Monday 29 June 2020

मैं जुनैद 'मुंकिर'

- मैं जुनैद 'मुंकिर'  

हर बात के दो पहलू होते हैं, पहला ये कि इसे मान लिया जाए, यानी इक़रार. 
दूसरा ये कि उसको न माना जाए यानी इंकार. 
बातें चाहे मशविरा हों, हुक्म हो या फिर ईश वाणी जिसे वह्यि का नाम दे दिया जाता है. 
इक़रार करने की आदत या ख़सलत आम लोगों में होती है 
मगर इंकार की हिम्मत कम ही लोगों में होती है. 
इसी रिआयत से मैंने अपना तख़ल्लुस (उपनाम) मुंकिर रखा है .
सदियों से इंसान मज़हबी चक्की में पिसता चला आ रहा है. 
इसके गिर्द इंकार की कोई गुंजाईश नहीं है. 
घुट घुट कर फ़र्द मज़हबी झूटों का शिकार रहा है. 
मज़हब की ज़्यादः तर बातें मा फ़ौक़ुल फ़ितरत (अलौकिक) होती हैं 
जिनको डरा धमका कर या फुसला कर अय्यार धर्म ग़ुरु आम इंसान से मनवा लेते हैं. 
झूट को तस्लीम करके झूटी ज़िन्दगी जीना इंसान की क़िस्मत बन जाती है .
हमारी मशरिक़ी दुन्या बनिस्बत मग़रिब के कुछ ज़्यादः ही झूट जीना पसंद करती है, जिसके नतीजे में यह हमेशा कमज़ोर और मग़रिब की ग़ुलाम रही है . 
वक़्त आ गया है कि हम इन झूठे मज़हबी पाखण्ड के मुंकिर हो जाएँ .
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 28 June 2020

सीध सड़क

सीध सड़क          
  
मैं क़ुरआन को एक साज़िशी और अनपढ़ दीवाने  की पोथी मानता हूँ 
और मुसलामानों को इस पोथी का दीवाना.
एक ग़ुमराह इंसान चार क़दम भी नहीं चल सकता कि राह बदल देगा, 
ये सोच कर कि शायद वह ग़लत राह पर ग़ुम हो रहा है. 
इसी कशमकश में वह तमाम उम्र ग़ुमराही में चला करता है. 
मुसलमानों की ज़ेह्नी कैफ़ियत कुछ इसी तरह की है, 
कभी वह अपने दिल की बात मानता है, 
कभी मुहम्मदी अल्लाह की बतलाई हुई राह को दुरुस्त पाता है. 
इनकी इसी चाल ने इन्हें दर्जनों तबक़े में बाँट दिया है. 
अल्लाह की बतलाई हुई राह में ही रह कर वह अपने आपको तलाश करता है, 
कभी वह उसी पर अटल हो जाता है. 
जब वह बग़ावत कर के अपने नज़रिए का एलान करता है 
तो इस्लाम में एक नया मसलक पैदा होता है.
यह अपनी मक़बूलियत की दर पे तशैया (शियों का मसलक) से लेकर अहमदिए (मिर्ज़ा ग़ुलाम मुहम्मद क़ादियानी) तक होते हुए चले आए हैं. 
नए मसलक में आकर वह समझने लगते है कि 
हम मंजिल ए जदीद पर आ पहुंचे है, 
मगर दर अस्ल वह अस्वाभाविक अल्लाह के फंदे में फंस कर 
नए सिरे से अपनी नस्लों को एक नया इस्लामी क़ैद खाना और भी देते है.
कोई बड़ा इंक़लाब ही इस क़ौम को राह ए रास्त पर ला सकता है 
जिसमे कॉफ़ी ख़ून ख़राबे की संभावनाएं निहित है. 
भारत में मुसलामानों का उद्धार होते नहीं दिखता है 
क्यूंकि इस्लाम के देव को अब्दी नींद सुलाने के लिए 
हिंदुत्व के महादेव को अब्दी नींद सुलाना होगा. 
यह दोनों देव और महा देव, सिक्के के दो पहलू हैं.
मुसलामानों ! 
इस दुन्या में एक नए मसलक का आग़ाज़ हो चुका है, 
वह है तर्क ए मज़हब और सजदा ए इंसानियत. 
इंसानों से ऊँचे उठ सको तो मोमिन की राह को पकड़ो 
जो कि सीध सड़क है. 
***   

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 27 June 2020

दो+दो=चार. न तीन, न पांच

दो+दो=चार. न तीन, न पांच

मक्र कभी हक़ीक़त का सामना नहीं कर सकता, 
मुहम्मद आलमे-इंसानियत में बद तरीन मुजरिम हैं.
ख़ुदा के लिए अपने आप को और अपनी औलादों को आने वाले वक़्त से बचाओ. 
अभी सवेरा है, वरना अपनी नस्लों को मुहम्मद के किए धरे की सज़ा भुगतने के लिए तैयार रख्खो. 
तुमको छूट है कि मोमिन बन के अपने बुज़ुर्गों की भूल की तलाफ़ी करो.
मुसलमानो ! 
ईमान दार मोमिन ही क़ुरआन की सही तर्जुमानी कर सकता है, 
ये ज़मीर फ़रोश ओलिमा सच बोलने की हिम्मत भी नहीं कर सकते. 
क़ुरआन में फ़र्ज़ी वाक़िये और नामुकम्मल ग़ुफ़्तगू में आलिम ने क्या क्या न आरिफ़ाना (आध्यात्मिक) मिर्च मसालों की छ्योंक बघारी हैं कि 
पढ़ कर दिल मसोसता है. 
तुम जागो, जग कर मोमिन हो जाओ, 
मोमिन का ईमान ही इंसान का मुकम्मल मज़हब है, 
जिसका कोई झूठा पैग़म्बर नहीं, 
कोई चल-घात की बातें नहीं, सीधा सादा एलान कि 2+2=4 होता है, 
न तीन और न पाँच. 
फूल में ख़ुशबू होती है, इसे किसने पैदा किया? 
उसकी तलाश में मत जाओ कि तुम्हारी तलाश की राह में 
कोई मुहम्मद बना हुवा पैग़म्बर बैठा होगा. 
बहुत से सवाल, जवाब नहीं रखते, 
कि वक़्त कब शुरू हुआ था? कब ख़त्म होगा? 
सम्तें (दिशाएँ) कहाँ से शुरू होती हैं, कहाँ ख़त्म होंगी? 
इन सवालों को ज़मीन की दीगर मख़लूक़ की तरह सोचो ही नहीं. 
फ़ितरत की इस दुन्या में चार दिन के लिए आए हो, 
फ़ितरी ज़िन्दगी जी लो.
***
तुम्हें सुलाए हुए हैं. 
जागो, आँखें खोलो. 
इक्कसवीं सदी की सुब्ह हुए देर हुई, 
देखो कि ज़माना चाँद सितारों पर सीढियां लगा रहा है. 
कल जब यह ज़मीन सूरज के गोद में चली जाएगी तो बाक़ी लोग अपनी अपनी नस्लों को लेकर उस सय्यारे पर बस जाएँगे और तुम्हारी नस्लें कहीं की न होंगी. 
तुम समझते हो कि तुम हक़ बजानिब हो? 
तो तुम बहके हुए हो. तुमको बहकाए हुए हैं, इस्लामी ओलिमा, 
जिनका कि ज़रीआ मुआश ही इस्लाम है. 
इनका पूरा माफ़िया लामबंद है. 
इनकी पकड़ सीधे सादे मुसलमानों को अपनी मुट्ठी में दबोचे हुए है. 
ज़रा सर उठा कर तो देखो, इनके एजेंट तुम को फ़तवा देना शुरू कर देंगे, 
समाज में इनके इस्लामी गुंडे तुम्हारे बग़ल में ही बैठे होंगे, 
तुम को अलावा समझाने बुझाने के ये और कोई राय नहीं देंगे.
हर एक का मुआमला पेट से जुड़ा हुवा है यह तो तुम मानते हो ? 
वह भी मजबूर हैं कि उनकी रोज़ी रोटी है, 
गोरकुन की तरह. कोई मुक़र्रिर बना हुवा है, कोई मुफ़क्किर, 
कोई प्रेस चला कर, इस्लामी किताबों की इशाअत और तबाअत कर रहा है.
जो उसकी रोज़ी है, 
कोई नमाज़ पढ़ाने के काम पर, तो कोई अज़ान देने का मुलाज़िम है, 
मीडिया वाले भी ओलिमा को बुला कर तुम्हें आकर्षित करते हैं 
ताकि चैनल के शाख़ उरूजपे.
यह सब मिल कर तुम्हें सुलाए हुए हैं. 
कोई जगाने वाला नहीं हैं. 
तुम ख़ुद आँखें खोलनी होगी.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 26 June 2020

ख़ुद को तलाशो

ख़ुद को तलाशो     

मौजूदा  साइंस की बरकतों से फैज़याब दौर के लोगो! 
ख़ास कर मुसलमानों!!
एक बार अपने ख़ुदा के वजूद का तसव्वुर अपनी ज़ेहनी सतह पर बड़ी ग़ैर जानिब दारी से क़ायम करो. 
बस कि सच का मुक़ाम ज़ेहन में हो. 
सच से किसी शरीफ़ और ज़हीन आदमी को इंकार नहीं हो सकता, 
इसी सच को सामने रख कर ख़ुदा का वजूद तलाशो, 
हमारे कुछ सवालों का जवाब ख़ुद को दो.
1-क्या ख़ुदा हिदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों और दीगर मज़ाहिब के हिसाब से जुदा जुदा हो सकता है?
2- क्या ख़ुदा भारत, चीन, योरोप, अरब, अमरीका और जापान वग़ैरह के जुग़राफ़ियाई एतबार से अलग अलग हो सकता है?
3- क्या ख़ुदा नस्लों, तबकों, फिरकों, संतों, ग़ुरुओं, पैग़मबरों और क़बीलों के एतबार से जुदा जुदा हो सकते हैं?
4- समाज के इज्तेमाई (सामूहिक) फ़ैसले के नतीजे से बरआमद ख़ुदा क्या हो सकता है?
5- खौफ़, लालच, जंग ओ जेहाद से बरामद किया हुआ ख़ुदा क्या सच हो सकता है?
6- क्या ज़ालिम, जाबिर, ज़बर दस्त, मुन्तक़िम चालबाज़, ग़ुमराह करने वाली हस्ती ख़ुदा हो सकती है?
7- पहले हमल में ही इंसान की क़िस्मत लिख्खे, फिर पैदा होते ही कांधों पर आमाल नवीस फ़रिश्ते मुक़र्रर करे. इसके बाद यौमे हिसाब मुनअक़िद करे, 
क्या ऐसा कोई ख़ुदा हो सकता है?
8-क्या ख़ुदा ऐसा हो सकता है जो नमाज़, रोज़ा, पूजा पाठ, चढ़ावा और प्रसाद वग़ैरह का लालची हो सकता है?
9- क्या ऐसा ख़ुदा कोई हो सकता है कि जिसके हुक्म के बग़ैर पत्ता भी न हिले?
तो क्या तमाम समाजी बुराइयाँ इसी के हुक्म से हैं.
 तब तो दुन्या के तमाम दस्तूर इसके ख़िलाफ़ हैं.
10- कहते हैं ख़ुदा के लिए हर कम मुमकिन है, क्या ख़ुदा इतना बड़ा पत्थर का गोला बना सकता है, जिसे वह ख़ुद न उठा पाए?
मुसलमानों! 
इन सब सवालों का सही सही जवाब पाने के बाद तुम चाहो तो बेदार हो सकते हो.
जगे हुए इंसान को किसी .पैग़मबर अल्लाह की ज़रुरत नहीं होती है.
जगे हुए इंसान का रहनुमा ख़ुद इसके अन्दर विराजमान होता है.
याद रखो तुम्हारे जागने से सिर्फ़ तुम नहीं जागते, 
बल्कि इर्द गिर्द का माहौल जागेगा, 
चिराग़ जलने के बाद सिर्फ़ चिराग़ रौशनी में नहीं आता 
बल्कि तमाम सम्तें रौशन हो जाती हैं.

महक़ उट्ठो अपने अन्दर की ख़ुशबू से. लाशऊरी तौर पर तुम 
अपनी इस ख़ुशबू को ख़ारजी रुकावटों के बायस पहचान नहीं पाते. 
ये ख़ुशबू है इंसानियत की. 
मज़हब तो ख़ारजी लिबास पर इतर का छिडकाव भर है.
छोडो इन पंज रुकनी लग्वियात को. 
और इस पंज वकता खुराफ़ात को,
मैं देता हूँ तुम्हें बहुत ही आसान पाँच अरकान ए हयात.

1-सच को जानो. सच के बाद भी सच, 
सच को ओढो और बिछाओ, 
2- मशक़्क़त, का एक नवाला भी अपने या अपने बच्चों के मुँह में हलाल है, 
मुफ़्त या हराम से मिली नेमत मुँह में मत जाने दो.
3- हिम्मत, सदाक़त को जिसारत की बहुत सख़्त ज़रुरत होती है, 
वैसे सदाक़त अपने आप में जिसारत है.
4. प्यार, इस धरती से, धरती की हर शै से और ख़ुद से भी.
5- अमल, 
तुम्हारे किसी अमल से किसी को ज़ेहनी, जिस्मानी या फिर माली नुकसान न हो.
 बस.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 25 June 2020

मैं ख़ुदा हूँ

मैं ख़ुदा हूँ 

मैं ख़ुदा की तलाश में बहुत दूर तक निकल जाता हूँ ,
मुझे कुछ नहीं मिलता, सिवाय ख़ुद के. 
मैं ख़ुद को ही ख़ुदा पाता हूँ.
मुकम्मल और बा अख़्तियार ख़ुदा. 
इस बात का इक़रार एक ख़ुश गवार अहसास होता है, 
मगर इस बात का एलान हिमाक़त है, जैसा कि मंसूर ने किया. 
प्रचलित ख़ुदाओं की इबादत, भक्ति और कर्मकांड की पैरवी है, 
अपनी पसंद नहीं, बस नक़ल भर है, और ढोंग भी.
 ख़ुद में ख़ुदा बन कर ज़िंदगी बिताने में बड़ा आनंद है, बहुत मज़े हैं. 
सब से बड़ी नेमत यह है कि इस में आज़ादी का एहसास होता है. 
ख़ुद में ख़ुदा बन कर जीना बहुत ही आसान है, 
बस कि जो ख़ुद अपने लिए चाहो, वही दूसरों के लिए भी पसंद करो. 
इस में ज़रा सी भी लग़ज़िश, ख़ुदाई को शैतान बना देती है. 
ख़ुदा और शैतान ही व्यक्तित्व के दो आकार हैं.
 ख़ुदाई की हद है, शैतानियत की कोई हद नहीं. 
शैतानियत चंगेज़ भी बन सकता है और हिटलर भी , 
मगर अपने चुने हुए ख़ुदा की एक हद है, 
कि वह दूसरों में भी ख़ुद को पाता है.
वह अपनी ख़ुदाई का एलान भी नहीं कर सकता.  
इंसानी समाज का एक ही हल है कि वह ख़ुद को पहचाने और ख़ुदा बन जाए.
कण कण में भगवान है, यह ख़ुदा की अधूरी पहचान है. 
पूरी पहचान यह है कि जन जन में भगवान है.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 24 June 2020

टॉप 10 दुन्या

टॉप 10 दुन्या

ख़ुदा ऐसा है जो ख़ुद से पैदा हो गया है, उसका कोई माई बाप नहीं. 
यह शब्द ईरानी है और इस्लाम आने के पहले हज़ारों साल से है.
ख़ुदा ख़ुद से पैदा हुआ, वह पूरी तरह से आज़ाद है, 
आग भी बरसा सकता है और बहार भी, उसे अख़्तियार. 
ख़ुदा ने बन्दों को पैदा किया इस लिए बन्दे उसके पाबंद हैं, 
उनको ख़ुदा की बंदगी करनी चाहिए. 

यहूदियों का ख़ुदा इससे कुछ मुख़्तलिफ़ है. वह इलोही है. 
इलोही सिर्फ़ यहूदियों का ख़ुदा है, बाक़ियों का अहित कारी. 
उसने यहूदियों से वादा किया हुआ है कि वह एक दिन यहूदियों को पूरी मानव जाति का शाशक बनाएगा. यहूदी कभी भी अपने इलोही का नाम नहीं लेते, उसे यहवः की उपाधि से पुकारते हैं, जैसे आप अपने बाप का नाम नहीं लेते, अब्बा या पिताजी कहके पुकारते हैं. वह लिखते हैं तो इलोही होता है. 
इलोही कुछ दूसरे तबक़े में इलाही हुवा फिर इस्लाम ने इसे अल्लाह नाम दिया. 

अल्लाह अजीब व ग़रीब जीव हुवा करता है. 
यह अहमक़ इंसानों की क़िस्मत पैदा होने से मौत तक, 
हमाल (गर्भ) में ही लिख देता है, 
और पैदा होने के बाद फिर उसके अच्छे और बुरे कर्मों को लिखने के लिए  दो मुंशी किरामुन और क़ातबीन को बच्चे के दोनों कंधो पर लाद देता है. 
वह दिनों रात उसका आमालनामा लिखते हैं. 
जो क़यामत के दिन अल्ला के सामने बन्दों के हाथ पर रख देते है. 
अल्लाह अपने बन्दों को ऐसे जलाता है कि जली हुई ख़ाल बदलता रहता है.
दोज़ख़ में इंसानी ईधन ख़त्म हो जाता है तो वह पत्थरों को जलाता है. 
क़ुरआन इस अफ़ीमची अल्लाह का पुथन्ना है. 
यही बात पाकिस्तान में अगर मैं करूँ तो ईश निंदा होती है और सर गंवाना पड़ता है.
वह दिन बदिन कट्टर होते चले जा रहे हैं, 
ईरान के प्रचलित शब्द ख़ुदा हाफ़िज़ को अल्लाह हाफ़िज़ कर दिया है,
गोया ख़ुदा में भी उन्हें अब कीड़े नज़र आने लगे हैं.

एक धर्म है हिन्दू धर्म, 
चूंचूं का मुरब्बा !
जिसे 33 करोड़ देवी देवताओं के साथ आप रोज़ ही देखा करते हैं.

इसके बाद दुन्या आज उस मुक़ाम पर पहुँच गई है जहाँ ख़ुदाओं, और अल्लाहों को दफ़्न कर दिया गया है, गोड को कुदरत की शक्ल में मानते हैं, वह है पश्चिम की टॉप 10 दुन्या.  

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 23 June 2020

नया इस्लाम

नया इस्लाम 

मुसलमानों ! दो टुकड़ों में तुम्हारा ईमान है 
(1) लाइलाहा इललिललाह 
(2) मुहम्मदुर रसूललिल्लाह 
जिसके मअनी हैं, अल्लाह के सिवा कोई अल्लाह नहीं 
और मुहम्मद उसके पैग़म्बर (डाकिया) हैं. 
इस्लाम ग्रहण करने के लिए पहला कलिमा भी है.
यह दोनों बातें ईमान नहीं, अव्वल दर्जे की बेईमानी है. 
अभी तक साबित नहीं हो पाया है अल्लाह एक है या अनेक, 
अल्लाह है भी या नहीं ? 
लाखों. करोड़ों बल्कि अरबों साल गुज़र चुके हैं, 
अल्लाह का कहीं भी पता नहीं लग पाया. 
वह भी इस्लामी अल्लाह जो हर वक़्त हिमाक़त की बातें करता है. 
ऐसे अल्लाह का कोई पैग़म्बर (डाकिया) हो सकता हैं ? 
अपने इस कलिमे की वजह से मुसलामानों !
तुम दुन्या की सब से जाहिल क़ौम बने हुए हो. 
दुन्या को छोडो, हिंदुस्तान की बात करो जहाँ दर दर तुम रुसवा हो रहे हो. 
तुम्हारी वजेह से देश की अक्सरियत को नहीं जगाया जा सकता. 

मोहन भागवत अलल एलान कहता है - - -
"मुसलमान ज़िन्दा तो मनुवाद ज़िन्दा है मुसलमान तो चाहिए ही भारत के लिए." यानी हिन्दुत्व की बक़ा इस्लाम पर निर्भर है. 
मोहन भागवत क़ल्ब ए सियाह होते हुए भी कितना सच बोल रहा है. 

इस्लाम की दो दाग़ दार हस्तियाँ हैं - - - 
पहला मुहम्मद और दूसरा क़ुरआन. 
इनको जिसारत के साथ अगर मुसलमान तर्क कर दें 
तो उनकी सूरत खरे सोने की तरह वजूद में आ सकती है. 
मुहम्मद 
मुहम्मद जिन जेहादों में शरीक हुए उन्हें ग़िज़वा कहा जाता है.
इन जंगों में मुहम्मद ने एक ज़ालिम व जाबिर की तरह दिखते हैं . 
(जंग ख़ैबर की दास्तान देखें ) 
जान माल की पामाली क़त्ल व ग़ारत गरी की इन्तहा कर देते हैं, 
लूट पाट को माल ए ग़नीमत कहा. 
मर्दों को क़त्ल कर के उनकी औरतों को लौंडी बना लेते थे 
और जंग जूओं में उन्हें तक़सीम कर दिया करते थे 
जिनके साथ संभोब ज़िना कारी न होती. 
पहले जंगें ऐसे ही हुवा करती थीं बल्कि यहूदियों की इससे ज़्यादा ज़ालिमाना. 
मगर धर्म के नाम पर ऐसी बरबरियत, कम देखी गई है.
यही जेहाद इस्लाम को सदियों बाद आज भी ख़्वार किए हुए है. 
मुहम्मद के मरते ही ग़िज़वा नुमा जेहाद का लगभग ख़ात्मा हो गया. 
मगर जेहाद का सिलसिला जारी रहा. 
जिहाद की शक्ल यह थी कि मुल्कों के हुक्मरानों पर मुसलमान हमला करते थे, उन पर तीन शर्त रखते थे. 
मुसलमान बनो, या जज़िया दो या फिर जंग करो. 
इंसानी तहज़ीब की इर्तेक़ाई (रचना कालिक) हालात को मद ए नज़र रखते हुए यह तरीक़ा किसी हद तक ग़नीमत था. 
पहले जंगें ऐसे ही हुआ करती थीं.    

मैं कुछ भटक रहा हूँ, आता हूँ मुद्दे पर. 
मुहम्मद की जो अब माज़ी हो चुके है, कुछ झलक मैंने दिखलाईं.
अब क़ुरआन की बात पर आइए जो माज़ी नहीं हुआ है, 
आज भी हर्फ़ बा हर्फ़ मौजूद और मयस्सर है. 
इसमें 99% ख़ुराफ़ात है, 1% सच है, वह भी क़ुरआनी सच नहीं, आलमी सच है.  

 मुसलमानों ! पूरे क़ुरआन को रद्दी की टोकरी में डाल दो. 
क़ुरआन ने नाम पर सिर्फ़ सूरह फ़ातेहा को मुकम्मल क़ुरआन कर लो. 
सूरह फ़ातेहा किसी यहूदी की रची हुई दुआ है जिसे यहूदी भी दुआ की तरह पढ़ते हैं.
जब तक खौ़फ़ ए इलाही से फ़ारिग़ नहीं होते, इसे दिन में एक बार पढ़ लिया करो.
 बहाई मज़हब की इबादत भी दिन एक बार में सिर्फ़ दस मिनट के लिए होती है 
जिसमें कोई भी शरीक हो सकता है. 

मुसलमानों के सात कलिमें हैं जिनमे एक से बढ़ कर एक जहालत की बातें हैं, इसी वजह से किसी मुसलमान को सातों कलिमें याद नहीं हो पाते. 
पहला कलिमा, कलिमा ए शहादत के नाम से जाना जाता है 
जिका उल्लेख हम शुरू में कर चुके हैं. 
अपने कलिमें भी बदलो. 
इसको जदीद रौशनी में कुछ इस तरह कर लो.
पहला कलिमा सदाक़त (सच)   1-फ़ितरी ( लौकिक) सच के सिवा कोई सच नहीं. 
दूसरा कलिमा मशक्क़त           २- हक़ हलाल की रोज़ी ही जायज़ हो.
तीसरा कलिमा मुहब्बत             3- हर इंसान और मख़लूक़ से प्यार हो.
चौथा कलिमा मुरव्वत                4- हर इंसान के साथ रवादारी हो.
पांचवां कलिमा इजाज़त              5- हर इंसान को अपने किसी भी फ़ेल (कर्म) की आज़ादी जिसमे किसी दूसरे का नुकसान न हो.                             छटां कलिमा इबादत                  6- सफ़ाई और ज़मीन को सजाना,  संवारना ही  इंसानी पूजा हो.                                                               
 और सातवाँ कलिमा अज़मत      7- इंसान और दीगर जीव के फ़लाह के लिए किए हुए काम पर फ़र्द को दर्जा बदर्जा रुतबा और मुक़ाम  बख़्शा जाए. मूजिद को पैग़म्बर माना जाए.
                                                       
   सारी दुन्या के इंसानों ! सहल और सहज हो जाओ, बजाए मुश्किल के.



                                                  
                                                      




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 22 June 2020

संवेदन हीनता

संवेदन हीनता 

पिछले पंद्रह दिनों के कोरोना काल में तीन घटनाएँ मेरे सामने ऐसी घटी हैं कि जिससे मानव संवेदना विचलित होती नज़र आईं. 
किसी बस्ती के एक हिन्दू बूढ़े की मौत पर कोई हिन्दू उसकी अर्थी उठाने नहीं आया, 
बस्ती के मुसलमानों ने उसकी मिटटी अपने कन्धों पर ढो कर शमशान तक पहुँचाया और हिन्दू रीति रिवाज से उसको ठिकाने लगाया. 
ऐसा ही वाक़िया एक हिन्दू बूढी औरत का हुआ, कोई हिन्दू पुरसान हाल न हुआ.  जिसकी अंतिम यात्रा मुसलमानों के काँधे पर हुई और सारे संस्कार भी.
तीसरा दुखद केस महाराष्ट्र के एक गाँव का है, 
एक मुस्लिम की मौत हो गई, हिन्दुओं ने उसे ज़मीन में दफ़न नहीं करने दिया, 
ठीक है महाराष्ट्र सरकार का फ़रमान कोरोना के अंतर गत जारी हुवा था. 
विडम्बना यह है कि उसकी पत्नी अकेले ही मय्यत को जला रही है, 
कोई उसका यार व मददगार नहीं. 
इन तीनों घटनाओं वीडियो सब के सामने आया है.
मैं मुसलमानों की कोई तारीफ़ नहीं करूंगा, 
डरता हूँ कि पक्ष पाती न बना दिया जाऊँ.
मगर हिदू मानस इतना संवेदन हीन कैसे हुवा जा रहा है ?  
***


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 21 June 2020

क़ुदरत के सब बन्दे

क़ुदरत के सब बन्दे 

1- केस धारी 
2- कृपाण धारी 
3- कड़ा धारी  
4- कंघा धारी  
5- कच्छा धारी
 इस "पंज धारिता" की सज़ा जंग हारने के बाद सिख गुरू ने अपनी क़ौम को दी थी कि जब तक दुन्या के आख़िरी मुसलमान को ख़त्म न कर दो, इस सज़ा को भुगतते रहो. तब तक औरतों की तरह केस रक्खो, औरतों की तरह कड़ा पहनो, 
केस को संवारने के लिए कंघा रखो और अपनी सुरक्षा के लिए के लिए कृपाण. 
कच्छा किस कारण अनिवार्य हुवा ? १२ बजे तक मालूम हो जाएगा. 
अब सवाल उठता है एक अरब सत्तर करोड़ मुसलमानों का सफ़ाया,
 २-3 करोड़ की आबादी वाली बिरादरी कैसे कर सकती है ? 
उल्टा सिक्खों को दुन्या में मुसलमानों के साथ मिल जुल कर रहना पड़ता है. 
दोनों की धार्मिक मान्यताएं ज़्यादः तर मिलती जुलती हैं. 
गुरु ग्रन्थ साहब शुरू ही होता हैं अल्लाह के नाम से 
"अव्वल अल्लाह नूर उपाया, क़ुदरत के सब बन्दे "
गुरु ग्रन्थ साहब में मुस्लिम सूफियों का कलाम है.
"पंज धारिता" सिक्खों के लिए कोई वरदान नहीं बल्कि भुगतान है.
मेरे कई सिक्ख भाई गहरे दोस्त हैं जो कभी कभी खुल कर बात करते हैं.
 उन्होंने बतलाया वह रोज़ नहाते है मगर बालों को धोते हैं हफ़्ते में एक बार हैं, 
बतलाया कि बालों को खुश्क करके ही पगड़ी बाँधी जा सकती है जिस में आधा दिन का समय लगता है. 
गर्मियों में पगड़ी ग्यारह बजे के बाद बारह बजा देती है.           
अक्सर सर में जुएँ पड़ जाती हैं, 
पगड़ी के साथ कंघा जो लंबे बालों को संवारता है.  
इसके साथ एक खुजाली पहले रखनी पड़ती है.
जुएँ भरे सर को खुजाने के लिए. 
मुस्लिम देशों में सिक्खों को मस्जिद में नमाज़ पढते हुए देखा गया है.
हर जगह भाई चार्गी निभानी पड़ती है, गुरु जी के फ़रमान के साथ.
इमरान और सिद्धू गले मिलते हैं, दिलों में फ़ासले के साथ.
यह मुनाफ़िक़त और दोग़ला पन निभाना कहाँ तक दुरुस्त है ?
इसे ख़त्म होना ही चाहिए.
जुझारू और बहादर क़ौम कोई गुरु ऐसा पैदा करे कि जो इनको "पंज धारिता" से मुक्त कर सके, जो इनको खुला सर दे सके.
दसवें गुरु ने गुरुवाई परंपरा को ख़त्म करते हुए गुरु ग्रन्थ साहब को सदा के लिए गुरु बना दिया. 
गुरु ग्रन्थ साहब का सिर्फ़ आधा वाक्य सिख्खों को पंज धारिता से मुक्त कराती है 
"क़ुदरत के सब बन्दे " 
 सब क़ुदरत के बन्दे, तो सिक्ख कहाँ रह जाता है और मुसलमान कहाँ ?
ऐसा पैग़ाम तो शायद किसी धर्म ने दिया हो.
(सिख्ख भाइयों से क्षमा के साथ)


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 20 June 2020

वक़्त आ गया है - - -

वक़्त आ गया है - - -

वक़्त आ गया है,सारी दुन्या के लिए और ख़ास कर भारत के लिए 
कि हम धार्मिता के ज़हर को त्यागें और मानव धर्म को स्वीकारें.
धर्म की दुन्या कोरोना के आगे ध्वस्त हो चुकी है.
धर्मो को छोड़ कोरोना निदान की तलाश में जुट गई है. 
आस्तिकता पूरी तरह से मूर्खता है, तो नास्तिकता अधूरा सत्य है, 
वास्तविकता (वस्तु स्थिति) सत्य की सीढ़ी का पहला ज़ीना है. 
इस पर चढ़ते रहना कायनात के राज़ों को जानते रहना ही वस्तु स्थिति है. 
रेत का पहाड़ आज यहाँ, कल वहां और परसों न जाने कहाँ, 
यह कुदरत की चंचलता है. 
और पृथ्वी करोड़ों साल से, अपनी धुरी पर घूमती हुई सूर्य की परिक्रमा निर्धारित एक साल में करती है, जिसमे एक सेकेण्ड का फ़र्क़ भी नहीं होता 
 तो कुदरत कितनी संजीदा और कितनी बड़ी गणितज्ञ है. 
इसी वास्तविकता (वस्तु स्थिति) की सीढ़ी पर चढ़ते हुए हम एक हर मरज़ की दवा तलाश कर सकते है. 
एक दिन हम मानव से महा मानव बन सकते हैं.
Timing And Dezining को समझना ज़रा मुश्किल है, 
भाग्य का लिखा हुआ बहुत आसान है. 
हमारे लोक तंत्र का दुर्भाग्य ये है कि आज हमारे रहनुमा ऐसे है जो जाहिलों भी बदतर.
CM अपनी गायों को मास्क लगाता करोना से बचाने के लिए, 
शिव लिंग और पत्थर के भगवान भी मास्क पहने देखे जा सकते है.

सत्य की सीढ़ी पर क़दम रखिए और धर्म के आडम्बरों को मौत से पहले त्यागिए. आज दुन्या ख़त्म होने के कगार पर है, 
सभी भगवान, अल्लाह और Gods करोना के सामने घुटने टेक चुके हैं. 
आप हैं क्या ? 
आप इस धरती के लिए बहुत कुछ हैं 
अगर आपकी आँखें अब भी खुल जाएं.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 19 June 2020

हलाल + कोरोना के मुजरिम

हलाल 

शारीरिक मेहनत और मशक़्क़त से अर्जित की हुई रोटी को हलाल कहते हैं. 
अकबर ने भंगियों को "हलाल खो़र" का रुतबा दिया था. 
हलाल. आम भाषा में क़त्ल समझा जाता है. मगर ऐसा नहीं है.
इस्लाम ने ऐसे सभी पवित्र शब्दों का इस्लामी करण कर लिया 
जिससे शब्दों का अर्थ कुछ का कुछ हो गया. 
पशु पक्षी को जिबह करने से पहले "बिस्मिल्लाह अल्लाह  हु अकबर" 
तीन मर्तबा पढ़ लो, तो मांस हलाल हो जाएगा वरना हराम. 
हलाल और झटका की फर्क़ मुस्लिम और सिक्खों के दरमियान ख़ूब चलता है. 
इस तरह से हलाल का मतलब क़त्ल करना हो गया 
जब कि इस शब्द का मतलब है मुक़द्दस कमाई. 
गद्दी पर बैठे साहूकार और कमीशन एजेंट की कमाई हलाल नहीं हो सकती, 
क़ानूनन जायज़ हो सकती है. 
हलाल को रोटी खाने वाले को किसी धर्म या मज़हब की ज़रूरत नहीं, 
उनको ज़रुरत है चैन की नींद सोने की.
कोरोना वायरस हलाल खो़रों से दूर भागते हैं. 
उनके शरीर को छूते ही वायरस की मौत हो जाती है, 
बल्कि वह मेहनत करने शरीर में वह वेक्सीन बन जाते हैं, 
देखें सड़कों और रेलवे पर लाखों मज़दूरों की भीड़ आपस में पास पास चलते हुए मंज़िल तय करते हैं, कोई कोरोना संक्रमित नहीं, 
हाँ थकन और भूक से वह दम तोड़ते हैं मगर कोरोना से नहीं. 
इस गर्दिश में देश भर में लगभग 5 करोड़ हलाल खो़र हैं 
मगर कोई कोरोना पीड़ित नहीं,

कोरोना के मुजरिम 

वैश्विक स्तर पर देशों में कोरोना के करण जो भी हो, 
भारत में इसके विस्तार को तबलीग़ी कोरोना कहा जाएगा. 
मुस्लिम समाज के लिए यह जमाअत क़ौमी प्रवाह के इर्द-गिर्द रुके हुए पानी के गड्ढे होते है जो सड़ कर परिवेश को दूषित करते हैं. रचनात्मक काम तो दरकिनार, 
यह काम ही नहीं करते हैं. 
अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियों को अल्लाह के हवाले करके प्रयाटक बन जाते हैं. 
देश में इनके कारण इतनी बड़ी त्रासदी हो गई है, 
तो इसकी सज़ा इनको मिलनी ही चाहिए. 
इनके मरकज़ (केंद्र) को आधुनिक रसायन विधि से किसी घोषित तारिख़ में, 
मन्ज़र ए आम पर ध्वस्त कर देना चाहिए ताकि लोगों को इबरत हो.
हर जमाअती को इसकी सज़ा मिलनी चाहिए. 
तबलीग़ी जमाअत को प्रतिबंधित करना चाहिए.
मगर सरकार कुछ नहीं करेगी 
क्यूंकि हिन्दू समाज में इनके मुक़ाबिले में दस गुना संघ और संगठन हैं, 
नाराज़ हो जाएंगे. इनके ज़ोर पर ही सरकार क़ायम है.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 18 June 2020

कोरोना +तबलीग़िए

कोरोना 

कोरोना का क़हर जब दुन्या को दहला चुका होगा,
धरती माता जो ओवर लोड हो चुकी थी , संतुलित हो चुकी होगी,
एक न एक दिन कोरोना का शबाब ढल चुका होगा,
धार्मिक और मज़हबी गिद्ध इंसानी लाशों को नोच नोच कर अपने पेट भर रहे होंगे,
भोली भाली अवाम टकटकी लगाए आसमान को तक रही होगी,
भारत के तमाम शाहीन बाग़ ग़र्क़ आब हो चुके होंगे,
अय्यार सियासत दानों को अच्छा अवसर मिल चुका होगा,
नागरिकता कानून की तीनों धाराएं लागू हो चुकी होंगी.
तब देश का वजूद अमितशा ग्रस्त होगा.
और भारत का नया रूप निर्णायक होगा.
(अगली भविष्य वाणी का इंतेज़ार करें)
***

तबलीग़िए

एक दाढ़ी दार मुझे उर्दू  किताबों की दूकान पर मिले, 
रस्मन दुआ सलाम हुवा उन्हों ने मेरा पता ठिकाना पूछा, 
मैंने अख़लाक़न बतला दिया. 
क्या देखते हैं कि वह अगले दिन सुबह सुबह अपने दो साथियों को लिए मेरे दरवाज़े पर नाज़िल हैं. मुझे अच्छा न लगा, बाहर ही बाहार उन्हें टालने की कोशिश की.
कहिए ? मैं सवालिया निशान बन गया. 
उनको अच्छा न लगा, सोचा होगा ख़ातिर तवाज़ो होगी, 
दीवार से टिक कर उन्होंने क़ुरआन का एक टुकड़ा सुनाया "मिन सुरुतना व आमालना - - - हर मुल्ला शुरू इसी आयत से होता  है.
मैंने जवाबन संस्कृत के दो श्लोक पढ़ दिया.
कहने लगे कि संस्कृत तो हमको आती नहीं.
और अरबी मुझको नहीं आती. मैं ने कहा.
मैंने आपको क़ुरआन शरीफ़ का एक पेग़ाम सुनाया था.
पता नहीं क़ुरआन का पेग़ाम था या अरबी में कोई गाली.
लाहौल पढते हुए उन्होंने अपनी तक़रीर शुरू करनी ही चाही थी कि मैंने उनको टोका
आपको अरबी आती है ?
माशा अल्लाह, हाँ आती है 
मैंने उनको क़ुरआन की एक सूरह पढ़ कर सुनाई 
"तब्बत यदा अबी लह्ब्यूँ - - -"
मैंने पूछा इस सूरह में अल्लाह क्या कहना चाहता है ?
खिसया कर कहने लगे मैंने सिर्फ़ क़ुरआन पढ़ा है.
तो मौलाना आप झूट भी बोलते हैं,मैंने पूछा. 
मैंने उनसे पूछा कि मुसलमानों में ही क्यूँ जाते हैं जो नमाज़ पढता है. 
तबलीग़ (प्रचार) ग़ैर मुस्लिमो में करिए ताकि इस्लाम में बरकत हो, 
पडोस में राव साहब रहते हैं जाइए उनको इस्लाम का पेग़ाम दीजिए..
कहने लगे आप साथ चलिए.
मैंने कहा क्या मुझे पागल कुत्ते ने काटा है ? 
मैं उनके धर्म की इज्ज़त करता हूँ, वह मेरे मज़हब का. 
मैं ने और उनसे पूछा  
क्या आपको पागल कुत्ते ने काटा है ? 
कठ मुल्ले के एक साथी बोला चलो यार कहाँ आ गए हो.
और मेरा पिंड छूटा.
ऐसे होते है तबलीग़िए.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 17 June 2020

तबलीग़ की शुरूआत

तबलीग़ की शुरूआत 

मुहम्मद जब पूरी तरह से अरब के शाशक बन चुके थे तो उनका एलान हुवा कि मुसलमान अरब बस्तियों में जाएँ और देखें कि कौन मुसलमान बस्ती कौन नहीं. अलल सुबह (तडके) वहां अज़ान की आवाज़ आई या नहीं ? अगर अज़ान की आवाज़ सुनाई न पड़े तो बस्ती पर हमला करदें और बस्ती को लूट फूंक कर तबाह कर दें. 
उस ज़माने में मदीना के लोगों का शुग़ल बन गया था, जिसका नाम था 'तबलीग", 
जैसे आज भी कई बस्तियों में सुबह सुबह बेकार लोग कंधे पर कटिया रख कर मछली के शिकार करने के लिए निकल जाते हैं, ठीक उसी तरह तबलीग़ उन नव मुस्लिमों का मशग़ला बन गया था.
आज के यह जाहिल मुसलिम उनकी नक़ल करते हैं, 
ग़ैर मुसलामानों को इस्लाम की दावत देने से तो इनकी फटटी है, 
मुसलमानों को मुसलमान बनाते हैं, नमाज़ पढवाना ही इनका काम है, इस्लाम को यह जानते भी नहीं.
कहीं वह नमाज़ से ग़ाफ़िल होकर मेहनत व मशक्क़त में मुब्तिला तो नहीं हो गए ? उनको अपनी तरह ही हराम खो़र बनाते हैं.
एक बार मुहम्मद के दामाद अली मौला भी तबलीग़ में गए, ज़ालिम ने एक ग़ैर मुस्लिम बस्ती को बमय आबादी आग के हवाले कर दिया था, उनके चचा अब्बास ने इस पर अफ़सोस ज़ाहिर किया कि अली को ऐसा नहीं करना चाहिए, आग से इंसानों को जलाने का काम सिर्फ़ अल्लाह का है.
इन तबलीग़ियों को इबरत नाक सज़ा मिलनी चाहिए ताकि दूसरे इस से तौबा करें.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 16 June 2020

किंव्य कर्तव्य विमूढ़

किंव्य कर्तव्य विमूढ़ 

तीनों सेना के सृजित नए पद पर विराजमान, 
रिटायर्ड होने के बजाए पदोन्नति पाए हुए, 
साहब ! बुद्धि जीवियों को बुद्धि हीन साबित कर रहे हैं, 

इसके पहले के सेना अध्यक्ष ने, एक साल गोलमाल करके नाजायज़ नौकरी की, 
रिटायर्ड मेंट पर तोहफ़े में मिनिस्टर बने फिर रहे हैं. 

सर्वोच्च न्याधीश, न्याय के मुंह पर कालिख पोत कर राज्य सभा के मिम्बर हो गए. तड़ी पार देश का डिक्टेटर बन गया ?? 
आर्थिक स्रोत की सारे ढलान गुजरात की ओर जा रहे हैं, 
बुद्धि जीवी सब खुली आँख देख रहे हैं.
जिनके पास सिर्फ़ आँख और बुद्धि बची है, 
बाक़ी अंग भंग कर दिए गए हैं.
जनता की नपुंसकता का इलाज किसी हकीम के पास नहीं.
हमारे देश का भविष्य क्या होने वाला है ?   
कहीं कोरोना ही तो नहीं ? ?


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 15 June 2020

शुद्र्ता

शुद्र्ता 

मनु विधान की आमद आमद है. 
इस आमद में शूद्र नेताओं का बड़ा योगदान है. 
BJP जोकि खुले मनुवादी हैं, में 66 नेता शूद्र हैं, 
जो कि सरकार बनाने में उनके साथ हैं, BJP की बैसाखी हैं. 
कांग्रेस काल में किसी को शूद्र कहना उनको गाली देने की तरह था, 
किसी को शूद्र कहने पर हथकड़ी लग जाती  थी, 
यह शूद्र से हरि जन हो गए थे, 
माया वती को यह शब्द भी अखरा, कहा कि गांधी क्या शैतान की औलाद था ? 
कि हमको हरि की संतान बना गया ? 
हम मनुवाद के सताए हुए दलित हैं. 
बहन जी के कई रूप हैं, कभी कुछ बकती हैं कभी कुछ. 
कभी मुसलमानों को बहुजन में लाती हैं तो कभी ब्राह्मणों को. 
मैं इनको फिर से शूद्र कहने की हिम्मत इस लिए कर रहा हूँ 
कि मनुवाद की दासता को यह अब भी स्वीकार करने पर आमादा हैं  
66 MP मनुवाद को जीवित किए हुए हैं. 
इस्लाम ने इन्हें शूद्र से मुसलमान बना दिया था, 
एहसान मानें.
यह बदले में अपने ही भाई मुसलमानों को मनुवाद के इशारे पे दंगे में लूट लेते हैं ?
किसी भी बिरादरी का अपना कुछ तो स्तर हो, कोई मर्यादा हो.
ख़ुद अपनी इज़्ज़त करोगे तो हम भी तुम्हारी इज़्ज़त करेंगे.
**


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 14 June 2020

कोरोना वरदान

कोरोना वरदान

आज दुन्या का हर पहलू असंतुलित हो चुका है. 
तरक़्क़ी के नाम पर धरती तनुज़्ज़ली के पाताल की तरफ़ भागी जा रही है. 
कमज़ोर संविधान की छूट के आधार पर लोग पहले दुन्या को दूषित करते है 
फिर क़ानून साज़ी होती है जिसके तहत लोगों को अरचनात्मक रोज़ी और नौकरयाँ सृजित होती हैं. 
गंगा मे पहले इंसानी और हैवानी लाशें और शौच गंदगी बहाई जाती है 
उसके बाद गंगा सफ़ाई की योजना पर अरबों रुपया बर्बाद होते है. 
इस रक़म से कई रचनात्मक इस्कीम बन सखी हैं. 
डेढ़ महीने के लाक डाउन से गंगा ख़ुद बख़ुद साफ़ हो गई है. 
और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहर हिमालियन चोटियों को खुली आँख से देखने लगे हैं.

आज करोडो इंसानी शरीर सड़कों पर चलते हुए लहू लुहान हो रहे हैं.
मानव पीडा को समेटे हुए बड़ी अमानवीय बात कहने जा रहा हूँ,  
क्यूँ पैदा कर दिए इंसानी मज़दूर और मजबूर ? 
दूसरों की ज़रुरत के लिए संताने जनते हो ? 
मज़दूर और मजबूर संताने पैदा करना बंद करो, 
पहले अपना स्थान इस धरती पर बनाव ताकि आने वाले नस्ल की विरासत बने,
फिर नस्ल बढाव.
यह सबक़ कोरोना की निष्ठुरता देती है. 
रहम और करम की भाषा अब मूल्यहीन हो रही हैं 
हक़ीक़त यही है कि तुमने ग़ैर ज़रूरी औलादें दूसरे के भरोसे पैदा की हैं, 
दूसरा सिर्फ़ अपने औलादों भर के लिए है. 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 13 June 2020

मैं कहानी पढ़ता गया और आंसू बहते रहे

मैं कहानी पढ़ता गया और आंसू बहते रहे

आपने देखा है न उन्हें !!
चौड़ा माथा, गहरी आंखे, लम्बा कद.. और वो मुस्कान। जब मैंने भी उन्हें पहली बार देखा- तो बस देखते रह गयी। साथी से पूछा- कौन है ये खूबसूरत लड़का। हैंडसम!! हैंडसम कहा था मैंने,

साथी ने बताया वो इंडियन है। पण्डित नेहरू की फैमिली से है। मैं देखती रही .. पंडित नेहरू की फैमिली के लड़के को।

कुछ दिन बाद, यूनिवर्सिटी कैंपस के रेस्टोरेन्ट में लंच के लिए गयी। बहुत से लड़के थे वहां। मैंने दूर एक खाली टेबल ले ली। वो भी उन दूसरे लोगो के साथ थे। मुझे लगा, कि वह मुझे देख रहे है। नजरें उठाई, तो वे सचुच मुझे ही देख रहे थे। क्षण भर को नजरे मिली, और दोनो सकपका गए। निगाहें हटा ली, मगर दिल जोरो से धड़कता रहा।

अगले दिन जब लंच के लिए वहीं गयी, वो आज भी मौजूद थे। कहीं मेरे लिए इंतजार ...!!! मेरी टेबल पर वेटर आया, एक वाइन को बॉटल लेकर.. और साथ मे एक नैपकिन, जिस पर एक कविता लिखी थी। "द वन"...

वो पहली नजर का प्यार था। वो दिन खुशनुमा थे। वो स्वर्ग था। हम साथ घूमते, नदियों के किनारे, कार में दूर ड्राइव, हाघो में हाथ लिए सड़कों पर घूमना, फिल्में देखना। मुझे याद नही की हमने एक दूसरे को प्रोपोज भी किया हो। जरूरत नही थी, सब नैचुरल था, हम एक दूसरे के लिए बने थे। हमे साथ रहना था। हमेशा ..

उनकी मां प्रधानमंत्री बन गयी थी। जब इंग्लैंड आयी तो राजीव ने मिलाया। हमने शादी की इजाजत मांगी। उन्होंने भारत आने को कहा।

भारत ... ?? ये दुनिया के जिस किसी कोने में हो। राजीव के साथ कहीं भी रह सकती थी। तो आ गयी। गुलाबी साड़ी, खादी की, जिसे नेहरू ने बुना था, जिसे इंदिरा ने अपनी शादी में पहना था, उसे पहन कर इस परिवार की हो गयी। मेरी मांग में रंग भरा, सिन्दूर कहते हैं उसे। मैं राजीव की हुई, राजीव मेरे, और मैं यही की हो गयी।

दिन पंख लगाकर उड़ गए। राजीव के बड़े भाई नही रहे। इंदिरा को सहारा चाहिए था। राजीव राजनीति में जाने लगे। मुझे नही था पसंद, मना किया। हर कोशिश की, मगर आप हिंदुस्तानी लोग, मां के सामने पत्नी की कहां सुनते है। वो गए, और जब गए तो बंट गये। उनमें मेरा हिस्सा घट गया।

फिर एक दिन इंदिरा निकलीं। बाहर गोलियों की आवाज आई। दौड़कर देखा तो खून से लथपथ। आप लोगों ने छलनी कर दिया था। उन्हें उठाया, अस्पताल दौड़ी, उन खून से मेरे कपड़े भीगते रहे। मेरी बांहों में दम तोड़ा। आपने कभी इतने करीब से मौत देखी है?

उस दिन मेरे घर के एक नही, दो सदस्य घट गए। राजीव पूरी तरह देश के हो गए। मैंने सहा, हंसा, साथ निभाया। जो मेरा था... सिर्फ मेरा, उसे देश से बांटा। और क्या मिला। एक दिन उनकी भी लाश लौटी। कपड़े से ढंका चेहरा। एक हंसते, गुलाबी चेहरे को लोथड़ा बनाकर लौटा दिया आप सबने।

उनका आखरी चेहरा मैं भूल जाना चाहती हूं। उस रेस्टोरेंट में पहली बार की वी निगाह, वो शामें, वो मुस्कान ... बस वही याद रखना चाहती हूं।

इस देश मे जितना वक्त राजीव के साथ गुजारा है, उससे ज्यादा राजीव के बगैर गुजार चुकी हूं। मशीन की तरह जिम्मेदारी निभाई है। जब तक शक्ति थी, उनकी विरासत को बिखरने से रोका। इस देश को समृद्धि के सबसे गौरवशाली लम्हे दिए। घर औऱ परिवार को संभाला है। एक परिपूर्ण जीवन जिया है। मैंने अपना काम किया है। राजीव को जो वचन नही दिए, उनका भी निबाह मैंने किया है।

राजनीति है, सरकारें आती जाती है। आपको लगता है कि अब इन हार जीत का मुझ पर फर्क पड़ता है। आपकी गालियां, विदेशी होने की तोहमत, बार बाला, जर्सी गाय, विधवा ... इनका मुझे दुख होता है। किसी टीवी चैनल पर दी जा रही गालियों का दुख होता है, ट्विटर और फेसबुक पर अनर्गल ट्रेंड का दुख होता है?? नही, तरस जरूर आता है।

याद रखिये, जिससे प्रेम किया हो, उसकी लाश देखकर जो दुख होता है। इसके बाद दुख नही होता। मन पत्थर हो जाता है। मगर आपको मुझसे नफरत है, बेशक कीजिये। आज ही लौट जाऊंगी। बस, राजीव लौटा दीजिए।

औऱ अगर नही लौटा सकते , तो शांति से, राजीव के आसपास, यहीं कहीं इसी मिट्टी में मिल जाने दीजिए। इस देश की बहू को इतना तो हक मिलना चाहिए शायद...
सोनिया गांधी

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 12 June 2020

तबलीग़ी आलिम

तबलीग़ी आलिम 

पिछड़ा तबक़े का ग़रीब मुसलमान, संम्पन्न मुसलमानो के बीच रह कर उनका दास  बना रहता है.
उन्हीं के मशविरे से वह अपने बच्चों को ख़ैराती मदरसों में डाल देते है. 
यही बच्चे शारीरिक और मानसिक वेदना को झेलते हुए दीनी तालीम पूरी करते हैं.
वह वहां की ऊंची डिग्री पाते पाते जवान हो जतेहै और जब ज़रीआ मुआश तलाश करने जाते है तो आठ दस साला तालीम किसी काम नहीं आती, बस कि वह मस्जिद में नमाज़ पढाएं या फिर समाज के बच्चों घर घर जाकर दीनी तालीम दें.
फिर भी इनकी तादाद ज़्यादा होती और नौकरी कम. 
आलिम फ़ाज़िल होने के बाद अपना रख रखाव क़ायम रख पाना भी उनके लिए मुश्किल हो जाता है. मशक़्क़त इनसे हो नहीं पाती और मशक़्क़त को यह मायूब समझत है कि एक मोलवी लुहार के नीचे घन चलाए ? 
कुछ इनमे से तबलीग़ी बन जाते हैं और घर घर जाकर लोगों से नमाज़ पढने का  प्रचार करते हैं, इसी में वह अपनी रोटी चलाते हैं.
मेरे इनके साथ अक्सर मशग़ले होते रहते है. 
यह 5-6 इकट्ठे होते हैं और दरवाज़ों की घंटी बजा देते हैं. 
इनके सलाम के जवाब में मैं कभी कभी नमस्कार कह  देता हूँ 
तो कभी कह देता हूँ कि मैं नमाज़ नहीं पढता.
यह सलाम के बाद हाथ ज़रूर मिलाते हैं और मैं अपने हाथ खींच लेता हूँ.
यह कहते हुए कि इस तरह अचानक किसी के घर फाट पड़ना ग़ैर अख़्लाक़ी फ़ेल है.
****


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 11 June 2020

गन्ना बाबा

गन्ना बाबा

मेरी नानी अपने बुज़ुर्गों का तज़करा अक्सर किया करती जिसे मैं कहानी की तरह सुनता था. 
एक रात कहानी सुनाने के इसरार पर वह अपने एक पुरखे की दास्तान ले बैठीं, 
 नाम था उनका गन्ना बाबा, 
वह जितने संपन्न थे, उतने ही अड़ियल. 
गन्ना बाबा की एक बुरी आदत थी कि वह अफ़ीम खाते थे. 
फ़ायदे में वह कहते थे कि उन पर किसी जीव जंतु के काटने का कोई असर नहीं होता, मच्छर हो या सांप. 
एक दिन उन्होंने हज करने का इरादा किया और वक़्त आने पर अपने साज़ो सामान और अफ़ीम का भारी स्टॉक लेकर निकल पड़े. 
उस ज़माने में हज पैदल या जानवरों की सवारी से होता था. 
छः महीने में जब गन्ना बाबा मक्का पहुंचे तो हाकिम ने उन्हें अफ़ीम का स्टॉक देख कर रोक लिया, 
 गन्ना बाबा ने हाकिम से कहा कि हुज़ूर यह मेरी ग़िज़ा है, 
आप मुझे रोक नहीं सकते. 
मैं अपनी खूराक से एक रत्ती भी किसी को नहीं दूंगा. 
हाकिम ने कहा ठीक है तुम्हारी ख़ूराक है तो इसमें से एक पाँव अफ़ीम खाकर दिखलाओ, बच गए तो जाने दूंगा, 
गन्ना बाबा ने हुक्म की तामील की और खा गए एक पाव अफ़ीम. 
दूसरे दिन वह मक्का में दाख़िल थे.
  कोरोना की वबा, एक नए कीटाणु के साथ इंसानों पर टूटी है. 
नित नए नए प्रयोग किए जा रहे हैं, अँधेरे में लाठी भान्ने की तरह. 
इस विषय में बाबा लाल बुझक्कड़ की राय भी आई है 
कि सरसों का तेल नाक में डालो. 
रात भर में कोरोना कीटाणु गुदा द्वार से बाहर गिरें गे. 
अब मुझे भी राय देने का हक़ तो बनता है - - - 

कोरोना कीटाणु सफ़ाई पसंद हैं, सेनिटाइज़र किए हुए हाथ पर ही चिपकते है. मिनिरल वाटर और मिनिरल फूडर देह ही उनको रास आते है. 
ब्रिटेन के राज कुमार और प्रधन मंत्री इसकी मिसाल हैं. 
पांच करोड़ मज़दूर एक महीने से भारत की सड़कों पर बेयार व मदद गार चल कर मंजिल तलाश कर रहे हैं. 
कोई कोरोना से नहीं मरा, भले भूक प्यास और थकान से मरे हों. 
उनका देह गन्ना बाबा की देह है, उन पर टूटेंगे तो ख़ुद फना हो जाएंगे. 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 10 June 2020

ध्यान, चेतना और संवेदना

ध्यान,
चेतना 
और संवेदना  

ओशो या तो ध्यान में गुज़रे या फिर व्याख्यान में समय काटा, 
आख़ीर आधे जीवन उन्हों ने किसी पुस्तक को हाथ भी नहीं लगाईं. 
जहाँ ध्यान में वह घंटों डूबते, वहीँ व्याख्यान में वह कहते 
"कोई व्यक्ति आधा मिनिट से ज़्यादः निर विचार नहीं रह सकता." 
यह सच कि दिमाग़ 30 सेकेण्ड में कोई न कोई वैचारिक ख़ाक़ा बना ही लेता है. 
ओशो का यह दोहरा चरित्र उनका ख़ासा था, 
वह खुद एलान करते कि अपने ही कथन को मैं बार बार कंडम कर सकता हूँ. 

ध्यान उनके बाद हिन्दू समाज का नया फैशन बन गया है. 
पहले योगी ध्यान मग्न होते थे अब अयोगी भी हज़ारो की भीड़ में ध्यान मग्न देखे जा सकते हैं. 
ध्यान आज कल का Latet पाखंड है और धर्म गुरुओं के लिए बेहतरीन हाथियार, 
सभी ध्यानी बरसों ध्यान में लगे रहते हैं और वह समझते हैं कि अभी योग्य नहीं हुए है, एक दिन वह गुरु जी की तरह संपूर्ण योगी बन जाएंगे. 

मुसलमानों की नमाज़ भी एक तरह से ध्यान ही है. 
वह नमाज के लिए नियत इस तरह बांधते है,
"नियत करता हूँ मैं चार रिकअत फर्ज़ वास्ते अल्लाह के मुंह मेरा तरफ़ काबे शरीफ़ के" 
- - -और वह दोनों हाथों को कानों तक ले जा कर कहते है अल्लाह हुअक्बर- - - 
बस इसके बाद वह प्लानिंग करने लगते है दुन्या दारी की. 
जैसे एक साइकल सवार आदतन पैडल मारता रहता है और डूबा रहता है अपने मसाइल में.
पूरी नमाज़ में एक बार भी अल्लाह याद नहीं आता.

अब आइए चेतना पर - - - 
चेतना आती है तो इंसान को पल भर के लिए नहीं छोडती, 
वह तिर्भुज पर टिकी रहती है और पा लेती है सच्चाई को 
कि इसके तीनों कोणों का योग फल एक सीधी रेखा है. 
यह झूठे धर्म गुरु मानव समाज को भटकाए रहते हैं ध्यान में 
कि  इनको सीधी रेखा न मिले. 
मानव समाज की तमाम उपलब्धियां इसी चेतना की देन है जिसमे ध्यान और धर्म का कोई योग दान नहीं. 
यह चेतना की बरकत है कि आज इंसान बैल गाड़ी से हवाई जहाज़ तक पहुंचा.

अब आते हैं संवेदना पर - - -  
संवेदना=सह पीडा = एक जैसा दर्द=हमदर्द, यह मानव मूल्य है 
"दर्द ए दिल के वास्ते पैदा किया इंसान को" 
अपने दर्द की तरह हर इंसान का ही नहीं, हर प्राणी की पीडा को जानो.
उसके भागीदार बनो.
इंसान और हैवान में यही फर्क़ है. जिस इंसान में संवेदना नहीं वह हैवान है.
       

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 9 June 2020

जय भीम ??

जय भीम ??

जय भीम से और जय भीमियों से मुझे चिढ सी होने लगी है. 
पहले मैं इनके साथ था मगर जब मैंने देखा कि यह भी कट्टर हिन्दुओं की तरह हाथ में कलावा बांधते हैं और अपने कमरों में आंबेडकर के साथ गणेश और हनुमान की प्रतिमा और तस्वीर रखते हैं तो मेरा मोह इन से भंग हो गया. 
राम की बन्दर सेना यही थे जिसके प्रतीक हनुमान, 
अपना सीना फाड कर राम और सीता को बिराज मान दिखलाते हैं. 
यह चरणों में दास बने राम को जताते हैं कि तुम दिल में बसते हो. 
यही वानर सेना आज भी एक बोतल दारु के बदले इलेक्शन में अंध भक्त हो जाते हैं. इनके मौजूदा रूप रामबिलास पासबान और मायावती होते हैं जो इनका मानसिक शोषण करते हुए खुद मालदार ब्रह्मण बन जाते हैं. 
भीम राव आंबेडकर एक महा विद्वान थे, 
बाबा साहब कैसे बन गए.? 
उन्होंने शूद्रों के लिए अपनी रचना में आवाज़ ज़रूर उठाई मगर शूद्रों की रहनुमाई कहाँ की ? क़ुरबानी कब दी ? इलेक्शन हारे भी. 
अंधों में काने राजा ज़रूर हुए. 
उनकी बैसाखी दलितों को कमज़ोर बनाए हुए है. 
अभी दलितों में बाबा साहब पैदा होना बाक़ी है. 
छोटे छोटे लेखक और अध्यापक इनके प्रतीक बने हुए हैं 
जोकि इनके लिए काफ़ी नहीं.
मनुवाद ने सदियों से इन्हें कूट कूट कर चीन की दीवार की तरह लोहा लाट बना दिया है. अक्सर देखा गया हैं कि यह ख़ुद अपने ख़िलाफ़ मनुवादी हैं. 
52 % की आबादी रखने वाले इस समूह में से कोई लेनिन, काल मार्क्स और माओज़े तुंग जैसी हस्ती पैदा हों तब बात बनेगी. 
वरना यह शूद्र से हरिजन और हरिजन से दलित बनते रहेंगे
और अपमान इनका भाग्य होगा.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान