Monday 10 December 2018

सूरह दुख़ान-44 -سورتہ الدخان (मुकम्मल)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है.
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह दुख़ान-44 -سورتہ الدخان
(मुकम्मल)

एक दिन मुहम्मद अपने मरहूम दोस्त इब्ने सय्यास के घर की तरफ़ चले, 
पास पहुँचे तो देखा कि इब्ने सय्यास का बेटा मैदान में अपने दोस्तों के साथ खेल रहा था. उसे मुहम्मद की आमद की ख़बर न हुई, जब मुहम्मद ने उसे थपकी दी तो उसने आँख उठ कर देखा.
मुहम्मद ने उससे पूछा कि -
"तू इस बात की गवाही देता है कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ?"
उसने मुहम्मद की तरफ़ आँख उठा कर देखा और कहा,
 "हाँ मैं इस बात की गवाही देता हूँ कि आप उम्मियों के रसूल हैं."
इसके बाद उसने मुहम्मद से पूछा -
"क्या आप इस बात की गवाही देते हो  कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ?"
मुहम्मद ने उसके सवाल पर लापरवाई बरतते हुए कहा,
"मैं अल्लाह के तमाम बर हक़ रसूलों पर ईमान रखता हूँ "
फिर उससे पूछा -
"तुझको क्या मालूम पड़ता है?"
उसने कहा -
"मुझे झूटी और सच्ची दोनों तरह की ख़बरें मालूम पड़ती हैं"
मुहम्मद ने कहा -
"तुझ पर मुआमला मख़लूत हो गया."
फिर बोले -
"मैंने तुझ से पूछने के लिए एक बात पोशीदा रख्खी है?"
वह बोला -
"वह दुख़ है"(धुवाँ=स्याह क़ल्बी)
मुहम्मद बोले -
"दूर हो! तू अपने मर्तबा से हरगिज़ तजाउज़ न कर सकेगा."
साथी ख़लीफ़ा उमर बोले -
"या रसूलिल्लाह अगर इजाज़त हो तो मैं इसे क़त्ल कर दूं"
मुहम्मद बोले -
"अगर ये वही दज्जाल है तो तुम इसे क़त्ल करने में क़ादिर नहीं हो सकोगे और अगर ये वह दज्जाल नहीं है तो इसे क़त्ल करने से क्या हासिल?"
उस बहादर लड़के का नाम था
"ऐसाफ़"
उसने किस बहादरी से कहा है -
"वह दुख़ है"
दुख़ के मानी धुवाँ होता है
मुहम्मद के लिए इससे बड़ा सच हो ही नहीं सकता.
ऐसाफ़ ! तुम पर मोमिन का सलाम पहुँचे
शायद इसी दुख़ की सच्चाई पर इस सूरह दुख़ान का नाम रख्खा गया हो.
अब पढ़िए अल्लाह के धुवाँ धार झूट का फ़साना - - -

"हा मीम"
जादू गरों का मंतर, लोगों की तवज्जो खींचने के लिए. 
दुष्ट ओलिमा ने इसमें भी अल्लाह का कोई पैग़ाम पोशीदा पाया है.
सूरह दुख़ान 44 आयत (1)

"क़सम है इस किताब वाज़ह की कि हमने इसको बरकत वाली रात को उतारा है और हम आगाह करने वाले थे, इस रात में हर हिकमत वाला मुआमला हमारी पेशी से हुक्म होकर तय किया जाता है. हम बवजेह रहमत के जो आपके रब की तरफ़ से हुई है, आप को पैग़ामबर बनाने वाले थे. बेशक वह बड़ा सुनने वाला और बड़ा जानने वाला है."
सूरह दुख़ान 44 आयत (2-6)

कहते हैं क़ुरआन में कोई फ़र्क या बढ़त घटत नहीं हो सकती यहाँ तक कि ज़ेर ज़बर की भी नहीं. वह तमाम इबारत क़ुरआन बनती गई जो मुहम्मद मदहोशी में बाईस सालों तक बोले और जितना होश में बोले अपनी उम्मियत के साथ वह हदीसें बन गईं. मदहोशी के आलम में बकी गई आयते क़ुरआनी में तर्जुमा निगारों को बड़ी गुंजाईश है कि अर्थ हीन जुमलों को मनमानी करके सार्थक बना लें मर हदीसों को जस का तस रखा गया. जिसमें मुहम्मद के किरदार का आइना है.
ऊपर की आयातों में मदहोशी है कि मुहम्मद जो कुछ कहना चाह रहे है, 
कह नहीं पा रहे. अल्लाह के रसूल कभी अल्लाह बन कर बातें करते हैं, 
तो कभी उसके रसूल बन जाते हैं. जहाँ अटक जाते है, 
वहां कलाम को अधूरा छोड़ कर आगे बढ़ जाते हैं. 
कहते हैं - 
"आप को पैग़ामबर बनाने वाले थे. बेशक वह बड़ा सुनने वाला और बड़ा जानने वाला है." 
सूरह दुख़ान 44 आयत (2)
आप को पैग़ामबर बनाने वाले थे.? (मगर ? बना न सके??)
"रात में हर हिकमत वाला मुआमला हमारी पेशी से हुक्म होकर तय किया जाता है" (है न मदहोशी के आलम में की गई बात)
 क़ुरआन कभी माहे रमज़ान में उतरता है और कभी बरकत वाली रात शब क़दर को, वैसे मुहम्मद बाईस सालों तक क़ुरआनी उल्टियाँ करते रहे.

दूसरे ख़लीफ़ा उमर के बेटे अब्दुल्ला से रवायत है कि मुहम्मद ने एक शख़्स का हाथ अपने हाथों से काटा, जिसका जुर्म था तीन पैसे की मालियत की चोरी.
(मुस्लिम - - - किताबुल हुदूद)
ऐसे ही मुहम्मद ने अपने ही क़बीले की एक ख़ातून का हाथ क़लम कर दिया था, बहुत मामूली चोरी पर.ये तो थी इसकी पैग़मबरीकी सख़्त  मिसाल, 
हैरत का मुक़ाम ये है कि यही शख़्स   कहता है कि "जेहाद में मारे जाने वाली बेकुसूर औरतों और बच्चो को मारना जायज़ है क्यूँकि काफ़िर मिन जुमला काफ़िर होते हैं.''
यह तो हदीसों की बातें थीं कि जिन पर मुसलमानों का एक गुमराह तबक़ा अहले हदीस बना हुवा है, 
अब चलिए देखें क़ुरआन की नसीहतें क्या कहती हैं - - -

"बल्कि वह शक में हैं और खेल में मसरूफ़ हैं, सो आप उस रोज़ का इंतज़ार करें कि आसमान की तरफ़  एक नज़र आने वाला धुवाँ पैदा हो, जो इन सब लोगों पर आम हो जाए. ये एक दर्द नाक सज़ा है. ऐ हमारे रब ! हम से इस मुसीबत को दूर कर दीजिए, हम ज़रूर ईमान ले आएँगे. इनको कब नसीहत होती है हालांकि इनके पास ज़ाहिर शान का पैग़म्बर आया फिर भी ये लोग इससे सरताबी करते रहे और यही कहते रहे कि सिखाया हुआ है और दीवाना है. हम चंदे इस अज़ाब को हटा देंगे तुम फिर इसी हालत में आ जाओगे.
जिस रोज़ हम बड़ी सख़्त  पकड़ पकड़ेंगे, हम बदला लेंगे." 
सूरह दुख़ान 44 आयत (9-16)

अल्लाह के रसूल की पुर फ़रेब बातों को ख़ातिर में लाइए मगर उनकी पैग़मबरी को मद्दे नज़र रखते हुए. 
क्या इस मक्कारी को पैग़मबरी पाने का हक़ हासिल होना चाहिए?

"ये लोग कहते हैं कि आख़िर हालत बस यही, हमारा दुनिया में मरना है और दोबारा दुनिया में न ज़िन्दा होंगे. सो ऐ मुसलमानों! अगर तुम सच्चे हो तो हमारे बाप दादाओं को ला मौजूद करो. ये लोग ज़्यादः ही बढे हुए है. यातिब्बा की क़ौम  और जो कौमें इससे पहले गुज़रीं, हमने उन सब को हलाक़ कर डाला, वह नाफ़रमान थे."
सूरह दुख़ान 44 आयत (35-37) 

मुहम्मद के लचर मिशन के सामने जब मुख़ालिफ़ उनसे ठोस सवाल करते है तो वह खोखले जवाब के साथ फ़रार अख़्तियार करते हैं. अकसर वह सवालों का जवाब यूँ देते हैं "ये लोग ज़्यादः ही बढे हुए है. "
मुहम्मदी अल्लाह को हलाकुल्लाह कहा जा सकता है. 
या तिब्बा का नाम कहीं से सुन लिया होगा अल्लाह के अनपढ़ रसूल ने. 

"बेशक ज़क़ूम का दरख़्त बड़े मुजरिमों को खाना होगा, जो तेल की तलछट जैसा होगा. वह पीप में ऐसा घुलेगा जैसे तेज़ गरम पानी खौलता है. हुक्म होगा, इसको दोज़ख़ के बीचो बीच घसीटते हुए ले जाओ, फिर इसके सर पे तकलीफ देने वाला गरम पानी छोड़ो. ले चख तू बड़ा मगरूर, मुकर्रम था. ये वही चीज़ है जिस पर तुम ज़क किया करते थे."
सूरह दुख़ान 44 आयत (42-50)

इन आयतों में हर नुक्ते पर अपने आप में छेड़ कर देखिए कि मुहम्मद कितने बेतुके थे.
"बेशक अल्लाह से डरने वाले अमन की जगह पर होंगे. यानी बागों में और नहरों में. वह लिबास पहनेंगे बारीक और दबीज़ रेशम का, आमने सामने बैठे होंगे. ये बात इसी तरह है और इनका गोरी गोरी बड़ी बड़ी आँखों वालियों से ब्याह करेंगे. वहाँ इत्मीनान से हर क़िस्म का मेवा मंगाते होंगे. वहाँ बजुज़ इस मौत के जो दुन्या में हो चुकी थी, और मौत का ज़ाइका भी नहीं चखेंगे. और अल्लाह इन्हें दोज़ख़ से बचा लेगा."
सूरह दुख़ान 44 आयत (51-56) 29 

हैरानी होती है कि मुसलमान इन क़ुरआनी बातों पर पूरा पूरा यक़ीन करते हैं और इस ज़िन्दगी को पाने के लिए हर उम्र में हराम मौत मरने को तैयार रहते हैं. 
बेवक्त हराम मौत मरना, अपने माँ बाप और अज़ीज़ों को दाग़े मुफ़ारिक़त दे जाना, क़ुदरत की बख़्शी  हुई अपनी इस बेश क़ीमत ज़िन्दगी से हाथ धो लेना, इन हक़ीक़तों पर कभी ग़ौर ही नहीं करते. 
ज़िन्दगी के कारनामों को अंजाम देने में मौत को जाए तो शहादत है, 
मुहम्मद की सुझाई हुई जन्नत पर लानत है कि इस के लिए मर जाए तो हिमाक़त है. बेमक़सद मुसलसल जीते रहना ही मौत से बदतर है.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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