म अल्लाह अपने नाम से सूरह की शुरूआत नहीं होने देता. 

मुसलामानों! 
इस मुहम्मदी सियासत को समझो. 
अक़ीदत के कैपशूल में भरी हुई मज़हबी गोलियाँ कब तक खाते रहोगे? 
मुझे गुमराह, ग़द्दार, और ना समझ समझने वाले क़ुदरत की बख़्शी हुई अक़्ल का इस्तेमाल करें, तर्क और दलील को गवाह बनाएं तो ख़ुद जगह जगह पर क़ुरआनी लग्ज़िशें पेश पेश हैं कि इस्लाम कोई मज़हब नहीं सिर्फ़ सियासत है और निहायत बद नुमा सियासत जिसने रूहानियत के मुक़द्दस एहसास को पामाल किया है.
क़ब्ल ए इस्लाम अरब में मुख़्तलिफ़ फ़िरक़े हुवा करते थे जिसके बाक़ियात ख़ास कर उप महाद्वीप में आज भी पाए जाते हैं. इनमें क़ाबिल ए ज़िक्र फ़िरक़े नीचे दिए जाते हैं ---

१- काफ़िर ---- 
यह क़दामत पसंद होते थे जो पुरखों के प्राचीन धर्म को अपनाए रहते थे. सच पूछिए तो यही इंसानी आबादी हर पैग़म्बर और रिफ़ार्मर का रा-मटेरियल होती रही है. बाक़ियात में इसका नमूना आज भी भारत में मूर्ति पूजक और भांत भांत अंध विश्वाशों में लिप्त हिदू समाज है.
ऐसा लगता है चौदह सौ साला पुराना अरब अपने पूरब में भागता हुआ भारत में आकर ठहर गया हो और थके मांदे इस्लामी तालिबान, अल क़ायदा और जैश ए मुहम्मद उसका पीछा कर रहे हों.

२- मुश्रिक़ ---- जो अल्लाह वाहिद (एकेश्वर) के साथ साथ दूसरी सहायक हस्तियों को भी ख़ातिर में लाते हैं. 
मुशरिकों का शिर्क जनता की ख़ास पसंद है. इसमें हिदू मुस्लिम सभी आते है, गोकि मुसलमान को मुश्रिक  कह दो तो मारने मरने पर तुल जाएगा मगर वह बहुधा ख़्वाजा अजमेरी का मुरीद होता है, पीरों का मुरीद होता है जो कि इस्लाम के हिसाब से शिर्क है. 
आज के समाज में रूहानियत के क़ायल हिन्दू हों या मुसलमान थोड़े से मुश्रिक़ ज़रूर हैं.

३- मुनाफ़िक़ ---
वह लोग होते हैं जो बज़ाहिर कुछ, और बबातिन कुछ और, 
दिन में मुसलमान और रात में काफ़िर. ऐसे लोग हमेशा रहे हैं जो दोहरी ज़िंदगी का मज़ा लूट रहे हैं. 
मुसलामानों में हमेशा से कसरत से मुनाफ़िक़ पाए जाते हैं.

४- मुनकिर -----
 मुनकिर का लफ्ज़ी मतलब है इंकार करने वाला जिसका इस्लामी करन करने के बाद इस्तेलाही मतलब किया गया है कि इस्लाम क़ुबूल करने के बाद उस से फिर जाने वाला मुनकिर होता है. 
बाद में आबाई मज़हब इस्लाम को तर्क करने वाला भी मुनकिर कहलाया.

५-मजूसी ----- 
आग, सूरज और चाँद तारों के पुजारी. ईरानियों का यह ख़ास धर्म हुवा करता था. मशहूर मुफ़क्किर ज़रथुष्टि ईरानी था.

६-मुल्हिद ------ (नास्तिक) हर दौर में ज़हीनों को, ढोंगियों ने उपाधियाँ दीं हैं मुझे गर्व है कि इंसान की यह ज़ेहनी परवाज़ बहुत पुरानी है.
७- लात, मनात, उज़ज़ा जैसे देवी देवताओं के उपासक, जिनकी ३६० मूर्तियाँ काबे में रक्खी हुई थीं जिसमे महात्मा बुद्ध की मूर्ति भी थी.
इनके आलावा यहूदी और ईसाई क़ौमे तो मद्दे मुकाबिल इस्लाम के थीं ही जो कुरआन में छाई हुई हैं .

अल्लाह अह्द शिकनी करते हुए कहता है - - -

''अल्लाह की तरफ़ से और उसके रसूल की तरफ़ से उन मुशरिकीन के अह्द से दस्त बरदारी है, जिन से तुमने अह्द कर रखा था.''
सूरह तौबः -9 पारा-10 आयत (१)

मुसलामानों ! 
आखें फाड़ कर देखो यह कोई बन्दा नहीं, तुम्हारा अल्लाह है जो अहद शिकनी कर रहा है, वादा ख़िलाफ़ी कर रहा है, मुआहिदे की धज्जियाँ उड़ा रहा है, मौक़ा परस्ती पर आमादः है, वह भी इन्सान के हक़ में अम्न के ख़िलाफ़ ? 
कैसा है तुम्हारा अल्लाह, कैसा है तुम्हारा रसूल ? 
एक मर्द बच्चे से भी कमज़ोर जो ज़बान देकर फिरता नहीं. मौक़ा देख कर मुकर रहा है? 
लअनत भेजो ऐसे अल्लाह पर.

''सो तुम लोग इस ज़मीन पर चार माह तक चल फिर लो और जान लो कि तुम अल्लाह तअला को आजिज़ नहीं कर सकते और यह कि अल्लाह तअला काफ़िरों को रुसवा करेंगे.''
सूरह तौबः -9 पारा-10 आयत (२)

कहते है क़ुरआन अल्लाह का कलाम है,
 क्या इस क़िस्म की बातें कोई तख़लीक़ ए कार-ए-कायनात कर सकता है? मुसलमान क्या वाक़ई अंधे,बहरे और गूँगे हो चुके हैं, वह भी इक्कीसवीं सदी में. क्या ख़ुदाए बरतर एक साजिशी, पैगम्बरी का ढोंग रचाने वाले अनपढ़ , नाकबत अंदेश का मुशीर-ए-कार बन गया है.?
 वह अपने बन्दों को अपनी ज़मीन पर चलने फिरने की चार महीने की मोहलत दे रहा है ? 
क्या अज़मत व् जलाल वाला अल्लाह आजिज़ होने की बात भी कर सकता है? 
क्या वह बेबस, अबला कोई महिला है जो अपने नालायक़ बच्चों से आजिज़-व-बेज़ार भी हो जाती है?
 वह कोई और नहीं बे ईमान मुहम्मद स्वयंभू रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हैं जो अल्लाह बने हुए अह्द शिकनी कर रहे है.

''अल्लाह और रसूल की तरफ़ से बड़े हज की तारीखो़ का एलान है और अल्लाह और उसके रसूल दस्त बरदार होते हैं इन मुशरिकीन से, 
फिर अगर तौबा कर लो तो तुम्हारे लिए बेहतर है और अगर तुम ने मुंह फेरा तो यह समझ लो अल्लाह को आजिज़ न कर सकोगे 
और इन काफ़िरों को दर्द नाक सज़ा सुना दीजिए."
सूरह तौबः -9 पारा-10 आयत (३)

क़ब्ल ए इस्लाम मक्का में बसने वाली जातियों का ज़िक्र मैंने ऊपर इस लिए किया था कि बतला सकूं कअबा जो इनकी पुश्तैनी विरासत था, इन सभी का था जो कि इस्माइली वंशज के रूप में जाने जाते थे. 
यह क़दीम लडाका क़ौम यहीं पर आकर अम्न और शांति का प्रतीक बन जाया करती थी, 
सिर्फ़ अरबियों के लिए ही नहीं बल्कि सारी दुन्या के लिए. 
अरब बेहद ग़रीब क़ौम थी, इसकी यह वजह भी हो सकती है कि हज से इनको कुछ दिन के लिए बद हाली से निजात मिलती रही हो. 
मुहम्मद ने अपने बनाए अल्लाह के क़ानून के मुताबिक इसको सिर्फ़ मुसलामानों के लिए मख़सूस कर दिया, 
क्या यह झगडे की बुनियाग नहीं कायम की गई?
 इन्साफ़ पसंद मुस्लिम अवाम इस पर ग़ौर करे. 

''मगर वह मुस्लमीन जिन से तुमने अहद लिया, फिर उन्हों ने तुम्हारे साथ ज़रा भी कमी नहीं की और न तुम्हारे मुक़ाबिले में किसी की मदद की, सो उनके मुआह्दे को अपने ख़िदमत तक पूरा करो. वाक़ई अल्लाह एहतियात रखने वालों को पसंद करता है.''
सूरह तौबः -9 पारा-10 आयत (४)

यह मुहम्मदी अल्लाह की सियासत अपने दुश्मन को हिस्सों में बाँट कर उसे क़िस्तों में मारता है. आगे चल कर यह किसी को नहीं बख़्शता चाहे इसके बाप ही क्यूँ न हों.

''सो जब अश्हुर-हुर्म गुज़र जाएँ इन मुशरिकीन को जहाँ पाओ मारो और पकड़ो और बांधो और दाँव घात के  मोक़ों पर ताक लगा कर बैठो. फिर अगर तौबा करलें, नमाज़ पढ़ने लगें और ज़कात देने लगें तो इन का रास्ता छोड़ दो,''
सूरह तौबः -9 पारा-10 आयत (5)

मैंने क़ब्ल ए इस्लाम मक्का कें मुख़्तलिफ क़बीलों का ज़िक्र इस लिए किया था कि बावजूद इख़्तलाफ़ ए अक़ीदे के हज सभी का मुश्तरका मेला था, क्यूँकि सब के पूर्वज इस्माईल थे. हो सकता है यहूदी इससे कुछ इख़्तलाफ़ रखते हों कि वह इस्माईल के भाई इसहाक के वंसज हैं मगर हैं तो बहरहाल रिश्ते दार. 
अब इस मुश्तरका विरासत पर सैकड़ों साल बाद कोई नया दल आकर अपना हक़ तलवार की ज़ोर पर क़ायम करे तो झगडे की बुनियाद तो पड़ती ही है. 
इस तरह मुसलामानों ने यहूदियों और ईसाइयों से, 
न ख़त्म होने वाला बैर ख़रीदा है. 
अल्लाह के वादे की ख़िलाफ़ वर्ज़ी के बाद मुहम्मद की बरबरियत की यह शुरुआत है. 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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