Tuesday 27 August 2019


दोएतो ! अलविदा - - - 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 26 August 2019

बुज़दिलान-ए इस्लाम,


बुज़दिलान-ए इस्लाम,     

इस्लाम की सड़ी गली लाश को नोच नोच कर खाने वाले यह गिद्ध 
सच्चाई से इस क़द्र हरासां हैं कि बौखलाहट में सरकार से सिफ़ारिश कर रहे हैं 
कि तसलीमा नसरीन को मुल्क बदर किया जाए. 
यह हराम ख़ोर जिनकी गिज़ा ईमान दारी है, जिसे खाकर पी कर 
और अपनी गलाज़त में मिला कर यह फ़ारिग हो जाते हैं, 
यह समझते हैं कि तसलीमा नसरीन को हिंदुस्तान से निकलवा कर  
बेफ़िक्र हो जाएँगे कि इन्हों ने सच्चाई को दफ़्न कर दिया. 
कोई भी इनमें मर्द नहीं कि तसलीमा नसरीन की किसी बात का 
दलील के साथ जवाब दे सके. 
इनका क़ुरआन  कहता है - - - 
"काफ़िरों को जहाँ पाओ मारो, बाँधो, मत छोड़ो जब तक कि इस्लाम को न अपनाएं."
"औरतें तुम्हारी खेतियाँ है, इनमे जहाँ से चाहो जाओ."
"इनको समझाओ बुझाओ, लतियाओ जुतियाओ फिर भी न मानें तो इनको अंधेरी कोठरी में बंद कट दो, 
हत्ता कि वह मर जाएँ."
"काफ़िर की औरतें बच्चे मिन जुमला काफ़िर होते हैं, 
यह अगर शब ख़ून में मारे जाएँ तो कोई ग़ुनाह नहीं."
इन जैसे सैकड़ों इंसानियत दुश्मन पैग़ाम इन जहन्नमी ओलिमा को 
इनका अल्लाह देता है.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 25 August 2019

खाप की महिमा, अनोखा कलचर


 खाप की महिमा,  अनोखा कलचर 

हरियाणा भारत का ख़ासम ख़ास सूबा है. 
पूरे भारत में हरियाणा के देव गण फैले हुए है. 
हरियाणा भारत की नाक है, महा भारत जो हरियाणा का इतिहास है. 
आजकल हरियाणा की नाक कुछ ज़्यादः कि नुकीली हो गई है, 
त्रिशूल जैसी. 
खाब इनकी शान है जिसके अंतर गत बस्ती की लड़की, बस्ती की बहन हुई, गोत्र इनका सब से मज़बूत खूंटा है. 
गोत्र के मुताबिक़ आठ पीढ़िया तक हरियाणवी आपस में भाई बहन होते है, कौन याद रख सकता है आठ पीढ़ी ? 
गोया अब तो पाषाण युग तक इस रिश्ते का फैलाव हो गया है.
दूसरी तरफ़ इनका अनबुझा कलचर है कि 
दूसरे जन समूह के लिए इनकी कोई मान्यता है ? 
अपने निरंकुश नियम के चलते बेटियों की पैदावार हरियाणा में 8:10 के 
अंतर तक चला गया है. 
लड़कों के लिए बीवियों का अकाल पड़ गया है. 
लड़कियां बिहार बंगाल और छत्तीस गढ़ जैसे ग़रीब इलाक़े से ख़रीद कर लाते है, 
उन्हें बंधक बनाते हैं और घर के सारे मर्द उससे 'फ़ारिग़' होते हैं. 
चाचा फ़ारिग़ होकर चला जाता है, 
बेटा फ़ारिग़ हो रहा होता है 
और बाप फ़ारिग़ होने का इंतज़ार कर रहा होता है.
इनमें यह भी होता है कि दो भाई एक स्त्री के साथ विवाह कर लेते हैं 
और उससे दोनों फ़ारिग़ होते हैं. 
कहते हैं कि इससे जायदाद बटवारे से बच जाती है. 
जो भी हो इन चौधरियों का मेंटल लेवल नापा जा सकता है. 
अतीत में भी यह अजीब व ग़रीब लोग थे, 
द्रोपदियों से यह माला माल थे. 
सवाल आज संयुक्त भारत में यह उठता है कि 
यह महानुभाव अपने गोत्र का इतना सम्मान करते हैं, 
तो दूसरों का अपमान इन्हें कैसे गवारा ? 
बिहार बंगाल और छत्तीस गढ़ जैसे भू खंड के लिए 
इनका स्तर कहाँ जाकर क़ायम होता है ?? 
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 23 August 2019

इब्लीस मरदूद,


इब्लीस मरदूद, 

"अल्लाह फ़रिश्तों के सामने ये एलान करता है कि हम ज़मीन पर अपना एक नाएब इंसान की शक्ल में बनाएंगे. 
फ़रिश्ते इस पर एहतेजाज करते हैं कि तू ज़मीन पर फ़सादियों को पैदा करेगा, 
जब कि हम लोग तेरी बंदगी के लिए काफ़ी हैं. 
मगर अल्लाह नहीं मानता और एक बे इल्म माटी के माधव आदम को बना कर, 
बा इल्म फ़रिश्तों की जबान बंद कर देता है. 
फिर हुक्म देता है कि इसे सजदा करो !
अल्लाह के हुक्म से तमाम फ़रिश्ते आदम के सामने सजदे में गिर जाते हैं, 
सिवाए इब्लीस के. 
इब्लीस मरदूद, माज़ूल और मातूब होता है. 
इसे जन्नत से बे दख़्ल कर दिया जाता है.
आदम और हव्वा जन्नत में अल्लाह की कुछ हिदायत के बाद आज़ाद रहने लगते हैं. 
हस्बे आदत अल्लाह बनी इस्राईल को क़ायल करता है कि 
हमारी किताब क़ुरआन भी तुम्हारी ही किताबों की तरह है. 
इस के बाद क़यामत और आख़िरत की बातें करता है." 
आदम और हव्वा की तौरेती कहानी को कुछ रद्दो बदल करके मुहम्मद ने क़ुरआन में कई बार दोहराया है. 
मज़े की बात ये है कि हर बार बात कुछ न कुछ बदल जाती है, 
कहते हैं न कि "दरोग़ आमोज़ रा याद दाश्त नदारद."
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 22 August 2019

कट्टर हिन्दू और मुसलमान

कट्टर हिन्दू और मुसलमान         

मुसलमानो ! तुम बदरजहा बेहतर हो हिदुओं से, 
जिसका तजज़िया मैं ईमान दारी के साथ कर रहा हूँ, 
जो जग-जाहिर है - - -
1-तुम्हारे अंदर छुवा छूत नहीं है जो हिदुओं में कोढ़ की तरह  फैला हुवा है और उसके शिकार तुम भी हो कि स्वर्ण तुम से भी परहेज़ करते हैं, दलितों जैसा. 
यह बात अलग है हिदुओं के देखा देखी गाँव और क़स्बों में 
तुम भी दलितों की तौहीन करते हो.
2- तुम औरों से निस्बतन नशा कम करते हो, शराब कम पीते हो, 
3- तुम दहेज़ के कारण बहुओं को जला कर नहीं मारते. 
न ही तुम में सती प्रथा थी.
4-तुम बहन बेटियों को बेवा हो जाने के बाद पंडों के हवाले नहीं करते, 
बल्कि उनको किसी मर्द से दुबारा शादी करा देते हो.
5-तुम हिदुओं की तरह  ढोंगी बाबाओं के शिकार नहीं, 
और हज़ारो भगवानो और तीर्थों पर तुम में निस्बतन कम है.
6-इसके आलावा बहुत से सलीके इस्लामी कल्चर ने तुम्हे बख़्शे हैं 
जो हिन्दुओं से बरतर और बेहतर हैं.
मगर इसी इस्लाम ने बहुत सी बुरी बातें तुम्हें घुट्टी में पिला रक्खा है. 
इसकी वजह से तुम दुन्या की पसमांदा क़ौम बन कर रह गए हो 
जिसकी वजह से सारा ज़माना तुम्हारा दुश्मन बना हुवा है. 
मैं बड़े यक़ीन से कह सकता हूँ कि हर मुसलमान जुज़्वी तौर पर कुछ न कुछ तालिबानी होता है, 
क्यूंकि तालिबानियत ही सच्चा इस्लाम है. इस्लाम के बुनयादी शर्तें हैं - - -
1 तुम ग़ैर मुस्लिमों से जिहाद करो, मर गए तो सीधे जन्नत धरी हुई है. 
शबाब, शराब वहां इफ़रात है.
2-ज़िन्दा बचे तो लूट-पाट में मिले माल को तुम्हारा अल्लाह 
तुम्हारे लिए ग़नीमत किए हुए है.
इस्लाम के मुताबिक़ ग़ैर मुस्लिम या तो इस्लाम क़ुबूल करके हमारे इदारों को टैक्स दे 
या फिर जज़िया दे या तो फिर हम से जंग करे.
इस फ़ॉर्मूले से इस्लाम अतीत में बहुत कामयाब रहा 
जब तक महेज़ तीर और तलवार का ज़माना था. 
इसके बाद गंगा उलटी बहने लगी. 
ज़माना बंदूकों और बमों का आ गया. 
साइंस और मंतिक की इस्लाम इजाज़त नहीं देता. 
ग़रज़ तअलीम जदीद के मैदान में मुसलमान बहुत पीछे है.
नतीजतन आज तक इस्लाम को ओढ़ने और बिछाने वाली क़ौम ने एक सूई तक ईजाद नहीं की. 
पसपाई इसकी क़िस्मत बन गई है.
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 21 August 2019

इस्लामी आक़बत

 इस्लामी आक़बत         

हिंदी का बड़ा प्यारा लफ्ज़ है 'कल्पना', यह तसव्वुर का हम मानी है, 
मगर इसका अपना ही रंग है. 
हर आदमी अपने हाल से बेज़ार होकर अकसर कल्पनाओं की दुन्या में 
कुछ देर के लिए चला जाता है. 
कल्पनाएं तो सैकड़ों क़िस्म की होती हैं 
मगर मैं फिलहाल प्रेमिका को लेता हूँ  
यानी तसव्वुरे जानां. 
तसव्वुरे जानां इसके सिवा कुछ नहीं हैं कि इसे तसव्वुरे-जिनसां (sex) कहा जाए. 
उम्मत ए मुस्लिमा चलते फिरते इस कल्पना से महज़ूज़ होती रहती है. 
क्यूंकि आक़बत (परलोक) का सब से अव्वल इनाम हूरें और ग़िलमा हैं.  
हिदू परलोक का मतलब होता है कि इस लोक के झंझा वाद से मुक्ति 
मगर इस्लामी आक़बत है कि जिंसी बाग़ात में भरपूर ऐश करना. 
जब उम्र ढलने लगाती है तो कल्पित हसीनाएं कज अदाई करने लगती हैं, 
बूढ़ों की तो शामत ही आ जाती है. 
कहते हैं दिल कभी बूढा नहीं होता है. 
ऐसी हालत में वह कल्पनाओं में जवान होकर फिर से सब कुछ दोहराने लगते हैं. 
इंसान की इस कमज़ोरी को मुहम्मद ने कसके पकड़ा है. 
उन्होंने मौत के बाद जवानी को आने और जहान ए जिंस में, 
फिर से ग़ोता लगाने का नायाब तसव्वुर मुसलमानो को दिया है.  
आप देखें कि यह बूढ़े जिंस ए लतीफ़ के लिए मस्जिद की तरफ 
किस तेज़ी से भागते नज़र आते हैं.  
हूरों की कशिश और ग़िलमा की चाहत इन से नमाज़ों की कसरत कराती है , 
रमज़ान में फ़ाक़ा कराती है, हजों का दुश्वार ग़ुज़ार सफ़र तय कराती है 
और ख़ैरात ओ ज़कात कि फय्याज़ी कराती है.  
यह बुढ्ढे नमाज़ों के लिए नवजवानों और बच्चों को भी ग़ुमराह करते हैं. 
कोई बताए कि इस्लामी आक़बत का माहसिल इसके अलावा और क्या है ?
इसके बाद मुख़तलिफ़ ज़ायक़ों की शराबें जन्नतयों को पीने को मिलेंगी , 
बड़ी बडी आँखों वाली हूरें अय्याशी के लिए मयस्सर होंगी, 
हत्ता कि इग़लाम बाज़ी के लिए महफ़ूज़ मोती जैसे लौण्डे होंगे.  
खाना पीना तो कोई मसअला ही नहीं होगा, 
जिस मेवे की ख़्वाहिश होगी उसकी शाखे मुँह के सामने होंगी. 
अगर इन सब चीज़ों से कोई इंकार करता है तो वह क़ुरान को नकारता है.  
एक नमाज़ी मुसलमान क़ुरान को नकारे, यह मुमकिन नहीं है, 
जबकि अंदर से वह अल्लाह की इन्हीं नेमतों का आरज़ूमन्द रहता है 
जिन्हें वह जीते जी नहीं पा सका, जो लतीफ़ होते हुए भी ममनून थीं.  
इस्लामी दुन्या के आलावा बाक़ी दुन्या में आख़िरुज़ज़मा (अंतिम पैग़म्बर), 
आख़िरी किताब और आख़िरी निज़ाम जैसा कोई हादसाती वाक़िआ नहीं हुवा. 
इस लिए ज़मीन के बाक़ी हिस्सों में इर्तिकाई तामीरात होते गए. 
पैग़मबर आते गए, राहनुमा जलवा गर होते गए, किताबें रुनुमा होती रहीं, 
निज़ाम बदलते गए और बदलती गई उनकी धरती की क़िस्मत.
कहीं कहीं तो इंसानी आज़ादी इतनी तेज़ी से फूली फली कि उनहोंने आसमानी जन्नत को लाकर ज़मीन पर उतार दिया, 
जिसको क़ुरआन मौत के बाद आसमान पर मिलने की बात करता है, 
बल्कि इससे भी बेहतर. 
ऐसी जन्नतें इस ज़मीन पर बन चुकी हैं कि जहाँ नहरें और बाग़ात, 
मज़ाक़ की बातें लगेंगी.
काफ़ूर और सोठ की लज़ज़त वाली शराबें, 
वह भी गन्दी ज़मीन पर बहती हुई, लानत भेजिए. 
हूरों और परियों का हुजूम हम रक़्स है 
और इनको भी नरों को चुनने की पूरी आज़ादी है. 
दूर दूर तक क़यामत का कहीं कोई शोर ओ ग़ुल नहीं, 
कोई ज़िक्र नहीं, कोई फ़िक्र नहीं, 
जिहालत कि बातों का कोई ग़ुज़र नहीं. 
इंसानी हुक़ूक़ इतने महफूज़ हैं कि जैसे बत्तीस दातों के बीच ज़बान महफूज़. 
ऐसा निज़ाम ए हयात पा लिया है इस ज़मीन के बाशन्दों ने 
जहाँ इंसान क्या , हैवान और पेड़ पौदे तक महफूज़ हो गए हैं. 
आख़िरी निज़ाम वाली दुन्या, 
अहमकों की जन्नत में रहती है, 
कोई इनको जगाए. 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 20 August 2019

वास्तव = ईमान

वास्तव = ईमान 

आस्तिक और नास्तिक की क़तार में एक लफ्ज़ है स्वास्तिक है. 
मुझे भाषा ज्ञान बहुत कम है मगर जो चेतन शक्ति है वह आ टिकती है 
"तिक" 
इस तिक का तुकांत अगर स्वा से जोड़ दिया जाए तो स्वास्तिक बनता है, 
यह दुन्या का बड़ा चर्चित शब्द बनता है. 
हिन्दू, बौध, जैन, आर्यन और नाज़ियों में इसका चिन्ह बहुत शुभ माना जाता है. इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं, 
इसका बीज ज़रूर कहीं पर मानव सभ्यता में बोया गया है.  
स्वास्तिक में वस्तु, वास्तव और वास्तविकता का पूरा पूरा असर है.  
शब्द वास्तव बहुत महत्त्व पूर्ण अर्थ रखता है 
जोकि धर्म के हर हर पहलू पर सवालिया निशान बन कर खड़ा हो जाता है. 
इस वास्तव को धर्मों ने धर्मी करण करके इस का लाभ अनुचित उठाया और अर्थ का अनर्थ कर दिया है, 
अपने ग्रन्थों में इसे चस्पा कर कर दिया, 
इसकी बातों  पर चलने वालों को आस्तिक 
और इसे न मानने वाले को नास्तिक ठहरा दिया है .
फिर भी यह शब्द वास्तव अपना प्रताप लिए धर्मों की दुन्या में डटा हुवा है.

इसी तरह अरबी ज़बान में एक शब्द है 
"ईमान" 
इस पर इस्लाम ने बिलजब्र ऐसा क़ब्ज़ा किया कि ईमान, 
इस्लाम का पर्याय बन कर रह गया है.
लोग अकसर मुझे हिक़ारत के साथ नास्तिक कह देते है, 
उनके परिवेश को मद्दे नज़र रखते हुए मैं 'हाँ' भी कह देता हूँ. 
यही नहीं मैं उनको समझाने के लिए ख़ुद को नास्तिक कह देता हूँ.
ख़ुद को मुल्हिद या दहरया कह देता हूँ जोकि सामान्यता घृणा सूचक माना जाता है.  
इन अपमान सूचक शब्दों वास्तविक अर्थ - - -
नास्तिक (वेदों पर आस्था न रखने वाला) 
 मुल्हिद, (अनेश्वर वादी) 
दहरया (दुन्या दार) 
उम्मी (हीब्रू भाषा का ज्ञान न रखने वाला) 
अजमी=गूंगा (अरबी जबान न जानने वाला, अरबी इन्हें गूंगा कहते हैं. 
धर्मों ने इन शब्दों को घृणा का प्रतीक बना कर अपनी दूकाने चलाई है. 
इन शब्दों पर ग़ौर करे सभी अपना बुनयादी स्वरूप रखते हैं. 
मगर धूर्त धार्मिकता इन्हें नकारात्मक बना देती है.
ईमान बड़ा मुक़द्दस लफ़्ज़ है - - - 
लौकिक, स्वाभाविक और क़ुदरती सच्चाई रखने वाली बात ईमान है. 
न कि इन्सान हवा में उडता हो और पशु इंसानी ज़बान में वार्तालाप करता हो. 
ईमान का ही हम पल्ला लफ्ज़ स्वास्तिक है. 
स्वाभाविक बातें ही सच होती हैं. 
अस्वाभाविक और ग़ैर फ़ितरी बातें धर्मों के बतोले होते हैं.
इसी तरह से मानव कर्म भी सार्थक और निरर्थक होते हैं . 
धरती पर हल चलाकर अन्न उपजाना सार्थक काम है, 
भूमि पूजन निरर्थक काम होता है.  
अधिकांश दुन्या इन्ही वास्तविकता और ईमान को कनारे करके  
निरर्थकता और बे ईमानी पर सवार है . 
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 19 August 2019

इस्लामी इंक़्लाब

इस्लामी इंक़्लाब          

आज कल इस्लामी दुन्या में तब्दीली की एक लहर आई हुई है. 
पुरानी बादशाहत, ख़िलाफ़त और सुल्तानी से मुसलमानो का दिल ऊब गया है. 
मिस्र में हुस्नी मुबारक को बहुत दिनों झेलने के बाद उन्हें गद्दी से 
अवाम ने हटा दिया है. 
हटा तो दिया इंक़्लाब बरपा करके मगर अब ले आएं किसको? 
कोई जम्हूरी तहरीक तो वहाँ है, तो आईन मुरत्तब कर रहे हैं कि देखिए क्या करेंगे. फिलहाल उन्हों ने अपने ऐवान से सदर हुस्नी मुबारक की तस्वीर हटा कर उस ख़ाली जगह पर "अल्लाह" की तस्वीर लगा दी गई है. 
मुसलमानों का मुल्क है, 
ज़ाहिर है मुहम्मदी अल्लाह का इक़्तेदार और निज़ाम आने वाला है. 
हर इस्लामी मुल्क में अवाम लाशऊरी तौर पर इस्लाम से बेज़ार है, 
मगर मुट्ठी भर इस्लामी जादूगर कामयाब हो जाते है, 
अवाम फिर उन्हें एक अरसे तक झेलने के लिए मजबूर हो जाती है. 
ये कोई ग़ैर इस्लामी समाज नहीं है कि लोगों में पुर मानी इंक़्लाब 
आने के कोई आसार हों, 
अवाम को नए सिरे से ग़ुमराह किया जायगा नमाज़ रोज़ा हज 
और ज़कात जैसे अरकान में बंधक बना कर, 
मज़हब की अफ़ीमी नशे में उनको फिर से ढकेला जाएगा. 
फिर नए सिरे से ओलिमा के चहीते और सददाम और ग़द्दाफ़ी की 
औलादें ऐश करने के लिए पैदा हो जाएंगी. 
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 18 August 2019

राम नाम

राम नाम 

ISIS और दूसरी इस्लामी तंज़ीमों के मानव समाज पर ज़ुल्म व् सितम देख कर बजरंग दल को हिंदुत्व का जोश आया कि वह भी इन की नक़्ल में प्रतीक आत्मक मुज़ाहिरा करें, 
कि वह भी उनकी तरह मानवता के, ख़ास कर मुसलमानों के दुश्मन हो सकते है. हालांकि इनका प्रदर्शन राम लीला के लीला जैसा हास्य स्पद है. 
मदारियों की शोब्दा बाज़ी की तरह. 
बजरंग दल का कमांडर अकसर स्वर्ण होता है, बाक़ी फ़ौजी दलित और ग़रीब होते हैं. 
वह स्वर्ण इन दलितों को पूर्व तथा कथित वानर सेना आज तक बनाने में सफल है. 
वह इन्हीं में से एक को दास्ता के प्रतीक हनुमान बना देते हैं 
जो अपना सीना चीर कर दलितों को दिखलाता है कि उसके भीतर छत्रीय राम का वास है.
विनय कटिहार, कल्याण सिंह, राम विलास पासवान और उदिति नारायण जैसे सुविधा भोगी हर समाज में देखे जा सकते हैं. यह मौजूदा मनुवाद के दास हनुमान हैं .
12% मनुवादियों ने बाक़ी मानव जाति को राक्षस, पिशाच, वानर, शुद्र, अछूत जैसे नाम देकर इनके साथ अमानवीय बर्ताव किया है. 
इन्हीं में से जिन लोगों ने दासता स्वीकार करके इनके अत्याचार में शाना बशाना हुए और इनके लिए अपनी जान आगे कर दिया, 
उनको हनुमान बना कर उनकी बिरादरी के लिए पूजनीय बना दिया .
राम के आगे हाथ जोड़ कर घुटने टेके हनुमान देखे जा सकते हैं. 
शूर वीरों के लिए, इनकी दूसरी तस्वीर होती है 
सीना फाड़ कर राम सीता की, 
जो आस्था और प्रेम को दर्शाती है, 
उनके दास साथियों के लिए . 
यही नहीं मौक़ा पड़ने पर यह ब्रह्मण भी हनुमान पूजा में शामिल हो जाते हैं मगर उनको अपने घाट पर पानी के लिए फटकने नहीं देते. 
किस क़दर धूर्तता होती है इनके दिमाग़ में. 
जहाँ मजबूर होकर यह दमित सर उठाते हैं, 
तो मनुवाद इनको माओ वादी या नक्सली कह कर दमन करते है.
दमितों के सब से बड़े दुश्मन यही मुसलसल बनाए जाने वाले हनुमान होते हैं. 
यह अपने ताक़त का प्रदर्शन कभी मुसलमानों पर करते हैं तो कभी ईसाइयों पर जोकि अस्ल में दलित और दमित ही होते हैं 
मगर मनुवाद से छुटकारा लेकर धर्म बदल लेते है .
कितनी मज़बूत घेरा बंदी है, मनुवाद की .   

***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 16 August 2019

इंशा अल्लाह

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 इंशा अल्लाह          
      
इंशा अल्लाह का मतलब है ''(अगर) अल्लाह ने चाहा तो.'' 
सवाल उठता है कि कोई नेक काम करने का इरादा अगर आप रखते हैं तो अल्लाह उसमे बाधक क्यूँ बनेगा? अल्लाह तो बार कहता है नेक काम  करो. 
हाँ कोई बुरा काम करने जा रहो तो ज़रूर इंशा अल्लाह कहो, 
अगर वह राज़ी हो जाए? 
वह वाक़ई अगर अल्लाह है तो इसके लिए कभी राज़ी न होगा. 
अगर वह शैतान है तो इस की इजाज़त दे देगा. 
अगर आप बुरी नियत से बात करते हैं तो मेरी राय ये है कि 
इसके लिए इंशा अल्लाह कहने कि बजाए 
''इंशा शैतानुर्रजीम'' 
कहना दुरुस्त होगा. इस बात का गवाह ख़ुद अल्लाह है 
कि वह शैतान से बुरे काम कराता है. 
आपने कोई क़र्ज़ लिया और वादा किया कि मैं फलाँ तारीख़ को लौटा दूंगा. 
आप के इस वादे में इंशा अल्लाह कहने की ज़रुरत नहीं, 
क्यूँ कि क़र्ज़ देने वाले के नेक काम में अल्लाह की मर्ज़ी यक़ीनी है, 
तो वापसी के काम में क्यूँ न होगी? 
चलो मान लेते है कि उस तारीख़ में अगर आप नहीं लौटा पाए तो कोई फाँसी नहीं, जाओ सुलूक करने वाले के पास, 
अपने आप को ख़ता वार की तरह उसको पेश कर दो. 
वह बख़्श दे या जुरमाना ले, उसे इसका हक़ होगा. 
रघु कुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाएँ पर वचन न जाई.
इसी सन्दर्भ में भारत सरकार का रिज़र्व बैंक गवर्नर 
भरतीय नोटों पर वचन देता है- - -
''मैं धारक को एक सौ रूपए अदा करने का वचन देता हूँ'' 
दुन्या के सभी मुमालिक का ये उसूल है, 
उसमें सभी इस्लामी मुल्क भी शामिल है. 
जहाँ लिखित मुआमला हो, चाहे इक़रार नामें हों या फिर नोट, 
कहीं इंशा अल्लाह का दस्तूर नहीं है. 
इंशा अल्लाह आलमी सतेह पर बे ईमानी की अलामत है. 
मुहम्मद ने मुसलमानों के ईमान को पुख़्ता नहीं, 
बल्कि कमज़ोर कर दिया है, 
ख़ास कर लेन देन के मुआमलों में. 
क़ुरआनी आयतें उन पर वचन देने की जगह 
''इंशा अल्लाह'' 
कहने की हिदायत देती हैं, इसके बग़ैर कोई वादा या अपने आइन्दा के अमल को करने की बात को ग़ुनहगारी बतलाती हैं. 
आम मुसलमान इंशा अल्लाह कहने का आदी हो चुका है.
उसके वादे, क़ौल,क़रार, इन सब मुआमलों में अल्लाह की मर्ज़ी पर मुनहसर करता है कि वह पूरा करे या न करे. 
इस तरह मुसलमान इस गुंजाइश का नाजायज़ फ़ायदा ही उठाता है, 
नतीजतन पूरी क़ौम बदनाम हो चुकी है. 
मैंने कई मुसलमानों के सामने नोट दिखला कर पूछा कि अगर सरकारें इन नोटों में इंशा अल्लाह बढ़ा दें और यूँ लिखें कि 
''मैं धारक को एक सौ रूपए अदा करने का वचन देता हूँ , 
इंशा अल्लाह '' 
तो अवाम क्या इस वचन का एतबार करेगी?, 
उनमें कशमकश आ गई. 
उनका ईमान यूँ पुख़्ता हुवा है कि अल्लाह उनकी बे ईमानी पर राज़ी है, 
गोया कोई ग़ुनाह नहीं कि बे ईमानी कर लो. 
इस मुहम्मदी फ़ार्मूले ने पूरी क़ौम की मुआशी हालत को बिगाड़ रख्खा है. 
सरकारी अफ़सर मुस्लिम नाम सुनते ही एक बार उसको सर उठा कर देखता है, 
फिर उसको खँगालता है कि लोन देकर रक़म वापस भी मिलेगी ? 
मेरे लाखों रूपये इन चुक़त्ता मुक़त्ता दाढ़ी दार मुसलमानों में डूबा है. 
क़ौमी तौर पर मुसलमान पक्का तअस्सुबी (पक्षपाती) होता है. 
पक्षपात की वजेह से भी मुसलमान संदेह की नज़र से देखा जाता है .
मेरी तामीर में मुज़्मिर है इक सूरत ख़राबी की (ग़ालिब)
ग़ालिब का ये मिसरा मुसलमानों पर सादिक़ है कि इस्लामी तअलीम ने उनको इंसानी तअलीम  से महरूम कर दिया है. 
मुसलमानों के लिए इससे नजात पाने का एक ही हल है 
कि वह तरके-इस्लाम करके दिलो-व-दिमाग़ से मोमिन बन जाएँ.
दीन दार मोमिन.
दीन= दयानत (सत्यता) + मोमिन = ईमान दार (इस्लामी ईमान नहीं)
***
154 - मुअज्ज़े      
मुहम्मद नें जो बातें हदीसों में फ़रमाया है, 
उन्ही को क़ुरआन में गाया है.
अल्लाह के रसूल ख़बर देते हैं कि क़यामत नजदीक आ चुकी है, 
और चाँद फट चुका है.
मूसा और ईसा की तरह ही मुहम्मद ने भी दो मुअज्ज़े (चमत्कार) दिखलाए, 
ये बात दीगर है कि जिसको किसी ने देखा न गवाह हुआ, 
सिवाय अल्लाह के या फिर जिब्रील अलैहस्सलाम के जो मुहम्मद के दाएँ बाएँ हाथ है.
 एक मुअज्ज़ा था सैर ए कायनात जिसमे उन्हों ने सातों आसमानों पर क़याम किया, अपने पूर्वज पैग़मबरों से मुलाक़ात किया, यहाँ तक कि अल्लाह से भी ग़ुफ़्तुगू की. उनकी बेगम आयशा से हदीस है कि उन्होंने अल्लाह को देखा भी.
दूसरा मुअज्ज़ा है कि मुहम्मद ने उंगली  के इशारे से चाँद के दो टुकड़े कर दिए, 
जिनमें से एक टुकड़ा मशरिक बईद में गिरा और 
दूसरा टुकड़ा मगरिब बईद में जा गिरा.(पूरब और पच्छिम के छोरों पर)
इन दोनों का ज़िक्र क़ुरआन और हदीसों, दोनों में है. 
इस की इत्तेला जब ख़लीफ़ा उमर को हुई तो रसूल को आगाह किया कि 
ऐसी बड़ी बड़ी गप अगर आप छोड़ते रहे तो न आपकी रिसालत बच पाएगी 
और न मेरी ख़िलाफ़त. 
बस फिर रसूल ने कान पकड़ा, कि मुअज्ज़े अब आगे न होंगे.
उनके मौत के बाद उनके चमचों ने अपनी अपनी गवाही में 
मुहम्मद के सैकड़ों मुअज्ज़े गढ़ डाले.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 15 August 2019

मैसुलेनिअस mussolinians


मैसुलेनिअस mussolinians

जो लोग तौरेत (Old Testament) की रौशनी में यहूदियों की फ़ितरत को जानते है, \\वह हिटलर को हक़ बजानिब कहते हैं मगर तारीख़ के आईने में वह मुजरिम ही है. हिटलर को इस कशमकश में भूला जा सकता है 
मगर मसुलीनी (mussolini) को कभी नहीं, 
जिसकी लाश पर जर्मन अवाम ने 24 घंटे थूका था.
भारत में मनुवाद नाज़ियों की ही समानांतर व्यवस्था है.
ट्रेन में अयोध्या के तीर्थयात्री stove पर खाना बनाने की ग़लती के कारण 
हादसे का शिकार हो गए, उनको किसी मुसलमान ने आग के हवाले नहीं किया था.  मनुवादियों ने इस दुरघटना को रूपांतरित करके मुसलामानों को शिकार बनाया, जान व माल का ऐसा तांडव किया कि हादसा इतिसास का एक बाब बन गया.
मुंबई में पाकिस्तानी आतंकियों के हमले को मनुवादियों ने, 
इस तरह मौक़े का फ़ायदा उठाया कि पोलिस अफ़सर करकरे को मरवा दिया जो एक ईमान दार अफ़सर था और हिन्दू आतंकियों की घेरा बंदी किए हुए था, उसको भितर घात करके अपनी एडी का गूं पाक आतंक वादियों की एडी में लगा दिया. इन मनुवादी आतंकियों के विरोध में किसी को बोलने की हिम्मत न थी.
सूरते-हाल ही कुछ ऐसी थी.
मुज़फ्फर नगर में हिन्दू आतंक फैला कर जनता में धुरुवीय करण करने में, यह मनुवादी कामयाब रहे.
उनहोंने एलानिया अल्प संख्यकों के सामने अपने ताण्डव का एक नमूना पेश किया.
मुज़फ़्फ़र नगर के शरणार्थी मुस्लिम आबादी कैराना में शरण गत हुए तो, 
मनुवादियों को नया शोशा मिल गया कि कैराना में मुस्लिम जिहादी सर गर्म हैं, उनके आतंक से हिन्दू पलायन कर रहे है, 
कश्मीर की तरह. 62% की हिन्दू आबादी 8% रह गई है.
यह mussolinian जनता के Vote को कैसे मोड़ते हैं, खुली हुई किताब है. 
उनकी मजबूरी यह है कि देश में जमहूरियत आ गई है, 
वरना इनका पाँच हज़ार साला वैदिक काल की तस्वीर देखी जा सकती है.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

मांसाहार

मांसाहार                

बड़े बड़े ज्ञानी और कभी कभी तो विज्ञानी भी जीव आहार के बारे में 
अज्ञानता और भावुकता पूर्ण बातें करते हैं. 
स्वयंभू बाबा और स्वामी राम देव तो कहते हैं 
मुर्गा नहीं तुम मुर्दा खाते हो, 
ख़ैर ऐसे कुबुद्धों की बात छोडें जिसका ज्ञान प्रमाणित करता हो कि भारत में आयुर्वेद को लाखों, करोरों वर्षों से चला आ रहा है, बतलाते हैं. 
जिनको यह भी नहीं मालूम कि भारत क्या दुन्या को लोहे का ज्ञान भी 
केवल पाँच हज़ार साल पहले तक नहीं था 
और करोरों साल पहले यह धरती जीव धारियों के रहने योग्य हो रही थी. 
राम देव योग्य द्वरा डायबिटीज़ और कैंसर आदि को ठीक करने का दावा करते हैं मगर अपने मुखार बिंदु पर मारे गए लक़वे का इलाज नहीं कर पाते. 
उनके पीछे चलने वाली भेड़या धसान जनता को क्या कहा जाय 
जो दूध में देख कर मक्खी को पीती है. 
मगर जब अग्निवेश जैसे अच्छे, प्यारे और मानवता मित्र मांसाहार को ग़लत क़रार देते है तो ताजुब और अफ़सोस होता है.

आहार भावुकता नहीं, क़ानून क़ायदा नहीं, मज़हबी और धार्मिक पाखण्ड का दायरा नहीं, आहार भौगोलिक परिस्थितयों की मजबूरी है, 
आहार जल वायु के माहौल का तक़ाज़ा है. 
आहार क़ुदरत के नियमों में एक प्राकृतिक नियम है. 
आहार मन की उमंग "जो रुचै सो पचै" है, 
आहार के बारे में विशेष परिस्थितयों में डाक्टर के सिवा किसी को राय देना ही व्योहारिक हक़ नहीं है, उसकी आज़ादी में यह दख़्ल अंदाजी है.
दुन्या का हर जीव किसी न किसी जीव को खाकर ही अपना जीवन बचाता है. 
कोई जीव जड़ (निर्जीव खनिज एवं पत्थर) को खा कर जीवन यापन नहीं कर सकता. 
ग़ौर करें कि पर्शियन फ़िलासफ़ी के अनुसार जीव मुख्यता निम्न चार प्रकार के होते हैं - - -
1-हजरते-इंसान यानी अशरफ़ुल मख़लूक़ात 
(हालाँ कि जिसे नेत्शे धरती का चर्म रोग बतलाता है)
2-हैवानयात यानी जानवर, पानी और ज़नीन के जीव जन्तु
3-बनस्पति
4-खनिज (हालाँकि इन्हें जीव नहीं कहा जा सकता मगर जीव के पोषक हैं)

मैं सबसे पहले जीव नं 4 को लेता हूँ कि यह बेचारे भूमि के गर्भ में पड़े रहते हैं और बनस्पति को अपनी ऊर्जा सप्लाई किया करते हैं. 
विभिन्न प्रकार के दानो की लज्ज़त, फलों का स्वाद और फूलों कि ख़ुशबू, 
इन्हीं गड़ी हुई खनिजों की बरकत है. 
अरब में खजूरें बहुत होती हैं, हो सकता है कि 
वहां पाई जाने वाले डीज़ल की बरकत हो. 
इसी तरह संसार में हर हर हिस्से में पाए जाने वाली खनिजें 
उस जगह की पैदावार हैं. यह खनिजें चाहती हैं कि इन का भरपूर दोहन हो. 
इन के दोहन से ही दुन्या शादाब हो सकती है.
ये है क़ुदरत का कानून.
अगर खनिज को आप ने जड़ नुमाँ अर्ध जीव मान लिया हो तो आगे बढ़ते हैं.  

जीव की तीसरी प्रजाति यह बनस्पतियाँ हैं. 
जी हाँ! ये सिद्ध हो चुका है इनमें जान है, एहसास है जीने की चाह है, 
उमंग और तरंग है, फ़र्क़ इतना है कि यह हरकत के लिए हाथ पाँव नहीं रखते, 
प्रतिवाद के लिए ज़बान नहीं रखते, 
ख़ामोश खड़े रहते हैं आप कुल्हाडी से इनका काम तमाम कर दीजिए, 
उफ़ तक नहीं करेंगे. 
पालक को जड़ से उखाड़ लीजिए, चाकू से टुकड़े टुकड़े कर दीजिए, 
देग़ची में डाल कर आग में भून डालिए, 
वह बेज़बान कोई एहतेजाज नहीं करेगी, 
वर्ना उसे तो अभी फूलना फलना था, फ़ज़ा में लहलहाना था, 
अपने गर्भ में अपने बच्चों के बीज पालने थे. 
बहुत से बीजों से, फिर धरती पर उसकी अगली नस्लों जा जनम होता 
जिनकी आप ने ह्त्या कर दी. 
बनस्पति आपसे बच भी गई तो उसे जानवर कहाँ बख़्शने वाले है. 
वह तो उनकी ख़ूराक है. उस पर क़ुदरत ने उनको पूरा पूरा हक़ दिया हुवा है. 
घोड़ा घास से यारी नहीं कर सकता. 
हम बनस्पति को बोते हैं सींचते, पालते, पोसते हैं, किस लिए ? 
कि इन पर हमारी ख़ूराक का हक़ हमें हासिल है. 
खनिजों की तरह ग़ालिबन इनकी भी दिली आरज़ू होती होगी कि 
यह भी प्राणी के काम आएँ. 
खनिजों पर बनस्पतियों का जन्म सिद्ध अधिकार है, 
साथ साथ पशु और मानव जाति का हक़ भी है. 
बनस्पतियों पर पशु जीव जंतु और मानव जाति का जन्म सिद्ध अधिकार होता है, 
इन दोनों हक़ीक़तों के क़ायल अगर आप हो चुके हों तो हम तीसरे पर आते हैं.

बनस्पतियों के बाद अब बारी है जीव धारी पशु पक्षियो की, जिन पर क़ुदरत ने अशरफ़ुल मख़लूक़ात इंसान को जन्म सिद्ध अधिकार दिया है, 
कि वह उनका दोहन और भोजन करे, मगर हाँ! 
आदमी को पहले आदमी से अशरफ़ुल मख़लूक़ात इंसान बन्ने की ज़रुरत है. 
जानवरों को तंदुरुस्त और दोस्त बना कर रखने की ज़रुरत है, 
उन्हें इतना प्यार दें कि वह आप की तरफ़ से निश्चिन्त हों और 
उनको अचेत करके ही मारें, 
उनकी चेतना में इंसानों की तरह कोई प्लानिग नहीं है, 
क्षनिक वर्तमान ही उनकी मुकम्मल ख़ुशी है. 
उनके वर्तमान का ख़ून मत करिए. 
पेड़ पौदे भाग कर जान बचने में असमर्थ होते हैं और जानवर, 
जीव जंतु समर्थ मगर किसे मालूम है कि 
मरने में किसे कष्ट ज़्यादा होता है? 
हम अपने तौर पर समझते हैं कि जानवर चूंकि प्रतिरोध ज़्यादा करते हैं 
और पेड़ खड़े खड़े ख़ुद को कटवा लेते हैं, 
इस लिए जानवर पर दया करना चाहिए मगर शायद यह हमारी भूल है. 
आदमी आदमी का क़त्ल कर दे तो जुर्म, सज़ा ए मौत तक तक हो सकती है, 
क्यूँ कि वह जानवर से दो क़दम आगे है, 
यानी फ़रियाद करने के लिए उसके पास ज़बान है और 
अपने हम ज़ाद को बचाने की अक़ली दलील. 
गहरे से सोचें तो ख़ून दरख़्त का हो, हैवान का हो और चाहे इंसान का हो सब ख़ून है, 
हमने अपनी सुविधा के अनुसार इसे पाप पुन्य का दर्जा दे रखा है.
जानवरों को इंसानी ग़िज़ा अगर न बनाया जाय तो यह स्वयं उन पर ज़ुल्म है कि 
इस तरह उनका भला नहीं हो सकता और एक दिन वह 
ख़ात्मे की कगार पर आ जाएँगे, 
नमूने के तौर पर अजायब घरों की जीनत भर रह पाएंगी, 
जैसे गायों की दशा भारत में हो रही है. 
दूध पूत के बाद एक गाय का अंत उसके ब्योसयिक अंगों पर ही निर्भर करता है. 
जिस देश में आदमीं को दो जून की रोटी न मिलती हो वहां बूढ़ी गाय 
को बिठा कर कौन खिलएगा. 
शिकागो में दूध की एक निश्चित मात्रा के बाद लाखों गाएँ हर महीने काट दी जाती हैं.

 खाद्य बकरियाँ साल में दो बच्चे देती हैं और उनके गोश्त से दुकानें अटी हुई हैं 
और अखाद्य कुतियाँ साल में छ छ बच्चे देती हैं मगर उनमें एकाध ही बच पाते हैं. 
नॉन फर्टलाइज़ अण्डों एवं ब्रायलर्स (मुर्ग) ने इंसानी ख़ूराक का मसला हल करने में काफ़ी योगदान किया है जो कि नई ईजाद है .
नारवे जैसे देशों में शाकाहार बहुत अस्वाभाविक है, उनको इंपोर्ट करना पड़ेगा, 
शायद उनको सूट भी न करे और उनको पसंद भी न आए, 
इस लिए उनकी पहली पसंद बारह सिंघा है और दूसरी पसंद भी बारह सिघा और आख़री पसंद भी बारह सिंघा.
एक दिन आएगा कि मानव समाज की मानवता अपने शिखर विन्दु को छुएगी 
जब हिष्ट-पुष्ट एवं निरोग मानव शरीर अपने अंत पर प्रकृति को अपने ऊपर लदे 
क़र्ज़ को वापस करता हुवा इस दुनिया से विदा होगा. 
जब उसका शरीर मशीन के हवाले कर दिया जाएगा, 
जिसको कि वह ऑटो मेटिक विभाजित करके 
महत्त्व पूर्ण अंग को मेडीकल साइंस के हवाले कर देगी, 
मांस को एनिमल्स, बर्डस और फिशेस फ़ूड के प्रोसेस में मिला दिया जाएगा 
तथा हड्डियों को यूरिया बना कर बनास्प्तियों का क़र्ज़ लौटाया जाएगा. 
न मरने में सात मन कारामद लकड़ी जल कर बर्बाद होगी, न एक पीपा घी, 
न बाईस गज़ नए कपड़े का कफ़न लगेगा और न कबरें बनेंगी, 
न सैकड़ों लोगों के हज़ारों वर्किंग आवर्स बर्बाद होंगे, 
न ताबूत की क़ीमत ज़ाया होगी और न मुर्दे के तन पर सजा हुवा 
उसका क़ीमती लिबास ज़मीन में गड़ेगा. 
जो कुछ ज़िंदों को मयस्सर नहीं, 
तमाम रस्मो-रिवाज यह मानवता का शिखर विदु दफ़्न कर देगा.
(शाकाहारियों से क्षमा के साथ)
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 12 August 2019

पाप और महा पाप है.

पाप और महा पाप है.

शरीर में लिंग बहुत उपयोगी और सदुपयोगी पार्ट है, 
चाहे स्त्री लिंग हो अथवा पुल्लिंग.
बस कि नपुंसक लिंग एक हादसा हो सकता है.
एक हदीस में पैगंबर कहते है कि 
"अगर कोई शख़्स मेरी ज़बान और मेरे लिंग पर मुझे क़ाबू दिलादे तो उसके आक़बत की ज़मानत मैं लेता हूँ." 
यह इस्लामी हदें या बेहदें हुईं.
बहरहाल एतदाल (संतुलन) तो होना ही चाहिए. 
मुसलमान असंतुलित हैं मगर सीमा में रह कर. 
शादियाँ चार हो सकती हैं, इन में से किसी एक को तलाक़ देकर पांचवीं से निकाह करके पुरानी को Renew कर सकते हैं 
और यह रिआयत ता ज़िन्दगी बनी रहती है. 
पैग़म्बर के दामाद अली ने 18 निकाह किए और अली के बेटे हसन ने 72. 
 मुसलमानों का कोई गोत्र नहीं होता, 
उल्टा यह गोत्र में शादियाँ तरजीह को देते हैं. 
बस कि सगी बहेन और न बीवी की बहन न हो.
हिन्दुओं के शास्त्र कुछ अलग ही सीमा बतलाते हैं कि 
इंद्र देव और कृष्ण भगवानों ने हज़ारों पत्नियों का सुख भोगा. 
इनके पूज्य कुछ देव बहन और बेटियों का भी उपयोग किया है. 
इनमे बहु पत्नियाँ ही नहीं एक पत्नी के बहु पति भी हुवा करते थे. 

चीन में अभी की ख़बर है कि मुसलमानों की दाढ़ी और ख़तने पर भी 
पाबन्दी लगा दी  गई है. यह ख़ुश ख़बरी है, 
वहां इस्लाम के सिवा किसी धर्म का अवशेष नहीं बचा. 
हिदुस्तान में देव रूपी खूंखार धर्म हिदू धर्म है 
जिसकी आत्मा इस्लाम में क़ैद है. 
इस्लाम पर कोई भी ज़र्ब हिन्दू देव को घायल करती है. 
इनको छूट देने पर ही हिंदुत्व का भला और बक़ा है 
वरना महा पाप का देव गया पानी में. 
जी हाँ ! इस्लाम अगर धरती पर पाप है तो मनुवाद धरती पर महा पाप है.
इस्लाम जो हो जैसा भी हो खुली किताब है, हिन्दू धर्म का तो कोई आकार ही नहीं.
वेद में कुछ लिखा है तो पुराण में कुछ. उपनिषद तो कुछ और ही कहते हैं.
हिंदी मानुस सब पर भरोसा करते हैं कि पता नहीं कौन सच हो 
और उसे न मान कर पाप लगे. 
एक वाक़ेए की हक़ीक़त दस पंडितो की लिखी हुई गाथा में दस अलग अलग सूरतें हैं. 
विष्णु भगवान की उत्पत्ति मेंढकी की योनि से लेकर गौतम बुद्ध तक पहुँचती है. 
ब्रह्मा के शरीर से निर्माण किया गया यह ब्रह्माण्ड, 
बम बम महा देव एक युग को ही बम से भस्म कर देते हैं. 
इस क़दर अत्याचार ? 
इसके आगे इस्लामी जेहादियों का क़त्ल व ख़ून पिद्दी भर भी नहीं.
मनुवाद 5000 सालों से मानवता को भूखा नंगा और अधमरा किए हुए 
अपने क़ैद खानें रख्खे हुए है, 
जिहादी 5000 सालों में 500 बार अपने अनजाम को पंहुचे .  
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 11 August 2019

عید کی محرومیاں


عید کی محرومیاں

کیسی ہیں عید کی خوشیاں ، یہ نقاہت جیسی 
جشن قرضے کی طرح ، نعمتیں قیمت جیسی 
عید کا چاند ، خوشی لےکے کہاں آتا ہے ؟
گھر کے مکھیہ پہ ، نئے پن کے ستم ڈھاتا ہے ٠

زیبِ تن کپڑے نئے ہوں ، تو خوشی عید ہے کیا ؟
فکرِ غربہ کے لئے ، حق کی یہ تائید ہے کیا ؟
قوم کی لعنتیں ہیں ، فطرہ و خیرات و زکات ،
ٹھیکرے بھیکھ کے ، ٹھنکاتی ہے عمرہ کی جماعت ٠

پانچ وقتوں کی نمازیں ہیں ادا روزانہ 
آج کے روز اضافی ہے ، سفرِ دوغانا 
ان کی کثرت سے ، کہیں کوئی خوشی ملتی ہے ؟
اس کی ییاری میں ہی ، نصف صدی لگتی ہے ٠

آج کے دن تو نمازوں سے بری کرنا تھا 
چھوٹ اس دن کے لئے مے بہ لبی کرنا تھا 
نو جواں دیو و پری کے لئے میلے ہوتے 
محوِ انفاس میں ہر جوڑے اکیلے ہوتے ٠

ان چھئے جسم ، نئے لمس کی لذّت پاتے 
انتخباتِ نظر ، رتبۂ فطرت پا تے 
حسن کے رخ پہ ، شریعت کا نہ پردہ ہوتا 
متقی ، پیر ، فقیہوں کو یہ مژدہ ہوتا ٠

ہم سفر چننے کی ، یہ عید اجازت دیتی 
فطرت خلق کو ، سنجیدگی فرست دیتی 
عید آئ ہے ، مگر دل میں چبھی پھانس لئے 
قربِ محرومی لئے ، گھٹتی ہوئی سانس لئے ٠ 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

ईद की महरूमियाँ 1

ईद की महरूमियाँ 1

कैसी हैं ईद की ख़ुशियाँ, यह नक़ाहत२ की तरह,
जश्न क़र्ज़े की तरह, नेमतें क़ीमत की तरह.
ईद का चाँद ये, कैसी ख़ुशी को लाता है,
घर के मुखिया पे नए पन के सितम ढाता है.

ज़ेब तन कपड़े नए हों तो ख़ुशी ईद है क्या?
फ़िक्र-ए-गुर्बा३ के लिए हक़४ की ये ताईद५ है क्या?
क़ौम पर लअनतें हैं फ़ित्रा व् ख़ैरात व् ज़कात६ ,
ठीकरे भीख की ठंकाए है, उमरा७ की जमाअत.

पॉँच वक़तों  की नमाज़ें हैं अदा रोज़ाना,
आज के रोज़ अज़ाफ़ी है सफ़र८ दोगाना.
इसकी कसरत से कहीं दिल में ख़ुशी होती है,
भीड़ में ज़िन्दगी तनहा सी पड़ी होती है.

ईद के दिन तो नमाज़ों से बरी करना था,
छूट इस दिन के लिए मय-ब-लबी करना था.
नव जवाँ देव परी के लिए मेले होते,
अपनी दुन्या में दो महबूब अकेले होते.

रक़्स होता, ज़रा धूम धड़ाका होता,
फुलझड़ी छूटतीं, कलियों में धमाका होता.
हुस्न के रुख़ पे शरीयत९ का न परदा होता,
मुत्तक़ी१०,पीर, फ़क़ीहों११, को ये मुजदा१२, होता.

हम सफ़र चुनने की यह ईद इजाज़त देती,
फ़ितरते ख़ल्क़१३ को संजीदगी फ़ुर्सत देती.
ईद आई है मगर दिल में चुभी फांस लिए,
क़र्बे१४ महरूमी लिए, घुट्ती हुई साँस लिए.

१-वनचित्ता २-कमजोरी ३-गरीबों की चिंता ४-ईश्वर 5-समर्थन 
६-दान की विधाएँ ७-धनाड्य ८-ईद की नमाज़ को दोगाना कहते ९-धर्मं विधान 
१०-सदा चारी  11-धर्म-शास्त्री १३-खुश खबरी १3-जीव प्रवर्ति14-वंचित की पीड़ा


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

हज


हज 

हज जैसे ज़ेह्नी तफ़रीह में कोई तख़रीबी पहलू नज़र नहीं आता, 
सिवाय इसके कि ये मुहम्मद का अपनी क़ौम के लिए एक मुआशी ख़्वाब था. 
आज समाज में हज, हैसियत की नुमाइश एक फैशन भी बना हुवा है. 
दरमियाना तबक़ा अपनी बचत पूंजी इस पर बरबाद कर के अपने बुढ़ापे को 
ठन ठन गोपाल कर लेता है,
जो अफ़सोस का मुक़ाम है.
हज हर मुसलमान पर एक तरह का उस के मुसलमान होने का क़र्ज़ है,
जो मुहम्मद ने अपनी क़ौम के लिए उस पर लादा है.
उम्मी की इस सियासत को दुन्या की हर पिछ्ड़ी हुई क़ौम ढो रही है.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

क़ुरबानी

क़ुरबानी    

क़ुरबानी यानी बलिदान,
इस पाक और मुक़द्दस लफ़्ज़ को इस्लाम ने पामाल कर रख्खा है.
जानवरों का सामूहिक बद्ध को क़ुरबानी बना रक्खा है. 
क़ुरबानी और हज आज हैसियत का मुज़ाहिरा बन चुकी है.
क़ुरबानी इस वक़्त मुफ़्त खो़रों और हराम खो़रों की गिज़ा बन चुकी है.
क़ुरबानी ग़रीब और मज़बूर से उन की ग़ैरत छीन लेती है.
मक्के में क़ुरबानी का आलम ये है कि जितने हाजी होते हैं उतनी ही हैवानी जाने कुर्बान होती हैं. ज़ाहिर है कि एक हाजी एक बकरा तो खा नहीं सकता, 
गोश्त को रेगिस्तानो में दफन कर दिया जाता था, अब नहीं. 
दुन्या में कोई क़ौम  होगी जो इतनी बड़ी जिहालत को क़ुरबानी कहती हो ?
नेपाल में भी किसी मौके पर भैसों का कत्ल आम होता है, 
पूरा मैदान भैसों की लाशों से पट जाता है.
यह दुन्या के दूसरे नंबर के जाहिल हिन्दू होते हैं.
संविधान में मानव बलि एवं पशु बलि को जुर्म क़रार दे कर जीवों की सुरक्षा की गई है, जिसे मुस्लिम को छोड़ कर 99% अवाम ने मान लिया है.
मुसलमानों को पशु बलि की पूरी पूरी छूट है. यह बात दूसरों को अखरती है.
यह असली तुष्टीकरण करण है. इसके ख़िलाफ़ अवामी आवाज़ उठनी चाहिए .
 ***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

बकरीद(बक्र+ईद)


बकरीद(बक्र+ईद)     
     
बक्र के माने गाय के होते हैं जिसको आम तौर पर बकरा समझा जाता है.
जानवरों का क़त्ल आम  बकरीद है. 
धार्मिक अंध विश्वास के तहत आज क़ुरबानी का दिन है. 
अल्लाह को प्यारी है, क़ुरबानी.
 अब अगर अल्लाह ही किसी अनैतिक बात को पसंद करता हो, 
तो बन्दे भला कैसे उसको राज़ी करने का भर पूर मुज़ाहिरा न करेंगे, 
भले ही यह हिमाक़त का काम क्यूं न हो. 
वैसे अल्लाह को क़ुरबानी अगर प्यारी है तो मुसलमान अपनी औलादों की क़ुरबानी किया करे. जानवरों की क़ुरबानी कोई बलिदान है क्या? 
मुसल्मान अपनी औलादों को सूली पर चढ़ाएँ, 
अगर अल्लाह ख़ुश होगा तो बेटा मेंढा में तब्दील हो जाएगा.

क़ुरबानी की कहानी ये है कि - - -
बाबा इब्राहीम की कोई औलाद न थी. 
उनकी पत्नी जवानी पार करने के हद पर आई तो उसने अपने शौहर को राय दिया कि वह मिसरी लोंडी हाजरा को उप पत्नी बना ले ताकि वह उसकी औलाद से अपना वारिस पा सके. इब्राहीम राज़ी हो गया.
उसके बाद हाजिरा हामला हुई और इस्माईल पैदा हुवा , 
मगर हुवा यूं कि थोड़े अरसे बाद सारा ख़ुद हामिला हुई और उससे इशाक पैदा हुवा. 
इसके बाद सारा, हाजिरा और उसके बेटे से जलने लगी. 
सारा ने हाजिरा से ऐसी दुश्मनी बाँधी कि पहली बार हामला हाजिरा को घर से बाहर कर दिया. वह लावारिस दर बदर मारी मारी फिरी और आख़िर सारा से बिनती की माफ़ी मांगी तब  घर दाख़िल हुई. 
जब इस्माईल पैदा हुवा तो सारा और भी कुढ़ ने लगी, 
फ़िर जब ख़ुद इशाक की माँ बनी तो एक दिन अपने शौहर को इस बात पर अमादा कर लिया कि वह हाजिरा के बेटे को अल्लाह के नाम पर क़त्ल कर दे. 
इब्राहीम इसके लिए राज़ी तो हो गया मगर उसके दिल में कुछ और ही था. 
वह अलने बेटे इस्माईल को लेकर घर से दूर एक पहाड़ी पर ले गया, 
रास्ते में एक दुम्बा भी ख़रीद लिया और इस्माईल की क़ुरबानी का ख़ाका तैयार किया. कि "इस्माईल की जगह अल्लाह ने दुम्बा ला खड़ा किया" 
जिसमे वह कामयाब रहा.
जो आज क़ुरबानी के रस्म की सुन्नत बन गई है. 
इस नाटक से दोनों बीवियों को इब्राहीम ने साध लिया. 
जब इब्राहीम ने अपने बेटे की क़ुरबानी दी तो अकेले वह थे और उनका अल्लाह, 
बेटा मासूम था गोदों में खेलने की उसकी उम्र थी. यानी कोई गवाह नहीं था, 
सिर्फ़ अल्लाह के जो अभी तक अपने वजूद को साबित करने में नाकाम है, 
जैसे कि तौरेत, इंजील और क़ुरआन  के मानिंद उसे होना चाहिए. 
दीगर कौमें वक़्त के साथ साथ इस क़ुरबानी के वाक़िए को भूल गईं जो इब्राहीम ने अपने दो बीवियों के झगड़े का एक हल निकाला , 
मगर मुसलमानो ने इसको उनसे उधार लेकर इस फ़ितूर पर क़ायम हैं. 
हिदुस्तान मे भी ये पशु बलि और नर बलि की कुप्रथा थी, 
मगर अब ये प्रथा जुर्म बन गई है.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 9 August 2019

मुसलमानो की क़समें

मुसलमानो की क़समें        

मुसलमानो को क़समें खाने की कुछ ज़्यादः ही आदत है 
जो कि इसे विरासत में इस्लाम से मिली है. 
मुहम्मदी अल्लाह भी क़स्में खाने में पेश पेश है 
और इसकी क़समें अजीबो ग़रीब है. 
उसके बन्दे अपने ख़ालिक़ की क़सम खाते हैं, 
तो अल्लाह जवाब में अपनी मख़लूक़ की क़समें खाता है, 
मजबूर है अपनी हेकड़ी में कि उससे बड़ा कोई है नहीं कि 
जिसकी क़समें खा कर वह अपने बन्दों को यक़ीन दिला सके, 
उसके कोई माँ बाप नहीं कि जिनको क़ुरबान कर सके. 
इस लिए वह अपने मख़लूक़ और तख़लीक़ की क़समें खाता है. 
क़समें झूट के तराज़ू में पासंग (पसंघा) का काम करती हैं 
वर्ना ज़बान के "ना का मतलब ना और हाँ का मतलब हाँ" 
ही इंसान की क़समें होनी चाहिए. 
अल्लाह हर चीज़ का खालिक़ है, सब चीज़ें उसकी तख़लीक़ है, 
जैसे कुम्हार की तख़लीक़ माटी के बने हांड़ी, कूंडे वग़ैरा हैं, 
अब ऐसे में कोई कुम्हार अगर अपनी हांड़ी और कूंडे की क़समें खाए तो कैसा लगेगा? और वह टूट जाएँ तो कोई मुज़ायका नहीं, 
कौन इसकी सज़ा देने वाला है. 
क़ुरआन  माटी की हांड़ी से ज़्यादः है भी कुछ नहीं.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान