Sunday 30 August 2020

चूतिया=भग़ुवा

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चूतिया=भग़ुवा 

पिछले दिनों किसी लेख में मैंने तथा कथित अप शब्द "चूतिया" 
का इस्तेमाल किया था, 
जिस पर मेरे एक लाजवंत पाठक ने एतराज़ किया था. 
अफ़सोस होता है कि लाज वश या सभ्यता भार से, 
हम लोग अर्ध सत्य में अटक जाते हैं. 
ठीक है कि कुछ शब्द पार्लियामेंट्री दायरे में नहीं आते हैं 
मगर किसी कारण से शब्द को उच्चारित न किया जाए, 
शब्द का गला घोटना है. 
मशहूर शायर और दानिश्वर रघु पति सहाय 'फ़िराक़' गोरखपुरी 
जो नेहरु जी के रूम पार्टनर हुवा करते थे, के छोटे भाई उनकी बेटी के लिए एक रिश्ता लेकर आए और तारीफ़ करते हुए कहा भय्या आप भी जो जानना चाहते हों लड़के से मिल लें. 
फ़िराक साहब ने कहा तुमने देख लिया, यही काफ़ी है 
और कहा लड़का शराबी हो, जुवारी हो या और कोई ऐब हो चलेगा, 
मगर वह चूतिया न हो. 
इस तरह मैंने भी लेखनी में चूतिया को पढ़ा.
चूतिया का शाब्दिक अर्थ है भग़ुवा. 
दोनों शब्दों का छंद विच्छेद करके देख लें अगर ज़र्रा बराबर भी कोई फ़र्क हो.
एक शब्द गाली बन गया और दूसरा पूज्य ? 
मैं और खुल कर आना चाहता हूँ - - - 
हमारी माएं, बहनें और बेटियां सब भग धारी हैं. 
क्या रंगों को इंगित करने के लिए इनकी भग का रंग ही बचा था ? 
हमारे पूर्वज पाषांण युग के, 
आज की सभ्यता से वंचित थे, तो थे, बहर हाल हमारे पूर्वज थे, 
क्या उनकी अर्ध विकसित सोच को हम आज सभ्य समाज में भी ढोते फिरें ? 
मैं भौगोलिक तौर पर हिन्दू हूँ , 
इस्लाम को ढोता हुवा चौदह नस्लों के बाद भी हिन्दू हूँ. 
मेरे रगों में मेरे पूर्वजों का रक्त है, 
मगर मैं उनके वैदिक युग के ज्ञान को नहीं ढो सकता, 
उसे सर से उतार कर नालों में फेंक चुका हूँ 
और क़ुरआनी इल्म को नाली में.
मुझे आधुनिकता और साइंस की रौशन राह चाहिए.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 29 August 2020

अनर्गल श्रद्धा



अनर्गल  श्रद्धा
 
आस्थावान और श्रद्धालु पक्के चूतिए होते हैं. 
मुस्लिम आस्थावान हिन्दू आस्थावान की आस्था कुफ़्र, शिर्क और ढोंग समझता है, औए हिन्दू आस्थावान मुसलमानों की आस्था और अक़ीदा को कूड़ा. 
दोनों की आस्थाएँ मनमानी हैं जो निराधार होती हैं.
मैंने आस्थावानों और श्रद्धालु के लिए कठोर, अभद्र और असभ्य  भाषा का इस्तेमाल जान बूझ कर किया है ताकि झटका लगे और यह अपनी धुन पर पुनर विचार करें.
इनको वस्त्रहीन करके दिखलाया जाए कि अभी तक ये बालिग़ नहीं हुए हैं, 
जैसे कि कभी कभी एक डाक्टर मरीज़ को नंगा कर देता है.
आस्थावान जेहनी मरीज़ ही तो होते हैं जो अपनी अपनी आस्था क़ायम करके या विरासत में मिली आस्था को लेकर समाज को अव्योस्थित किए रहते हैं. 
या कार्ल मार्क्स का कथन कि यह अफ़ीमची होते हैं.
इन मानसिक रोगियों से समाज डरता है जब यह समूह बन जाते हैं 
और इनकी खिल्ली उड़ाई जाती है जब अल्प संख्यक होते हैं. 
यानी चूतिए बनाम चूतिए. 
आस्थावान होना चाहिए उन मूल्यों का जो मानव जाति के भलाई में होती हैं, 
जो आस्था धरती के हर प्राणी के लिए शुभ हों, 
आस्थावान होना चाहिए धरती सजाने संवारने वाले उन सभी कार्यों के 
जो इसके लिए हमारे वैज्ञानिक अपनी अपनी ज़िंदगियाँ समर्पित किए हुए हैं. 
यही श्रद्धालु हमारी आगामी नस्लों के शुभ चिन्तक हैं.
***



Friday 28 August 2020

नास्तिकता

नास्तिकता

खौ़फ़, लालच और अय्यारी ने God, अल्लाह या भगवान को जन्मा.
इनकी बुन्याद पर बड़े बड़े धर्म और मज़हब फले फूले, 
अय्यारों ने अवाम को ठगा. 
इन ठगों को धर्म ग़ुरु कहा जाता है. 
कभी कभी यह निःस्वार्थ होते हैं मगर इनके वारिस चेले यक़ीनन फित्तीन होते है.
कुछ हस्तियाँ इन से बग़ावत करके धर्मों की सीमा से बाहर निकल आती हैं , 
मगर वह काल्पनिक ख़ुदा के दायरे में ही रहती हैं, इन्हें संत और सूफ़ी कहा जाता है. 
संत और सूफ़ी कभी कभी मन को शांति देते है.
कभी कदार मै भी इन की महफ़िल में बैठ कर झूमने लगता हूँ. 
देखा गया है कि इनकी मजारें और मूर्तियाँ स्थापित हो जाती है 
और आस्था रूपी धंधा शुरू हो जाता है.
कुछ मानव मात्र इन से बेगाना होकर, मानव की ज़रूरतों को समझते हैं , 
उनके लिए ज़िंदगी को आसान बनाने का जतन किया, 
ऐसे महा पुरुष मूजिद (ईजाद करने वाला) और साइंस दां होते हैं . 
उन्हें नाम नमूद या दौलत की कोई चिंता नहीं, 
अपने धुन के पक्के, वर्षों सूरज की किरण भी नहीं देखते, 
अपना नाम भी भूल जाते हैं.
यह महान मानव संसाधनों के आविष्कारक होते हैं.
इनकी ही बख़्शी  हुई राहों पर चल कर दुन्या बरक़रार रहती है.
आधी दुन्या हवा के बुत God या अल्लाह को पूजती है, 
एक चौथाई दुन्या मिटटी पत्थर और धात की बनी मूर्तियाँ पूजती है, 
और एक चौथाई दुन्या ला मज़हब अथवा नास्तिक है. 
नास्तिकता भी एक धर्म है, 
निज़ाम ए हयात है 
या जीवन पद्धति कहा जाए. 
यह नवीन लाइफ़ स्टाइल है.
उपरोक्त धर्म और अर्ध धर्म हमें थपकियाँ देकर अतीत में सुलाए रहते हैं 
और साइंस दान भविष्य की चिंता में हमे जगाए रहते हैं. 
वास्तविकता को समझिए 
नास्तिकता को पहचानिए 
कि इसकी कोई पहचान नहीं.
यह मानव मात्र है.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान






हिन्दू ख़ुद अपना दुश्मन

हिन्दू ख़ुद अपना दुश्मन  

कूप मंडूक RRS के सपने मुस्लिम विरोध पर ही नहीं टिकते, आज के दलित कहे जाने वाले, कल के शूद्र, और आदि वासी के विरोध पर ही आधारित हैं ,
कहा जा सकता है कि तमाम मानव जाति का और मानवता का विरोधी है .
सिर्फ़ मुठ्ठी भर बरहमान को छोड़ कर .
दूर दर्शिता में तो इसे अँधा भी कहा जा सकता है .
आज़ाद भारत में कुछ प्रितिशत बरहमन सत्ता पर ज़रूर विराजमान है,
बाकी का हाल कहीं कहीं पिछड़ों से भी पीछे हैं .
इनकी आबादी का प्रितिशत भी बाकियों से पीछे है .
मनुवाद ने इनका भी नुकसान किया है ,
शूद्रों को पामाल किया सो किया .
इनकी काट भी दर पर्दा इस्लाम करता है , जब कभी दलित दमित समाज इन से कोपित होकर धर्म परिवर्तन की धमकी देता है जिसकी शरण स्थली इस्लाम होता है.
इस्लाम ने भारत का नक्शा बदला है . एक बड़ा हिस्सा जो मामा शकुनी और गंधारी के ऐतिहासिक कर्म भूमि था आज मनुवाद से मुक्त हो चुका है, यह बात अलग है कि फिलहाल इस्लाम संकट ग्रस्त है .
बंगाल में एक दलित जिसे उर्फे-आम में काला पहाड़ कहा जाता था, जगा तो ९५% शुद्र जो जानवर से बदतर ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे, सभों ने इस्लाम क़ुबूल कर लिया और मनु वादियों को ऐसी सज़ा दी कि उन्हेंउसे भागे राह न मिली .
काला पहाड़ जिसने मुस्लिम शासह्क के सामने इस शर्त पर इस्लाम क़ुबूल किया था कि उसे फ़ौज में बड़ा ओहदा दे दिया जाए. ताक़त मिलने के बाद, उसकी एक आवाज़ पर सारे शुद्र मुसलमान हो गए, नतीजतन बरह्मनों को भागे राह न मिली और थक हार के वह भी कर मुसलमान हो गए .
शेख़ मुजीबुर रहमान और शेख हसीया जैसे कल के बरहमन ही हुवा करते थे .
एक बड़ा भू भाग मनुवाद से मुक्त होकर अलग देश बन गया है. पश्चिमी बंगाल में भी काला पहाड़ की बरकत देखी जा सकती है .
RRS होश के नाखून ले, कहीं कोई दूसरा काला पहाड़ जन्मा तो मुसलामानों को पाकिस्तान भेजने वाले, खुद कहाँ जाएँगे ?
आजकी सच्चाई सिर्फ़ शुद्ध मानवता वाद में ही देश और देश वासियों की मुक्ति हैं.
न इस्लाम और न ही हिदुत्व में.

जुनैद मुंकिर 

Wednesday 26 August 2020

भारत माता


भारत माता

मादर ए वतन एक जज़बा ए बे असर है.

यह जज़्बा तभी शबाब पर आता है जब हम अपने मुल्क से दूर हों ,

मुल्क में रहते हुए ऐसी तस्वीर सियासी फ्रेम में लगी, बेज़ारी ही होती है,

सच पूछिए तो हुब्बुल वतनी सियासी हरबा ज़्यादा है और हक़ीक़त कम.

वतन को इतना अतिश्योक्ति पर लाया गया है कि इसे मादर और माता का दर्जा दे दिया जाता है, सच्चाई यह है कि यह मादर ए हक़ीक़ी की तौहीन है.

क्या माँ को बदला और बाटा जा सकता है ?

मगर यह धरती हमेशा बदली गई है, बाटी गई है,

माँ तो किसी हद तक सम्पूर्ण धरती को कहा जा सकता है,

मगर इस में भी क़बाहत है कि यह पूरा सच नहीं है.

इस से मादर हक़ीक़ी की तौहीन होती है कि उसका दर्ज उसके सिवा कोई और पाए.

माँ तो एक ही होती है , दो नहीं.

धरती को अर्ज़ पाक या पावन धरती कहा जा सकता है ,

वह जननी नहीं तो पेट भरनी ज़रूर है ,

मगर वतन को तो यह भी नहीं कहा जा सकता क्यों कि आज यह मेरा है ,

कल पराया हो सकता है यहाँ तक कि दुश्मन भी.

कडुवा सच यह है कि ज़मीन के किसी टुकड़े की सियासी हद बंदी की जाती है जो सीमा रेखा से सीमित हो जाती है ,

फिर उसका नाम वतन, मादर ए वतन, देश और भारत माता प्रचारित किया जाता है.

इससे बड़ी सच्चाई यह है कि सीमाओं की हद बंदी मानव जाति की फ़ितरत है ,क्योंकि यह उसकी ज़रुरत भी है।

सीमा बंद हिस्से को हम इस लिए तस्लीम करते हैं कि वह हमारी हिफाज़त करता है , हमारी तहज़ीब का मुहाफ़िज़ है, हमारी आज़ाद नस्लों का रक्षक है. 

इसको फतह करके कोई बैरूनी ताक़त हमें अपना गुलाम बना सकती है ,

हमारी बहन बेटियां हमारी सीमा में ही महफूज़ हैं.

अपनी सीमा की हिफाज़त के लिए हम अपनी जान, अपना माल क़ुर्बान कर सकते हैं.

इसके लिए हमें सही सही टैक्स अदा करना चाहिए जिससे सीमा की सुरक्षा होती है.

टैक्स अदायगी के फ़र्ज़ अव्वलीन को खोखले देश प्रेम के गुणगान ,

माता के सम्मान में बदल दिया जाता है.

भारत माता की जय बोल कर और जय बुलवा कर सियासत दान सियासत करते हैं,

सीमाओं की सुरक्षा नहीं, सीमाओं को कमज़ोर करते हैं.

अन्ना हज़ारे और अरविंद केजरी वाल जैसे अच्छे और समझदार लोग भी ,

भारत माता जी जय बुलवा कर हमें जज़्बाती बना देते हैं.

हम पहली नज़र में देखें कि अपनी सीमा बंदी में हम कहाँ हैं ?

इसके लिए टैक्स भरपाई की शर्त पर पूरे उतारते है या कमज़ोरी के शिकार हैं.

दूसरी नज़र में देखें कि हमारे रहनुमा कितने ईमानदार हैं ?

उन पर नज़र रखना टैक्स अदा करने के बराबर ही है.

जिस हद बंदी में नार्थ कोरिया के डिक्टेटर जैसा ताना शाह या सद्दाम और ग़द्दाफ़ी जैसे हुक्मराँ हो, वहाँ देश द्रोह ही देश प्रेम है.

 

 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 25 August 2020

प्रति शोध


प्रति शोध 

मुसलमानों की बाबरी मस्जिद को लाखों हिन्दु कारसेवकों ने धराशाई कर दिया , 
नाम कारसेवा दिया जोकि सिख्खों के ग़ुरु द्वारों में श्रद्धालुओं की सेवा करने काम होता है. 
इस तरह से किसी धर्म स्थल को गिराने का काम एक तरह से 
सिख्खिज़्म के काँधे पर रख्खा. 
मुसलमानो में इसका रोष हुवा, आवाज़ उठाई, तो मुंबई में बड़ा दंगा करके 
उन्हें सबक़ सिखलाया गया जिसमे हज़ार जानों के साथ साथ झोपड़ पट्टी में 
बसने वालों का असासा आग को हवाले किया गया.  
इसी दुर्घटना का शिकार एक ईमान दार पुलिस अफसर करकरे को भी 
हिंदू सगठनो ने मौत के घाट उतार दिया और हत्या का इलज़ाम भी 
मुसलमानो के सर मढ़ा. 
इसके बाद मुंबई सीरियल बम कांड की घटना इन ज़्यादतियों का प्रति शोध था 
जिसमे जाने नहीं बल्कि महत्त्व पूर्ण जाने और झोपड़ पट्टियां नहीं बल्कि क़ीमती इमारतें आग के हवाले हुईं. 
दोनों कुकृतियों का न्याय अनन्याय पूर्ण हुवा 
जिसका विरोध दबी ज़बान में दोनों पक्ष बुद्धि जीवीयों ने किया. 
10%की अल्पसंख्यक 90% का खुलकर कुछ बिगड़ नहीं सकती 
मगर जो कर सकती उसे निडर होकर किया.  
याक़ूब मेमन के जनाज़े में शरीक होकर .
***
म 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 24 August 2020

ज़ेहनी ग़ुस्ल


ज़ेहनी ग़ुस्ल 

ज़िंदगी एक दूभर सफ़र है, 
यह तन इसका मुसाफ़िर है. 
आसमान के नीचे धूप, धूल और थकान के साथ साथ सफ़र करके 
हम बेहाल हो जाते हैं. मुसाफ़िर पसीने पसीने हो जाता है, 
लिबास से बदबू आने लगती है, तबीअत में बेज़ारी होने लगती है, 
ऐसे में किसी साएदार पेड़ को पाकर हम राहत महसूस करते है. 
कुछ देर के लिए इस मरहले पर सुस्ताते हैं, पानी मिल गया तो हाथ मुंह भी धो लेते हैं मगर यह पेड़ का साया सफ़र का मरहला होता है, हमें पूरी सेरी नहीं देता. 
हमें एक भरपूर ग़ुस्ल की ज़रुरत महसूस होती है. 
इस सफ़र में अगर कोई साफ़ सफ़फ़ाफ़ और महफूज़ ग़ुस्ल ख़ाना हमको मिल जाए 
तो हम अन्दर से सिटकिनी लगा कर, सारे कपड़े उतार के फेंक देते हैं 
और मादर ज़ाद नंगे हो जाते हैं, फिर जिस्म को शावर के हवाले कर देते हैं. 
अन्दर से सिटकिनी लगी हुई है, कोई खटका नहीं है. सामने कद्दे आदम आईना 
लगा हुआ है. इसमें बग़ैर किसी लिहाज़ के अपने पूरे जिस्म का जायज़ा लेते है, 
आख़िर यह अपना ही तो है. बड़े प्यार से मल मल कर अपने बदन के 
हर हिस्से से गलाज़त छुडाते हैं. जब बिलकुल पवित्र हो जाते हैं 
तो खुश्क तौलिए से जिस्म को हल्का करते हैं, 
इसके बाद धुले जोड़े पहेन कर संवारते हैं. 
इस तरह सफ़र के तकान से ताज़ा दम होकर हम 
अगली मंजिल की तरफ क़दम बढ़ाते हैं.
ठीक इसी तरह हमारा दिमाग भी सफ़र में है, 
सफ़र के तकान से बोझिल है. सफ़र के थकान ने इसे चूर चूर कर रखा है. 
जिस्म की तरह ही ज़ेहन को भी एक हम्माम की ज़रुरत है 
मगर इसके तक़ाज़े से आप बेख़बर हैं जिसकी वजेह से ग़ुस्ल करने का एहसास 
आप नहीं कर पा रहे हैं. 
नमाज़ रोज़े पूजा पाठ और इबादत को ही हम ग़ुस्ल समझ बैठे हैं. 
यह तो सफ़र में मिलने वाले पेड़ नुमा मरहले जैसे हैं, 
हम्मामी मंज़िल की नई राह नहीं. 
ज़ेहनी ग़ुस्ल है इल्हाद या नास्तिकता के साबुन से स्नान.
जिसे की धर्म और मज़हब के सौदागरों ने ग़लत माने पहना रखा है, 
गालियों जैसा घिनावना. बड़ी हिम्मत की ज़रुरत है कि 
आप अपने ज़ेहन को जो भी लिबास पहनाए हुए हैं, महसूस करें कि 
वह सदियों के सफ़र में मैले, गंदे और बदबूदार हो चुके हैं. 
इन को तन से उतार फेंकिए, 
नए फ़ितरी और लौकिक लिबास के बेदाग़ तोहफ़े पैक्ड 
आपका इंतज़ार कर रहे हैं. ज़रुरत है आपको एक ज़ेह्नी ग़ुस्ल की. 
बंद सिटकिनी कगे ग़ुस्ल ख़ाने जाकर  एक दम उरियाँ हो जाइए, 
वैसे ही जैसे आपने अपने शरीर को प्यार और जतन से साफ़ किया हैं, 
अपने ज़ेहन को नास्तिकता और नए मानव मूल्यों के साबुन से मल मल कर धोइए. जदीद तरीन इंसानी क़दरों की ख़ुशबू में बह जाइए, 
जब आप तबदीली का ग़ुस्ल कर रहे होंगे, कोई आप को देख नहीं रहा होगा, 
अन्दर से सिटकिनी लगी हुई होगी. शुरू कीजिए दिमाग़ी ग़ुस्ल. 
धर्मो मज़हब, ज़ात पात की मैल को ख़ूब रगड़ रगड़ कर साफ़ कीजिए, 
हाथ में सिर्फ़ इंसानियत का कीमयाई साबुन हो. 
इस ग़ुस्ल से आप के दिमाग़ का एक एक गोशा पाक और साफ़ हो जाएगा. 
धुले हुए नए जोड़ों को पहन कर बाहर निकलिए. 
अपनी शख़्सियत को बैलौस, बे खौ़फ जसारत के जेवरात से सजाइए, 
इस तरह आप वह बन जाएँगे जो बनने का हक़ क़ुदरत ने आप को अता किया है.
याद रखें जिस्म की तरह ज़ेहन को भी ग़ुस्ल की ज़रुरत हुवा करती है. 
सदियों से आप धर्म ओ मज़हब का लिबास अपने ज़ेहन पर लादे हुए हैं 
जो कि गूदड़ हो चुके हैं. इसे उतार के आग या फिर क़ब्र के हवाले कर दें 
ताकि इसके जरासीम किसी दूसरे को असर अंदाज़ न कर सकें. 
नए हौसले के साथ ख़ुद को सिर्फ़ एक इंसान होने का एलान कर दें. 
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 23 August 2020

हिन्दुर


हिन्दुर


मैंने जब लिखना शुरू किया तो उर्दू में हिंदी के शब्द लाना अजीब सा लगता, जैसे बिरयानी में दाल मिला कर खा रहे हों. 
इसी तरह हिंदी लिखने में उर्दू अल्फ़ाज़ खटकते. 
उचित तो ये है कि जो लफ्ज़ माक़ूलियत को लेकर ज़ेहन में आएँ, उसे लिख मारें. 
धीरे धीरे माक़ूलियत का दिल पर ग़लबा होता गया और अब मुनासिब शब्दों को चुनने में कोई क़बाहत नहीं होती. 
अकसर मेरे हिंदी पाठक उलझ जाते हैं, मैं उनको सुलझाए रहता हूँ. 
अपने दिल की बात मैं जिस ज़बान में अदा करता हूँ, उस भाषा को मैंने नाम दिया है,
"हिन्दुर"   (हिंदी+उर्दू)
धीरे धीरे पाठक मेरी "हिन्दुर" को समजने लगेंगे, 
इसमें उनका भी फ़ायदा है कि वह दोनों ज़बानों के वाक़िफ़ कार हो जाएँगे.   
जहाँ तक भाषाओं की बात की जाए तो, उर्दू में अपनी एक चाशनी है, 
बहुत मुकम्मल और सुसज्जित ज़बान है. 
जब कि हिंदी आज भी अधूरी भाषा है, 
जिसकी बुन्याद ही ऐसी पड़ी है कि सुधार मुमकिन नहीं. 
उर्दू में नफ़ासत और बाँकपन है, 
हिंदी में ज़बान की रवानी (Flow) नहीं, भद्दा पन अलग से, उच्चारण ही मुहाल है. 
मिसाल के तौर पर अभी अभी अवतरित होने वाला शब्द "सहिष्णुता".
इसे उर्दू में रवादारी (Ravadari)  कहते हैं जोकि कितना आसान है.
उर्दू कानों में तरन्नुम घोलती है, 
हिंदी कान में कभी कभी तो कंकड़ जैसी लगती है. 
उर्दू में अरबी, फ़ारसी, तुर्की, हिंदी अंग्रेज़ी और यूरेशियाई आदि कई ज़बानों के शब्द हैं. जिन से वह मालामाल है. सब ज़बानों की विरासत है उर्दू. 
नशेमन पर मेरे बार ए करम सारी ज़मीं का है,
कोई तिनका कहीं का है , कोई तिनका कहीं का है .
अपने संगीत मय शब्दावली और उन सब के ग्रामर का असर है उर्दू पर, 
जिससे हिंदी महरूम है. 
उर्दू ने संस्कृत के शब्द भी लिए हैं मगर उनका उर्दू करण करते हुए. ण च छ ठ ढ भ जैसे कई अक्षर उर्दू में नहीं, 
फ़ारसी ने इन में से कुछ अक्षर को लिया ज़रूर है मगर इनसे बने हुए अकसर शब्द सभ्य समाज के लिए नकार्मक अर्थ रखते हैं. 
हिदुस्तान में प्रचलित सारी गालियाँ फ़ारसी भाषा की देन हैं.
उर्दू ने हिंदी और अंग्रेज़ी के शब्दों को लिया मगर इनमें करख्त कठोर अक्षर को बदल कर, जैसे यमुना =जमना, रामायण =रामायन, करके.
ऐसे ही Madam को मादाम करके. 
मुझे दोनों भाषाएँ अज़ीज़ हैं अपनी दोनों आँखों की तरह.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 22 August 2020

यथा राजा तथा प्रजा

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 यथा राजा तथा प्रजा  

60 के दशक में कानपुर में  फूल बाग़ के मैदान में एक पांडे जी हुवा करते थे. 

घोर नास्तिक. हिदू धर्म की बखिया उधेड़ते रहते.

उनके गिर्द सौ डेढ़ सौ जनता इकठ्ठा हो कर बैठ जाती, 

अनोखी बातें पांडे जी के मुखर विन्दु से फूटतीं 

जिसको जनता नकार तो नहीं सकती थी मगर पचा भी न पाती. 

वह कहते जंग में चीन ने भारत के एक हिस्से पर अधिकार कर लिया, 

क्यूँ न पवन सुत हनुमान उड़कर आए ? 

क्यों न अपनी गदा से  चीनियों का सर न फोड़ दिया?? 

उनकी बातें सुनकर कुछ लोग हनुमान भक्त आँख बचा कर उन पर कंकड़ी मार देते, 

जैसे मुसलमान हाजी मक्का में जाकर शैतान को कंकड़ी मरते हैं .

वह हंस कर कहते यह तुम्हारा दोष नहीं तुम्हारे धार्मिक संस्कारों का दोष है 

कि तुम अभी तक सभ्य इंसान भी नहीं बन सके.


उनके जवाब में थोड़ी दूर पर एक मौलाना इस्लाम की तबलीग़ करते, 

वही घिसी पिटी बातें कि अल्लाह ने क़ुरआन  में फ़रमाया है - - - 

उनके पास भी दस पांच लोग इकठ्ठा होते.


उसी ज़माने में एक कालिया मदारी हुवा करता था 

जिसकी लच्छेदार बातें सुनने के लिए 2-4  सौ लोग घेरा बना कर खड़े हो जाते. 

अपने वर्णन कला पर उसको पूरा कमांड होता कि वह ग्रीस को मरहम बना कर 

और काली रेत को मंजन बना कर बेच लेता, 

वह भीड में मूर्खों को ताड लेता उनको मंजन मुफ्त जैसे बाँट कर फंसा लेता 

फिर उनसे बातों की चोट से पैसे निकलवा लेता.

महफ़िल बरख़्वात होने से पहले अपने शिकारों को मुख़ातिब करके बतलाता कि 

तुममे कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हों ने कल रत अपनी माँ के साथ ज़िना किया होगा, 

वह तुम से कहेगे कि फंस गए बेटा.

कभी कभी मोदी का भाषण सुनकर एकदम मुझे 

कालिया मदारी याद आता है और उसके श्रोता गण.

***


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 21 August 2020

धर्मांध आस्थाएँ


धर्मांध आस्थाएँ 

मोक्ष की तलाश में गए जन समूह को पहाड़ों की प्राकृति ने लील लिया, 
आस्था कहती है उनको मोक्ष मिल गया, वह सीधे स्वर्ग वासी हो गए, 
सरकार और मीडिया इसे त्रासदी क्यों मानते है ? 
समाज में भगवन का दोहरा चरित्र क्यों है ? 
यह मामला धर्म के धंधे बाजों की ठग विद्या है, 
इनकी दूकानों का पूरे भारत में एक जाल है. 
इन लोगों ने हमेशा जगह जगह पर अपने छोटे बड़े केंद्र स्थापित कर रखे हैं 
और भोली भाली नादान जनता इनका आसान शिकार है. 
सब कुछ गँवा चुकने के बाद भी जनता के मुंह से कल्पित भगवानों 
के विरोध में शब्द नहीं फूटते हैं. 
मठाधिकारी आड़म्बरों के उपाय सुझाते फिर रहे हैं और अपने अपने गद्दियों के लिए लड़ रहे होते हैं,
जनता सब कुछ देख कर भी अंधी बनी रहती है. 
मुस्लिम वहदानियत और निरंकार के हवाई बुत को लब बयक कहने के लिए मक्का जाते हैं और शैतान के बुत को कन्कडियाँ मार कर वापस आते हैं. 
बरसों से यह समाज अरबियों की सहायता हज के नाम पर करता चला आ रहा है. अक्सर दुर्घटनाओं का शिकार होता है . 
कब यह मानव जाति जागेगी ? 
कब तक समाज का सर्व नाश होता रहेगा . 
अलौकिक विशवास को आस्था का नाम दे दिया गया है 
और गैर फ़ितरी यक़ीन को अक़ीदत का मुक़ाम हासिल है. 
बनी नॊअ इन्सान के हक में दोनों बातें तब असली सूरत ले सकती हैं 
जब मुसलामानों को केदार नाथ और हिन्दुओं को हज यात्रा पर जबरन भेज जाए. 
***




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 20 August 2020

एजेंट्स

धर्मांध आस्थाएँ 

मोक्ष की तलाश में गए जन समूह को पहाड़ों की प्राकृति ने लील लिया, 
आस्था कहती है उनको मोक्ष मिल गया, वह सीधे स्वर्ग वासी हो गए, 
सरकार और मीडिया इसे त्रासदी क्यों मानते है ? 
समाज में भगवन का दोहरा चरित्र क्यों है ? 
यह मामला धर्म के धंधे बाजों की ठग विद्या है, 
इनकी दूकानों का पूरे भारत में एक जाल है. 
इन लोगों ने हमेशा जगह जगह पर अपने छोटे बड़े केंद्र स्थापित कर रखे हैं 
और भोली भाली नादान जनता इनका आसान शिकार है. 
सब कुछ गँवा चुकने के बाद भी जनता के मुंह से कल्पित भगवानों 
के विरोध में शब्द नहीं फूटते हैं. 
मठाधिकारी आड़म्बरों के उपाय सुझाते फिर रहे हैं और अपने अपने गद्दियों के लिए लड़ रहे होते हैं,
जनता सब कुछ देख कर भी अंधी बनी रहती है. 
मुस्लिम वहदानियत और निरंकार के हवाई बुत को लब बयक कहने के लिए मक्का जाते हैं और शैतान के बुत को कन्कडियाँ मार कर वापस आते हैं. 
बरसों से यह समाज अरबियों की सहायता हज के नाम पर करता चला आ रहा है. अक्सर दुर्घटनाओं का शिकार होता है . 
कब यह मानव जाति जागेगी ? 
कब तक समाज का सर्व नाश होता रहेगा . 
अलौकिक विशवास को आस्था का नाम दे दिया गया है 
और गैर फ़ितरी यक़ीन को अक़ीदत का मुक़ाम हासिल है. 
बनी नॊअ इन्सान के हक में दोनों बातें तब असली सूरत ले सकती हैं 
जब मुसलामानों को केदार नाथ और हिन्दुओं को हज यात्रा पर जबरन भेज जाए. 
***


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 19 August 2020

एजेंट्स




एजेंट्स 

मेरे एक नए नए रिश्तेदार हुए, जो कट्टर मुस्लिम हैं. 
उन्हों ने जब मेरे बारे में जाना तो एक दिन मोलवियों का जत्था लिए हुए 
मेरे घर में घुस आ आए.
मैंने लिहाज़न उस वक़्त उन्हीं के अंदाज़ में उनके साथ सलाम दुआ 
और उनका स्वागत किया. 
उन्हों ने अपने साथियों का परिचय कराया. 
उनमे एक ख़ास थे D U के प्रोफ़ेसर ज़जाक़ अल्ला (बदला हुआ नाम) यह पहले पंडित रामाकांत मिश्र (बदला हुआ नाम) हुवा करते थे, इस्लाम के प्रभाव में आकर कलमा पढ़ लिया और मुसलमान हो गए . 
ज़जाक़ अल्ला ने मुझे इस्लाम की कई ख़ूबियाँ गिनाईं, 
हिन्दुओं में बहुतेरी ख़ामियां भी साथ साथ . 
पंडित जी ने कठ मुल्लों जैसी दाढ़ी रख ली थी 
और उन से ही कुछ सीखा था, 
कठमुल्लों जैसा अंदाज़ था उनका . 
मैं उनकी बातें को नाटकीय अंदाज़ में बड़ी तवज्जो के साथ सुनता रहा. 
दो मुसलमान उनके साथ थे . 
उन में से एक ने हदीस बयान की कि 
हज़रत मुहम्मद रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम 
(मुसलमान मुहम्मद का नाम इतनी उपाधियों के साथ ही लेता है 
या फिर उनको हुज़ूर कहता है .) 
के पास एक सहाबी आया और हुज़ूर (मुहम्मद) से एक काफ़िर के क़त्ल का वाक़िया बयां किया कि 
काफ़िर भागता रहा, मैं दौड़ाता रहा, वह थक कर गिर पड़ा तो हाथ जोड़ कर कलिमा पढ़ने लगा, मगर उसको मैंने छोड़ा नहीं . 
हुज़ूर ने पूछा मार दिया ? 
हाँ . 
हुज़ूर ने कहा कलिमा पढ़ लेने के बाद भी ? 
उसने कहा हाँ भाई हाँ, 
वह तो मजबूरी में कलिमा पढ़ने लगा, जान बचाने के लिए. 
हुज़ूर ने कहा कलिमा पढ़ लेने के बाद तुम्हें उसे मारना नहीं चाहिए था. 
हुज़ूर ने तीन बार इस बात को दोहराया.
मौलाना साबित करना चाहते थे कि इस्लाम में ज़्यादती नहीं है.
मौलाना की हदीस सुनने के बाद मैंने कहा आपने पूरी हदीस नहीं बयान की. 
जी ? वह चौंके .
जी मारने वाला हुज़ूर की हब्शी लौंडी ऐमन का लौंडा ओसामा था 
जो कि हुज़ूर को बेटे की तरह अज़ीज़ था. 
उसने हुज़ूर को बड़ी मायूसी के साथ जवाब दिया था कि 
इस्लाम क़ुबूल करने में मैंने जल्दबाज़ी की.
सुन कर मौलाना का ख़ून जम गया.
पंडित जी ने बहुत सी बकवासें कीं जिसे मैं लिहाज़ में सुनता रहा मगर जब उन्हों ने कहा कि वेद में भी हज़रत मुहम्मद रसूल्लिल्लाह सल्लल्लाह ए अलैहि वसल्लम के बारे में भविष्य वाणी की गई है. 
उन्हों ने महमद के नाम से कोई कबित सुनाई. 
तब तो मुझे ग़ुस्सा आ ही गया. 
मैंने पूछा किस वेद में ? 
बोले भाई ऋग वेद में. 
मैंने पूछा किस मंडल में कौन सी सूक्ति है ? 
तब तो पंडित जी के कान खड़े हुए . 
कहा यह तो देख कर ही बतला पाएँगे. 
हाँ बतलइए गा, वैसे वेद तो मेरे पास भी है , खैर मगर छोडो.
अस्ल में यह नक़ली मुसलमान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए आहूतियां हैं जो मुसलमानों में घुसकर कई महत्त्व पूर्ण काम करते हैं . उसी में एक यह भी है कि इनको मज़बी खंदकों में गिराने का काम करते रहें.
मुस्लिम आलिम भी इनकी साजिश और सहायता में मग्न रहते हैं. 
धर्म और मज़हब का यही किरदार है.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 18 August 2020

दोहरे स्तर


दोहरे स्तर 

गाय हमारी माता है, 
भैंस हमारी ताई माँ है, 
भेड़ बकरियां हमारी चाचियाँ हैं. 
इन सबों का हम दूध पीते हैं, मगर सब से ज्यादा हमें प्यारी है गऊ माता.
क्योंकि वह हमें दूध मुफ़्त देती है. 
वह रात भर उसारे में आराम करती है, 
सुबह जितना भी हो सकता है दूध देती है, 
फिर हम इसे खूंटे से आज़ाद कर देते हैं, 
वह दिन भर कुत्तों के साथ कूड़ा घर में अपना भोजन ख़ुद अर्जित कर लेती है 
और शाम को अपने घर को याद करके वापस आ जाती है. 
इसके खो जाने का भी कोई ख़तरा नहीं, भला गऊ माता को कौन चुराएगा ? 
दस बारह साल मुफ़्त में हम दूध खाते और पीते हैं, बूढ़ी हुई, कोई चिंता नहीं, 
दूध पूत से छुट्टी पाइस भूखी खड़ी है गय्या, 
इसके दुःख को कोई न देखे, देखे कदा क़सय्या. 
न न ऐसी कोई अवस्था नहीं आती क़साई की मजाल नहीं कि मुंह भी दिखलाए. 
उसका सट्टा बट्टा तो गऊ शाला से डायरेक्ट है. 
कौड़ियों के भाव ले जाता है महाराज से. धेलों के भाव बिकता है गोमांस. 
क्या भैंस ताई को कूड़े घर के लिए छुट्टा किया जा सकता है ? 
नहीं भाई एक पल में ग़ायब हो जाएगी . 
200 रुपया किलो उसका गोश्त बिकता है. 
150 किलो अवसत भैस का गोश्त 30000- हज़ार का हुवा, 
खाल तो नाप कर बिकती है, वह भी D C मीटर में. 
हड्डी तो बहुतै क़ीमती होत है. इससे जेलिटिन जो बनत है,  
स्वादिष्ट इतना होता है कि खाद्य पदार्थ में सब से महंगा. 
इस से बढ़ कर चाची भेड़ बकार्यों के रुतबे हैं. 
400-500- किलो इनका मांस है और मंहगी खाल. 
बस बेचारी गऊ माता की कोई कीमत नहीं. न जीते जी न मरने के बाद. 
चोरी छीपे से उपभोगताओं तक पहुंचे तो बड़ी बात है, वरना इनकी कब्रें बनवाइए.  

तस्वीर का एक दूसरा पहलू है, 
देखें जाकर बड़ी बड़ी विश्व स्टार की डेरी फ़ारमो में, भैसों से बड़ी गाएँ, 
अधेड़ हुईं, दूध अपनी ख़ूराक की क़ीमत से कम दिया तो गईं स्लाटर हॉउस में, 
कोई भखुवा गऊ रक्षक वहां नहीं रोकेगा, हिम्मत ही नहीं. 
वहां गोमांस 1000-रू किलो से अधिक हो जाता है, 
उसे विदेशी खाते हैं जिसे हम गऊ रक्षक परोसते हैं. 
फिर इन्डिया में ग़रीबों के बीच यही स्लाटर हाउस क़त्ल खाने क्यूँ बन जाते हैं ? 
बाबा TV चैनलों पे फेरी लगाता हुवा आवाज़ लगाता है, 
"पवित्र गो मूत्र का सेवन करिए, इसे खाइए, पीजिए, इस से नहाइए, धोइए, फिनाइल की जगह इससे पोछा लगाइए और गऊ माता को क़त्ल ख़ाने में जाने से बचाइए." 
लाखों किसानों कि आधी रोज़ी चौपट हो गई, 
गोवंश से तौबा कर रहे हैं, 
चमड़ा मजदूर  भुखमरी के कगार पर हैं, 
स्लाटर हाउसेस का व्यापार चमक रहा है. 
पप्पू ठीक ही कहता है कि 
"यह पूंजी पतियों की सरकार है, गरीबों की दुश्मन." 
ग़रीबों में तो जज़्बात की तिजारत हो रही है, 
भावनाओं का उत्पाद, 
गाय हमारी माता है,
मुस्लिम इसको खाता है.
इसी में इन की रोज़ी रोटी सुरक्षित है.  
देखिए हिन्दुस्तान इन जालसाज़ सियासत दानों से कब आज़ाद होता है,    
 ***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 17 August 2020

निंगलो या उगलो



निंगलो या उगलो

 

अभी कल की बात है कि रूस में वहां के बाशिंदे बदलाव चाहते थे, 
वह अपनी रियासतों को अपना मुल्क बनाना चाहते थे, 
उन्होंने इसकी आवाज़ बुलंद की. सदर ए रूस ब्रेज़नेव ने उन्हें आगाह किया कि 
'अलग होने से पहले एक हज़ार बार सोचो 
फिर हमें बतलाओ कि क्या इसका नतीजा तुम्हारे हक़ में होगा?' 
जनता ने एक हज़ार बार सोचने के बाद अपनी मांग दोहराई. 
बिना किसी ख़ून ख़राबे के सात आठ राज्यों को रूस ने आज़ाद कर दिया. 
भारत की तरह रियासतों को अपना अभिन्न नहीं बतलाया.
इसी तरह कैनाडा में फ़्रांससीसी लाबी ने 
कैनाडा से बाहर होकर अपना मुल्क चाहते हैं, 
उनकी आवाज़ पर कैनाडा में तीन बार राय शुमारी हुई 
अलगाव वादी बहुत मामूली अंतर से तीनो बार हारे. 
वहां के सभी समाज ने इस पर एक क़तरा भी ख़ून न बहने दिया. 
राय शुमारी को सर आँखों पर रख कर अपने अपने कामों पर लग गए.
सदियों पहले गीता में कहा गया है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है. 
किसी मुफ़क्किर की राय है कि हर हिस्सा ए ज़मीन में 
कोई शाही या कोई निज़ाम पचास साल से ज़्यादा नहीं पसंद किया जाता.
फिराक़ कहता है
निज़ामे दहर बदले, आसमाँ बदले, ज़मीं बदले,
कोई बैठा रहे कब तक हयात-बेअसर लेके.
भारत ने राष्ट्र मंडल में वचन दिय हुवा है कि कश्मीर में राय शुमारी करा के कश्मीर को कश्मीरियों के मर्ज़ी के हवाले कर देंगे, 
फिर चाहे वह हिंदुस्तान के साथ रहे, या पाकिस्तान के साथ, 
अथवा आज़ाद हो कर अपना मुल्क बनाएँ.
यह बात किसी फ़र्द का वादा नहीं, बल्कि क़ौम की दूसरी क़ौम को दी हुई 
ज़बान है जो अलिमी पंचायत में लिखित दी गई है.
तुलसी दास जी कहते हैं
रघु कुल रीति सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई.
आज हिदुस्ताम चरित्र के मामले में दुन्या के आख़री पायदान के क़रीब है.
इसकी वजह यह है कि हम परले दर्जे के बे ईमान लोग हैं.

अब मैं आता हूँ कश्मीर पर कि - - - 
ऐ कश्मीरियो  
तुम्हारे लिए यह हुस्न इत्तेफ़ाक़ है कि तुम बड़े हिदुस्तान के शहरी होकर रह रहे हो, 
तुम हिदुस्तानी होकर एक बड़े मुल्क के बाशिंदे हो, वह भी कश्मीरियत के साथ. 
हिदुस्तान से अलग होकर क्या पाओगे ? 
नेपाल, भूटान या श्री लंका जैसे छोटे से देशों में ग़ुमनामी ? 
ग़ुमनाम होकर रह जाओगे, तुम्हारे हाथ महरूमियों के सिवा कुछ न आएगा. 
वैसे अलग होकर तुम खाओगे क्या? 
सेब और ज़ाफ़रान से अपने पेट भरोगे? 
क्या तुम मुल्लाओं का शिकार होकर इस्लामी जिहालातों के गोद में जाना चाहते हो ?  पकिस्तान बेचैन है तुमको गोद लेने के लिए.
अलक़ायदा और तालिबान तुम्हारा शिकार कर लेंगे .
अभी एक बड़े मुल्क के बाशिदे होकर तमाम सहूलते तुम्हें मयस्सर हैं. 
ख़ास कर तअलीम  के मैदान में, 
इन तमाम मवाक़े गँवा बैठोगे. 
वैसे अभी तक तुम कुछ ख़ास बन भी नहीं पाए हो. 
मैं कश्मीर घूमा हूँ कोई किरदार अवाम में नहीं है. 
पक्के झूटे बेईमान, ठग और लड़ाका क़ौम हो. 
आज़ाद होने के बाद भी तुम आपस में लड़ मरोगे. 
कशमीर के मौसमी क़बीले हर साल पूरे भारत में ख़ैरात के लिए फैल जाते हैं, 
फ़िर वह कहाँ जाया करेंगे ?
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 16 August 2020

हज और कुम्भ

हज और कुम्भ

(टेलिविज़न पर आँखों देखा हाल)
मैं हमेशा की तरह निष्पक्ष होकर बयान करता हूँ.
पहले हज का बयान, कि दुन्या भर के लाखों मुसलमान अपने निवास से नहा धो कर और बग़ैर सिला हुवा कफ़नी लिबास धारण करके हज के मैदान में उतरते हैं,जहाँ बीबी हाजरा अपने बेटे के वास्ते पानी तलाश करने के लिए भटकीं, 
बेटे के पास आकर देखा तो उसके लिए एक चश्मा फूट चुका था, 
जिसे बाद में कुवां बना कर चाह ए ज़मज़म का नाम दिया गया. 
मुसलमान हज में इन्ही पहाड़ियों में जाकर हाथ उठाए दुआ मांगते हैं कि
"या अल्लाह मैं हाजुर हूँ."
मैदान में इस आलम को देख कर एक बार अहले दिल अपने आप में खो जाते हैं, 
औरत और मर्द बिना किसी ख़याल ए ख़ाम के सिर्फ़ उस पाक हस्ती के याद में गर्क़ हो जाते हैं जो ख़ालिक़ है इस दुन्या का.
हज के दौरान किसी मख़लूक़ पर हिंसा नहीं होती ख़्वाह वह मख्खी या मच्छर हो. हज के और भी दिलकश मनाज़िर भी नज़र आते हैं जो नज़र को ख़ैरा और दिल को बाग़ बाग़ कर देते हैं.
सऊदी सरकार ने हज को फाइव स्टार जैसा बना दिया है. 
मैदान को नीचे से एयर कंडीशन कर दिया है, 
सफ़ाई का अजीब आलम है,
हाजियों को खजूर और नेमतों का तोहफ़ा क़दम क़दम पर मिलता है. 
उन पर गुलाब जल का छिडकाव होता है.
हज से सऊदी अरब को सिर्फ़ भारत से पचास ख़राब (50,00,00,00,00,000/-) का सालाना फ़ायदा होता है , पूरी दुन्या का हिसाब आप खुद लगाएं.
जिसका वह हक़ भी अदा करते हैं.
कुम्भ का हाल अब आप बयान करें - - -
तीन करोर इंसानो की देह मैल गंगा मय्या को परोसते हुए, 
तीन हज़ार नंग धुडंग नागा साधू जो इंसानियत को शर्मशार करते हुए दुन्या में देश को नंगा कर देते है . 
और बहुत कुछ - -- 
हिन्दू ख़ुद गवाह बन कर सोचें - - -

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 15 August 2020

हसन बसरी


हसन बसरी

मानव समाज में कुछ गुमनाम हस्तियाँ ऐसी छाप छोड़ जाती हैं कि उनकी गुमनामी को तलाशते हुए इंसानियत राह ए रास्त तक पहुँच जाती है . 
ऐसे ही थे बसरा के फ़क़ीर, बाग़ी ए इस्लाम हसन बसरी. 
वह मेहनत मज़दूरी करके गुज़ारा करते थे. उनकी समकालीन मशहूर बाग़ी ए इस्लाम राबिया बसरी हुवा करती थीं.
अरब में इस्लाम की दूसरी पीढ़ी का दौर था, सहाबी ए इक्राम (मुहम्मद कालीन) मुहम्मद के साथ ही अल्ला को प्यारे हो चुके थे. ताबेईन (सहबियो के ताबे) का दौर शुरू हो गया था. अल्लाह के रसूल के बाद असामाजिक तत्वों को पूरी आज़ादी मिल चुकी थी.अरब में शरीफ़ और जदीद लोगों की सासें मुहाल थीं. जैसे कि आज भारत में कामरेड, माओ वादी और नक्सली वग़ैरा. 
इसी वक़्त मक्का में इस्लाम के ख़िलाफ़ बग़ावत का एलान हो गया थाऔर टेक्स देना बंद कर दिया था. मक्कियों ने मुहम्मद को अल्लाह का रसूल मानने से इंकार कर दिया था, मगर निरंकार और सिर्फ़ एक अल्लाह को मानने का एतराफ़ ज़रूर कर लिया.
ख़लीफ़ा अबु बक्र ने उनकी बात मान ली थी कि बहर हाल आधे इस्लाम को मान गए थे. "लाइलाहा इल्लिल्लाह."
इसी आतंकी दौर में हसन बसरी का वजूद दहशत गर्दों के चंगुल में था. हालांकि उनकी शख़्सियत इस्लाम पर भारी पड रही थी, आला मुकाम हस्ती जो हुवा करते थे.
बसरा के नव जवानों ने फ़ैसला किया कि बसरा में एक मस्जिद बनवाई जाए. 
कमेटी बनी, तय हुवा कि पहला चंदा बरकत के तौर पर हसन बसरी से लिया जाए.
लोग उनके पास पहुंचे और मुद्दआ बतलाया. फिर चादर फैला कर अर्ज़ किया कि बरकत के तौर पर आप इसमें कुछ डाल दीजिए.
लोगों की फ़रमाइश सुनकर सूफ़ी हसन के चेहरे का रंग उड़ गया था,
उसी पल शागिर्दों ने देखा कि वह कुभला गए थे.
हसन ने बड़ी नक़ाहत के साथ जेब में पड़े एक सिक्के को निकाल कर चादर में डाल दिया जिसकी क़ीमत कम्तरीन सिक्कों में थी.
शाम को कमेटी के लोग उनके पास दोबारः आए और मुआज़रत के साथ हसन का दिया हुआ वह सिक्का उन्हें वापस कर दिया, यह कहते हुए कि सिक्का खोटा है
और आपका ही है कि एक पैसे की अत्या आपके सिवा किसी ने नहीं दिया.
हसन के चेहरे पर उसी वक़्त रौनक आ गई,
वह ख़ुशी से खिल उट्ठे,
हसन के साथी हैरत ज़दा थे.
पूछ ही लिया कि पैसा देते हुए आपकी कैफ़ियत क्या हुई थी ?
और इसकी वापसी पर ख़ुशी की यह लहर ?
सूफ़ी हसन ने कहा कि चंदा देते वक़्त मुझे अपनी कमाई पर शक हुवा
कि मैं ने कहीं पर काम चोरी तो नहीं की ?
कि मेरी कमाई पानी और मिटटी में मिलने जा रही है ?
पैसा वापस हुवा तो मेरी बेचैनी ख़त्म हुई.
उनहोंने कहा यह पैसा मुझे कल की मजदूरी में फलां शख़्स ने दिया था,
जाकर उसकी ख़बर लेता हूँ .
यह थी एक मोमिन ही अज़मत जो ईमान की ज़िन्दगी जीता था.
और इस्लामी गुंडों से छिपा छिपा फिरता था.
एक बार हसन बसरी दीवाना वार भागे चले जा रहे थे,
उनके एक हाथ में जलती हुई मशाल थी और दूसरे हाथ में पानी भरा लोटा.
लोगों ने रोका और पूछा, कहाँ जा रहे हो हसन ?
हसन बोले, जा रहा हूँ उस जन्नत में आग लगाने जिसकी लालच में लोग नमाज़ पढ़ते हैं - - - और जा रहा हूँ उस दोज़ख में पानी डालने जिसके डर से लोग नमाज़ पढ़ते हैं.
बहुत बड़ा फ़लसफ़ा है कि कायनात में डूब कर सच्चाइयों को तलाशा जाए.
लालच और भय से मुक्त.
जैसे कि हमारे वैज्ञानिक करते हैं,
उन्हों ने दुन्या को गुफाओं से उठाकर शीश महल में रख दिया है.
जिंदा संत हाकिन इसकी मिसाल है.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 14 August 2020

इतिहास

इतिहास 

पाषाण युग से लेकर परमाणु युग तक के इर्तेक़ाई (रचना कालिक) काल, 
युग अंश की रूप रेखा मानव इतिहास होता है. 
आज के परिवेश में बैठ कर इतिहास को पाटा और भरा जा सकता है, 
पढ़ा और समझा नहीं जा सकता. 
कुछ मित्र मार्क्स वाद और प्रजा तांत्रिक की समझ के आईने में झांक कर इतिहास को समझने की कोशिश करते हैं, 
उनको राय है कि इतिहास को समझने के लिए उस इर्तेक़ाई वक़्फ़े 
में जी कर इतिहास को समझे.
अतीत में राजा और प्रजा की कल्पना ,
पालक और पालतू  जैसी हुवा करते थी. 
पालतू (जनता) को पेट भर भोजन, 
स्वादानुसार भोजन, 
आवास,संरक्षण और शांत जीवन मात्र से पालक का वास्ता हुवा करता था, 
पालक की प्रशाशनीय व्योवस्था क्या है ? 
इससे पालतू को कोई लेना देना नहीं था. 
वह मंदिर को लूट कर माल लाता हो या मस्जिद को तोड़ कर, 
उसकी सुविधा का ख़याल रखता हो.
महमूद गज़नवी ने सत्तरह घुड सवारों को लेकर सोम नाथ को लूट के  गज़नी ले गया, हजारों मील का सफ़र था, जनता जनार्दन ने उसे देखा और मात्र इतना कहा कोई राजा किसी राजा पर हमला करने जा रहा है.
कोई देश भक्ति थी न हुब्बे वतनी. 
उससे उन्हें क्या लेना देना राजाओं के खेल हैं, वह जानें.
पहले आम दस्तूर हुवा करता था राजा ने धर्म बदला, 
प्रजा ने भी उसके नए धर्म को स्वीकार कर लिया, 
 इतिहास में सम्राट अशोक की कहानी इस बात की खुली मिसाल है. 
राजा देश की उपज को जनता के हक़ में न सर्फ़ करके 
अपने अय्याशियों में सर्फ़ करता है, 
महल और रानिवासे बनवाता है, 
तबतो ज़रूर पालक के ख़िलाफ़ पालतू के कान खड़े होते. 
पालक आपस में एक दूसरे का हक़ मारते तो उनकी आपस में आवाज़ बुलंद होती. 
मेरे बचपन में बस्ती के फ़क़ीर झोली लिए भीख मांगते 
और कुत्ते उन पर भौंकते.
शेख सअदी इसे इस तरह रूप देते हैं कि,
कुत्ता फ़क़ीर से कहता है, मैं रात व् दिन बस्ती की रखवाली करता हूँ 
और बदले में दर दर जाकर एक कौर की उम्मीद करता हूँ, 
कौर मिला तो खा लिया, न मिला तो भूखे पेट पड़ रहा 
और तू पेट को झोली बना कर मांगता रहता है जो कभी भारती ही नहीं.

कुछ बादशाहों ने अपनी ज़िन्दगी पालक बन कर ही नहीं,
 पालतू की (प्रजा की) तहर ही जिया है .
प्रजा को उसके राज तंत्र से कोई वास्ता नहीं कि उसने अपने भाइयों को मार कर व्योवस्था क़ायम की हो या बाप को क़ैद करके .
राज कुमारों के शीश काटे हों या आस पास के राजाओं की गर्दनें उड़ाई हों, 
जिनका बाप बना है, उनको कैसे पाला पोसा. यह किसी शाशक की पहली पहचान है.  
उनके कर्मों का हिसाब उनकी नस्लें चुकाएंगी.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 13 August 2020

सेक्स-sex

सेक्स-sex

 

मुहम्मद अपनी टोली में बैठे थे कि एक औरत आई और मुहम्मद से कहा,
आप मुझे अपने निकाह में ले लीजिए, पेट भरने का तो ठिकाना मिले.
मुहम्मद उसे देख कर मुस्कुराए. 
सोचा होगा कि 9 अदद वैसे भी हैं, 
अब इस झमेले में पडना मुनासिब नहीं. 
उन्हों ने मुस्कुराते हुए इंकार में सर हिला दिया.
उनके टोली में एक फटीचर भी बैठा हुवा था,  
 मुहम्मद के इनकार करने के फ़ौरन बाद बोला,
या रसूल अल्लाह ! 
इस औरत को मेरे निकाह में दे दीजिए ,
मुहम्मद ने कहा, तू अपने घर जा और देख कर आ कि
 तेरे पास क्या क्या असासे हैं.
वह हुक्म को मानते हुए घर गया और वापस आकर बतलाया कि, 
उसके पास कोई भी असासा नहीं है, बस तन से लिपटी हुई इस लुंगी के सिवा.
मुहम्मद ने पूछा क़ुरान की कोई आयत याद है ? 
उसने क़ुरान की एक आयत सुना दिया.
मुहम्मद ने दोनों का निकाह पढ़ा कर रुख़सत कर दिया.
(हदीस बुखारी)
मुहम्मद का फ़ैसला दोनों के हक़ में ग़नीमत था. 
उन दोनों के पास कुछ भी न था 
क़ुदरत की बख़्शी  हुई दौलत सिर्फ़ SEX था, 
जिसके तुफ़ैल में दोनों एक दूसरे के मुस्तहक़ भी थे और तलबगार भी. 
अगले दिन उनके अन्दर समाया हवा हिस बेदार हुवा होगा 
और उन्हें आपस में एक दूसरे के पेट के लिए ग़ैरत जगी होगी. 
वह ज़रूर हरकत में आ गए होंगे. 
उनके यहाँ बाल बच्चे भी हुए होंगे, 
ख़ुश हाली भी आ गई होगी.
SEX की बड़ी बरकत होती है, 
आप देखते हैं कि परिंदे SEX के बाद कितने ज़िम्मेदार हो जाते हैं, 
घोसला बनाने लगते हैं, 
अपने बच्चों के लिए चारा ढो ढो कर लाना शुरू कर देते हैं.

मुझे हैरत होती है कि हिन्दू समाज SEX को इतना बुरा क्यों मानता है. 
SEX को दबाने की कोशिश क्यों करता है ? 
SEX की लज्ज़त से इतना ना आशना क्यों होता है ? 
पेट भरने के बाद SEX इंसान की दूसरी ज़रुरत है.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 12 August 2020

निर्पक्षता

निर्पक्षता

मैं न हिदू समर्थक न इस्लाम समर्थक.
मेरी नज़रें हर मुआमले में सत्य को खोजती हैं. 
तुम जानो कागद की लेखी, 
हम जाने आंखन की देखी. 
कबीर के इस दोहे को जो नहीं समझ सकता, 
वह व्यक्ति मेरे विचारों को कभी भी नहीं समझ सकता. 
मैं भारत के इतिहास में ऐसे ऐसे मुस्लिम शाशकों को देखता हूँ 
कि जहाँ न्याय उनके आगे हाथ जोड़े खड़ा रहता है, 
समाज के साथ अन्याय करने वाले घट तौलियों के कूल्हों से 
घटतौल के बराबर मांस निकलवा लेता था. 
बादशाह ख़ुद फ़कीरी जीवन जीते मगर जनता को ख़ुश रखते. 
मनुवादी इतिहास जहाँ शुद्र को सवर्ण के तालाब का पानी पीना भी 
जुर्म हुवा करता था, पूरी दुन्या को मालूम है. 
वह न्याय से आँख मिलाने के क़ाबिल नहीं.
दोसतो! पक्ष पात को छोड़कर अपने व्यक्तिव को संवारें. 
पक्ष पाती कभी भी न्यायाधीश नहीं हो सकता. 
इस धरती को निर्पक्षता की ज़रुरत है 
जोकि आप की आगामी पीढ़ी की सवच्छ कर सके.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 11 August 2020

बुरे इस्लाम की कुछ खूबी



बुरे इस्लाम की कुछ खूबी

ग़ालिब कहता है - - -
बाज़ीचा ए इत्फ़ाल है दुन्या मेरे आगे,
होता है शब व रोज़ तमाशा मेरे आगे.
बाज़ीचा ए इतफ़ाल = बच्चों के मशक़ का मैदान , 
जी हाँ मैदान में यह बच्चे कभी पूजा पाठ का खेल खेलते हैं 
तो कभी नमाज़ रोज़ा का.
कभी घंटा घड्याल बजाते हैं तो कभी अज़ान चीखते है. 
कभी यह रक़्स ए इरफ़ानी करते हैं तो कभी गणपति बाप्पा मौर्या गाते हैं.
जुनैद मुंकिर भी चचा ग़ालिब का भतीजा है 
और उनके ही नक्श ए क़दम पर चलता है.
जब से मैंने इस्लाम के साथ साथ हिन्दू धर्म के राग माले पेश करना शुरू किया है,  धर्म दूषित लोगों ने इसे पसंद नहीं किया. 
मुझे अन्फ्रेंड करना भी शुरू कर दिया है, 
कुछ ने तो गाली देना भी उचित समझा. 
ऐसे लोगों को मैं ख़ुद अपनी रौशनी से बंचित कर देता हूँ.
उनकी दृष्टि में इस बात की कोई अहमयत नहीं कि 
मैंने इस्लाम को कुछ बुरा जान कर तर्क ए इस्लाम किया, 
उनकी चाहत है कि मैं हिन्दू क्यूँ नहीं बन गया? 
एक अल्लाह पर विश्वाश को छोडने वाला, 
गोबर अथवा देह मैल से निर्मित भगवान गणेश को स्थान देते हुए, 
हिंदुत्व का श्री गणेश क्यूँ नहीं करता .
हिंदुत्व और इस्लाम दो मुख़्तलिफ़ जीवन पद्धतियाँ हैं. 
इस्लाम दुश्मन को क़त्ल कर देता है. 
हिंदुत्व (मनुवाद) शत्रु को कभी भी क़त्ल नहीं करता, 
बल्कि दास बना लेता है. 
दुश्मन की पुश्त दर पुश्त मनुवाद के दास हुवा करते है, 
दास ऐसे कि जिनसे नफ़रत की सारी हदें पार हो जाती हैं.
उनके साया से भी परहेज़ होता है, 
उनकी मर्यादाएं मनुवाद की उगली हुई उल्टियाँ होती है. 
पांच हज़ार साल से भारत के मूल निवासी मनुवाद के ज़ुल्म को जी रही हैं, 
दास (ग़ुलाम ) इस्लाम में भी हुवा करते थे 
मगर शर्त होती कि जो ख़ुद खाओ, 
वही ग़ुलाम  को खिलाओ. जो ख़ुद पहनो वही ग़ुलाम  को भी पहनाओ.
एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद व् अयाज़, 
कोई बंदा रहा और न कोई बंदा नवाज़.
हिन्सुस्तान का पहला मुस्लिम शाशक क़ुतुबुद्दीन ऐबक 
अपने बादशाह का ग़ुलाम  ही था.
यह है बुरे इस्लाम की कुछ खूबी.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 10 August 2020

गुंड़े और कायर

गुंड़े और कायर 

गाँधी जी ने बड़ी हिम्मत की , 
यह कहकर कि मुसलमान बहुधा गुंडा होता है 
और हिंदू बहुधा कायर होता है. 
ग़ांधी जी ने पूरी हिम्मत नहीं की वर्ना कहते इस्लाम अपने आप में गुंडा गर्दी है 
और हिन्दू सिर्फ़ कायर ही नहीं बल्कि ख़सीस और बेईमान भी होता है. 
ख़ुद गाँधी जी की अहिंसा भी कायरता की श्रृंखला में आती है. 
मुसलमानों की जग जाहिर गुंडा गर्दी है, isis है. 
और हिंदुओं की जग जाहिर बेईमानी है मसअला कश्मीर. 
अंतर राष्ट्रीय मंच "राष्ट्र-संघ " में देश के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने वादा किया था कि काश्मीर में राय शुमारी होगी, आया काशमीरी हिन्दुतान में रहना चाहते है या पाकिस्तान या फिर अपना आज़ाद मुल्क चाहते हैं. 
काशमीर पर अपनी बात से मुकर जाना अंतर राष्ट्रीय स्तर की बेईमानी है. 
कहते हैं काशमीर भारत का अभिन्न अंग है. 
भारत का अंग तो कभी मलेश्या, इंड़ोनेशिया, थाई लैंड, बर्मा से लेकर अफ़ग़ानिस्तान तक थे. सब भिन्न हो गए.  
अभी कल की बात है भारत के अंग रहे पाकिस्तान और बांगला देश भिन्न हो गए. कल हिन्दुतान के दो चार अंग अलग होकर नए देश हो जायँ, 
तो कौन सी बुरी बात हो जाएगी ? 
जैसे कि सोवियत यूनियन का हुवा है. 
योरोप में आए दिन देश जुड़ते और टूटते रहते है. 
कैनाडा में फ़्रांस मूल बाहुल्य इलाक़ा कई बार अलग होने की बात करता है,हर बार चुनाव में मामूली अंतर से हार जाता है. 
देश में कोई ख़ून रेज़ी नहीं होती. 
काशमीर में सेना से लेकर अवाम तक की लगभग लाख से अधिक जाने जा चुकी हैं. 
यह देश प्रेम कहा जायगा या बेईमानी ? 
मानवता को देश प्रेम नहीं, धरती प्रेम की ज़रूरत है. 
देश तो सियासत दानों की सीमा बंदी होता है. 
जिसमें रहकर हम सुऱक्षित रहते हैं, 
हम सुऱक्षित रहते हैं दाख़िली तौर पर और 
ख़ारजी तौर पर जिसके लिए हम जान भी दे सकते हैं. 
देश को प्रेम नहीं टैक्स चाहिए, 
टैक्स चोरी देश द्रोह है न कि दिल की आवाज़. 
देखिए कब तक यह गुंड़े और बेईमान सियासत दान कब तक 
इंसानी ख़ून से अपनी प्यास बुझाते रहते हैं.  
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 9 August 2020

नास्तिकता

 नास्तिकता

खौ़फ़, लालच और अय्यारी ने God, अल्लाह या भगवान को जन्मा.
इनकी बुन्याद पर बड़े बड़े धर्म और मज़हब फले फूले, 
अय्यारों ने अवाम को ठगा. 
इन ठगों को धर्म ग़ुरु कहा जाता है. 
कभी कभी यह निःस्वार्थ होते हैं मगर इनके वारिस चेले यक़ीनन फित्तीन होते है.
कुछ हस्तियाँ इन से बग़ावत करके धर्मों की सीमा से बाहर निकल आती हैं , 
मगर वह काल्पनिक ख़ुदा के दायरे में ही रहती हैं, इन्हें संत और सूफ़ी कहा जाता है. 
संत और सूफ़ी कभी कभी मन को शांति देते है.
कभी कदार मै भी इन की महफ़िल में बैठ कर झूमने लगता हूँ. 
देखा गया है कि इनकी मजारें और मूर्तियाँ स्थापित हो जाती है 
और आस्था रूपी धंधा शुरू हो जाता है.
कुछ मानव मात्र इन से बेगाना होकर, मानव की ज़रूरतों को समझते हैं , 
उनके लिए ज़िंदगी को आसान बनाने का जतन किया, 
ऐसे महा पुरुष मूजिद (ईजाद करने वाला) और साइंस दां होते हैं . 
उन्हें नाम नमूद या दौलत की कोई चिंता नहीं, 
अपने धुन के पक्के, वर्षों सूरज की किरण भी नहीं देखते, 
अपना नाम भी भूल जाते हैं.
यह महान मानव संसाधनों के आविष्कारक होते हैं.
इनकी ही बख़्शी  हुई राहों पर चल कर दुन्या बरक़रार रहती है.
आधी दुन्या हवा के बुत God या अल्लाह को पूजती है, 
एक चौथाई दुन्या मिटटी पत्थर और धात की बनी मूर्तियाँ पूजती है, 
और एक चौथाई दुन्या ला मज़हब अथवा नास्तिक है. 
नास्तिकता भी एक धर्म है, 
निज़ाम ए हयात है 
या जीवन पद्धति कहा जाए. 
यह नवीन लाइफ़ स्टाइल है.
उपरोक्त धर्म और अर्ध धर्म हमें थपकियाँ देकर अतीत में सुलाए रहते हैं 
और साइंस दान भविष्य की चिंता में हमे जगाए रहते हैं. 
वास्तविकता को समझिए 
नास्तिकता को पहचानिए 
कि इसकी कोई पहचान नहीं.
यह मानव मात्र है.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 7 August 2020

भारत देश समूह

भारत  देश समूह 

वैदिक काल में इंसान पवित्र और अपवित्र की श्रेणी में बटा हुवा था. 
दसवीं सदी ई. तक इंसान ग़ुलामी के ज़ेर ए असर अपने कमर के पीछे झाड़ू बाँध कर चलता था ताकि उसके नापाक क़दमों के निशान ज़मीन पर न रह पाएं.
दूसरी तरफ़ मंद बुद्धि ब्रह्मण वेद रचना में अपनी बेवक़ूफ़ियाँ गढ़ते 
और चतुर बुद्धि समाज पर शाशन करते. 
वह तथा कथित सवर्णों में यज्ञ करके सोमरस निचोड़ते या फिर ख़ून.
गोधन उस समय सब से बड़ा धन हुवा .
तीज त्यौहार और धार्मिक समारोह में हजारों गाएँ कटतीं, 
शर्मा वैदिक कालीन क़साई हुवा करते.
इसी बीच बुद्ध जैसी हस्तियाँ आईं और पसपा हुईं.  
बुद्ध फ़िलासफ़ी भारत के बाहर शरण पा कर फूली फली. 
बुद्ध की अहिंसा की कामयाबी को छोड़कर बाक़ी बुद्धिज़्म को बरह्मनो ने कूड़ेदान में डाल दिया. इस में गाय की हिंसा इतनी शिद्दत थी गाय धन की जगह माता बन गई. 

दसवीं सदी ई में भारत में इस्लाम दाखिल हुवा, 
मानवता ने कुछ मुक़ाम पाया, 
शूद्रों ने जाना कि वह भी इंसानी दर्जा रखते है, 
वह इस्लाम के रसोई से लेकर इबादत गाहों तक पहुंचे.
धीरे धीरे आधा हिन्दुतान इस्लाम के आगोश में चला गया. 
आजके नक्शे में भारत + बांगला देश + पाकिस्तान की आबादियाँ जोड़ गाँठ कर देखी  जा सकती हैं. 

उसके बाद लगभग तीन सौ साल पहले अँगरेज़ भारत में दाखिल हुए, 
जिन्हों ने नईं नईं बरकतें हिन्दुस्तान को बख्शीं. 
धार्मिकता आधुनिकता रूप लेने लगीं, 
मंदिर मस्जिद और ताज महल के बजाए राष्ट्र पति भवन, पार्लिया मेंट हॉउस और हावड़ा ब्रिज भारत का भाग्य बने. लाइफ़ लाइन  रेल का विस्तार हुवा.

भारत आज़ाद हुवा, 
नेहरु काल तक अंग्रेजों की विरासत आगे बढ़ी.
भारत का उत्थान होता रहा, 
इंद्रा के बाद इसका पतन शुरू हुवा. 

मोदी युग आते आते भारत की गाड़ी  में उल्टा गेर लग गया .
बासी कढ़ी में उबाल शुरू हो चुका है.
फिर ब्रह्मणत्व वैदिक काल लाकर मनुवाद को स्थापित करना चाहता है.
भारत को भग़ुवा किया जा रहा है. 
इस आधुनिक युग में जानवरों को संरक्षण देकर प्रकृति के पाँव में बेड़ियाँ डाली जा रही हैं, जानवर इंसानी ख़ूराक न होकर, इंसान जानवरों का ख़ूराक बन्ने की दर पर है. जीव हत्या के नाम पर इंसानों की हत्या की जा रही है. 
दुन्या के अधिक तर जीव मांसाहारी हैं, इन जुनूनयों का बस चले तो यह शेर से लेकर बाज़ तक को शाकाहारी बनाने का यत्न करें.
याद रखें कृषि प्रधान भारत में, किसान का पशु पालन उनके हिस्से का व्यापार है 
जो निर्भर करता है मांसाहार पर. 
भेड, बकरी, भैस हो या गाय. इनका मांस अगर खाया नहीं जाएगा तो यह कुत्ते जैसे आवारा और अनुपयोगी बन कर रह जाएँगे.
इनके खाल हड्डी खुर सींग और मांस ही इनको पुनर जन्मित करते हैं.
अगर गो रक्षा का खेल यूँ ही चलता रहा तो एक दिन आएगा कि गाय भारत से नदारत हो जाएगी. इस पागलपन से एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि ऐसे देश में बहु संख्यक किसान बग़ावत पर उतर आए., 
देश प्रेम की जगह देश द्रोह अव्वलयत पा जाए और भारत के दर्जनों खंड बन जाएँ. भारत भारत न रह कर भारत देश समूह बन जाए.
हंसी आती है जब सरकारें देश की तरक्क़ी को अपनी गाथा में पिरोती है .
वैज्ञानिक तरक्क़ी भारत हो या चीन धरती का भाग्य है. इसे कोई रोक नहीं सकता मगर मानसिक उत्थान और पतन क़ौम की रहनुमाई पर मुनहसर है. 
देश तेज़ी से मानसिक पतन की ओर अग्रसर है.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान