Saturday 31 October 2020

ग़द्दार



ग़द्दार

ग़द्दार वह लोग हैं जो देश हित में टेक्स नहीं देते, वह नहीं जो देश को माता या पिता नहीं मानते. 
देश सीमा बंदी का नाम है जो कभी भारत होता है तो कभी पाकिस्तान हो जाता है तो कभी बांगला देश. 
देश धरती का सीमा बंद एक टुकड़ा होता है जिसका निर्माण वहां के लोगों के आपसी समझौते से हुवा करता था, फिर राजाओं महाराजाओं और बादशाहों की बाढ़ आई जनता ने उनके अत्याचार झेले. 
आज जम्हूरियत आई तो बादशाहत की जगह "देश भगति" ने लेली. 
देश भक्ति की मूर्ति बना कर अत्याचार को नया स्वरूप दे दिया गया है. 
सरकारी शायर देश प्रेम के गुनगान में लग गए. 
धूर्त टैक्स चोर भारत माता की पूजा हवन में लग गए.
देश की हिफ़ाज़त दमदार सेना करती है जिनका ख़र्च देशवासियों द्वारा टेक्स भर कर ही किया जा सकता है, देश की ख़ाली पोली पूजा करके नहीं.
देश के असली ग़द्दार सब नंगे हो कर बिलों में घुसे हुए हैं. इनकी दुकानों में ताले लगे हुए हैं.
इनके जुर्म की सज़ा गरीब और बेबस जनता अपनी ख़ून पसीने की कमाई को लेने के लिए बैंक के कतारों में दिनों रात ख़ड़ी हुई है.
देश के असली और ऐतिहासिक ग़द्दार हमेशा बनिए हुवा करते हैं जिनका अपनी बिरादरी के लिए सन्देश हुवा करता है - - -बनिए -- बनिए - बनिए कुछ बनिए , दूसरों को बिगड़ कर खुद बनिए. 
इसी निज़ाम को पूँजी वाद कहते हैं.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 30 October 2020

अज़ीम इन्सान


अज़ीम इन्सान 

समाज की बुराइयाँ, हाकिमों की ज्यादतियां और रस्म ओ रिवाज की ख़ामियाँ देख कर कोई साहिबे दिल और साहिबे जिगर उठ खड़ा होता है, वह अपनी जान को हथेली पर रख कर मैदान में उतरता है. वह कभी अपनी ज़िदगी में ही कामयाब हो जाता है, कभी वंचित रह जाता है और मरने के बाद अपने बुलंद मुक़ाम को छूता है, ईसा की तरह. 
मौत के बाद वह महात्मा, ग़ुरू और पैग़मबर बन जाता है. 
इसका मुख़ालिफ़ समाज इसके मौत के बाद इसको ग़ुणांक में रुतबा देने लगता है, 
इसकी पूजा होने लगती है, 
अंततः इसके नाम का कोई धर्म, कोई मज़हब या कोई पन्थ बन जाता है. 
धर्म के शरह और नियम बन जाते हैं, 
फिर इसके नाम की दुकाने खुलने लगती हैं 
और शुरू हो जाती है ब्यापारिक लूट. 
अज़ीम इन्सान की अज़मत का मुक़द्दस ख़ज़ाना, 
बिल आख़ीर उसी घटिया समाज के लुटेरों के हाथ लग जाता है. 
इस तरह से समाज पर एक और नए धर्म का लदान हो जाता है.
हमारी कमजोरी है कि हम अज़ीम इंसानों की पूजा करने लगते हैं, 
जब कि ज़रुरत है कि हम अपनी ज़िंदगी उसके पद चिन्हों पर चल कर ग़ुजारें. 
हम अपने बच्चों को दीन पढ़ाते हैं, 
जब कि ज़रुरत है  उनको आला और जदीद तरीन अख़लाक़ी क़द्रें पढ़ाएँ. 
मज़हबी तालीम की अंधी अक़ीदत, जिहालत का दायरा हैं. 
इसमें रहने वाले आपस में ग़ालिब ओ मगलूब और 
ज़ालिम ओ मज़लूम रहते हैं.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 29 October 2020

क़व्वाली


क़व्वाली

 क़ब्ल ए इस्लाम अरब में मुख़्तलिफ़ अक़ायद क़ायम थे, 
बुत परस्ती से लेकर ख़ुदा ए लाशरीक तक, 
उससे भी आगे मुलहिद, मुरतद और मुंकिर तक. 
उनमे ही एक तबका मोमिन का हुवा करता था 
जो तबई और फ़ितरी (स्वाभाविक और लौकिक) ईमान को तस्लीम करता था, 
ग़ैर तबई और ग़ैर फ़ितरी बातों को नापसंद करता था. 
यानी उरयाँ सदाक़त पर उसका ईमान हुवा करता था. 
वह नास्तिक तो नहीं मगर "कोई ताक़त" के क़ायल हुवा करते थे. 
मुहम्मद का हम अस्र करन का 'उवैस करनी' हुवा करता था जिसे इस मसलक का पीर कहा जा सकता है. 
मुहम्मद की वसीअत थी कि उनके मौत के बाद उनका जुब्बा (परिधान) उवैस करनी को दे दिया जाए. मगर उवैस करनी मुहम्मद के साए से दूर भागता कि कहीं उसे कलिमा पढ़ कर मुहम्मद का इस्लाम न कुबूल करना पड़े. 
बाद में हसन बसरी और राबिया बसरी जैसी हस्तियाँ हुईं जो इस्लामी हुक्मरानों से छुपे छुपे रहते. 
इस्लाम के बाद मोमिनों का यह तरीक़ा होता कि वह बस्ती से दूर बसते और वहीं अपनी ईमान की कुटिया बना लेते. 
मौत के बाद जुब्बा को लेकर अबुबक़्र और अली उवैस के पास गए. 
उसने जुब्बा को बड़े बे दिली से ले तो लिया और दोनों को बेदिली के साथ ही रुख़सत भी कर दिया. मुझे उम्मीद है उवैस ने जुब्बा को आग के हवाले कर दिया होगा.
तबरेज़, मंसूर, सरमद, ख़ुसरू और कबीर जैसे मोती इस हार में 
पिरोए हुए देखे जा सकते है. 
इनके क़ौल (कथन) ही क़व्वाली कहलाती है. 
क़व्वाली में वह सदाक़त होती है कि इसे सुन कर वजूद में 
वज्दानियत (मस्ती) आ जाती है. 
हर धर्म के आला और तालीम याफ़्ता तबक़ा महफ़िल में झूमता देखा जा सकता है. भला उरयाँ सदाक़त को कौन देखना और सुनना पसंद नहीं करेगा, तंग नज़र मुसलमान और कपटी ह्न्दुओं के सिवा.
 क़व्वाली सूफ़ी और संतों की वाणी और क़ौल हुवा करती है जिसमे मौजूदा मज़हब और धर्म के मिथ्य से बग़ावत करके सिद्क़ और सत्य के बोल होते है.
कभी कभी ख़ुद फ़रेबी (आत्मघात) करके क़व्वाली की मस्ती में डूबा जा सदाकत है.
नोट ;-
अफ़सोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि क़व्वाली में भी मिलावट कर दी गई है. अली दा पहला नंबर, अली दम दम दे अन्दर. 
हजारों लोगों के कातिल अली क़व्वाली की सदाक़त बन गए हैं.  
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 28 October 2020

नया आईना


नया आईना 

लाखों, करोरों, अरबों बल्कि उस से भी कहीं ज़्यादः बरसों से इस ब्रह्मांड का रचना कार अल्लाह क्या चौदह सौ साल पहले सिर्फ़ तेईस साल चार महीने (मोहम्मद का पैग़मबरी काल) के लिए अरबी जुबान में बोला था? 
वह भी मुहम्मद से सीधे नहीं, किसी तथा कथित दूत के माध्यम से, 
वह भी बाआवाज़ बुलंद नहीं काना-फूसी कर के ? 
जनता कहती रही कि जिब्रील आते हैं तो सब को दिखाई क्यूँ नहीं पड़ते? 
जो कि उसकी उचित मांग थी 
और मोहम्मद बहाने बनाते रहे. 
क्या उसके बाद अल्लाह को साँप सूँघ गया कि स्अवयंभू अल्लाह के रसूल की मौत के बाद उसकी बोलती बंद हो गई और जिब्रील अलैहिस्सलाम मृत्यु लोक को सिधार गए ? 
उस महान रचना कार के सारे काम तो बदस्तूर चल रहे हैं, 
मगर झूठे अल्लाह और उसके स्वयम्भू रसूल के छल में आ जाने वाले 
लोगों के काम चौदह सौ सालों से रुके हुए हैं, 
मुसलमान वहीं है जहाँ सदियों पहले था, 
उसके हम रक़ाब यहूदी, ईसाई और दीगर क़ौमें आज मुसलमानों को 
सदियों पीछे अतीत के अंधेरों में छोड़ कर प्रकाश मय संसार में बढ़ गए हैं. 
हम मोहम्मद की गढ़ी हुई जन्नत के फ़रेब में ही नमाज़ों के लिए 
वज़ू, रुकू और सजदे में विपत्ति ग्रस्त है. 
मुहम्मदी अल्लाह उन के बाद क्यूँ किसी से वार्तालाप नहीं कर रहा है? 
जो वार्ता उसके नाम से की गई है उस में कितना दम है? 
ये सवाल तो आगे आएगा जिसका वाजिब जवाब देना होगा.
क़ुरआन का पोस्ट मार्टम खुली आँख से देखें. 
"हर्फ़ ए ग़लत" का सिलसिला जारी हो गया है. 
आप जागें, मुस्लिम से मोमिन हो जाएँ और ईमान की बात करें. 
अगर ज़मीर रखते हैं तो सदाक़त ज़रूर समझेंगे और 
अगर इसलाम की कूढ़ मग्ज़ी ही ज़ेह्न में समाई है तो जाने दीजिए ,
अपनी नस्लों को तालिबानी जहन्नम में.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 27 October 2020

ऐ खुदा!


ऐ खुदा!

ऐ ख़ुदा! तू ख़ुद से पैदा हुवा, ऐसा बुजुर्गों का कहना है.
मगर तू है भी या नहीं ? ये मेरा ज़ेहनी तजस्सुस और तलाश है.
दिल कहता है तू है ज़रूर कुछ न कुछ. ब्रहमांड को भेदने वाला!
हमारी ज़मीन की ही तरह लाखों असंख्य ज़मीनों को पैदा करके उनका संचालन करने वाला!
क्या तू इस ज़मीन पर बसने वाले मानव जाति की ख़बर भी रखता है ?
तेरे पास दिल, दिमाग, हाथ पाँव, कान नाक, सींग और एहसासात हैं क्या ?
या इन तमाम बातों से तू लातअल्लुक़ है ?
तेरे नाम के मंदिर, मस्जिद,गिरजे और तीरथ बना लिए गए हैं,
धर्मों का माया जाल फैला हुवा है, सब दावा करते हैं कि वह तुझसे मुस्तनद हैं,
इंसानी फ़ितरत ने अपने स्वार्थ के लिए मानव को जातियों में बाँट रख्खा है,
तेरी धरती से निकलने वाले धन दौलत को अपनी आर्थिक तिकड़में भिड़ा कर,
 ज़हीन लोग अपने क़ब्जे में किए हुवे हैं.
दूसरी तरफ़ मानव दाने दाने का मोहताज हो रहा है.
कहते हैं सब भाग्य लिखा हुआ है जिसको भगवान ने लिखा है.
क्या तू ऐसा ही कोई ख़ुदा है ?
सबसे ज़्यादः भारत भूमि इन हाथ कंडों का शिकार है.
इन पाखंडियों द्वरा गढ़े गए तेरे अस्तित्व को मैं नकारता हूँ.
तेरी तरह ही हम और इस धरती के सभी जीव भी अगर ख़ुद से पैदा हुए हें,
तो सब ख़ुदा हुए ?
नहीं, तो! तेरे कुछ जिज्ञासू कहते हैं,
''कण कण में भगवन ''
मैं ने जो महसूस किया है, वह ये कि तू बड़ा कारीगर है।
तूने कायनात को एक सिस्टम दे दिया है,
एक फार्मूला सच्चाई का २+२=४ का सदाक़त और सत्य,
कर्म और कर्म फल,
इसी धुरी पर संसार को नचा दिया है कि धरती अपने मदार पर घूम रही है।

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 26 October 2020

मैं हूँ, फ़क़त इंसान


मैं हूँ, फ़क़त इंसान 

मैं हिन्दू हूँ न मुसलमान, न क्रिश्चेन और न ही कोई 
धार्मिक आस्था रखने वाला व्यक्ति. 
मैं सिर्फ़ एक इंसान हूँ, 
मानव मात्र. 
हिदू और मुस्लिम संस्कारों में ढले आदमी को मानव मात्र बनना 
बहुत ही मुश्किल काम है. 
कोई बिरला ही सत्य और सदाक़त से आँखें मिला पाता है कि 
परिवेश का ग़लबा उसके सामने त्योरी चढ़ाए खड़ा रहता है और 
वह फिर आँखें मूँद कर असत्य की गोद में चला जाता है. 
ग़ालिब कहता है ---
बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना, 
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना.

(हर आदमी, आदमी का बच्चा होता है चाहे उसे भेड़िए ने ही क्यूं न पाला हो और सभ्य होने के बाद ही आदमी इंसान कहलाता है)
मैं सिर्फ़ इंसान हो चुका हूँ इस लिए मैं इंसान दोस्त हूँ. 
दुन्या में सब से ज़्यादः दलित, दमित, शोषित और मूर्ख क़ौम है मुसलमन, 
उस से ज़्यादः मज़लूम हैं हमारे भारत में अछूत, हरिजन, दलित आदि.
पहचान रखने वाला हिन्दू है. 
पहले अंतर राष्ट्रीय क़ौम को क़ुरआनी आयातों ने पामाल कर रखा है,
दूसरे को भारत में धर्म और पाखण्ड ने. 
मुट्ठी भर लोग इन दोनों को  उँगलियों पर नचा रहे हैं. 
मैं फ़िलहाल मुसलामानों को इस दलदल से निकलने की चाह रखता हूँ, 
हिन्दू भाइयो के शुभ चिन्तक बहुतेरे हैं. 
इस लिए मैं इस मुसलमन मानव जाति का शुभ चिन्तक हूँ, 
यही मेरा मानव धर्म है. 
नादान मुसलमान मुझे अपना दुश्मन समझते हैं 
जब कि मैं उनके अज़ली दुश्मन इस्लाम का विरोध करता हूँ 
और वाहियात गाथा क़ुरआन का. 
हर मानवता प्रेमी पाठक से मेरा अनुरोध है कि वह मेरे अभियान के साथ आएं, मेरी तहरीर को मुस्लिम भाइयों के कानों तक पहुँचाएँ. 
हर साधन से उनको इसकी सूचना दें. 
मैं मानवता के लिए जान कि बाज़ी लगा कर मैदान में उतरा हूँ, 
आप भी कुछ कर सकते हैं .
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 25 October 2020

हुक़ूक़ुल एबाद

हुक़ूक़ुल एबाद 

यानी बन्दों के व्यक्ति गत अधिकार 
इस्लाम का अहम् रुक्न (खंबा) है, 
जिसे मुल्ला और मोलवी दबाए हुए हैं कि इसके उबरने से उनका नुक़सान होता है. हुक़ूक़ुल इबाद के तहत अल्लाह अपने बन्दों से अपने हक़ों के वारे में दर्याफ़्त करेगा कि तुम मेरे हक़ में ईमानदारी से रहे? 
किसी को मेरा शरीक तो नहीं किया?
तुमने मेरी इताअत करते हुए कैसी जिंदगी ग़ुज़ारी ? 
नमाज़ की पाबंदी की? 
रोज़े रखते रहे, ख़ैरात ज़कात अदा करते रहे कि नहीं ? 
हैसियत पाने के बाद हज किया या नहीं?
इन सब सवालों का जवाब देता हुवा बंदा अगर पुले-सरात को पार कर जाता है तो उसके लिए जन्नत के दरवाज़े खुले होंगे, 
जहाँ हूरों का झुरमुट होगा, 
मोती के मानिद ग़िलमा (लौड़े) सर झुकाए खड़े होंगे, 
शराब की नहरें बहती होंगी, 
फलों के दरख़्त जन्नतियों के मुंह के सामने नमूदार हो जाएंगे. 
गोया जिन आशाइशों और ग़ुनाहों से तुम दुन्या में महरूम हो गए थे, 
उनकी भरपाई अल्लाह पूरा करेगा.

मगर, अगर तुम अल्लाह के उपरोक्त हुक़ूक़ को अदा नहीं किया तो, 
तुम्हारे लिए दोज़ख़ के दरवाज़े खुले होंगे. 
बसूरत दीगर तुम्हारी कोई दलील अल्लाह को भा गई 
तो वह तुम्हें मुआफ़ भी कर सकता है.
यहाँ तक अल्लाह और बन्दों का मुआमला हुवा.

इसके बाद बन्दों के साथ बन्दों का मुआमला शुरू होता है. 
सुना होगा मुसलमानों को कहते हुए कि 
 "हम हश्र मैदान में तुम्हारे दामन गीर होंगे"
अगर बन्दे ने बन्दे का हक़ अदा नहीं किया, या हक़ मारा, 
बेटे ने माँ बाप का हक़ नहीं अदा किया, 
पति ने पत्नी का हक़ अदा नहीं किया,
ज़िम्मेदारों ने अनाथ के हुक़ूक़ पर डाका डाला है, 
ऐसे तमाम मुआमलों में अल्लाह अपने हाथ खड़े कर देगा कि 
ऐसे मुजरिमों को तो मज़लूम ही मुआफ़ कर सकता है. 
मैं कुछ नहीं कर सकता.
समाजी मुजरिमों के हाथ लगी जन्नत, 
हाथ से निकल जाएगी और उसका हक़दार मज़लूम हो जाएगा.
पाक बाज़ ज़िन्दगी जीने के ऐसे ज़खीरों से इस्लाम ओत प्रोत है . 
कमीज़ में लगे चार गिरह हराम के टुकड़े से 
आपकी नमाज़ अल्लाह क़ुबूल नहीं करेगा. 
आपने पड़ोसी के छप्पर से दांत खोदने के लिए एक तिनका तोड़ा है, 
और इस अंदेशे के साथ कि कही कोई देख तो नहीं रहा ? 
ऐसा ख़याल आते ही आप ग़ुनाहगार हो गए, 
आमाल की बुनियाद पर जन्नत तो आपको मिलेगी मगर एक ज़ख्म के साथ.
इस्लाम की इन ख़ूबियों से जो लोग मालामाल हैं 
वह जंग, जिहाद, माल-ए-ग़नीमत की कल्पना भी नहीं कर सकते.
हक़ हलाल की रोज़ी का तसव्वर इस्लाम ने ही दुन्या को बख़्शा है.
हराम हलाल की कल्पना इस्लाम में पोशीदा सूफ़ीइज़्म की देन है.
क़ुरआन में इन बातों की कोई हलक नहीं.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 24 October 2020

क़ुदरत की बनावट


क़ुदरत की बनावट        

क़ुदरत को अगर ख़ुदा का नाम दिया जाए तो इसका भी कोई जिस्म होगा 
जैसे कि इंसान का एक जिस्म है. 
क़ुरआन और तौरेत की कई आयतों के मुताबिक़ ख़ुद बख़ुद 
इलाही मुजस्सम साबित होता है. 
इंसान के जिस्म में एक दिमाग़ है .
 दिमाग़ रखने वाला ख़ुदा झूठा साबित हो चुका  है. 
क़ुदरत (बनाम ख़ुदा) के पास कोई दिमाग़ नहीं है बल्कि एक बहाव है, 
इसके अटल उसूलों के साथ. 
इसके बहाव से मख़लूक़ को कभी सुख होता है कभी दुःख. 
ज़रुरत है क़ुदरत के जिस्म की बनावट को समझने की 
जैसे कि मेडिकल साइंस ने इंसानी जिस्म को समझा है 
और लगातार समझने की कोशिश कर रहा है. 
इनके ही कारनामों से इंसान क़ुदरत के सैकड़ों कह्र से नजात पा चुका है. 
मलेरिया, ताऊन, चेचक जैसी कई बीमारियों से 
और बाढ़, अकाल जैसी आपदाओं से नजात पा रहा है. 
जंगलों और ग़ुफाओं की रिहाइश गाह आज हमें पुख़ता मकानों तक लेकर आ गई हैं. 
हमें ज़रुरत है क़ुदरत बनाम ख़ुदा के जिस्मानी बहाव को समझने की, 
नाकि उसकी इबादत करने की. 
इस रास्ते पर हमारे जदीद पैग़म्बर साइंस दान गामज़न हैं. 
यही पैग़म्बरान वक़्त एक दिन इस धरती को जन्नत बना देंगे.
इनकी राहों में दीन धरम के ठेकेदार रोड़े बिखेरे हुए हैं. 
जगे हुए इंसान ही इन मज़हब फ़रोशों को सुला सकते है.
जागो, आँखें खोलो, अल्लाह के फ़रमान पर ग़ौर करो 
और मोमिन के मशविरे पर, 
फ़ैसला करो कि कौन तुमको ग़ुमराह कर रहा है - - -
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 23 October 2020

मुनाफ़िक़-ए-इंसानियत


मुनाफ़िक़-ए-इंसानियत

मुसलमानों में दो तबके तअलीम याफ़्ता कहलाते हैं, 
पहले वह जो मदरसे से फ़ारिग़ुल तअलीम हुवा करते हैं और 
समाज को दीन की रौशनी (दर अस्ल अंधकार) में डुबोए रहते हैं, 
दूसरे वह जो इल्म जदीद पाकर अपनी दुन्या संवारने में मसरूफ़ हो जाते हैं. 
मैं यहाँ दूसरे तबक़े को ज़ेरे-बहस लाना चाहूँगा. 
इनमें जूनियर क्लास के टीचर से लेकर यूनिवर्सिटीज़ के प्रोफ़सर्स तक और इनसे भी आगे डाक्टर, इंजीनियर और साइंटिस्ट तक होते हैं. 
इब्तेदाई तअलीम में इन्हें हर विषय से वाक़िफ़ कराया जाता है 
जिस से इनको ज़मीनी हक़ीक़तों की जुग़राफ़ियाई और साइंसी मालूमात होती है. 
ज़ाहिर है इन्हें तालिब इल्मी दौर में बतलाया जाता है कि 
यह ज़मीन फैलाई हुई चिपटी रोटी की तरह नहीं बल्कि गोल है. 
ये अपनी मदार पर घूमती रहती है, न कि साकित है. 
सूरज इसके गिर्द तवाफ़ नहीं करता बल्कि ये सूरज के गिर्द तवाफ़ करती है. 
दिन आकर सूरज को रौशन नहीं करता बल्कि 
इसके सूरज के सामने आने पर दिन हो जाता है. 
आसमान कोई बग़ैर ख़म्बे वाली छत नहीं बल्कि 
ला महदूद है और इंसान की हद्दे नज़र है. 
इनको लैब में ले जाकर इन बातों को साबित कर के समझाया जाता है 
ताकि इनके दिमाग़ से धर्म और मज़हब के अंध विश्वास ख़त्म हो जाएँ.
इल्म की इन सच्चाइयों को जान लेने के बाद भी यह लोग जब 
अपने मज़हबी जाहिल समाज का सामना करते हैं तो इन के असर में आ जाते हैं. 
चिपटी ज़मीन और बग़ैर ख़म्बे की छतों वाले वाले आसमान की झूटी आयतों को कठ मुल्लों के पीछे नियत बाँध कर क़ुरआनी झूट को ओढ़ने बिछाने लगते हैं. 
सानेहा ये है कि यही हज़रात अपने क्लास रूम में पहुँच कर 
फिर साइंटिस्ट सच्चाइयां पढ़ाने लगते हैं. 
ऐसे लोगों को मुनाफ़िक़ कहा गया है, 
यह तबका मुसलमानों का उस तबक़े से जो ओलिमा कहे जाते हैं, 
दस ग़ुना क़ौम का मुजरिम है. 
सिर्फ़ ये लोग अपनी पाई हुई तअलीम का हक़ अदा करें तो 
सीधी-सादी अवाम बेदार हो सकती है. 
मुनाफ़िक़त ने हमेशा इंसानियत को नुक़सान पहुँचाया है.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 22 October 2020


क़यामती साया     
      
आज इक्कीसवीं सदी में दुन्या के तमाम मुसलामानों पर मुहम्मदी अल्लाह का क़यामती साया ही मंडला रहा है. जो क़बीलाई समाज का मफ़रूज़ा ख़दशा हुवा करता था. 
अफ़ग़ानिस्तान दाने दाने को मोहताज है, ईराक अपने दस लाख बाशिदों को जन्नत नशीन कर चुका है, मिस्र, लीबिया, सीरिया,यमन और दीगर अरब रियासतों पर इस्लामी तानाशाहों की चूलें ढीली होती जा रही हैं. 
तमाम अरब मुमालिक अमरीका और योरोप के ग़ुलामी में जा चुके है, 
लोग तेज़ी से सर ज़मीन ए ईसाइयत की गोद में जा रहे हैं, 
कम्युनिष्ट रूस से आज़ाद होने वाली रियासतें जो इस्लामी थीं, 
दोबारा इस्लामी सफ़ में वापस होने से साफ़ इंकार कर चुकी हैं, 
11-9  के बाद अमरीका और योरोप में बसे मुसलमान मुजरिमाना वजूद ढो रहे हैं, 
अरब से चली हुई बुत शिकनी की आंधी हिदुस्तान में आते आते कमज़ोर पड़ चुकी है, सानेहा ये है कि ये न आगे बढ़ पा रही है और न पीछे लौट पा रही है, 
अब यहाँ बुत इस्लाम पर ग़ालिब हो रहे हैं, 
18  करोड़ बे कुसूर हिदुस्तानी बुत शिकनों के आमाल की सज़ा भुगत रहे हैं, 
हर माह के छोटे मोटे दंगे और सालाना बड़े फ़साद इनकी मुआशी हालत को बदतर कर देते हैं, और हर रोज़ ये समाजी तअस्सुब के शिकार हो जाते हैं, इन्हें सरकारी नौकरियाँ बमुश्किल मिलती है, बहुत सी प्राइवेट कारख़ाने और फ़र्में इनको नौकरियाँ देना गवारा नहीं करती हैं, 
दीनी तअलीम से लैस मुसलमान वैसे भी हाथी का छोत होते है, 
जो न जलाने के काम आते हैं न लीपने पोतने के, 
कोई इन्हें नौकरी देना भी चाहे तो ये उसके लायक़ ही नहीं होते. 
लेदे के आवां का आवां ही खंजर है.
दुन्या के तमाम मुसलमान जहाँ एक तरफ़ अपने आप में पस मानदा है, 
वहीं, दूसरी क़ौमों की नज़र में जेहादी नासूर की वजेह से ज़लील और ख़्वार है. 
क्या इससे बढ़ कर क़ौम पर कोई क़यामत आना बाक़ी रह जाती है? 
ये सब उसके झूठे मुहम्मदी अल्लाह और उसके नाक़िस क़ुरआन की बरक़त है. 
आज हस्सास तबा मुसलमान को सर जोड़कर बैठना होगा कि 
बुजुर्गों की नाक़बत अनदेशी ने अपने जुग़राफ़ियाई वजूद को क़ुरबान करके 
अपनी नस्लों को कहीं का नहीं रक्खा.
 ***           
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 21 October 2020

अंडे में इनक़्लाब


अंडे में इनक़्लाब

इंसानी ज़ेहन जग चुका है और बालिग़ हो चुका है. 
इस सिने बलूग़त की हवा शायद ही आज किसी टापू तक भले न पहुँची हो,  
रौशनी तो पहुँच ही चुकी है, 
यह बात दीगर है कि नस्ल-इंसानी चूज़े की शक्ल बनी हुई अन्डे के भीतर बेचैन कुलबुलाते हुए, अंडे के दरकने का इन्तेज़ार कर रही है. 
मुल्कों के हुक्मरानों ने हुक्मरानी के लिए सत्ता के नए नए चोले गढ़ लिए हैं. 
कहीं पर दुन्या पर एकाधिकार के लिए सिकंदारी चोला है 
तो कहीं पर मसावात का छलावा. 
धरती के पसमांदा टुकड़े बड़ों के पिछ लग्गू बने हुए है. 
हमारे मुल्क भारत में तो कहना ही क्या है! 
क़ानूनी किताबें, जम्हूरी हुक़ूक़, मज़हबी जूनून, धार्मिक आस्थाएँ, 
आर्थिक लूट की छूट एक दूसरे को मुँह बिरा रही हैं. 
90% अन्याय का शिकार जनता अन्डे में क़ैद बाहर निकलने को बेक़रार है, 
10% मुर्गियां इसको सेते रहने का आडम्बर करने से अघा ही नहीं रही हैं. 
गरीबों की मशक़्क़त ज़हीन बनियों के ऐश आराम के काम आ रही है, 
भूखे नंगे आदि वासियों के पुरखों के लाशों के साथ दफ़न दौलत 
बड़ी बड़ी कंपनियों के जेब में भरी जा रही है और अंततः 
ब्लेक मनी होकर स्विज़र लैंड के हवाले हो रही है. 
हजारों डमी कंपनियाँ जनता का पैसा बटोर कर चम्पत हो जाती हैं. 
किसी का कुछ नहीं बिगड़ता. 
लुटी हुई जनता की आवाज़ हमें ग़ैर कानूनी लग रही हैं 
और मुट्ठी भर सियासत दानों, पूँजी पतियों, धार्मिक धंधे बाजों 
और समाज दुश्मनों की बातें विधिवत बन चुकी हैं. 
कुछ लोगों का मानना है कि आज़ादी हमें नपुंसक संसाधनों से मिली, 
जिसका नाम अहिंसा है. 
सच पूछिए तो आज़ादी भारत भूमि को मिली, भारत वासियों को नहीं. 
कुछ सांडों को आज़ादी मिली है और गऊ माता को नहीं. 
जनता जनार्दन को इससे बहलाया गया है. 
इंक़्लाब तो बंदूक की नोक से ही आता है, अब मानना ही पड़ेगा, 
वर्ना यह सांड फूलते फलते रहेंगे. 
स्वामी अग्निवेश कहते हैं कि वह चीन गए थे वहां उन्हों ने देखा कि हर बच्चा ग़ुलाब के फूल जैसा सुर्ख़ और चुस्त है. जहाँ बच्चे ऐसे हो रहे हों वहां जवान ठीक ही होंगे. कहते है चीन में रिश्वत लेने वाले को, रिश्वत देने वाले को 
और बिचौलिए को एक साथ गोली मारदी जाती है. 
भारत में गोली किसी को नहीं मारी जाती, चाहे वह रिश्वत में भारत को ही लगादे. दलितों, आदि वासियों, पिछड़ों, गरीबों और सर्व हारा से अब सेना निपटेगी. 
नक्सलाईट का नाम देकर 90% भारत वासियों का सामना भारतीय फ़ौज करेगी, कहीं ऐसा न हो कि इन 10% लोगों को फ़ौज के सामने जवाब देह होना पड़े कि इन सर्व हारा की हत्याएं हमारे जवानों से क्यूं कराई गईं? 
और हमारे जवानों का ख़ून इन मजलूमों से क्यूं कराया गया? 
मज़लूम  जिन अण्डों में हैं उनके दरकने के आसार भी ख़त्म हो चुके हैं. 
कोई चमत्कार ही उनको बचा सकता है.  
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 20 October 2020

सोया हुवा समाज


                सोया हुवा समाज  

 

गीता की तरह अगर हम क़ुरआन सार निकलना चाहें तो वो ऐसे होगा - - -
अवाम को क़यामत आने के यक़ीन में लाकर, दोज़ख का खौफ़ और जन्नत की लालच पैदा करना, 
फिर उसके बाद मन मानी तौर पर उन भेड़ों को हाँकना''
क़यामत के उन्वान को लेकर मुहम्मद जितना बोले हैं उतना दुन्या में शायद  कोई किसी उन्वान पर बोला हो. 
इस्लाम को अपना लेने के बाद मुसलमानों मे एक वाहियात इंफ़्रादियत आ गई है 
 मुहम्मद की इस 'बड़ बड़' को ज़ुबानी रट लेने की, 
जिसे हफ़िज़ा कहा जाता है. 
लाखों ज़िंदगियाँ इस ग़ैर तामीरी काम में लग कर अपनी फ़ितरी ज़िन्दगी से  महरूम रह जाती हैं और दुन्या के लिए कोई तामीरी काम नहीं कर पातीं. 
अरब इस हाफ़िज़े के बेसूदा काम को लगभग भूल चुके हैं और तमाम हिंदो-पाक के मुसलमानों में रायज, यह रवायती ख़ुराफ़ात अभी बाक़ी है. 
वह मुहम्मद को सिर्फ़ इतना मानते हैं कि उन्हों ने कुफ्र और शिर्क को ख़त्म करके वहदानियत (एक ईश्वर वाद) का पैग़ाम दिया. मुहम्मद वहाँ आक़ाए दो जहाँ नहीं हैं. 
यहाँ के मुसलमान उनको ग़ुमराह और वहाबी कहते हैं.
तुर्की में इन्केलाब आया, कमाल पाशा ने तमाम कट्टर पंथियों के मुँह में लगाम और नाक में नकेल डाल दीं, जिन्हों ने दीन के हक़ में अपनी जानें क़ुरबान करना चाहा उनको लुक़्मए अज़ल हो जाने दिया, नतीजतन आज योरोप में अकेला मुस्लिम मुल्क है जो योरोप के शाने बशाने चल रहा है. 
कमाल पाशा ने बड़ा काम ये किया की इस्लाम को अरबी जुबान से निकाल कर टर्किश में कर दिया जिसके बेहतरीन नतायज निकले, 
कसौटी पर चढ़ गया क़ुरआन. 
कोई टर्किश हाफ़िज़ ढूंढे से नहीं मिलेगा टर्की में. 
काश भारत में ऐसा हो सके, 
क़ौम का आधा इलाज यूँ ही हो जाए.
हमारे मुल्क का बड़ा सानेहा ये मज़हब और धर्म है, 
इसमें मुदाख़लत न हिदू भेड़ें चाहेगी और न इस्लामी भेड़ें, 
इनके क़साई इनके नजात दिहन्दा बन कर इनको ज़िबह करते रहेंगे. 
हमारे हुक्मरान अवाम की नहीं, अवाम की 'ज़ेहनी पस्ती' की हिफ़ाज़त करते हैं. मुसलमान को कट्टर मुसलमान और हिन्दू को कट्टर हिन्दू बना कर इनसे इंसानियत का जनाज़ा ढुलवाते हैं.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 19 October 2020

अद्ल


 अद्ल 

अद्ल के अर्थ हैं न्याय इंसाफ़, सत्यानिष्ट, सत्य पौरुष. 
अद्ल शब्द ज़ेहन में आते ही शरीर में एक झुरझुरी सी दौड़ जाती है. 
मैं कलम उठाता हूँ तो अद्ल की तलवार सामने आकर खड़ी हो जाती हैं. 
अद्ल से ज़रा हट कर सोचते ही अद्ल मेरे मुंह पर तमाचा रसीद कर देती है 
कि तुझे अदालत में आना है. आदिल बन. 
मेरी बातों में लोग तरह तरह की गुंजाइशें गढ़ लेते हैं , 
हिन्दू मुझ पर फब्तियां कस देते हैं 
और मुसलमान तो ख़ैर लअनत की धिक्कार बरसाते ही रहते हैं. 
हिन्दी के साथ साथ ज़्यादः पोस्टें मेरी उर्दू में होती हैं 
जोकि शायद पाकिस्तानियों के काम भी आती हों, 
ख़ुशी की बात है कि वह मुझे हज़्म करते हैं. 
डर के मारे कोई कमेन्ट नहीं करते मगर मेरी क़द्र करते है. 
कोई अनुचित भाषा उनकी मेरे लिए नहीं होती, 
शायद उनको मेरी ज़रुरत है. 
कुछ दिनों से मैंने अपने हिन्दू भाइयों को जागृत करना शुरू किया है तो 
मेरे कुछ दोस्तों को रास नहीं आ रहा. 
दोनों कौमें सच को न पसंद करके धार्मिक मिथ्य को ज़्यादः पसंद करती हैं. 
अद्ल मुझे धक्का दिए रहता है कि आगे बढ़.
ग़ालिब कहता है ,
 मरे काशी में, तो काबे में गाड़ो बरहमन को,
वफ़ा दारी बशर्त ए उस्त्वारी अस्ल ईमां है.
***  
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 18 October 2020

नक़्श ए फ़रियादी


नक़्श ए फ़रियादी 

 

नक़्श फ़रियादी है किसकी शोखिए तहरीर का ,
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर ए तहरीर का .

ग़ालिब के दीवान का यह पहला शेर है, 
जिसमे उन्होंने अपने मिज़ाज के एतबार से हम्द (ईश गान) का इशारा किया है. 
अजीब ओ ग़रीब और अनबूझे ख़ुदा की तरफ़ सिर्फ़ नज़रें उठाई हैं, 
न उसकी तारीफ़ की है, न हम्द, 
बल्कि एक हैरत का इज़हार है. 
यही अब तक के ख़ुदाओं की हक़ीक़त है. 
उसको लोग अपने हिसाब से शक्ल देकर इंसान को सिर्फ़ ग़ुमराह कर रहे हैं .
ग़ालिब कहता है कि वह कौन सी ताक़त है कि 
मख़लूक का हर नक़्श (आकृति) फ़रियादी है 
और अपनी तशकील ओ तामीर की तहरीरी, तकमीली, तजस्सुस लिए हुए है 
कि वह क्या है ? 
क्यों है ? 
कौन है उसका ख़ालिक़ और मालिक ?
गोया ग़ालिब अब तक के ख़ुदाओं को इंकार करते हुए 
उनके लिए एक सवालिया निशान ही छोड़ता है. 
वह क़ुदरत को पूजने का ढोंग नहीं करता बल्कि 
उसको अपने महबूब की तरह शोख़ और शरीर बतलाता है, 
जो बराबरी का दर्जा रखता है. 
अगर क़ुदरत को इसी हद तक तस्लीम करके जिया जाए तो 
इंसान का वर्तमान सार्थक बन सकता है और इंसान का मुस्तक़्बिल भी. 
ग़ालिब शेर के दूसरे मिसरे में मअनी पिरोता है कि 
हर वजूद का लिबास काग़ज़ी यानी आरज़ी है. 
यही वजूद का सच है बाक़ी तमाम बातें ख़ारजी हैं .
ब्रिज मोहन चकबस्त ग़ालिब के फ़लसफ़े को और ख़ुलासा करते हुए कहते हैं - - -
ज़िन्दगी क्या है अनासिर में ज़हूर ए तरतीब,
मौत क्या है इन्हीं अज्ज़ा का परीशाँ होना.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 17 October 2020

आदमी को मयस्सर नहीं इंसाँ होना


आदमी को मयस्सर नहीं इंसाँ होना

कोई ताक़त तो है जो संसार को संचालित करती है, 
वह भी इस बारीकी के साथ कि यह धरती अपनी धुरी पर वर्षों से क्षण भर के अंतर बिना चक्कर लगा रही है. 
इस अनबूझी ताक़त का नाम कल्पित रख लिया जाता है, 
चाहे वह अकेला हो या कोई समूह में. 
यहाँ तक तो बात ठीक ही लगती है कि इस पहेली का कोई हल मिला, 
अब इस पर माथा पच्ची ख़त्म हो. 
यह कल्पित प्राणी जब पूज्य बन जाता है, माबूद बन जाता है,
अल्लाह बन जाता है, 
या भगवानो का रूप, तो झगड़ा वहीं से शुरू हो जाता है. 
किस महा पुरुष ने बतलाया कि वह ताक़त अल्लाह है? 
मुहम्मद ने, 
जो कल्पित अल्लाह के क़ानून क़ायदे तय करते हैं. 
ख़ुद बयक वक़्त नौ पत्नियाँ और 26 लौंडियों के अकेले उप भोगता होते हैं और हर जगह, हर वक़्त हर औरत को उपभोग करने को तैयार रहते हैं. (दुखतर जान की मिसाल मौजूद) 
जिस क़ौम का पयंबर ऐसा हो उस क़ौम  की हालत कैसी होगी ? 
दुन्या में फैले हुए मुसलमान देखे जा सकते हैं. 
इस बात पर हिन्दुओं के ठहाके उनकी खिसयाहट में बदल जाएँगे, 
जब उनको याद दिलाया जाएगा कि उनके पूज्य देवता और भगवान् 60-60 हज़ार पत्नियों और उप पत्नियों के मालिक हुवा करते थे. 
भारत उपमहाद्वीप की विडंबना यह है कि यहाँ मानव, मानव नहीं, 
हिन्दू और मुसलमान पैदा होता है. 
मानव जाति को हिन्दू और मुसलमान तो बनाया जा सकता है 
मगर हिन्दू और मुसलमान को मानव बनाना बड़ा मुश्किल है.
बसकि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना,
आदमी को मयस्सर नहीं इंसाँ होना.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 16 October 2020

जो हमें होना चाहिए, वह हूँ.


जो हमें होना चाहिए, वह हूँ.

मेरा कोई धर्म नहीं, कोई मज़हब नहीं, कोई देश नहीं. 
मैं भारत माता का नहीं धरती माता का बेटा हूँ और अपनी माँ की औलाद हूँ. 
भारत हो या ईरान, सब अंतर राष्ट्रीय घेरा बंदीयां हैं,
इन अंतर राष्ट्रीय सीमा बंदीयों के ख़ानों में क़ैद,
मैं अवाम हूँ. 
हुक्मरानों के एलान में क़ैद, 
हम देश प्रेमी है, या देश द्रोही हैं  ?
या उनके मुताबिक अपराधी?
जो हमें होना चाहिए, मैं वह हूँ.
इन सीमा बंदियों में रहने के लिए हम महज़ एक किराए दार मात्र हैं. 
इसी सीमा में हम और हमारा कुटुम्भ और क़बीला रहता है. 
इन्हीं हुक्मरानों ने हमारी सुरक्षा का वादा किया है, दूसरे हुक्मरानों से.
मैं, अपने हम को लेकर, इस धरती के टुकड़े पर रहने का वादा कर लिया है. 
इस देश के लिए हमें Tex भरने में ईमान दार होना चाहिए, 
किसी देश प्रेमी की यह पहली शर्त है. 
और ज़रुरत पड़े तो इसके लिए हमें अपने जान माल को क़ुरबान  कर देना चाहिए. 
नक़ली देश प्रेम के नाम का नारा लगा कर लुटेरे अपनी तिजरियाँ भरते है 
और किसी मानव समूह को तबाह करने की साज़िश में क़हक़हे लगाते हैं.  
देश प्रेम नहीं कर्तव्य पालन की चाहत हमारे दिलों में होनी चाहिए.
और धरती प्रेम की आरज़ू.
तभी हम एक ईमान दार और नेक शहरी बन सकते हैं.
मेरी दिली चाहत है कि मैं धरती माता के उस हिस्से का वासी बन जाऊं 
जहाँ नवीन मानव मूल्य परवान चढ़ रहे हों. 
और ख़ुद को उस देश को अपने जान माल के साथ समर्पित करदूं.
 भौगोलिकता हमारी कमज़ोरी है,
भारत का बंदा नार्वे में तो सहज नहीं हो सकता. 
भौगोलिक स्तर पर वह देश मेरा प्रदेश है जिसे क़ुदरत ने भरपूर नवाज़ा है. 
और पाखंडी धूर्तों ने उसे लूटा है. 
मेरी दिली तमन्ना है कि धरती का यह भू भाग नार्वे और स्वीडन आदि को  पछाड़ कर पहले नंबर पर पहुंचे.
इसके लिए मैं अपने शारीर का हर एक अंग समर्पित कर चुका हूँ, 
जैसे कि जानवर समर्पित करते हैं.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 15 October 2020

अपूज्य


अपूज्य 

आस्था, अक़ीदा, इबादत और पूजा, 
पहले वह इंसानी अमल हैं जो इंसान के ठोस बुन्याद को कमज़ोर करते हैं. 
हमने किसी अनदेखी ताक़त को मान्यता दे कर ख़ुद को कमज़ोर साबित किया और उसके सामने हथियार डाल दिए, 
फिर उसके बाद जंग लड़ने चले. 
क़ुदरत नुमा अगर कोई ताक़त है तो वह जीव से आत्म समर्पण नहीं चाहती, 
जीव का मुक़ाबला चाहती है. 
बिलकुल सही है आज का कथन 
"जो डर गया वह मर गया." 
सोलह आना सही है. 
अंधे विश्वाश को नमन करना इंसान की सब से बड़ी कमज़ोरी है. 
नमन तो पूरी तरह से विश्वशनीयता को शोभा देता है, 
जब आप अपने लक्ष की ओर क़दम बढाएं तो ध्यान रखे कि आपकी मेहनत और यत्न ही आपके काम आएगा, आप से ज़्यादः कोई जुझारू होगा तो लक्ष वह ले जाएगा. 
इस हक़ीक़त का सामना भी  आप बहादुरी के साथ करिए.
कोई ताक़त पूज्य नहीं है, 
सराहनीय हो सकती है, प्रीय हो सकती है, पूज्य नहीं. 
पूजा इंसान को शारीरिक रूप में ही नहीं, बौद्धिक रूप में भी नुक़सान पहुंचती है. 
पूजा में आप जो भी कामना करते हैं, 
तो दूसरों के हक़ को मारने की भावना आपकी पूजा में छिपी है. 
धन प्राप्ति की पूजा समाज को कंगाल बनाने की लालसा है, 
इस वास्तविकता को समझे.
अपूज्य का वातावरण ही इंसान को भार मुक्त कर सकता है.
****

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 14 October 2020

इंसान को मुकम्मल आज़ादी चाहिए


इंसान को मुकम्मल आज़ादी चाहिए
 
वयस्क होने के बाद व्यक्ति को पूरी पूरी आज़ादी चाहिए. 
कुछ लोग वक़्त से पहले ही बालिग़ हो जाते हैं और कुछ को समय ज़्यादः लग जाता है. सिन ए बलूग़त (वयस्कावस्था) से पहले बच्चों को मानव मूल्यों के लिए टोकना चाहिए न कि अपनी धार्मिकता और मानसिकता को इन पर स्थापित करना चाहिए. मसलन बच्चों को हिंसा से रोकें मगर अहिंसा के पाठ न पढ़ाएँ. 
बड़े बड़े लेक्चर बच्चों को जबरन कंडीशंड कर देते हैं और उनकी अपनी सलाहियत और सोच पर अंकुश लगा देते हैं. 
लिंग भेद के लिए बच्चों को कम से कम टोकना चाहिए.
इससे बच्चों में हानि कारक आकर्षण आ जाता है 
जो कि मानव समाज में बहुधा पाया जाता है, 
पशु इससे बे ख़बर होते हैं. 
हमारी सभ्य दुन्या ने जिन्स (लिंगीय) के संबंध को बे मज़ा 
और अप्राकृतिक कर दिया है. 
लिंगीय सरलता को जटिल कर दिया है. 
इस में मान मर्यादा और अस्मत की ज़हरीली छोंक का समावेश कर दिया है. 
यहाँ तक कि इसे पाप और दाग़दार क़रार दे  दिया है. 
भाई बहन ही समाज इसे सात पुश्तों के गोत्र तक ले जाता है. 
इस लिंगीय सरलता को इतना कठिन बना दिया गया है कि 
यह समस्या घरों से लेकर समाज तक में ब्योवस्थित हो जाती है.
बड़ी बड़ी जंगें इस लिंगीय कर्म के कारण हुई हैं. 
एक बार दुन्या इस समस्या को आसान करके देखे तो लगेगा 
यह कोई समस्या ही नहीं है. 
बल्कि दोनों पक्ष लिंगीय की कामना को समर्थन और सम्मान देना चाहिए. 
हाँ मगर बिल जब्र की सूरत में, यह जुर्म ज़रूर है.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 13 October 2020

बागड़ बिल्ला


बागड़ बिल्ला 

नट खट बातूनी बच्चे से तंग आकर देर रात को माँ कहती है, 
बेटे सो जाओ नहीं तो बागड़ बिल्ला आ जाएगा. 
माँ की बात झूट होते हुए भी झूट के नफ़ी पहलू से अलग है. 
यह सिर्फ़ मुसबत पहलू के लिए है कि बच्चा सो जाए ताकि उसकी नींद पूरी हो सके, 
मगर यह झूट बच्चे को डराने के लिए है.
क़ुरआन का मुहम्मदी अल्लाह बार बार कहता है, 
"मैं डराने वाला हूँ "
ऐसे ही माँ बच्चे को डराती है.
लोग लोग उस अल्लाह से डरें जब तक कि सिने बलूग़त न आ जाए, 
यह बात किसी फ़र्द या क़ौम  के ज़ेहनी बलूग़त पर मुनहसर करती है कि 
वह बागड़ बिल्ला से कब तक डरे.
यह डराना एक बुराई, जुर्म और ग़ुनाह बन जाता है कि 
बच्चा बागड़ बिल्ला से डर कर किसी बीमारी का शिकार हो जाए, 
डरपोक तो वह हो ही जाएगा माँ की इस नादानी से. 
डर इसकी तमाम उम्र का मरज़ बन जाता है.
मुसलमान अपने बागड़ बिल्ला से इतना डरता है कि 
वह कभी बालिग़ ही नहीं होगा.
मूर्तियाँ जो बुत परस्त पूजते हैं, 
वह भी बागड़ बिल्ला ही हैं 
लेकिन उनको अधिकार है कि सिने- बलूग़त आने पर 
वह उन्हें पत्थर मात्र कह सकें, 
उन पर कोई फ़तवा नहीं, 
मगर मुसलमान अपने हवाई बुत को कभी बागड़ बिल्ला नहीं कह सकता.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 12 October 2020

शैतानुर अज़ीम


शैतानुर अज़ीम          

अल्लाह ने मिटटी और गारे का एक पुतला बनाया और अपने सबसे 
बड़े फ़रिश्ते को हुक्म दिया कि इसको सजदा कर. 
फ़रिश्ते ने लाहौल (धिक्कार) पढ़ी और कहा मैं अग्नि निर्मित 
और इस माटी के माधो को सजदा करूँ ?
अल्लाह को ग़ुस्सा आया और फ़रिश्ते को इब्लीस मरदूद क़रार दे दिया 
और जन्नत से बाहर का रास्ता दिखलाया. 
जाते जाते इब्लीस शैतान ने अल्लाह को गच्चा देते हुए 
उसके कुछ अख़्तियार ले ही गया.
अपनी हिकमत ए अमली के बदौलत वह बन्दों का ख़ुदाए सानी बन गया 
अर्थात अल्लाहु असग़र, गोया मिनी शैतान. 
शैतान अल्लाह की तरह हर जगह विराजमान है, 
क़ुरआन की हर सूरह में शैतानुर रजीम का नाम पहले आता है, 
बिस्म अल्लाह का नाम बाद में (एक को छोड़ कर) 
इस्लाम में शैतान पेश पेश है और अल्लाह पस्त पस्त. 
इंसान के हर अमल में शैतान का दख़्ल है. 
करम अच्छे हों या बुरे, 
नतीजा ख़राब है तो शैतान के नाम 
अगर अच्छे रहे तो अअल्लाह के नाम .
(इस बे ईमानी को हज़रत ए इंसान ख़ुद तस्लीम करते हैं.) 
अल्लाह की तरह शैतान किसी की जान नहीं लेता, 
यह उसकी ख़ैर है .
शैतान ने ही इंसान को इल्म जदीद, मन्तिक़ और साइंस की ऐसी घुट्टी पिलाई कि वह सय्यारों पर पहुँच गया है. 
और अल्लाह के बन्दे याहू ! याहू !! रटने में लगे हैं. 
शैतान ही इंसान को नई तलाश में गामज़न रखता है, 
अक़ीदे जिसे वुस्वुसा, ग़ुनाह और ग़ुमराही कहते हैं।
अल्लाह की बख़्शी हुई ऊबड़ खाबड़ ज़मीन को शैतानी बरकतों ने 
पैरिस, लन्दन, न्यूयार्क, टोटियो, दुबई और बॉम्बे का रूप दे दिया है। 
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 11 October 2020

अल्लाह देख रहा है


      अल्लाह देख रहा है
काश कि हम अल्लाह को इस क़दर क़रीब समझ कर ज़िन्दगी को जिएँ. मगर अल्लाह की गवाही का डर किसे है?
उसकी जगह अगर बन्दे में दरोग़ा जी के बराबर भी अल्लाह का डर हो तो इंसान ग़ुनाहों से बाज़ आ सकता है. 
कोई देखे या न देखे अल्लाह देख रहा है, 
की जगह यह बात एकदम सही होगी कि 
"कोई देखे या न देखे मैं तो देख रहा हूँ." 
दर अस्ल अल्लाह का कोई गवाह नहीं है, 
आलावा कुंद ज़ेहन मुसलमानों के जो लाउड स्पीकर से अज़ानें दिया करते कि 
" मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के अलावा कोई अल्लाह नहीं"
और 
"मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद उसके दूत हैं."
अल्लाह ग़ैर मुस्तनद है, 
और मैं अपनी ज़ात को लेकर सनद रखता हूँ कि मैं हूँ.
इस लिए मेरा देखना अपने हर आमाल को यक़ीनी बनता है. 
इसी को लेकर तबा ताबईन (मुहम्मद के बाद के) कहे जाने वाले 
मंसूर को सज़ाए मौत हुई, 
उसने एलान किया था कि मैं ख़ुदा हूँ (अनल हक़)
इंसान अगर अपने अंदर छिपे ख़ुदा का तस्लीम करके जीवन जिए तो 
दुन्या बहुत बदल सकती है.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 10 October 2020

ख़ैराती उम्मत


ख़ैराती उम्मत          
       
इस्लाम की बहुत बड़ी कमज़ोरी है दुआ माँगना. 
इस बेबुन्याद ज़रीया की बहुत अहमियत है. 
हर मौक़ा वह ख़ुशी का हो या सदमें का, दुआ के लिए हाथ फैलाए रहते हैं. 
बादशाह से लेकर रिआया तक सब अपने अल्लाह से जायज़, नाजायज़ हुसूल के लिए उसके सामने हाथ फैलाए रहते हैं. 
जो मांगते मांगते अल्लाह से मायूस हो जाता है, 
वह इंसानों के सामने हाथ फैलाने लगता है. 
मुसलमानों में भिखारियों की कसरत, इसी दुआ के तुफ़ैल में है 
कि भिखारी भी भीख देने वाले को दुआ देता है, 
देने वाला भी उसको इस ख़याल से भीख दे देता है कि 
मेरी दुआ क़ुबूल नहीं हो रही, 
शायद इसकी ही दुआ क़ुबूल हो जाए. 
दुआओं की बरकत का यक़ीन भी मुसलमानों को मुफ़्त खो़र बनाए हुए है. 
कितना बड़ा सानेहा है कि मेहनत कश मजदूर को भी 
यह दुआओं का मंतर ठग लेता है. 
कोई इनको समझाने वाला नहीं कि ग़ैरत के तक़ाज़े को 
दुआओं की बरकत भी मंज़ूर नहीं होना चाहिए. 
ख़ून पसीने से कमाई हुई रोज़ी ही पायदार होती है. 
यही क़ुदरत को भी गवारा है न कि वह मंगतों को पसंद करती है.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 9 October 2020

दीन के मअनी हैं दियानत दारी.


दीन के मअनी हैं दियानत दारी.      

इस्लाम को दीन कहा जाता है मगर इसमें कोई दियानत दारी नहीं है. 
अज़ानों में मुहम्मद को अल्लाह का रसूल कहने वाले 
बद दयानती का ही मुज़ाहिरा करते हैं . 
वह अपने साथ तमाम मुसलमानों को ग़ुमराह करते हैं, 
उन्हों ने अल्लाह को नहीं देखा कि वह मुहम्मद को अपना रसूल बना रहा हो, न अपनी आँखों से देखा और न अपने कानों से सुना, 
फिर अज़ानों में इस बे बुन्याद आक़ेए की गवाही दियानत दारी कहाँ रही ? 
क़ुरआन  की हर आयत दियानत दारी की पामाली करती है जिसको अल्लाह का कलाम कह गया है. 
नई साइंसी तहक़ीक़ व तमीज़ आज हर मौज़ूअ को निज़ाम ए क़ुदरत के मुताबिक़ सही या ग़लत साबित कर देती है. 
साइंसी तहक़ीक़ के सामने धर्म और मज़हब मज़ाक मालूम पड़ते हैं. 
बद दयानती को पूजना और उस पर ईमान रखना ही 
इंसानियत के ख़िलाफ़ एक साज़िश है या फ़िर नादानी है. 
हम लाशऊरी तौर पर बद दयानती को अपनाए हुए हैं. 
जब तक बद दयानती को हम तर्क नहीं करते, 
इंसानियत की आला क़द्रें क़ायम नहीं हो सकतीं 
और तब तक यह दुन्या जन्नत नहीं बन सकती. 
आइए हम अपनी आने आली नस्लों के लिए इस दुन्या को जन्नत नुमा बनाएँ. 
इस धरती पर फ़ैली हुई धर्म व मज़हब की गन्दगी को ख़त्म करें, 
अल्लाह है तो अच्छी बात है और नहीं है तो कोई बात नहीं.
 अल्लाह अगर है तो दयानत दारी और ईमान ए सालेह को ही पसंद करेगा, 
न कि इन साज़िशी जालों को जो मुल्ला और पंडित फैलाए हुए हैं. 
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 8 October 2020

दर्जात-ए-इंसानी


दर्जात-ए-इंसानी
   
आम तौर पर दुन्या में तीन तरह के लोग होते हैं 
जिनको स्तरीय दृष्ट से परखा जा सकता है और दर्जात दिए जा सकते हैं.
अव्वल दर्जा लोग 
मैं दर्जा-ए-अव्वल में उन इंसान को शुमार करता हूँ जो सच बोलने में 
ज़रा भी देर न करते हों, 
उसका मुतालिआ (अध्यन) अश्याए क़ुदरत के बारे में फ़ितरी (लौकिक) हो 
(जिसमें ख़ुद इंसान भी एक अश्या है.) 
वह ग़ैर जानिबदार हो, अक़ीदा, आस्था और मज़हबी उसूलों से बाला तर हो, 
जो जल्द बाज़ी में किए गए "हाँ" को सोच समझ कर 'न' कहने पर 
एकदम न शरमाएं और मुआमला साज़ हों. 
जो पूरी कायनात के ख़ैर ख़्वाह हों, 
दूसरों को माली, जिस्मानी या ज़ेहनी नुक़सान, 
अपने नफ़ा के लिए न पहुंचाएं, 
जिनके हर अमल में इस धरती और इस पर बसने वाली मख़लूक़ का 
ख़ैर वाबिस्ता हो, 
जो बेख़ौफ़ और बहादर हों और इतना बहादर कि उसे दोज़ख़ में जलाने 
वाला नाइंसाफ़ अल्लाह भी अगर उसके सामने आ जाए तो 
उस से भी दस्त व गरीबानी के लिए तैयार रहें . 
ऐसे लोगों को मैं दर्जाए अव्वल का इंसान और उच्च  स्तरयीय शुमार करता हूँ. 
ऐसे लोग ही हुवा करते हैं साहिब-ए-ईमान और  ''मर्द -ए-मोमिन''. 

दोयम दर्जा लोग
मैं दोयम दर्जा उन लोगों को देता हूँ जो उसूल ज़दा यानी नियमों के मारे होते हैं. 
यह सीधे सादे अपने पुरखों की लीक पर चलने वाले लोग होते हैं. 
पक्के धार्मिक होते हुए भी अच्छे इंसान भी होते हैं. 
इनको इस बात से कोई मतलब नहीं कि इनकी धार्मिकता 
समाज के लिए अब ज़हर बन गई है, 
इनकी आस्था कहती है कि इनकी मुक्ति नमाज़ और पूजा पाठ से है. 
अरबी और संसकृति में इन से क्या पढ़ाया जाता है, 
इस से इनका कोई लेना देना नहीं.
 ये बहुधा ईमानदार और नेक लोग होते हैं. 
शिकारी इस भोली भाली अवाम के लोगों का ही शिकार करता है. 
धर्म ग़ुरुओं, ओलिमा और पूँजी पतियों की पहली पसंद होते है यह, 
देश की जम्हूरियत की बुनियाद इसी दोयम दर्जे के कन्धों पर रखी हुई है.

सोयम दर्जा लोग
हर क़दम में इंसानियत का ख़ून करने वाले, 
तलवार की नोक पर ख़ुद को मोह्सिन-ए-इंसानियत कहलाने वाले, 
दूसरों की मेहनत पर तकिया धरने वाले, 
लफ़फ़ाज़ी और ज़ोर-ए-क़लम की ग़लाज़त से पेट भरने वाले, 
इंसानी सरों के सियासी सौदागर, 
धार्मिक चोले धारण किए हुए स्वामी, ग़ुरू, बाबा लंबी दाढ़ी और बड़े बाल वाले, 
सब के सब तीसरे दर्जे के लोग हैं. 
इन्हीं की सरपरस्ती में देश के मुट्ठी भर सरमाया दार भी हैं,
 जो देश को लूट कर पैसे को विदेशों में छिपाते हैं. 
यही लोग जिनका कोई प्रति शत भी नहीं बनता, 
दोयम दर्जे को ब्लेक मेल किए हुए है 
और अव्वल दर्जा का मज़ाक़ हर मोड़ पर उड़ाने पर आमादा रहते है. 
सदियों से यह ग़लीज़ लोग 
इंसान और इंसानियत को पामाल किए हुए हैं.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 7 October 2020

मुहम्मदुर रसूलिल्लाह


मुहम्मदुर रसूलिल्लाह        
(मुहम्मद ईश्वर के दूत हैं)  

मुहम्मद की फ़ितरत का अंदाज़ा क़ुरआनी आयतें निचोड़ कर निकाला जा सकता है कि वह किस क़द्र ज़ालिम ही नहीं कितने मूज़ी तअबा शख़्स थे. 
क़ुरआनी आयतें जो ख़ुद मुहम्मद ने वास्ते तिलावत बिल ख़ुसूस महफ़ूज़ कर दीं, इस एलान के साथ कि ये बरकत का सबब होंगी न कि इसे समझा जाए. 
अगर कोई समझने की कोशिश भी करता है तो उनका अल्लाह रोकता है 
कि ऐसी आयतें मुशतबह मुराद (संदिग्ध) हैं. 
जिनका सही मतलब अल्लाह ही बेहतर जानता है. 
इसके बाद जो अदना (सरल) आयतें हैं और साफ़ साफ़ हैं 
वह अल्लाह के किरदार को बहुत ही ज़ालिम, जाबिर, 
बे रहम, मुन्तक़िम और चालबाज़ साबित करती है. 
अल्लाह इन अलामतों का ख़ुद एलान करता है कि अगर 
''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' (मुहम्मद ईश्वर के दूत हैं) को मानने वाले न हुए तो 
अल्लाह इतना ज़ालिम और इतना क्रूर है कि इंसानी खालें जला जला कर उनको नई करता रहेगा, इंसान चीख़ता चिल्लाता रहेगा और तड़पता रहेगा मगर उसको मुआफ़ करने का उसके यहाँ कोई जवाज़ नहीं है, कोई सुनवाई नहीं है. 
मज़े की बात ये कि दोबारा उसे मौत भी नहीं है कि 
मरने के बाद नजात की कोई सूरत हो सके, 
उफ़! इतना ज़ालिम है मुहमदी अल्लाह? 
सिर्फ़ इस ज़रा सी बात पर कि उसने इस ज़िन्दगी में 
''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' क्यूं नहीं कहा. 
हज़ार नेकियाँ करे इंसान, 
क़ुरआन गवाह है कि सब हवा में ख़ाक की तरह उड़ जाएँगी, 
अगर बन्दे ने ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' नहीं कहा, 
क्यों कि हर अमल से पहले ईमान शर्त है 
और ईमान है ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' . 
इस क़ुरआन का ख़ालिक़ कौन है जिसको मुसलमान सरों पर रखते हैं ? 
मुसलमान अपनी नादानी और नादारी में यक़ीन करता है कि 
उसके अल्लाह की मर्ज़ी है, जैसा रख्खे. 
वह जिस दिन बेदार होकर क़ुरआन को ख़ुद पढ़ेगा तब समझेगा 
कि इसका ख़ालिक़ तो दग़ाबाज़ ख़ुद साख़्ता अल्लाह का बना हुवा रसूल मुहम्मद है. 
उस वक़्त मुसलमानों की दुन्या रौशन हो जाएगी.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 6 October 2020

मुहम्मद का ज़ेह्नी मेयार


मुहम्मद का ज़ेह्नी मेयार 

"क़ुरआन  में कीड़े निकलना भर मेरा मक़सद नहीं है बहुत सी अच्छी बातें हैं, इन पर मेरी नज़र क्यूँ नहीं जाती?" 
अकसर ऐसे सवाल आप की नज़र के सामने मेरे ख़िलाफ़ कौधते होंगे. 
बहुत सी अच्छी बातें, बहुत ही पहले कही गई हैं, एक से एक अज़ीम हस्तियां और नज़रियात इसलाम से पहले इस ज़मीन पर आ चुकी हैं 
जिसे कि क़ुरआनी अल्लाह तसव्वुर भी नहीं कर सकता. 
अच्छी और सच्ची बातें फ़ितरी होती हैं जिनहें आलमीं सचचाइयाँ भी कह सकते हैं. क़ुरआन  में कोई एक बात भी इसकी अपनी सच्चाई या इंफ़रादी सदाक़त नहीं है. हजारों बकवास और झूट के बीच अगर किसी का कोई सच आ गया हो तो उसको क़ुरआन  का नहीं कहा जा सकता,
"माँ बाप की ख़िदमत करो" 
अगर क़ुरआन कहता है तो इसकी अमली मिसाल श्रवण कुमार इस्लाम से सदियों पहले क़ायम कर चुका है. 
मौलाना कूप मडूकों का मुतालिआ क़ुरआन तक सीमित है 
इस लिए उनको हर बात क़ुरआन में नज़र आती है. 
यही हाल अशिक्षित मुसलमानों का है. 
क़ुरान कि एक आयत मुलाहिज़ा हो 
''अल्लाह की आयातों को झुटलाने वाले लोग कभी भी जन्नत में न जावेंगे जब तक कि ऊँट सूई के नाके से न निकल जाए.''
अलएराफ़ 7 आयत (40)
''ऊँट सूई के नाके से निकल सकता है मगर दौलत मंद जन्नत में कभी दाखिल नहीं हो सकता''
ईसा की नक़ल में मुहम्मद की कितनी फूहड़ मिसाल है जहाँ अक़्ल का कोई नामो निशान नहीं है. शर्म तुम को मगर नहीं आती. 
मुसलमानों तुम ही अपने अन्दर थोड़ी ग़ैरत लाओ.ईसा कहता है - - -
''ऐ अंधे दीनी रहनुमाओं! तुम ढोंगी हो, मच्छर को तो छान कर पीते हो और ऊँट को निगल जाते हो.'' 
मुवाज़ना करें मुस्लिम अपने कठमुल्ल्ले सललललाहो अलैहे वसल्लम को शराब में टुन्न रहने वाले ईसा से.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान