Saturday 30 November 2019

मुग़ीरा इब्ने शोअबा


मुग़ीरा  इब्ने शोअबा

मुहम्मद का साथी सहाबी की हदीस है कि इन्होंने (मुग़ीरा इब्ने शोअबा) एक क़ाफ़िले का भरोसा हासिल कर लिया था फिर ग़द्दारी और दग़ा बाज़ी की मिसाल क़ायम करते हुए उस क़ाफ़िले के तमाम लोगो को सोते में क़त्ल करके मुहम्मद के पनाह में आए थे और वाक़ेआ को बयान कर दिया था, फिर अपनी शर्त पर मुसलमान हो गए थे. (बुखारी-1144)
मुसलमानों ने उमर द ग्रेट कहे जाने वाले ख़लीफ़ा के हुक्म से जब ईरान पर 
लुक़मान इब्न मुक़रन की क़यादत में हमला किया तो ईरानी कमान्डर ने 
बे वज्ह हमले का सबब पूछा था तब  
इसी मुग़ीरा ने क्या कहा ग़ौर फ़रमाइए - - -
''हम लोग अरब के रहने वाले हैं. हम लोग निहायत तंग दस्ती और मुसीबत में थे. 
भूक की वजेह से चमड़े और खजूर की ग़ुठलियाँ चूस चूस कर बसर औक़ात करते थे. 
दरख़्तों  और पत्थरों की पूजा किया करते थे. 
ऐसे में अल्लाह ने अपनी जानिब से हम लोगों के लिए एक रसूल भेजा. 
इसी ने हम लोगों को तुमसे लड़ने का हुक्म दिया है, 
उस वक़्त तक कि तुम एक अल्लाह की इबादत न करने लगो या 
हमें जज़िया देना न क़ुबूल करो.
 इसी ने हमें परवर दिगार के तरफ़ से हुक्म दिया है कि जो जेहाद में क़त्ल हो जाएगा 
वह जन्नत में जाएगा और जो हम में ज़िन्दा रह जाएगा 
वह तुम्हारी गर्दनों का मालिक होगा.
(बुखारी 1289)
हम मुहम्मद की अंदर की शक्ल व सूरत उनकी बुनयादी किताबों क़ुरआन और हदीस में अपनी खुली आँखों से देख रहे हैं. मेरी आँखों में धूल झोंक कर उन नुतफ़े-हराम ओलिमा की बकवास पढ़ने की राय दी जा रही है 
जिनको पढ़ कर उबकाई आती है कि झूट और इस बला का. 
मुझे तरस आती है और तअज्जुब होता है कि 
यह अक़्ल से पैदल मुसलमान उनकी बातों को सर पर लाद कैसे लेते हैं ?
***मुग़ीरा  इब्ने शोअबा
मुहम्मद का साथी सहाबी की हदीस है कि इन्होंने (मुग़ीरा इब्ने शोअबा) एक क़ाफ़िले का भरोसा हासिल कर लिया था फिर ग़द्दारी और दग़ा बाज़ी की मिसाल क़ायम करते हुए उस क़ाफ़िले के तमाम लोगो को सोते में क़त्ल करके मुहम्मद के पनाह में आए थे और वाक़ेआ को बयान कर दिया था, फिर अपनी शर्त पर मुसलमान हो गए थे. (बुखारी-1144)
मुसलमानों ने उमर द ग्रेट कहे जाने वाले ख़लीफ़ा के हुक्म से जब ईरान पर 
लुक़मान इब्न मुक़रन की क़यादत में हमला किया तो ईरानी कमान्डर ने 
बे वज्ह हमले का सबब पूछा था तब  
इसी मुग़ीरा ने क्या कहा ग़ौर फ़रमाइए - - -
''हम लोग अरब के रहने वाले हैं. हम लोग निहायत तंग दस्ती और मुसीबत में थे. 
भूक की वजेह से चमड़े और खजूर की ग़ुठलियाँ चूस चूस कर बसर औक़ात करते थे. 
दरख़्तों  और पत्थरों की पूजा किया करते थे. 
ऐसे में अल्लाह ने अपनी जानिब से हम लोगों के लिए एक रसूल भेजा. 
इसी ने हम लोगों को तुमसे लड़ने का हुक्म दिया है, 
उस वक़्त तक कि तुम एक अल्लाह की इबादत न करने लगो या 
हमें जज़िया देना न क़ुबूल करो.
 इसी ने हमें परवर दिगार के तरफ़ से हुक्म दिया है कि जो जेहाद में क़त्ल हो जाएगा 
वह जन्नत में जाएगा और जो हम में ज़िन्दा रह जाएगा 
वह तुम्हारी गर्दनों का मालिक होगा.
(बुखारी 1289)
हम मुहम्मद की अंदर की शक्ल व सूरत उनकी बुनयादी किताबों क़ुरआन और हदीस में अपनी खुली आँखों से देख रहे हैं. मेरी आँखों में धूल झोंक कर उन नुतफ़े-हराम ओलिमा की बकवास पढ़ने की राय दी जा रही है 
जिनको पढ़ कर उबकाई आती है कि झूट और इस बला का. 
मुझे तरस आती है और तअज्जुब होता है कि 
यह अक़्ल से पैदल मुसलमान उनकी बातों को सर पर लाद कैसे लेते हैं ?
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 28 November 2019

हिंदुत्व का बंजर भविष्य


हिंदुत्व का बंजर भविष्य 

अरब के असभ्य कबीलाई बददू  आज भी अपनी पुरानी ख़सलतों के मालिक हैं.
इनकी फ़ितरत में जन्मा इस्लाम बहुत से अपने क़बीलाई रंग ढ़ंग रखता है. 
लड़ाई झगड़े, लूट मार, जंग जदाल इनकी ख़ू  हुवा करती है. 
यह समझते हैं कि इनकी बहादुरी, 
इन्हीं तलवार बाजियों के दम पर क़ायम रहती है. 
अगर अपने इस रवय्ये को यह छोड़ दें तो एक दिन ग़ुलाम बन जाएँगे. 
ग़ुलामी को यह मौत से बदतर समझते हैं. 
इनकी फ़ितरत क़ब्ल इस्लाम हज़ारों साल पहले से लेकर आज तक क़ायम है. 
इनको अपनों के मर जाने का कोई ग़म नहीं होता, 
तीन दिन से ज़्यादः किसी की मौत का शोक मनाना इनमें हराम होता है.
इनमें नस्ल अफ़जाई की भी बला की क़ूवत होती है. 
दर्जन भर बच्चे पैदा करना इनकी आम औसत है. 
बस ख़ुश हाली और सत्ता इन्हें दरकर है, 
जिसके लिए वह हर वक़्त आमादा ए जंग रहते हैं. 
अलकायदा, जैश ए मुहम्मद, हुर्रियत, तालिबान और ISIS तक, 
इनके वर्तमान के नमूने हैं.  

इसके बर अक्स हम बर्र ए सग़ीर के लोग अरबियों से उलटी फ़ितरत के हुवा करते हैं. हर हाल में अम्न और अहिंसा पसंद होते हैं. 
मार लो, काट लो, लतया लो, घुसया लो, दास बना लो, दासियाँ बना लो, 
मुंह में थुकवा लो, हम हर हाल में जिंदा रहना चाहते हैं. 
इसका नया रूप सहिष्णुता है.
यह मुसलमान कहे जाने वाले हमारी उन बहन बेटियों की संताने हैं, 
जिन्हें हमारे अहिंसक पूर्वजों ने मुस्लिम लड़ाकों को समर्पित कर दिया था. 
यह सब दोग़ले हैं हिन्दू कायरता और अरबी वह्शत गरदी का मुरक्कब. 
यह शाका हारी, मांसा हारी हो गए अपने मातृ पूर्वजों के करण, 
जंग जू हो गए अपने पितृ पूर्वजों के कारण. 
इनकी खेती बाड़ी ज़रखेज़ होती है. 
यह मुट्ठी भर दोग़ले जिस ज़मीन पर छिड़क दिए जाएं, 
देखते ही देखते हरी भरी फ़सल बन जाते हैं. 
यह अपनी तान के तंबू तानते हुए दो दो पकिस्तान बना लेते हैं.  
इंशा अल्लाह बचे हुए भारत में भी एक दिन इनका तम्बू तन जाएगा. 
हिन्दू कुश की हिन्दू कुशी करते हुए भारत को यह  हिन्दुस्तान बन लेंगे. 
भारत योगी भूमि, स्वामी भूमि, साधु और साधुवी भूमि, ब्रहम चर्य भूमि 
बनते बनते एक दिन हिंदुत्व की बंजर भूमि बन जाएगी. 
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 27 November 2019

हिन्दू ख़ुद अपना दुश्मन



हिन्दू  ख़ुद अपना दुश्मन 

कूप मंडूक RRS के सपने मुस्लिम विरोध पर ही नहीं टिकते, 
आज के दलित कहे जाने वाले, कल के शुद्र, असली आदि वासियों 
के विरोध पर ही आधारित हैं, 
कहा जा सकता है कि तमाम मानव जाति का और मानवता का विरोधी है. 
सिर्फ़ मुठ्ठी भर बरहमान को छोड़ कर.
दूर दर्शिता में तो इसे अँधा भी कहा जा सकता है.
आज़ाद भारत में कुछ प्रितिशत बरहमन सत्ता पर ज़रूर विराजमान है, 
बाकी का हाल कहीं कहीं पिछड़ों से भी पीछे हैं. 
इनकी आबादी का प्रितिशत भी बाकियों से पीछे है. 
मनुवाद ने इनका भी नुक़सान किया है, शूद्रों को पामाल किया सो किया.
इनकी काट भी दर पर्दा इस्लाम करता है, जब कभी दलित दमित समाज इन से कोपित होकर धर्म परिवर्तन की धमकी देता है 
जिसकी शरण स्थली इस्लाम होता है.
इस्लाम ने भारत का नक़्शा बदला है. 
एक बड़ा हिस्सा जो मामा शकुनी और गंधारी के ऐतिहासिक कर्म भूमि था, 
आज मनुवाद से मुक्त हो चुका है, यह बात अलग है कि फ़िलहाल इस्लाम ग्रस्त है. 
बंगाल में एक दलित जिसे उर्फे-आम में काला पहाड़ कहा जाता था, 
जगा तो 95% शूद्र जो जानवर से बदतर ज़िन्दगी ग़ुज़ार रहे थे, 
सभों ने इस्लाम क़ुबूल कर लिया और मनु वादियों को ऐसी सज़ा दी कि 
उन्हें उसे भागे राह न मिली. 
काला पहाड़ जिसने मुस्लिम शाशक के सामने इस शर्त पर इस्लाम कुबूल किया था कि उसे फ़ौज में बड़ा ओहदा दे दिया जाए. 
ताक़त मिलने के बाद, उसकी एक आवाज़ पर सारे शूद्र मुसलमान हो गए, 
नतीजतन बरह्मानों को भागे राह न मिली और थक हार के वह भी मुसलमान हो गए.
शेख़ मुजीबुर रहमान और शेख़ हसीना जैसे कल के बरहमन ही हुवा करते थे.
एक बड़ा भू भाग मनुवाद से मुक्त होकर अलग देश बन गया है. 
पश्चिमी बंगाल में भी काला पहाड़ की बरकत देखी जा सकती है.
RRS होश के नाख़ून ले, कहीं कोई दूसरा काला पहाड़ जन्मा तो मुसलामानों को पाकिस्तान भेजने वाले, ख़ुद कहाँ जाएँगे ? 
आजकी सच्चाई सिर्फ़ शुद्ध मानवता वाद में ही देश और देश वासियों की मुक्ति है.
न इस्लाम और न ही  हिदुत्व में.  
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 26 November 2019

अबू लहब


अबू लहब   

अबू लहब मुहम्मद के सगे चाचा थे, 
ऐसे चाचा कि जिन्हों ने चालीस बरस तक अपने यतीम भतीजे मुहम्मद को 
अपनी अमाँ और शिफक़त में रक्खा. 
अपने मरहूम भाई अब्दुल्ला की बेवा आमना के कोख जन्मे मुहम्मद की 
ख़बर सुन कर अबू लहब ख़ुशी से झूम उट्ठे और अपनी लौड़ी को आज़ाद कर दिया, 
लौड़ीने बेटे की ख़बर दी थी और उसकी तनख्वाह मुक़र्रर कर के 
मुहम्मद को दूध पिलाई की नौकरी दे दिया. 
अबू लहब बचपन से लेकर जवानी तक मुहम्मद के सर परस्त रहे. 
दादा के मरने के बाद इनकी देख भाल किया, 
यहाँ तक कि मुहम्मद की दो बेटियों को अपने बेटों से मंसूब करके 
मुहम्मद को सुबुक दोष किया. 
मुहम्मद ने अपने मोहसिन चचा का तमाम अह्सानत पल भर में फरामोश कर दिया.
वजेह ?
हुवा यूँ था की एक रोज़ मुहम्मद ने ख़ानदान क़ुरैश के तमाम को 
कोह ए मिनफ़ा पर इकठ्ठा होने की दावत दी. 
लोग अए तो मुहम्मद ने सब से पहले तम्हीद बांधा 
और फिर एलान किया कि अल्लाह ने मुझे अपना पैग़मबर मुक़र्रर किया. 
लोगों को इस बात पर काफ़ी गम ओ ग़ुस्सा और मायूसी हुई कि 
ऐसे जाहिल को अल्लाह ने अपना पैग़मबर कैसे चुना ? 
सबसे पहले अबू लहेब ने ज़बान खोली और कहा, 
"तू माटी मिले, क्या इसी लिए तूने हम लोगों को यहाँ बुलाया है?
इसी बात पर मुहम्मद ने यह सूरह गढ़ी जो क़ुरआन  में 
इस बात की गवाह बन कर 111 के मर्तबे पर है. 
सूरह लहेब क़ुरआन  की वाहिद सूरह है जिस में किसी फ़र्द का नाम दर्ज है. 
किसी ख़लीफ़ा या क़बीले के किसी फ़र्द का नाम क़ुरआन  में नहीं है.
"ज़िक्र मेरा मुझ से बढ़ कर है कि उस महफ़िल में है"
नमाज़ियो !
गौर करो कि अपनी नमाज़ों में तुम क्या पढ़ते हो? 
क्या यह इबारतें क़ाबिल ए इबादत हैं?
अल्लाह अबू लहेब और उसकी जोरू को बद दुआएँ दे रहा है . 
उनके हालत पर तआने भी दे रहा है कि 
वह उस ज़माने में लकड़ी ढोकर ग़ुज़ारा करती थी. 
यह मुहम्मदी अल्लाह जो हिकमत वाला है, 
अपनी हिकमत से इन दोनों प्राणी को पत्थर की मूर्ति ही बना देता. 
"कुन फिया कून" कहने की ज़रुरत थी.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 25 November 2019

मानव मात्र - - -


मानव मात्र - - - 

आजकल हिंदूवादी कट्टर पंथी बिरझाए हुए हैं, 
वह झूट का नंगा नाच नाच रहे हैं . 
इस्लाम के ख़िलाफ़ भद्दे और बेहूदा मुज़ाहिरा कर रहे हैं. 
यहूदियों की तौरेती नग्न तस्वीरें इस्लाम के मुंह पर थोप रहे हैं, 
हजारों साल पुराने अमानवीय कल्चर को इस्लाम के गले बाँध रहे हैं. 
इस्लाम का विरोध मैं भी करता हूँ मगर उस हद तक, जहाँ वह ग़लत है.
यह धार्मिक गुंडे भूल जाते हैं कि उपमहाद्वीप पर बसने वाले मुसलमान, 
इन्हीं के वंशज हैं. 
इनसे अलग होकर वह एक ज़ीना ऊपर चढ़ चुके हैं.
अब नीचे उतरना उनके लिए मुमकिन नहीं.
यह गुंडे उन्हें घसीट कर अपने स्तर में लाना चाहते हैं, 
कहते हैं बिसमिल्ला की जगह जय श्री गणेश कहने लगो. 
कौन होगा जो एकेश्वर की वैश्विक धारणा को छोड़ कर गोबर से निर्मित, 
पारबती के शरीर से निकले हुए मैल से बने गणेश का नाम लेगा ? 
नक कटे बस्ती के बाशिदे, नाक दार को सहन नहीं कर पाते, कहते हैं - - - 
"कितनी बुरी लग रही है तुम्हारी यह नाक आओ तुम भी  हमारी तरह हो जाओ."
हमारे कुछ बुद्धि हीन पाठक मुझे पढ़ पढ़ कर समझने लगे हैं, 
कि मैं भी उनकी तरह ही मुसलमान विरोधी हूँ, 
मैं मुसलमानों का समर्थक ज़याद हूँ ,   
इसलिए कि वह दूसरी क़ौमों की तरह ख़ुद को बदल नहीं पा रहे. 
इस वजह से उनका आलोचक हूँ.
90% की आवाज़ 10% से की आवाज़ से दस ग़ुणा ज़्यादः ज़ोरदार होती है, 
इसका मतलब यह नहीं कि मिथ्य सत्य से बड़ा हो जाता है. 
मैं फिर कह रहा हूँ कि हिन्दुस्तानी मुसलमान हिन्दुओं से हर मुआमले में बेहतर है, 
बस कि वह हिदुओं की तरह ही परिवर्तन शील हो जाएं .  
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 23 November 2019

परिवर्तन


परिवर्तन 

शेरशाह सूरी

शेरशाह सूरी का सिर्फ़ पांच साल का शासन काल रहा. 
उसकी अचानक मौत से मानवता का उभरता सूरज डूब  गया. 
अगर शेरशाह सूरी को औरंगज़ेब की तरह 52 साल का शाशन काल मिलता तो आज का भारत कुछ और ही होता. 
उसने इस पांच साल की मुख़्तसर अवधि में दुन्या की सबसे बड़ी शाहराह GT Road बनवाई, उस पर कुएँ ख़ुदवाए, पेड़ लगवाए और विश्राम गृह निर्माण किए. 
उसका इतिहास शानदार है. 
अफ़गानी सूबेदार का बेटा अपने दम ख़म पर हुमायूं को परास्त करके हिन्दुस्तान के सिंघाशन पर बिराज मान हुवा. 
उसका नायाब अंदाज़ यह था कि दोपहर को खाने के वक़्त वह देश भर में घंटे बजवाता जो कि एक तरह का एलान होता - - -  
"बादशाह भोजन करने जा रहा है, रिआया खाने पर बैठ जाए." 
स्थानीय शाशन की ज़िम्मेदारी होती कि सब को भोजन मिले, 
अगर कोई भूका रह गया तो उसकी ख़ैर नहीं. 
कोई हुवा है देश के इतिहास में ऐसा शाशक ???
क़ुर्बान जाइए ऐसे शाशक पर. 
शेरशाह सूरी से प्रभावित हो कर हमारे पूर्वज काशी नरेश राजा देव दत्त मुसलमान हो कर राजा मियाँ बन गए थे. मुझे इन पर नाज़ है कि उस समय मनुवाद के आगे इस्लाम ही विकल्प था. 
आज मैं इस्लाम को त्याग कर मानवता वादी बन गया हूँ. 
"मानवमात्र" 
Thank you our fore Father Raja Dev dutt.
कि क़ुदरत के क़ानून "परिवर्तन" को अपनी पीढ़ियों को विरासत में दी.  
चार सौ साल बाद हमारे वंशज राजा माँढा विश्व नाथ प्रताप सिंह भारत के प्रधान मंत्री हुए. 
जिनको उपाधि मिली, 
"राजा नहीं फ़क़ीर है, भारत की तक़दीर है."
उन्हों ने अपनी तमाम संपत्ति ललिता ट्रस्ट को दान कर के रजवाड़े से मुक्ति ली. 
उनके दो बेटे सियासत से दूर हैं, कोई जानता भी नहीं.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 22 November 2019

ज़ैद ;- एक मज़लूम का पसे-मंज़र - - -


ज़ैद ;- एक मज़लूम का पसे-मंज़र - - - 

एक सात आठ साल का मासूम बच्चा ज़ैद बिन हारसा को बस्ती से बुर्दा फ़रोशों (बच्चा चोरों) ने अपहरण कर लिया,और मक्के में लाकर मुहम्मद के हाथों फ़रोख़्त कर दिया. ज़ैद बिन हारसा अच्छा बच्चा था, इस लिए मुहम्मद और उनकी बेगम ख़दीजा ने उसे भरपूर प्यार दिया. 
उधर ज़ैद का बाप हारसा अपने बेटे के ग़म में पागल हो रहा था, 
वह लोगों से रो-रो कर और गा-गा कर अपने बेटे को ढूँढने की इल्तेजा करता. 
उसे महीनों बाद जब इस बात का पता चला कि उसका लाल मदीने में मुहम्मद के पास है, तो वह अपने भाई को साथ लेकर मुहम्मद के पास हस्बे-हैसियत फिरौती की रक़म लेकर पहुंचा. 
मुहम्मद ने उसकी बात सुनी और कहा---
"पहले ज़ैद से तो पूछ लो कि वह क्या चाहता है."
ज़ैद को मुहम्मद ने आवाज़ दी, वह बाहर निकला और अपने बाप और चाचा से फ़र्ते- मुहब्बत से लिपट गया, मगर बच्चे ने इनके साथ जाने से मना कर दिया. 
"खाई मीठ कि माई" ?
बदहाल माँ बाप का बेटा था. 
हारसा मायूस हुवा. 
मुआमले को जान कर आस पास से भीड़ आ गई, 
मुहम्मद ने सब के सामने ज़ैद को गोद में उठा कर कहा , 
"आप सब के सामने मैं अल्लाह को गवाह बना कर कहता हूँ कि आज से ज़ैद मेरा बेटा हुआ और मैं इसका बाप"
ज़ैद अभी नाबालिग़ ही था कि मुहम्मद ने इसका निकाह अपनी हबशन कनीज़ ऐमन से करा दिया. ऐमन मुहम्मद की माँ आमना की कनीज़ थी जो मुहम्मद से इतनी बड़ी थी कि बचपन में वह मुहम्मद की देख भाल करने लगी थी.
आमिना चल बसी, मुहम्मद की देख भाल ऐमन ही करती, 
यहाँ तक कि वह सिने बलूग़त में आ गए. 
पच्चीस साल की उम्र में जब मुहम्मद ने चालीस साला ख़दीजा से निकाह किया तो ऐमन को भी वह ख़दीजा के घर अपने साथ ले गए.
जी हाँ! आप के सल्लाल्ह - - - घर जँवाई हुआ करते थे 
और ऐमन उनकी रखैल पहले ही बन चुकी थी. 
ऐमन को एक बेटा ओसामा हुआ 
जब कि अभी उसका बाप ज़ैद सिने-बलूग़त को भी न पहुँचा था, 
मशहूर सहाबी ओसामा मुहम्मद का ही नाजायज़ बेटा था.
ज़ैद के बालिग़ होते ही मुहम्मद ने उसको एक बार फिर मोहरा बनाया 
और उसकी शादी अपनी फूफी ज़ाद बहन ज़ैनब से कर दी. 
ख़ानदान वालों ने एतराज़ जताया कि 
एक ग़ुलाम  के साथ ख़ानदान कुरैश की बेटी की शादी ? 
मुहम्मद जवाब था, ज़ैद ग़ुलाम  नहीं, 
ज़ैद, ज़ैद बिन मुहम्मद है.
फिर हुआ ये, 
एक रोज़ अचानक ज़ैद घर में दाख़िल हुवा, 
देखता क्या है कि उसका मुँह बोला बाप 
उसकी बीवी ज़ैनब के साथ मुँह काला कर रहा है. 
उसके पाँव के नीचे से ज़मीन खिसक गई, 
घर से बाहर निकला तो घर का मुँह कभी न देखा. 
हवस से जब मुहम्मद फ़ारिग हुए तब बाहर निकल कर ज़ैद को बच्चों की तरह ये हज़रत बहलाने और फुसलाने लगे, मगर वह न पसीजा. 
मुहम्मद ने समझाया 
"जैसे तेरी बीवी ऐमन के साथ मेरे रिश्ते थे, 
वैसे ही ज़ैनब के साथ रहने दे. 
तू था क्या? 
मैं ने तुझको क्या से क्या बना दिया, पैग़म्बर का बेटा, 
हम दोनों का काम यूँ ही चलता रहेगा, मान जा,"
ज़ैद न माना तो न माना, बोला तब मैं नादान था, ऐमन आपकी लौंडी थी जिस पर आप का हक़ यूँ भी था मगर ज़ैनब मेरी बीवी और आप की बहू है,
आप पर आप कि पैग़मबरी क्या कुछ कहती है?
मुहम्मद की ये कारस्तानी समाज में सड़ी हुई मछली की बदबू की तरह फैली. 
औरतें तआना ज़न हुईं कि 
बनते हैं अल्लाह के रसूल और अपनी बहू के साथ करते हैं मुँह काला. 
अपने हाथ से चाल निकलते देख कर, ढीठ मुहम्मद ने अल्लाह और अपने जोकर के पत्ते जिब्रील का सहारा लिया, 
एलान किया कि ज़ैनब मेरी बीवी है, मेरा इसके साथ निकाह हुवा है, 
निकाह अल्लाह ने पढ़ाया है और गवाही जिब्रील ने दी थी,
अपने छल बल से मुहम्मद ने समाज से मनवा लिया. 
उस वक़्त का समाज था ही क्या? 
रोटियों को मोहताज, 
उसकी बला से मुहम्मद की सेना उनको रोटी तो दे रही है. 
ओलिमा ने तब से लेकर आज तक इस घृणित वाक़ेए की कहानियों पर कहानियाँ गढ़ते फिर रहे है, 
इसी लिए मैं इन्हें अपनी माँ के ख़सम कहता हूँ. 
दर अस्ल इन बे ज़मीरों को अपनी माँ का ख़सम ही नहीं बल्कि 
अपनी बहन और बेटियों के भी ख़सम कहना चाहिए.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 20 November 2019

हिन्दू और मुस्लिम मानस


हिन्दू और मुस्लिम मानस

मैं कई बार बिना किसी लिहाज़ के यह बात लिख चुका हूँ 
कि बुरे इस्लाम के असर में रहने वाले मुस्लिम मानस, 
बहुत बुरे हिन्दू मनुवादियों से बेहतर हैं.
इस बात पर कुछ नासमझ मुझे पक्ष पाती ठहराने लगते हैं. 
हक़ीक़त यह है कि समाज के आईने में रख कर इसे साफ़ देखा जा सकता है. 
अभी हाल में कठुवा और मंदसौर की दोनों घटनाओं इसकी गवाह हैं.
कठुवा गैंग रैप के 6-7 आरोपी जिनमे एक ख़ुद उस बेटी का बाप है, 
जो पीड़िता की हम उम्र थी, जो उसकी शिकार हुई . 
गैंग रैप मंदिर में हुवा, एक हफ्ते तक.
गैंग रेपिस्ट को बचाने के लिए हिन्दू मानस सड़कों पर उतर आए. 
क्या धर्म धुरंदर, क्या नेता, यहाँ तक कि संविधान के संरक्षक वकील भी.
अपनी अंतर आत्मा में, इतनी कालिमा को लिए कैसे सांस ले पाते है यह लोग ? 
उधर मंदसौर में मुस्लिम रेपिस्ट के ख़िलाफ़ पूरा शहर सड़कों पर था, 
मुस्लिम औरतें जो कह रही थीं कि मुजरिम को फांसी दो, 
हम उसे अपने क़ब्रिस्तान में दफ़्न नहीं होने देंगे. 
दिल को ज़ार ज़ार करने वाली बात यह देखी गई कि 
"आरोपी का पिता अपने बेटे को फांसी पर लटकाने की मांग कर रहा था." 
ख़ुशी की बात यह थी कि मंदसौर की घटना ने हिन्दू मुस्लिम दोनों को एक आवाज़ कर दिया, 
शायद कठुवा के बाशिदे कुछ शर्मिंदा हों. 
*** 
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 18 November 2019

मानव की मुक्ति

मानव की मुक्ति 

इस्लाम और क़ुरान पर मेरा बेलाग तबसरा और निर्भीक आलोचना को पढ़ते पढ़ते , मेरे कुछ मित्र मुझे समझने लगे कि मैं हिन्दू धर्म का समर्थक हूँ . 
मेरी हकीक़त बयानी पर वह  मायूस हुए और आश्चर्य में पड गए . लिखते हैं - - - 
"आपसे मुझको ऐसी उम्मीद नहीं थी ."
 मेरे "कश्मीरी पंडितो "और दूसरे उन लेखों  पर जो उनके मर्ज़ी के मुताबिक न हुए .
अपने ऐसे मित्रों से मेरा निवेदन है कि मैं इस्लाम विरोधी हूँ, 
वहां जहाँ होना चाहिए,
और क़ुरान की उन बातों से सहमत नहीं जो इंसानियत विरोधी हैं , 
मैं उन नादान मुसलमानो का ख़ैर ख़्वाह हूँ  जो क़ुरान पीड़ित हैं .
इसी तरह मैं हिदू जन साधारण का दोस्त हूँ जो धर्म के शिकार हैं.
मैं हर धर्म को बुरा मानता हूँ . 
कोई ज्यादह बुरा हैं कोई कम बुरा ..
 मेरे मित्र गण अगर सत्य पर पूरा पूरा विशवास रखते हो तभी मेरे दोस्त रह सकते है .
झूट और पाखंड के पुजारियों को मैं दोस्त रखना पसंद नहीं करूंगा .
जो लौकिक सत्य पर ईमान रखता है वही मोमिन है वही महा मानव है , 
हिन्दू और मुसलमान ख़ुद को बदलें और पुर अम्न इंसानियत की राह पर आ जाएं , देश को ऐसे वासियों की ही ज़रुरत है ,
इसी में मानव की मुक्ति हैं .
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 14 November 2019

बनी नुज़ैर

बनी नुज़ैर 
           
मदीने से चार मील के फ़ासले पर यहूदियों का एक ख़ुश हल क़बीला, 
बनी नुज़ैर नाम का हुवा करता था, 
जिसने मुहम्मद से समझौता कर रखा था कि मुसलमानों का मुक़ाबिला अगर काफ़िरों से हुवा तो वह मुसलमानों का साथ देंगे और 
दोनों आपस में दोस्त बन कर रहेंगे. 
इसी दोस्ताना सिलसिले में एक रोज़ यहूदियों ने मुहम्मद की, 
ख़ैर शुगाली के जज़्बे के तहत दावत की.
 मुहम्मद पहली बार बस्ती गए थे उसकी ख़ुशहाली देख कर उनकी आँखें ख़ैरा रह गईं. 
उनके मन्तिक़ी ज़ेहन ने उसी वक़्त मंसूबा बंदी शुरू कर दी. 
अचानक ही बग़ैर खाए पिए उलटे पैर मदीना वापस हो गए.
यहूदी अंग़ुश्त बदंदां हुए कि क्या हो गया ? 
मदीना पहुँच कर यहूदियों पर इल्ज़ाम लगा दिया कि काफ़िरों से मिल कर 
ये मूसाई मेरा काम तमाम करना चाहते थे. 
वह एक पत्थर को छत के ऊपर से गिरा कर मुझे मार डालना चाहते थे. 
इस बात का सुबूत तो उनके पास कुछ भी न था 
मगर सब से बड़ा सुबूत उनका हथियार अल्लाह की वह्यी थी 
कि ऐन वक़्त पर उन पर नाज़िल हुई.
इस इलज़ाम तराशी को आड़ बना कर मुहम्मद ने बनी नुज़ैर क़बीले 
पर अपने लुटेरों को लेकर यलग़ार कर दिया. 
मुहम्मद के लुटेरों ने वहाँ ऐसी तबाही मचाई कि जान कर कलेजा मुंह में आता है. 
बस्ती के बाशिंदे इस अचानक हमले के लिए तैयार न थे, 
उन्हों ने बचाव के लिए अपने क़िले में पनाह ले लिया और 
यही पनाह गाह उन पर तबाह गाह बन गई. 
ख़ाली बस्ती को पाकर कल्लाश भूके नंगे मुहम्मदी लुटेरों ने बस्ती का 
तिनका तिनका चुन लिया. उसके बाद इनकी तैयार फसलें जला दीं, 
यहाँ पर भी बअज न आए, उनकी बागों के पेड़ों को जड़ से काट डाला. 
फिर उन्हों ने किला में बंद यहूदियों को बहार निकाला और 
उनके अपने हाथों से बस्ती में एक एक घर को आग के हवाले कराया.
तसव्वुर कर सकते हैं कि उन लोगो पर उस वक़्त क्या बीती होगी. 
इसकी मज़म्मत ख़ुद मुसलमान के संजीदा अफ़राद ने की, 
तो वही वहियों का हथियार मुहम्मद ने इस्तेमाल किया. 
कि मुझे अल्लाह का हुक्म हुवा था. 
यहूदी यूँ ही मुस्लिम कश नहीं बने, 
इनके साथ मुहम्मदी जेहादियों ने बड़े मज़ालिम किए है. 
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 13 November 2019


आबादियों का उत्थान और पतन 

मैं एक कस्बे में पैदा हुवा, वहीं पला, बढ़ा और बड़ा हुवा . 
दुन्या देखता हुवा 74 का हो रहा हूँ. मेरे माँ बाप से आज 69 संतानें हुई है जिनमें 62  जीवित हैं, 
वहीं बस्ती में 5 बरहमन घर थे जिनका आज वजूद भी बाक़ी नहीं . 
कुछ बनिए आबाद कारी में रेंगते हुए दो चार क़दम ही आगे बढे होंगे. 
बाज़ार में उनकी  पक्की दूकानें एक मंज़िल ऊपर जाकर 
उनकी रिहायश ज़रूर बन गई हैं.
कुछ पिछड़े थे जो अपनी जगह पर ही बने हुए हैं. 
बे असर, बेजान लोग थोड़े से अछूत थे जो आज ढूँढे नहीं मिलते. 
मेरा हमउम्र चमार 35 साल पहले ही बूढ़ा होकर मर गया था .
मुस्लिम बाहुल्य कस्बा है जहाँ मुस्लिम आबादी मेरे माँ बाप के परिवार की तरह ही फली फूली, पूरा क़स्बा उनसे अटा पड़ा है. नए नए मोहल्ले बन गए है. 
मुस्लिम दिन भर मेहनत मजदूरी करते हैं, रात को बनिस्बत लाला जी के 
अच्छा खा पी कर सो जाते हैं कि कल का अल्लह मालिक है, 
लाला जी कल के अंदेशे में सूखते रहते हैं. 
मुसलमानों को एक वक़्त तो गोश्त मछली मुर्ग होना ही चाहिए भले ही भैसे का हो ,
हिन्दू घास पूस और कद्दू खाकर सो जाता है . 
ख़ुराक से प्रजनन का करीबी ताल्लुक होता है . 
हिन्दू गो धन, गज धन और रतन धन के फेरे में मुब्तिला रहता है 
और मुसलमान संतान धन उपार्जित करता है.
हिन्दू साधु, सन्यासी, संत, महात्मा, योगी, स्वामी साध्वी 
और ब्रहमचारी पैदा करता रहता है ,
जो इस्लाम में हराम है. मुजर्रद (ब्रहमचर्य) को इस्लाम रोकता है. 
हिन्दुओं में इसे महिमा मंडित करते हैं .
ख़ुद कशी हिदुओं में आम बात है, मुसलमान इसे हराम समझता है .
किसानों में ख़ुद कुशी जिस तेज़ी से बढ़ रही है,
 उनमें मुसलमानों का कोई नाम नहीं .
हिन्दू स्वाभाविक रूप से कंजूस और लालची होता है. 
अपने ही परिवार के लावारिस  और अनाथ हुए संतानों को मार डालने में 
उसे कोई ग़ुरेज़ नहीं होता, ऐसे कई मुआमले इसी बस्ती में मैं ने देखे हैं , 
जबकि मुसलमानों को उनके धर्मादेश के अनुसार यतीमों और लावारिशों पर ख़ास ख़याल रखा जाता है कि ऐसे बच्चों की हक़ तलफ़ी उन पर हराम हैं . 
इस्लाम भेद-भाव रहित सीधा सरल समाज रखता है .
हिन्दू इसके उल्टा नफ़रत और छूत-छात का समाज होता है .
बस्ती की एक बे सहारा मेहतरानी ने इस्लाम क़ुबूल कर लिया,
उसको वहां के मौलाना ने अपने घर का बावर्ची खाना सौंप दिया,
वह परिवार भर का खाना बनती है, परिवार के सभी सदस्य खाते हैं .
इस किस्म के कई वाक़िए हैं जो हिन्दू आबादी के पतन का करण बने हैं . 
साधवी और योगी कहते हैं हिन्दू चार बच्चे पैदा करें,
है न लतीफ़ा.
***

*****
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 12 November 2019

ख़ैबर बर्बाद हुवा !

ख़ैबर बर्बाद हुवा !
  
पुर अम्न बस्ती, सुब्ह तड़के का वक़्त, लोग अध् जगे, किसी नागहानी से बेख़बर, ख़ैबर वासियों के कानों में शोर व् ग़ुल की आवाज़ आई तो उन्हें कुछ देर के लिए ख़्वाब सा लगा, मगर नहीं यह तो हक़ीक़त थी. 
आवाज़ ए तक़ब्बुर एक बार नहीं, दो बार नहीं तीन बार आई,
नारा ए तकबीर अल्लाहुमक़सद - - - 
''ख़ैबर बर्बाद हुवा ! क्यूं कि हम जब किसी क़ौम पर नाज़िल होते हैं 
तो इन की बर्बादी का सामान होता है'' 
यह आवाज़ किसी और की नहीं, 
सललल्लाहो अलैहे वसल्लम कहे जाने वाले मुहम्मद की थी. 
नवजवान मुक़ाबिला को तैयार होते, इस से पहले मौत के घाट उतार दिए गए. 
बेबस औरतें लौडियाँ बना ली गईं और बच्चे ग़ुलाम  कर लिए गए. 
बस्ती का सारा तन और धन इस्लाम का माले ग़नीमत बन चुका था.
एक जेहादी लुटेरा वहीय क़ल्बी, 
जो एक परी ज़ाद को देख कर उस पर फ़िदा हो जाता है, 
मुहम्मद के पास आता है और एक अदद कनीज़ की ख़्वाहिश का इज़हार करता है, 
जो मुहम्मद उसको अता कर देते हैं. 
वहीय के बाद एक दूसरा जेहादी मुहम्मद के पास दौड़ा दौड़ा आता है 
और इत्तेला देता है, 
या रसूल अल्लाह सफ़िया बिन्त हई तो आप की मलिका बन्ने के लायक़ हसीन जमील है, वह बनी क़रीज़ा और बनी नसीर दोनों की सरदार थी. 
यह ख़बर सुन कर मुहम्मद के मुंह में पानी आ जाता है, 
उनहोंने क़ल्बी को बुलाया और कहा तू कोई और लौंडी चुन ले. 
मुहम्मद की एक पुरानी मंजूरे नज़र उम्मे सलीम ने 
उस क़त्ल और ग़ारत गरी के आलम में मज़लूम सफ़िया को दुल्हन बनाया, 
मुहम्मद दूलह बने और दोनों का निकाह हुवा.
लुटे घर, फुंकी बस्ती में, बाप भाई और शौहर की लाशों पर 
सललल्लाहो अलैहे वसल्लम ने सुहाग रात मनाई. 
मुसलमान अपनी बेटियों के नाम मुहम्मद की बीवियों, 
लौंडियों और रखैलों के नाम पर रखते हैं, 
यह सुवरज़ाद ओलिमा के उलटे पाठ की पढ़ाई की करामत है, 
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 10 November 2019

एक कहानी, नाना के ज़ुबानी

 एक कहानी, नाना के ज़ुबानी               
महमूद गजनवी सोमनाथ को जब सोलवहीं बार लूट पाट करके वापस गजनी पहुंचा तो उसकी बीवी ने दरयाफ़्त किया कि हमला कैसा रहा ?  
महमूद ने जवाब दिया बदस्तूर पहले जैसा, 
जितनी दौलत चाही महंतों ने दे दिया. कोई हमला, न ख़ून ख़राबा. 
बीवी बोली - - - गोया वसूली करके चले आए ?
यानी बुतों को उनके हाथ बेच कर चले आए? 
महमूद ने पूछा, कहना क्या चाहती हो ? 
बीवी बोली बुरा तो नहीं मानेंगे ? 
नहीं कह भी डालो. महमूद बोला 
बीवी बोली क़यामत के रोज़ अल्लाह तअला तुमको 
महमूद बुत फ़रोश के नाम से जब पुकारेगा तो कैसा लगेगा? 
महमूद ने ग़ैरत से आँखें झुका लीं. 
दूसरे रोज़ सुबह अपने सत्तरह घुड सवारों को लिया और सोमनाथ को कूच कर दिया . इस बार भी महंत जी फिरौती लिए खड़े थे, 
महमूद ने तलवार की नोक से नज़राने की थाली को हवा में उडा दिया. 
पुजारी समेत मंदिर का पूरा अमला सोमदेव के सामने दंडवत होकर लेट गया  
कि कोई चमत्कार कर दो महाराज ! 
उनको विश्वाश था कि यवण भस्म हो जाएँगे. 
मंदिर के सैकड़ों रक्षकों ने लुटेरों से मुक़ाबिला करने का साहस नहीं किया . 
महमूद के सिर्फ़ 17 सिपाहियों ने मंदिर को तहेस नहेस कर के ख़ज़ाने तक पहुँचने में कामयाबी हासिल की. 
ख़ज़ाना देख कर उनकी आँखें ख़ैरा हो गईं. 
सोना चाँदी हीरे जवाहरात का अंबार. 
महमूद ने ऊँट गाड़ी तलाश किया और सोमनाथ की अकूत दौलत ऊंटों पर लाद कर गजनी ले गया. 
महमूद गजनी पहुँच कर सब से पहले अपनी बीवी के आँचल पर दो रिकातें नमाज़ शुकराना अदा किया. 
महमूद सोमनाथ के कुछ अवशेष भी साथ ले गया जो आज भी गजनी मी एक मस्जिद में प्रवेश द्वार के जीनों में लगे हुए हैं .
नाना की ज़बान से यह कहानी, 
इस वजेह से दोहराने की ज़रुरत पड़ी कि हमारे हिंदू मित्र मनन और चितन करें 
कि मंदिरों की मानसिकता क्या होती है? 
सैकड़ों सालों बाद आज भी कोई फर्क नहीं पड़ा. 
आज भी भारत की मंदिरों में बेशुमार दौलत निष्क्रीय पड़ी हुई है. 
लोगों का अनुमान है कि भारत सरकार के पास इतना सोना नहीं है, 
जितना भारत के मंदिरों में जाम पड़ा हुवा है. 
कौन भगवान है ? इस दौलत को वह क्या करेगा ?  
यह मनु विधान की एक व्योवस्था है जो उनको महफूज़ और मज़बूत किए हुए है.
महमूदों की सुल्तानी गई, अरबी बद्दुओं की लूट पाट का दौर भी गया, 
मनुवाद और शुद्र वाद अपनी जगह पर क़ायम हैं.
अब भारत को एक माओत्ज़े तुंग की ज़रुरत है 
जो इन मठा धीशों का काम तमाम करके देश की 40% आबादी को 
ग़रीबी रेखा से निकाल कर भारत का भाग्य बदले .        
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

औरत का मुक़ाम ?


औरत का मुक़ाम ?  
       
ख़ुद साख़्ता रसूल एक हदीस में फ़रमाते हैं कि जो शख़्स मेरी ज़बान और 
तानासुल (लिंग) पर मुझे क़ाबू दिला दे उसके लिए मैं जन्नत की ज़मानत लेता हूँ , 
और उनका अल्लाह कहता है कि शर्म गाहों की हिफ़ाज़त करो. 
मुहम्मद ख़ुद अल्लाह की पनाह में नहीं जाते. 
अल्लाह ने सिर्फ़ मर्दों को इंसानी दर्जा दिया है 
इस बात का एहसास बार बार क़ुरआन  कराता है. 
क़ुरानी जुमले पर ग़ौर करिए 
"लेकिन अपनी बीवियों और लौंडियों पर कोई इलज़ाम नहीं" 
एक मुसलमान चार बीवियाँ बयक वक़्त रख सकता है उसके बाद लौंडियों की छूट. 
इस तरह एक मर्द = चार औरतें +लौडियाँ बे शुमार. 
इस्लामी ओलिमा, इन्हें इनका अल्लाह ग़ारत करे, 
ढिंढोरा पीटते फिरते है कि इस्लाम ने औरतों को बराबर का मुक़ाम दिया है. 
इन फ़ासिक़ो के चार टुकड़े कर देने चाहिए कि 
इस्लाम औरतों को इंसान ही नहीं मानता. 
अफ़सोस का मक़ाम ये है कि ख़ुद औरतें ज़्यादः ही 
इस्लामी ख़ुराफ़ात में पेश पेश राहती हैं .
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 8 November 2019

अनचाहा सच



अनचाहा सच

मेरे कुछ मित्र भ्रमित हैं कि मैं क़ुरआन  या हदीस का पोलता हूँ,  
गोया हिंदुत्व का पक्ष धर हूँ. 
मैं जब हिन्दू धर्म की पोल खोलता हूँ तो उनको अनचाहा सच मिलता है 
और वह मुझे तरह तरह की उपाधियों से उपाधित करने लगते हैं. 
उनकी लेखनी उनके मन की बात करने लगती है. 
उनकी शंका को मैं दूर करना चाहता हूँ कि 
हाँ मैं मुसलमान  हूँ. 
जैसे कि मैं कभी हिदू हो जाता हूँ या दलित. 
हर धर्म की अच्छी बातें हमें स्वीकार हैं. 
मैं फिर दावा करता हूँ कि इस्लाम की कुछ फ़िलासफ़ी दूर दूर तक 
किसी धर्म में नहीं मिलतीं जिन्हें टिकिया चोर मुल्लाओं ने मेट रख्खा है.
इस्लामी फ़िक़ह के मतलब भी हिन्दू धर्म को नसीब नहीं. 
"फ़िक़ह" के अंतर गत हक़ हलाल और मेहनत की रोटी ही मोमिन को मंज़ूर होती है. 
हर अमल में ज़मीर उसके सामने खड़ा रहता है. 
मुफ़्त खो़री, ठग विद्या, दुआ तावीज़, और कथित यज्ञ जैसे 
पाखण्ड से मिलने वाली रोटी हराम होती है. 
समाजी बुरे हालात के हिसाब से आपकी लज़ीज़ हांड़ी भी फ़िक़ह को अमान्य है. 
इसी तरह "हुक़ूक़ुल इबाद" का चैप्टर भी है कि जिसमे आप किसी के साथ ज़्यादती करते हैं तो ख़ुदा भी लाचार है, 
उस मजलूम बन्दे के आगे वह अपनी ख़ुदाई, 
मजबूर और मजलूम के हवाले करता है 
कि चाहे तो मुजरिम को मुआफ़ कर सकता है.
ख़ुद हिदुस्तान में ऐसे ऐसे बादशाह ग़ुज़रे हैं को फ़िक़ह के हवाले हुवा करते थे.
उनको झूट की सियासत दफ़्नाती रहती है.
"फ़िक़ह और हुक़ूक़ुल इबाद" की हदें जीवन को बहुत नीरस कर देती हैं, 
भले ही समाज अन्याय रहित हो जाए. 
इसी लिए हिंदुत्व के वह पहलु मुझे अज़ीज़ है 
जो ज़िन्दगी में खुशियां भरती हैं, 
जैसे ऋतुओं के मेले ठेले, मुकामी कलचर, 
जो रक़्स (नृति) और मौसीक़ी (संगीत)से लबरेज़ होते हैं. 
अफ़सोस तब होता है जब इस पर धर्म के पाखण्ड ग़ालिब हो जाते हैं.
***   
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 7 November 2019

सहाबी ए किराम

सहाबी ए किराम  

आम मुसलमान मुहम्मद कालीन युग में इस्लाम पर ईमान लाने वाले मुसलमानो को जिन्हें सहाबी ए कराम कहा जाता है, पवित्र कल्पनाओं के धागों में पिरो कर उनके नामों की तस्बीह पढ़ा करते हैं, जब कि वह लोग ज़्यादः तर ग़लत थे, 
वह मजबूर, लाख़ैरे, बेकार और ख़ासकर जाहिल लोग हुवा करते थे. 
क़ुरआन और हदीसें ख़ुद इन बातों के गवाह हैं. 
अगर अक़ीदत का चश्मा उतार के, तलाशे हक़ की ऐनक लगा कर 
इसका मुतालिआ किया जाए तो सब कुछ क़ुरआन और हदीसों में 
ही अयाँ और निहाँ है .   
आम मुसलमान मज़हबी नशा फ़रोशों की दूकानों से और इस्लामी मदारियों से जो पाते है वही जानते हैं, इसी को सच मानते हैं. 
क़ुरआन में मुहम्मद का ईजाद करदा भारी आसमान वाला अल्लाह 
अपनी जेहालत, अपनी हठ धर्मी, अपनी अय्यारियाँ, अपनी चालबाजियाँ, 
अपनी दगाबज़ियाँ, अपने शर साथ साथ अपनी बेवकूफ़ियाँ 
खोल खोल कर बयान करता है. 
मैं तो क़ुरआनी फिल्म का ट्रेलर भर आप के सामने अपनी तहरीरों में पेश कर रहा हूँ. 
मेरा दावा है कि मुसलमानो को अँधेरे से बाहर निकालने के लिए एक ही इलाज है कि इनको नमाज़ें इनकी मादरी ज़ुबान में तर्जुमें की शक्ल में पढ़ाई जाएँ.  
इन्हें बिल जब्र क़ुरआनी तरजुमा सुनाया जाए. 
जदीद क़दरों के मुक़ाबिले में क़ुरआनी दलीलें रुसवा की जाएँ 
जोकि इनका अंजाम बनता है 
तब जाकर मुसलमान इंसान बन सकता है.
***जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 6 November 2019

धर्म बद दूर

धर्म बद दूर 

दुन्या का बद तर मज़हब इस्लाम है ,
जिसकी बदयाँ क़ुरान में नुमायाँ हैं , 
जिसकी पर्दा दारी करके मुल्ला अवाम को देखने ही नहीं देते .
और दुन्या का बद तरीन धर्म हिन्दू धर्म है , 
जिसे मनु स्मृति एलानिया दर्शाती है और 
दबंग स्वर्ण इस पर ग़ालिब हैं जो दलितों का जीना मुहाल किए हुए हैं .
धर्म तो सभी बद हैं , 
मगर 
बद तर और बद तरीन कोई नहीं . 
यह बद तर और बद तरीन दुन्या में जहाँ भी पाए जाते हैं 
वहां की धरती को पामाल किए हुए हैं .
हर अंतर आत्मा युक्त और बा ज़मीर जीव इन मज़हब और धर्म से दूर भागते हैं .
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 1 November 2019

चूतिया=भगुवा

चूतिया=भगुवा

पिछले दिनों किसी लेख में मैंने तथा कथित अप शब्द "चूतिया" 
का इस्तेमाल किया था, 
जिस पर मेरे एक लाजवंत पाठक ने एतराज़ किया था. 
अफ़सोस होता है कि लाज वश या सभ्यता भार से, 
हम लोग अर्ध सत्य में अटक जाते हैं. 
ठीक है कि कुछ शब्द पार्लियामेंट्री दायरे में नहीं आते हैं 
मगर किसी कारण से शब्द को उच्चारित न किया जाए, 
शब्द का गला घोटना है. 
मशहूर शायर और दानिश्वर रघु पति सहाय 'फ़िराक़' गोरखपुरी 
जो नेहरु जी के रूम पार्टनर हुवा करते थे, के छोटे भाई उनकी बेटी के लिए एक रिश्ता लेकर आए और तारीफ़ करते हुए कहा भय्या आप भी जो जानना चाहते हों लड़के से मिल लें. 
फ़िराक साहब ने कहा तुमने देख लिया, यही काफ़ी है 
और कहा लड़का शराबी हो, जुवारी हो या और कोई ऐब हो चलेगा, 
मगर वह चूतिया न हो. 
इस तरह मैंने भी लेखनी में चूतिया को पढ़ा.
चूतिया का शाब्दिक अर्थ है भग़ुवा. 
दोनों शब्दों का छंद विच्छेद करके देख लें अगर ज़र्रा बराबर भी कोई फ़र्क हो.
एक शब्द गाली बन गया और दूसरा पूज्य ? 
मैं और खुल कर आना चाहता हूँ - - - 
हमारी माएं, बहनें और बेटियां सब भग धारी हैं. 
क्या रंगों को इंगित करने के लिए इनकी भग का रंग ही बचा था ? 
हमारे पूर्वज पाषांण युग के, 
आज की सभ्यता से वंचित थे, तो थे, बहर हाल हमारे पूर्वज थे, 
क्या उनकी अर्ध विकसित सोच को हम आज सभ्य समाज में भी ढोते फिरें ? 
मैं भौगोलिक तौर पर हिन्दू हूँ , 
इस्लाम को ढोता हुवा चौदह नस्लों के बाद भी हिन्दू हूँ. 
मेरे रगों में मेरे पूर्वजों का रक्त है, 
मगर मैं उनके वैदिक युग के ज्ञान को नहीं ढो सकता, 
उसे सर से उतार कर नालों में फेंक चुका हूँ 
और क़ुरआनी इल्म को नाली में.
मुझे आधुनिकता और साइंस की रौशन राह चाहिए.
***