Saturday 20 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़ (18)


क़ुरआन ए ला शरीफ़  (18)

सूरह आले इमरान- 3-سورتہ آل عمران 
(क़िस्त 4) 
मुहम्मद उम्मी थे अर्थात निक्षर. तबीयतन शायर थे, मगर ख़ुद को इस मैदान में छुपाते रहते, 
मंसूबा था कि जो शाइरी करूंगा वह अल्लाह का कलाम क़ुरआन होगा. इस बात की गवाही में क़ुरआन में मिलनें वाली तथा कथित काफ़िरों के मुहम्मद पर किए गए व्यंग ''शायर है न'' है. 
शाइरी में होनें वाली कमियों को, चाहे वह विचारों की हों, चाहे व्याकरण की, 
मुहम्मद अल्लाह के सर थोपते हैं. 
अर्थ हीन और विरोधा भाशी मुहम्मद की कही गई बातें
 ''मुश्तबाहुल मुराद '' आयतें बन जाती हैं जिसका मतलब अल्लाह बेहतर जानता है. देखें.
 सूरह आले इमरान 3  आयत 6+7) 
यह तो रहा क़ुरआन के लिए गारे-हिरा में बैठ कर मुहम्मद का सोंचा गया पहला पद्य आधारित मिशन 
''क़ुरआन''. 
दूसरा मिशन मुहम्मद का था गद्य आधारित. इसे वह होश हवास में बोलते थे, ख़ुद को पैग़म्बराना दर्जा देते हुए, हांलाकि यह उनकी जेहालत की बातें होतीं जिसे कठबैठी या कठ मुललाई कहा जाय तो ठीक होगा. यही मुहम्मदी ''मुश्तबाहुल मुराद '' कही जाती हैं. 
क़ुरआन और हदीसों की बहुत सी बातें यकसाँ हैं, ज़ाहिर है एह ही शख़्स  के विचार हैं, ओलिमा-ए-दीन इसे मुसलमानों को इस तरह  समझाते हैं कि अल्लाह ने क़ुरआन में कहा है जिस को हुज़ूर (मुहम्मद) ने हदीस फ़लाँ फ़लाँ में भी फ़रमाया है. 
अहले हदीस का भी एक बड़ा हल्क़ा है जो मुहम्मद कि जेहालत पर कुर्बान होते हैं. 
शिया कहे जाने वाले मुस्लिम हदीसें चिढ़ते हैं.
मैं क़ुरआन के साथ साथ हदीसें भी पेश करता रहूँगा. 

तो लीजिए क़ुरआनी  अल्लाह फ़रमाता है - - -
"अल्लाह काफ़िरों से मुहब्बत नहीं करता"
सूरह आले इमरान 3  आयत (32)
क्या काफ़िर अल्लाह के बन्दे नहीं हैं? 
फिर वह रब्बुल आलमीन कैसे हुवा? 
क़ुरआन की इन दोग़ली बातों का मौलानाओं के पास जवाब नहीं है. 
वह काफ़िरों से मुहब्बत नहीं करता तो काफ़िर भी अल्लाह को लतीफ़ा शाह से ज़्यादः नहीं समझते, 
मुसलमान इस्लामी ओलिमा से अपनी हजामतें बनवाते रहें और काफ़िरों के आगे हाथ फैलाते रहें.
अल्लाह कहता है - -
"मोमिनों! किसी ग़ैर मज़हब वालों को अपना राज़दार मत बनाओ. ये लोग तुम्हारी ख़राबी में किसी क़िस्म की कोताही नहीं करते और अगर तुम अक़्ल रखते हो तो, हम ने अपनी आयतें खोल खोल कर सुना दीं. काफ़िरों से कह दो कि ग़ुस्से से मर जाओ, अल्लाह तुम्हारे दिलों से खूब वक़िफ़ है. ऐ मुसलमानों! दो गुना, चार गुना सूद मत खाओ ताकि नजात हासिल हो सके.''
सूरह आले इमरान 3  आयत (33) 
क्या यह कम ज़रफी की बातें किसी ख़ुदाए बर हक़ की हो सकती हैं? 
क्या जगत का पालन हार अगर, है कोई तो ऐसा ग़लीज़ दिल ओ दिमाग रखता होगा? 
अपने बन्दों को कहेगा की मर जाओ, 
नहीं ये ग़लाज़त किसी इंसानी दिमाग की है और वह कोई और नहीं मुहम्मद हैं. 
यह टुच्ची मसलेहत की बातें किसी मर्द बच्चे तक को ज़ेबा नहीं देतीं, अल्लाह तो अल्लाह है.
ज़्यादः या कम सूद खाने को मना करने वाला अल्लाह हो ही नहीं सकता.  
मुसलमानों! जागो !!
कहीं तुम धोके में अल्लाह की बजाए किसी शैतान की इबादत तो नहीं कर रहे हो? 
कलाम इलाही पर एक मुंसिफ़ाना नज़र डालो, आप को ऐसी तअलीम  दी जा रही है कि दूसरों की नज़र में हमेशा मशकूक बने रहो . 
एक हिंदू दूसरे हिन्दू से आपस में, मुझे भांपे बग़ैर बात कर रहे थे कि मुसलमान पर कभी विश्वास न करना चाहे वह जलते तवे पर अपने चूतड़ रख दे, 
उसकी बात की इस आयात से तस्दीक़ हो जाती है. 
अल्लाह ने क़ुरआन में अपनी बातें खोल खोल कर समझाईं हैं, 
अल्ला मियां! 
 आज आलिमान दीन तुम्हारी बातें ढकते फिर रहे हैं. 
सूरह आले इमरान से मुराद है इमरान यानी मरियम के बाप की औलादें - - -
अल्लाह अब सूरह के उन्वान पर आता है, 
इमरान की जोरू जिसका नाम अल्लाह भूल रहा है ( ? ) की गुफ़्तगू अल्लाह से चलती है, वह लड़के की उम्मीद किए बैठी रहती है, हो जाती है लड़की, जिसका नाम वह  मरियम रखती है. उधर बूढा ज़कारिया अल्लाह से एक वारिस की दरख़्स्त करता है जो पूरी हो जाती है, 
(इस का लड़का बाइबिल के मुताबिक़ मशहूर नबी योहन हुवा. जिस को कि उस वक़्त के हाकिम शाह हीरोद ने फांसी देदी थी. मुहम्मद को उसकी हवा भी नहीं लगी) 
इन सूरतों में जिब्रील ईसा की विलादत की बे सुरी तान छेड़ते हैं. बहुत देर तक अल्लाह इस बात को तूल दिए रहता है. इस को मुसलमान चौदह सौ सालों से कलाम इलाही मान कर ख़त्म क़ुरआन किया करते हैं.
सूरह आले इमरान 3 आयत (34-48) 
देखिए कि मुहम्मद ईसा से कैसे गारे की चिडि़या में, उसकी दुम उठवा कर फूंक मरवाते हैं 
और वह जानदार होकर फुर्र से उड़ जाती है - -
"बनी इस्राईल की तरफ़ से भेजेंगे पयम्बर बना कर, वह कहेंगे कि तुम लोगों के पास काफ़ी दलील लेकर आया हूँ, तुम्हारे परवर दिगर की जानिब से. 
वह ये है कि तुम लोगों के लिए गारे की ऐसी शक्ल बनाता हूँ जैसे परिंदे की होती है, फिर इस के अंदर फूंक मार देता हूँ जिस से वह परिंदा बन जाता है. 
और अच्छा कर देता हूँ मादर जाद अंधे और कोढ़ी को और ज़िन्दा कर देता हूँ. मुर्दों को अल्लाह के हुक्म से. 
और मैं तुम को बतला देता हूँ जो कुछ घर से खा आते हो और जो रख आते हो. 
बिला शुबहा इस में काफ़ी दलील है तुम लोगों के लिए, अगर तुम ईमान लाना चाहो."
सूरह आले इमरान 3 आयत (49)
उम्मी मुहम्मद की बस की बात न थी कि किसी वाक़िये को नज़्म कर पाते जैसे क़ाबिल तरीन हस्तियाँ रामायण और महाभारत के रचैताओं ने शाहकार पेश किए हैं. 
अभी वह इमरान का क़िस्सा भी बतला नहीं सके थे कि ईसा कि पैदाइश पर आ गए. 
ईसा के बारे में जो जग जाहिर सुन रखी थी उसको अल्लाह की आगाही बना कर अपने क़बीलाई लाख़ैरों  को परोस रहे हैं. उम्मियों और जाहिलों की अकसरियत माहौल पर ग़ालिब हो गई और पेश क़ुरआनी  लाल बुझक्कड़ड़ी मुल्क का निज़ाम बन गए, जैसा कि आज स्वात घाटी जैसी कई जगहों पर हो रहा है.
इस मसअला का हल सिर्फ़ जगे हुए मुसलमानों को ही हिम्मत के साथ करना होगा, कोई दूसरा इसे हल करने नहीं आएगा. कोई दूसरा अपना फ़ायदा देख कर ही किसी के मसअले में पड़ता है क्यूँ कि सब के अपने ख़ुद के ही बड़े मसाइल हैं. 
मुसलमानों! 
बेदार हो जाओ, इन क़ुरआनी  आयतों को समझो, समझ में आजाएं तो इन्हें अपने सुल्फ़ा की भूल समझ कर दफ़ना दो और इस से जुड़े हुए ज़रीया मआश को हराम क़रार दे कर समाज को पाक करो.
"और मैं इस तौर पर आया हूँ कि तसदीक़ करता हूँ इस किताब को जो तुम्हारे पास इस से पहले थी,यानी तौरेत की. और इस लिए आया हूँ कि तुम लोगों पर कुछ चीजें हलाल कर दूं जो तुम पर हराम कर दी गई थीं और मैं तुम्हारे पास दलील लेकर आया हूँ, तुम्हारे परवर दिगर की जानिब से. हासिल यह कि तुम लोग परवर दिगर से डरो और मेरा कहना मनो"
सूरह आले इमरान 3 आयत (50) 
मुहम्मद के पास लौट फिर कर वह्यि बातें आती हैं, नया ज़्यादः कुछ कहने को नहीं है. 
जिन आयातों को मैं छू नहीं रहा हूँ, उनमे कही गई बातें ही दोहराई गई हैं या इनतेहाई दर्जा लग़वियात है. 
यहूदी बहुत ही तौहम परस्त और अपने आप ने बंधे हुए होते हैं जिनके कुछ हराम को मुहम्मद हलाल कर रहे हैं. ग़ैर यहूदी अहले मदीना और अहले मक्का को इस से कोई लेना देना नहीं. मुहम्मद के अल्लाह की सब से बड़ी फ़िक्र की बात यह है कि लोग उस से डरते रहें. बन्दों की निडर होने से उसकी कुर्सी को ख़तरा क्यूँ है, 
मुसलमानों के समझ में नहीं आता कि यह ख़तरा पहले मुहम्मद को था और अब मुल्लों को है. 
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 19 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़ (17)


क़ुरआन ए ला शरीफ़  (17)


सूरह आले इमरान- 3-سورتہ آل عمران 
(क़िस्त 3) 

मैं हिन्दू हूँ न मुसलमान, न क्रिश्चेन और न ही कोई धार्मिक आस्था रखने वाला व्यक्ति. 
मैं सिर्फ़ एक इंसान हूँ, मानव मात्र. 
हिदू और मुस्लिम संस्कारों में ढले आदमी को मानव मात्र बनना बहुत ही मुश्किल काम है. 
कोई बिरला ही सत्य और सदाक़त से आँखें मिला पाता है कि परिवेश का ग़लबा 
उसके सामने त्योरी चढ़ाए खड़ा रहता है और वह फिर आँखें मूँद कर असत्य की गोद में चला जाता है. 
ग़ालिब कहता है - - - 
बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना, 
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना.
(हर आदमी, आदमी का बच्चा होता है चाहे उसे भेड़िए ने ही क्यूं न पाला हो 
और सभ्य होने के बाद ही आदमी इंसान कहलाता है)
मैं सिर्फ़ इंसान हो चुका हूँ इस लिए मैं इंसान दोस्त हूँ. 
दुन्या में सब से ज़्यादः दलित, दमित, शोषित और मूर्ख क़ौम  है मुसलमन, 
उस से ज़्यादः हमारे भारत में अछूत, हरिजन, दलित और पिछड़ा वर्ग के नामों से, 
पहचान रखने वाला हिन्दू है. 
पहले अंतर राष्ट्रीय क़ौम को क़ुरआनी आयातों ने पामाल कर रखा है,
दूसरे को भारत में लोभ और पाखण्ड ने. 
मुट्ठी भर लोग इन दोनों को उँगलियों पर नचा रहे हैं. 
मैं फ़िलहाल मुसलमानों को इस दलदल से निकलने का बेड़ा उठता हूँ, 
हिन्दू भाइयो के शुभ चिन्तक लाखों हैं. 
इस लिए मैं इस मुसलमन मानव जाति का असली शुभ चिन्तक हूँ, 
यही मेरा मानव धर्म है. 
नादान मुसलमान मुझे अपना दुश्मन समझते हैं 
जब कि मैं उनके अज़ली दुश्मन इस्लाम की का विरोध करता हूँ 
और वाहियात गाथा क़ुरआन का. 
हर मानवता प्रेमी पाठक से मेरा अनुरोध है कि वह मेरे अभियान के साथ आएं, 
मेरे ब्लॉग को मुस्लिम भाइयों के कानों तक पहुँचाएँ. 
हर साधन से उनको इसकी सूचना दें. 
मैं मानवता के लिए जान कि बाज़ी लगा कर मैदान में उतरा हूँ, 
आप भी कुछ कर सकते हैं .

देखें क़ुरआन की बकवासें - - -
 
"बिल यक़ीन जो लोग कुफ़्र करते हैं, हरगिज़ उनके काम नहीं आ सकते, उनके माल न उनके औलाद, अल्लाह तअला के मुक़ाबले में, ज़र्रा बराबर नहीं और ऐसे लोग जहन्नम का सोख़ता होंगे."
सूरह आले इमरान 3  आयत (१०)

ख़ुद ला वलद मुहम्मद अपने दामाद की औलादों हसन और हुसैन का हश्र हौज़ ऐ कौसर के कनारे खड़े खड़े देख रहे होंगे. दुश्मने-इंसानियत मुहम्मद तमाम उम्र अपने मुख़ालिफ़ो को मारते पीटते और काटते कोसते रहे, असर उल्टा रहा अहले कुफ़्र सुर्ख रू रहे और फलते फूलते रहे, मुसलमान पामाल रहे और ज़र्द रू हुए. आज भी उम्मते मुहम्मदी पूरी दुन्या के सामने एक मुजरिम की हैसियत से खड़ी हुई है. 
किस क़दर कमज़ोर हैं क़ुरआनी आयतें, मौजूदा मुसलमानों को कैसे समझाया जाय? 

"आप फ़रमा दीजिए क्या मैं तुम को ऐसी चीज़ बतला दूँ जो बेहतर हों उन चीजों से, ऐसे लोगों के लिए जो डरते हैं, उनके मालिक के पास ऐसे ऐसे बाग़ हैं जिन के नीचे नहरें बह रही हैं, हमेशा हमेशा के लिए रहेंगे, और ऐसी बीवियां हैं जो साफ़ सुथरी की हुई हैं और ख़ुश नूदी है अल्लाह की तरफ़ से बन्दों को."
सूरह आले इमरान 3  आयत (15)

देखिए कि इस क़ौम की अक़्ल को दीमक खा गई. अल्लाह रब्बे कायनात बंदे मुहम्मद को आप जनाब कर के बात कर रहा है, इस क़ौम के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती. 
अल्लाह की पहेली है बूझें? 
अगर नहीं बूझ पाएँ तो किसी मुल्ला की दिली आरज़ू पूछें कि वह नमाजें क्यूँ पढता है? 
ये साफ़ सुथरी की हुई बीवियां कैसी होंगी, ये पता नहीं, अल्लाह जाने, जिन्से लतीफ़ होगा भी या नहीं? औरतों के लिए कोई जन्नती इनाम नहीं फिर भी यह नक़िसुल अक़्ल  कुछ ज़्यादह ही सूम सलात वालियाँ होती हैं. अल्लाह की बातों में कहीं कोई दम दरूद है? 
कोई निदा, कोई इल्हाम जैसी बात है? दीन के कलम कारों ने अपनी कला कारी से इस रेत के महेल को सजा रक्खा है. 

"अल्लाह बड़ी नरमी के साथ बन्दों को अपनी बंदगी की अहमियत को समझाता है. काफ़िरों की सोहबतों के नशेब ओ फ़राज़ समझाता है. अपनी तमाम ख़ूबियों के साथ बन्दों पर अपनी मालिकाना दावेदारी बतलाता है. दोज़ख़ पर हुज्जत करने वालों को आगाह करता है. क़ुरआन  से इन्हिराफ़ करने वालों का बुरा अंजाम है, ग़रज़ ये कि दस आयातों तक अल्लाह की क़ुरआनी तान छिड़ी रहती है जिसका कोई नतीजा अख्ज़ करना मुहाल है."  
सूरह आले इमरान 3  आयत (16-26)

अल्लाह की जुग़राफ़ियाई मालूमात और क़ुदरत की राज़दारी के बारे में देखें. 
उम्मी मुहम्मद का तकमील करदा अल्लाह कहता है - - -
"कि वह  रात को दिन में दाख़िल कर देते हैं और दिन को रात में. वह  जानदार चीज़ों को बेजान से निकाल लेता है (जैसे अंडे से चूज़ा) और बे जान चीज़ों को जानदार से निकाल लेता है (जैसे परिंदों से अंडा) "
सूरह आले इमरान 3  आयत (27)

इस बात को मुहम्मद क़ुरआन में बार बार दोहराते हैं मगर आज के दौर में ओलिमा इस बात को जाहिल अवाम के आगे भी नहीं बयान करते, न ही अपनी तहरीर में कहीं इस आयत को छूते हैं. 
मगर मिस्कीन हिंदी हर रोज़ अपनी नमाज़ों में ज़रूर इस जेहालत को पढ़ते हैं. 
सोचिए कि जो शख़्स  यूनानी साइंस दानो, सुकरात और अरस्तु से सदियों बाद पैदा हुवा हो उसकी समाजी जानकारी इतनी भी न हो कि रात और दिन कैसे होते है और अंडा जो परिन्दे के पेट से पैदा होता है वह जानदार होता है, जाहिलों के सरदार मोहम्मद अल्लाह के रसूल बने बैठे हैं.
 मुसलमानों के ये बद तरीन दुश्मन ओलिमा जो मुसलमानों को जिंदा नोच नोच कर खा रहे हैं, 
ऐसे गाऊदी को सरवर-कायनात जैसे सैकडों लक़ब से नवाज़े हुवे हैं. 
*यहूदियों का ख़ुदा यहुवा हमेशा यहूदियों पर मेहरबान रहता है, 
गाड एक बाप की तरह  हमेशा अपने ईसाई बेटों को मुआफ़ किए रहता है, 
ज़्यादह तर धार्मिक भगवान दयालु होते हैं, 
बस की एक मुसलमानों का अल्लाह है जो उन पर पैनी नज़र रखता है. 
वह  बार बार इन्हें धमकियाँ दिए रहता है. हर वक़्त याद दिलाता है रहता कि वह बड़ा अज़ाब देने वाला है. सख़्त बदला लेने वाला है. चाल चलने वाला वाला है. गर्दन दबोचने वाला है. क़हर ढाने वाला है. 
वह मुसलमानों को हर वक़्त डराए रहता है. 
उसे डरपोक बन्दे पसंद हैं, बसूरत दीगर उसकी राह में जेहादी. 
वह  मुसलमानों को महदूद होकर जीने की सलाह देता है, 
जिस की वजह से हिदुस्तानी मुसलमान कशमकश की ज़िन्दगी जीने पर मजबूर हैं. 
इन्हें मुल्क में मशकूक नज़रों से देखा जाए तो क्यूँ न देखा जाए ? 
देखिए अल्लाह कहता है - - -
''मुसलमानों को चाहिए कुफ्फारों को दोस्त न बनाएं, मुसलमानों से तजाउज़ करके जो शख़्स ऐसा करेगा, वह शख़्स  अल्लाह के साथ किसी शुमार में नहीं मगर अल्लाह तुम्हें अपनी ज़ात से डराता है." 
सूरह आले इमरान 3  आयत (28)

इस क़ुरआनी  आयात को सुनने के बाद भारत की काफ़िर हिन्दू अक्सरीयत आबादी मुस्लिम अवाम को दोस्त कैसे बना सकती है? ऐसी क़ुरआनी आयतों के पैरोकारों को हिन्दू अपना दुश्मन मानें तो क्यूँ न मानें? दुन्या के तमाम ग़ैर मुस्लिम मुमालिक में बसे हुए मुसलमानों के साथ किस दर्जा ना आकबत अन्देशाना और ज़हरीला ये पैग़ाम है इसलाम का. 
मुस्लिम ख़वास और मज़हबी रहनुमा कहते हैं कि उनके बुज़ुर्गों ने पाकिस्तान न जाकर हिंदुस्तान जैसे सैकुलर मुल्क में रहना पसंद किया, इस लिए उन्हें सैकुलर हुक़ूक़ मिलने चाहिएं. सैकुलरटी की बरकतों के दावे दार ये लोग सैकुलर भी हैं और ऐसी आयात वाली क़ुरआन के पुजारी भी. 
इन्हीं की जुबान में - - -
" ये सब के सब हिदुस्तान के जदीद मुनाफ़िक़ हैं" इन से सावधान रहे हिंदुस्तान."

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 18 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़ (16)

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क़ुरआन ए ला शरीफ़  (16)

सूरह आले इमरान- 3-سورتہ آل عمران 
(क़िस्त 2) 

मुसलमानों के साथ कैसा अजीब मज़ाक है कि उनका अल्लाह अपनी तमाम कार गुज़रियाँ ख़ुद गिनवा रहा है, वह भी उनका झूठा गवाह बन कर, उन का मुंसिफ़ बन कर. 
अफ़सोस का मुक़ाम ये है कि मुसलमान ऐसे अल्लाह पर यक़ीन करता है. जब तक उसका यक़ीन पुख़्ता है तब तक उसका ज़वाल भी यक़ीनी है. ख़ुदा न करे वह दिन भी आ सकता है कि कहा जाय एक क़ौम ए जेहालत उम्मत ए मुहम्मदी हुवा करती थी. 

तौरेत, इंजील, ज़ुबूर जैसी सैकड़ों तारीख़ी किताबें अपने वाजूदों को तस्लीम और तसदीक़ कराए हुए है, 
इन के सामने क़ुरआन हक़ीक़त में अल्लम ग़ल्लम से ज़्यादः कुछ भी नहीं. 
क़ुरआन का उम्मी मुसन्निफ़ सनद दे, तौरेत, इंजील को, तो तौरेत व इंजील की तौहीन है. 
क़ुरआन के मुताबिक़ मूसा पर आसमानी किताब तौरेत और ईसा पर आसमानी किताब इंजील नाज़िल हुई थी मगर इन दोनों की उम्मातें के पास इनकी मुस्तनद तारीख़ है. मूसा ने तौरेत लिखना शुरू किया जिसको कि बाद के उसे यहूद नबी मुसलसल बढ़ाते गए जो बिल आख़ीर ओल्ड टेस्टामेंट की शक्ल में महफूज़ हुई जोकि यहूदियों और ईसाइयों की तस्लीम शुदा बुनियादी किताब है. 
ईसा के बाद इस के हवारियों ने जो कुछ इस के हालात लिखे या लिखवाए वह इंजील है. 
दाऊद ने जो गीत रचे वह ज़ुबूर है.
सुलेमान और छोटे छोटे नबियों ने जो हम्दो सना की वह सहीफ़े हैं. 
यह सब किताबें आलमी स्कूलों, कालेजों, लाइबब्रेरिज में दस्तयाब हैं और रोज़े रौशन की तरह  अयाँ हैं. 
बहुत तरफ़सील के साथ सब कुछ देखा जा सकता है. 
ये किताबें मुक़द्दस ज़रूर मानी जाती हैं मगर आसमानी नहीं, सब ज़मीनी हैं, 
क़ुरआन इन्हें ज़बरदस्ती आसमानी बनाए हुए है, इन्हें अपने रंग में रंगने के लिए. 
इनकी मौजूदयत को क़ुरआनी  अल्लाह (इस्लामी सियासत के तहत) नक़ली कहता है.
इस की सज़ा मुसलमानों को चौदह सौ सालों से सिर्फ़ मुहम्मद की ख़ुद सरी, ख़ुद पसंदी और ख़ुद बीनी की वजह से चुकानी पड़ रही है. 
बात अरब दुन्या की थी, समेट लिया पूरे एशिया अफ्रीका और आधे योरोप को. हम फ़िलहाल अपने उप महा द्वीप की बात करते हैं कि ये आग हम को एकदम पराई लग रही है जिसमे यह मज़हबी रहनुमा हम को धकेल रहे हैं
 
"सब कुछ संभालने वाले हैं. अल्लाह ने आप के पास जो क़ुरआन भेजा है वाक़ेअय्यत के साथ इस कैफ़ियत से कि वह तसदीक़ करता है उन किताबों को जो इस से पहले आ चुकी हैं और इसी तरह  भेजा था तौरेत और इंजील को."
सूरह आले इमरान 3 आयत(3)
मुहम्मदी अल्लाह की वाक़ेअय्यत ऊपर बयान कर चुके हैं.

"जो लोग मुंकिर हैं, अल्लाह .तअला के आयतों के इन के लिए सज़ाए सख़्त है और अल्लाह .तअला ग़लबा वाले हैं, बदला लेने वाले हैं.''
सूरह आले इमरान 3 आयत(4) 
मुंकिर के लफ़्ज़ी माने तो होते हैं इंकार करने वाला, 
इंसान या तो किसी बात का मुंकिर होता है या इक़रारी मगर लफ़्ज़ मुंकिर का इस्लामी करण होने के बाद इसके मतलब बदल कर इसलाम क़ुबूल कर के फिर जाना वाला मुंकिर हो जाना है, 
ऐसे लोगों की सज़ा मोहसिन इंसानियत, सरवरे कायनात, मालिके क़ौनैन, हज़रात मुहम्मद मुस्तफ़ा, रसूल अकरम, सल्लललाहो अलैहे वालेही वसल्लम ने मौत फ़रमाई है. 
जो ताक़त कायनात पर ग़ालिब होगी, क्या वजह है कि वह हमारे हाँ न पर, हमारी मर्ज़ी पर, हमारे अख़्तियार पर क्यों न ग़ालिब हो, उसको मोहतसिब और मुन्तक़िम होने की ज़रुरत ही क्यूँ पड़ी.? 
ये क़ुरआन के उम्मी ख़ालिक़ का बातिल पैग़ाम है. ख़ालिक़े हक़ीक़ी का नहीं हो सकता. 
मुसलमानों होश में आओ. क़ुरआन के बातिल एजेंट अपना कारोबार चला रहे हैं और कुछ भी नहीं. 
इन का कई बार सर क़लम किया गया है मगर ये सख़्त जान फिर पनप आते हैं.

इसी तरह  अरबों के मुश्तरका बुज़ुर्ब अब्राहम जो अरब इतिहासकारों के लिए पहला मील का पत्थर है, 
जिस से इंसानी समाज की तारीख़ शुरू होती है और जो फ़ादर अब्राहम कहे जाते है, उनको भी मुहम्मद ने मुसलमान बना लिया और उनका दीन इसलाम बतलाया. ख़ुद पैदा हुए उनके हज़ारों साल बाद.  
अपने बाप को भी काफ़िर और जहन्नमी कहा मगर इब्राहीम अलैहिस्सलाम को जन्नती मुसलमान. 
काश मुसलमानों को कोई समझाए कि हिम्मत के साथ सोचें कि वह कहाँ हैं? 
एक लम्हे में ईमान दारी पर ईमान ला सकते है. मुस्लिम से मोमिन बन सकते हैं.

"जिसने नाज़िल किया किताब को जिस का एक हिस्सा वह आयतें हैं जो कि इश्तेबाह मुराद से महफूज़ हैं और यही आयतें असली मदार हैं किताब का. दूसरी आयतें ऐसी हैं जो कि मुश्तबाहुल मुराद हैं, सो जिन लोगों के दिलों में कजी है वह इन हिस्सों के पीछे हो लेते हैं. जो मुश्तबाहुल मुराद हैं, सो सोरिश दूंढने की ग़रज़ से. हालांकि इस का सही मतलब बजुज़ अल्लाह .तअला के कोई नहीं जनता."
सूरह आले इमरान 3 आयत(6+7) 
मुहम्मदी अल्लाह अपनी क़ुरआनी  आयातों की ख़मियों की जानकारी देता है कि इन में कुछ साफ़ साफ़ हैं और यही क़ुरआन की धुरी हैं और कुछ मशकूक हैं जिनको शर पसंद पकड़ लेते हैं. इस बात की वज़ाहत आलिमान क़ुरआन यूँ करते हैं कि क़ुरआन में तीन तरह  की आयतें हैं---
१- अदना (जो साफ़ साफ़ मानी रखती हैं)
२- औसत (जो अधूरा मतलब रखती हैं)
३-तवास्सुत (जो पढने वाले की समझ में न आए और जिसको अल्लाह ही बेहतर समझे.)
सवाल उठता है कि एक तरफ़ दावा है हिकमत और हिदायते-नेक से भरी हुई क़ुरआन अल्लाह की अजीमुश्शान किताब है और दूसरी तरफ़ तवस्सुत और औसत की मजबूरी ? 
अल्लाह की मुज़बज़ब बातें, एहकामे इलाही में तज़ाद, का मतलब क्या है ?
हुरूफ़े मुक़त्तेआत का इस्तेमाल जो किसी मदारी के छू मंतर की तरह  लगते हैं. 
क्या अल्लाह की गुफ़्तगू ऐसी होनी चाहिए ??
दर अस्ल क़ुरआन कुछ भी नहीं, मुहम्मद के वजदानी कैफ़ियत में बके गए बड़ का एह मजमूआ है. 
इन में ही बाज़ बातें ताजाऊज़ करके बे मानी हो गईं तो उनको मुश्तबाहुल मुराद कह कर अल्लाह के सर हांडी फोड़ दिया है. 
वाज़ह हो कि जो चीजें नाज़िल होती हैं, वह बला होती हैं. 
अल्लाह की आयतें हमेशा नाज़िल हुई हैं. 
कभी प्यार के साथ बन्दों के लिए पेश नहीं हुईं. 
कोई क़ुरआनी आयत इंसानी ज़िन्दगी का कोई नया पहलू नहीं छूती, 
कायनात के किसी राज़ हाय का इन्केशाफ़ नहीं करती, जो कुछ इस सिलसिले में बतलाती है दुन्या के सामने मज़ाक़ बन कर रह जाता है. बे सर पैर की बातें पूरे क़ुरआन में भरी पड़ी हैं, 
बस कि क़ुरआन की तारीफ़, 
तारीफ़ ? किस बात की तारीफ़ ?? उस बात का पता नहीं. 
इस की पैरवी मुल्ला, मौलवी, ओलिमाए दीन करते हैं जिन की नक़ल मुसलमान भी करता है. 
आम मुसलमान नहीं जनता की क़ुरआन में क्या है, 
ख़ास जो कुछ जानते हैं वह सोचते है भाड़ में जाएँ, हम बचे रहें इन से, यही काफ़ी है. 
यह आयत बहुत ख़ास इस लिए है कि ओलिमा नामुराद अकसर लोगों को बहक़ते हैं कि क़ुरआन को समझना बहुत मुश्किल है.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 17 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़ (15


क़ुरआन ए ला शरीफ़  (15 )


सूरह आले इमरान- 3-سورتہ آل عمران 
(क़िस्त 1) 
एक हदीस मुलहिज़ा फ़रमाएँ - - -
इस्लाम के दूसरे सूत्राधार अली मौला से रवायत है कि 
''एक ऊंटनी बद्र के जंग से माले-ग़नीमत (लूट) में मुझे मिली और एक रसूल ने तोह्फ़तन दी. इन दोनों को एक अंसार के सेहन में बाँध कर मैं सोंच रहा था कि इन पर अज़ख़ुर घास लाद कर लाया करूंगा और बेचूगा, इस तरह  कुछ पैसा जमा कर के फ़ातिमा का वलीमा करूंगा जो कि अभी तक मुझ पर उधार था. इसी घर में हम्ज़ा बिन अब्दुल मतलब मुहम्मद के चचा शराब पी रहे थे, साथ में एक लौंडी ग़ज़ल गा रही थी जो कुछ इस तरह  थी - - - 
(तर्जुमा)
 चल ऐ हम्ज़ा इन मोटे ऊंटों पे जा,
बंधे हैं सेहन में जो सब एक जा,
चला इनकी गर्दन पे जल्दी छुरा,
मिला इनको तू ख़ून  में और लुटा,
बना इनके टुकड़ों से उम्दा जो हों,
गज़क गोश्त का हो पका और भुना. 
उसकी ग़ज़ल सुन कर हम्ज़ा ने तलवार उठाई और ऊटों की कोखें फाड़ दीं. अली यह मंज़र देख कर मुहम्मद के पास भागे हुए गए और जाकर शिकायत की, जहाँ ज़ैद बिन हारसा भी मौजूद थे. तीनों अफ़राद जब हम्ज़ा के पास पहुंचे तो वह नशे में धुत्त था. उन सभों को देख कर ग़ुस्से के आलम में लाल पीला हो रहा हो गया, बोला, 
'' तुम लोग हो क्या? मेरे बाप दादों के ग़ुलाम   हो.'' 
यह सुन कर मुहम्मद उलटे पाँव वापस हो गए

(देखें हदीस ''मुस्लिम - - - किताबुल अशर्बता'' + बुखारी १५७)
यह मुहम्मद का बहुत निजी मामला था, एक तरफ़ दामाद, दूसरी तरफ़ ख़ुदा ख़ुदा करके हुवा, 
मुसलमान बहादुर चचा हम्ज़ा ? 
होशियार अल्लाह के ख़ुद साख़ता रसूल को एक रास्ता सूझा, 
दूसरे दिन ही अल्लाह की क़ुरआनी आयत नाज़िल करा दी कि शराब हराम हुई. 
मदीने में मनादी करा दी गई कि अल्लाह ने शराब को हराम क़रार दे दिया है.
जाम ओ पैमाना तोड़ दिए गए, मटके और ख़ुम पलट दिए गए, 
शराबियों के लिए कोड़ों की सज़ाएं मुक़रर्र हुईं. 
कल तक जो शराब लोगों की महबूब मशरूब थी, उस से वह महरूम कर दिए गए. यक़ीनन ख़ुद मुहम्मद ने मयनोशी उसी दिन छोड़ी होगी क्यूं कि कई क़ुरआनी आयतें शराबियों की सी इल्लत की बू रखती हैं. 
लोगों की तिजारत पर गाज गिरी होगी, मुहम्मद की बला से, उनका तो कौल था कि सब से बेहतर तिजारत है जेहाद जिसमे लूट के माल से रातो रात माला माल हो जाओ. 
ग़ौर  करें की मुहम्मद ने अपने दामाद अली के लिए लोगों को शराब जैसी नेअमत से महरूम कर दिया. 
शराब ज़ेहन इंसानी के लिए नेअमत ही नहीं दवा भी है, 
दवा को दवा की तरह  लिया जाए न के अघोरियों की तरह . शराब जिस्म के तमाम आज़ा को संतुलित रखती है, आज की साइंसी खोज में इसका बड़ा योगदान है. यह ज़ेहन के दरीचों को खोलती है जिसमे नए नए आयाम की आमद होती है. इसकी लम्स क़ुदरत की अन छुई परतें खोलती हैं. 
शराब इंसान को मंजिल पाने के लिए मुसलसल अंगड़ाइयां अता करती है. 
आलमे इस्लाम की बद नसीबी है कि शराब की बे बरकती ने इसे कुंद जेहन, कौदम, और गाऊदी बना दिया है. इस्लाम तस्लीम करने के बाद कोई मुस्लिम बन्दा ऐसा नहीं हुवा जिस ने कि कोई नव ईजाद की हो. 
हमारे मुस्लिम समाज का असर हिन्दू समाज पर अच्छा खासा पड़ा है. 
इस समाज ने मुस्लिम समाज के रस्मो-रिवाज, खान पान, लिबासों, पोशाक, और तौर तरीक़ों को अपनाया और ऐसा नहीं कि सिर्फ़ हिन्दुओं ने ही अपनाया हो, मुसलमानों ने भी हिन्दू रस्म को अपनाया. 
यूं कहें कि इस्लाम क़ुबूल करने के बाद भी अपने रस्मो रिवाज पर क़ायम रहे. 
मसलन दुल्हन का सुर्ख लिबास हो या जात बिरादरी. 
मगर सोमरस जो कि ऋग वेद मन्त्र का पवित्र उपहार है, हिदू समाज में हराम कैसे हो गया, 
मोदी का गुजरात इसे क्यूं क़ुबूल किए हुए है? 
गांधी बाबा इसके ख़िलाफ़ क्यूं सनके? 
यह तो वाक़ई आबे हयात है. 
किसी के लिए मीठा और चिकना हराम है तो किसी के लिए नमक और मिर्च. 
ज़्यादः खाना नुक़सान देह हो तो हराम हो जाता है और ग़रीब को कम खाना तो मजबूरी में हराम होता ही है. 
यह हराम हलाल का कन्सेप्ट ही इस्लामी बेवक़ूफ़ियों में से एक है. 
हराम गिज़ा वह होती है जो मुफ़्त और बग़ैर मशक्क़त की हो, 
दूसरों का हक़ हो लूट पाट की हो. 
मुसलमानों! 
माले ग़नी मत बद तरीन हराम गिज़ा है. 

आइए तीसरे पारे आले इमरान की बख़िया उधेडी जाए - - - 

"अलिफ़-लाम-मीम" 
सूरह आले इमरान 3 आयत (1)
यह लफ़्ज़ मोहमिल (यानी अर्थ शून्य) है जिसका मतलब अल्लाह ही जनता है. 
ऐसे हरफ़ों या लफ्ज़ों को क़ुरआनी  मंतक़ियों ने हुरूफ़ ए मुक़त्तेआत का नाम दिया है. 
यह सूरत के पहले आते हैं. 
यहाँ पर यह एक आयत यानी कोई बात, कोई पैग़ाम की हैसियत भी रखता है. 
इस अर्थ हीन शब्द के आगे + ग़ल्लम लगा कर किसी अक़्ल मंद ने इसे अल्लम ग़ल्लम कर दिया, 
गोया इस का पूरा पूरा हक़ अदा कर दिया, अल्लम ग़ल्लम. 
क़ुरआन का बेहतरीन नाम अल्लम ग़ल्लम हो सकता है.

"अल्लाह तअला ऐसे हैं कि उन के सिवा कोई क़ाबिल माबूद बनाने के नहीं और वह ज़िन्दा ओ जावेद है."
सूरह आले इमरान 3 आयत(२)
यहाँ पर मैं फिर आप को एक बार याद दिला दूँ कि क़ुरआन कलाम अल्लाह नहीं कलाम मुहम्मद है, 
जैसा कि वह अल्लाह के बारे में बतला रहे हैं, 
साथ साथ उसकी मुशतहरी भी कर रहे हैं. इस आयत में बेवक़ूफ़ी कि इत्तेला है. 
अल्लाह अगर है तो क्या मुर्दा होगा ? 
मुसलमान तो मुर्दा ख़ुदाओं का दामन थाम कर भी अपनी नय्या पार लगा लेता है. यह अल्लाह के ज़िन्दा होने और सब कुछ संभालने की बात मुहम्मद ने पहले भी कही है आगे भी इसे बार बार दोहराते रहेंगे.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 16 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़ (14 )

क़ुरआन ए ला शरीफ़  (14 )

 सूरह आले इमरान- 3-سورتہ آل عمران 

(क़िस्त 1) 

एक हदीस मुलहिज़ा फ़रमाएँ - - -

इस्लाम के दूसरे सूत्राधार अली मौला से रवायत है कि 

''एक ऊंटनी बद्र के जंग से माले-ग़नीमत (लूट) में मुझे मिली और एक रसूल ने तोह्फ़तन दी. इन दोनों को एक अंसार के सेहन में बाँध कर मैं सोंच रहा था कि इन पर अज़ख़ुर घास लाद कर लाया करूंगा और बेचूगा, इस तरह  कुछ पैसा जमा कर के फ़ातिमा का वलीमा करूंगा जो कि अभी तक मुझ पर उधार था. इसी घर में हम्ज़ा बिन अब्दुल मतलब मुहम्मद के चचा शराब पी रहे थे, साथ में एक लौंडी ग़ज़ल गा रही थी जो कुछ इस तरह  थी - - - 

(तर्जुमा)

 चल ऐ हम्ज़ा इन मोटे ऊंटों पे जा,

बंधे हैं सेहन में जो सब एक जा,

चला इनकी गर्दन पे जल्दी छुरा,

मिला इनको तू ख़ून  में और लुटा,

बना इनके टुकड़ों से उम्दा जो हों,

गज़क गोश्त का हो पका और भुना. 

उसकी ग़ज़ल सुन कर हम्ज़ा ने तलवार उठाई और ऊटों की कोखें फाड़ दीं. अली यह मंज़र देख कर मुहम्मद के पास भागे हुए गए और जाकर शिकायत की, जहाँ ज़ैद बिन हारसा भी मौजूद थे. तीनों अफ़राद जब हम्ज़ा के पास पहुंचे तो वह नशे में धुत्त था. उन सभों को देख कर ग़ुस्से के आलम में लाल पीला हो रहा हो गया, बोला, 

'' तुम लोग हो क्या? मेरे बाप दादों के ग़ुलाम   हो.'' 

यह सुन कर मुहम्मद उलटे पाँव वापस हो गए


(देखें हदीस ''मुस्लिम - - - किताबुल अशर्बता'' + बुखारी १५७)

यह मुहम्मद का बहुत निजी मामला था, एक तरफ़ दामाद, दूसरी तरफ़ ख़ुदा ख़ुदा करके हुवा, 

मुसलमान बहादुर चचा हम्ज़ा ? 

होशियार अल्लाह के ख़ुद साख़ता रसूल को एक रास्ता सूझा, 

दूसरे दिन ही अल्लाह की क़ुरआनी आयत नाज़िल करा दी कि शराब हराम हुई. 

मदीने में मनादी करा दी गई कि अल्लाह ने शराब को हराम क़रार दे दिया है.

जाम ओ पैमाना तोड़ दिए गए, मटके और ख़ुम पलट दिए गए, 

शराबियों के लिए कोड़ों की सज़ाएं मुक़रर्र हुईं. 

कल तक जो शराब लोगों की महबूब मशरूब थी, उस से वह महरूम कर दिए गए. यक़ीनन ख़ुद मुहम्मद ने मयनोशी उसी दिन छोड़ी होगी क्यूं कि कई क़ुरआनी आयतें शराबियों की सी इल्लत की बू रखती हैं. 

लोगों की तिजारत पर गाज गिरी होगी, मुहम्मद की बला से, उनका तो कौल था कि सब से बेहतर तिजारत है जेहाद जिसमे लूट के माल से रातो रात माला माल हो जाओ. 

ग़ौर  करें की मुहम्मद ने अपने दामाद अली के लिए लोगों को शराब जैसी नेअमत से महरूम कर दिया. 

शराब ज़ेहन इंसानी के लिए नेअमत ही नहीं दवा भी है, 

दवा को दवा की तरह  लिया जाए न के अघोरियों की तरह . शराब जिस्म के तमाम आज़ा को संतुलित रखती है, आज की साइंसी खोज में इसका बड़ा योगदान है. यह ज़ेहन के दरीचों को खोलती है जिसमे नए नए आयाम की आमद होती है. इसकी लम्स क़ुदरत की अन छुई परतें खोलती हैं. 

शराब इंसान को मंजिल पाने के लिए मुसलसल अंगड़ाइयां अता करती है. 

आलमे इस्लाम की बद नसीबी है कि शराब की बे बरकती ने इसे कुंद जेहन, कौदम, और गाऊदी बना दिया है. इस्लाम तस्लीम करने के बाद कोई मुस्लिम बन्दा ऐसा नहीं हुवा जिस ने कि कोई नव ईजाद की हो. 

हमारे मुस्लिम समाज का असर हिन्दू समाज पर अच्छा खासा पड़ा है. 

इस समाज ने मुस्लिम समाज के रस्मो-रिवाज, खान पान, लिबासों, पोशाक, और तौर तरीक़ों को अपनाया और ऐसा नहीं कि सिर्फ़ हिन्दुओं ने ही अपनाया हो, मुसलमानों ने भी हिन्दू रस्म को अपनाया. 

यूं कहें कि इस्लाम क़ुबूल करने के बाद भी अपने रस्मो रिवाज पर क़ायम रहे. 

मसलन दुल्हन का सुर्ख लिबास हो या जात बिरादरी. 

मगर सोमरस जो कि ऋग वेद मन्त्र का पवित्र उपहार है, हिदू समाज में हराम कैसे हो गया, 

मोदी का गुजरात इसे क्यूं क़ुबूल किए हुए है? 

गांधी बाबा इसके ख़िलाफ़ क्यूं सनके? 

यह तो वाक़ई आबे हयात है. 

किसी के लिए मीठा और चिकना हराम है तो किसी के लिए नमक और मिर्च. 

ज़्यादः खाना नुक़सान देह हो तो हराम हो जाता है और ग़रीब को कम खाना तो मजबूरी में हराम होता ही है. 

यह हराम हलाल का कन्सेप्ट ही इस्लामी बेवक़ूफ़ियों में से एक है. 

हराम गिज़ा वह होती है जो मुफ़्त और बग़ैर मशक्क़त की हो, 

दूसरों का हक़ हो लूट पाट की हो. 

मुसलमानों! 

माले ग़नी मत बद तरीन हराम गिज़ा है. 


आइए तीसरे पारे आले इमरान की बख़िया उधेडी जाए - - - 


"अलिफ़-लाम-मीम" 

सूरह आले इमरान 3 आयत (1)

यह लफ़्ज़ मोहमिल (यानी अर्थ शून्य) है जिसका मतलब अल्लाह ही जनता है. 

ऐसे हरफ़ों या लफ्ज़ों को क़ुरआनी  मंतक़ियों ने हुरूफ़ ए मुक़त्तेआत का नाम दिया है. 

यह सूरत के पहले आते हैं. 

यहाँ पर यह एक आयत यानी कोई बात, कोई पैग़ाम की हैसियत भी रखता है. 

इस अर्थ हीन शब्द के आगे + ग़ल्लम लगा कर किसी अक़्ल मंद ने इसे अल्लम ग़ल्लम कर दिया, 

गोया इस का पूरा पूरा हक़ अदा कर दिया, अल्लम ग़ल्लम. 

क़ुरआन का बेहतरीन नाम अल्लम ग़ल्लम हो सकता है.


"अल्लाह तअला ऐसे हैं कि उन के सिवा कोई क़ाबिल माबूद बनाने के नहीं और वह ज़िन्दा ओ जावेद है."

सूरह आले इमरान 3 आयत(२)

यहाँ पर मैं फिर आप को एक बार याद दिला दूँ कि क़ुरआन कलाम अल्लाह नहीं कलाम मुहम्मद है, 

जैसा कि वह अल्लाह के बारे में बतला रहे हैं, 

साथ साथ उसकी मुशतहरी भी कर रहे हैं. इस आयत में बेवक़ूफ़ी कि इत्तेला है. 

अल्लाह अगर है तो क्या मुर्दा होगा ? 

मुसलमान तो मुर्दा ख़ुदाओं का दामन थाम कर भी अपनी नय्या पार लगा लेता है. यह अल्लाह के ज़िन्दा होने और सब कुछ संभालने की बात मुहम्मद ने पहले भी कही है आगे भी इसे बार बार दोहराते रहेंगे.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 15 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़ (13 )


क़ुरआन ए ला शरीफ़  (13)

सूरह  ए अल्ब्बक्र का इख़्तेसार 

 * शराब और जुवा में बुराइयाँ हैं और अच्छइयां भी. 
*ख़ैर  और ख़ैरात में उतना ही ख़र्च करो जितना आसान हो. 
* यतीमों के साथ मसलेहत की रिआयत रखना ज़्यादः बेहतर है. 
*काफ़िर औरतों के साथ शादी मत करो भले ही लौंडी के साथ कर लो. 
*काफ़िर शौहर मत करो, उस से बेहतर ग़ुलाम  है. 
*हैज़ एक गन्दी चीज़ है हैज़ के आलम में बीवियों से दूर रहो. 
*मर्द का दर्जा औरत से बड़ा है. 
*सिर्फ़ दो बार तलाक़ दिया है तो बीवी को अपना लो चाहे छोड़ दो. 
*तलाक़ के बाद बीवी को दी हुई चीजें नहीं लेनी चाहिएं, 
मगर आपसी समझौता हो तो वापसी जायज़ है. 
जिसे दे कर औरत अपनी जन छुडा ले. 
*तीसरे तलाक़ के बाद बीवी हराम है.
*हलाला के अमल के बाद ही पहली बीवी जायज़ होगी. 
*माएँ अपनी औलाद को दो साल तक दूध पिलाएं 
तब तक बाप इनका ख़याल रखें. 
ये काम दाइयों से भी कराया जा सकता है. 
*एत्काफ़ में बीवियों के पास नहीं जाना चाहिए. 
*बेवाओं को शौहर के मौत के बाद चार महीना दस दिन निकाह के लिए रुकना चाहिए. 
*बेवाओं को एक साल तक घर में पनाह देना चाहिए 
*मुसलमानों को रमज़ान की शब में जिमा हलाल हुवा.
वग़ैरह वग़ैरह सूरह कि ख़ास बातें, 
इस के अलावः नाकाबिले कद्र बातें जो फ़ुज़ूल कही जा सकती हैं. 
भरी हुई हैं.
तमाम आलिमान को मोमिन का चैलेंज है.
मुसलमान आँख बंद कर के कहता है क़ुरआन में निज़ाम हयात 
(जीवन-विधान) है.
नमाज़ियो!
ये बात मुल्ला, मौलवी उसके सामने इतना दोहराते हैं कि वह सोंच भी नहीं सकता कि ये उसकी जिंदगी के साथ सब से बड़ा झूट है. 
ऊपर की बातों में आप तलाश कीजिए कि कौन सी इन बेहूदा बातों का आज की ज़िन्दगी से वास्ता है. 
इसी तरह  इनकी हर हर बात में झूट का अंबार रहता है. 
इनसे नजात दिलाना हर मोमिन का क़स्द होना चाहिए . 
***  


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 14 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़ (12)


क़ुरआन ए ला शरीफ़  (12)

 सूरह अलबक़र -2-سورتہ البقرہ   
(क़िस्त 11 ) 
"लेन देन किया करो तो एक दस्तावेज़ तैयार कर लिया करो, इस पर दो मर्दों की गवाही करा लिया करो, दो मर्द न मिलें तो एक मर्द और दो औरतों की गवाही ले लो" 
सूरह अलबक़र -2-आयत (283)
यानी दो औरत=एक मर्द 
क़ुरआन  में एक लफ़्ज़ या कोई फ़िक़रा या अंदाज ए  बयान का सिलसिला बहुत देर तक क़ायम रहता है जैसे कोई अकसर जाहिल लोग पढ़े लिखों की नक़्ल में पैरवी करते हैं. इस लिए भी ये उम्मी मुहम्मद का कलाम है, साबित करने के लिए लसानी तूल कलामी दरकार है. 
यहाँ पर अल्लाह के रसूल की धुन है 
"लोग आप से पूछते हैं. "
अल्लाह का सवाल फ़र्ज़ी होता है, जवाब में वह जो बात कहना चाहता है. 
ये जवाब एन इंसानी फ़ितरत के मुताबिक़ होते हैं, जो हज़ारों सालों से तस्लीम शुदा हैं. 
जिसे आज मुसलमान क़ुरआनी  ईजाद मानते हैं. 
आम मुसलमान समझता है इंसानियत, शराफ़त, और ईमानदारी, सब इसलाम की देन है, 
ज़ाहिर है उसमें तअलीम  की कमी है. उसे महदूद मुस्लिम मुआशरे में ही रखा गया है. 

क़ुरआन  में कीड़े निकालना भर मेरा मक़सद नहीं है, 
बहुत सी अच्छी बातें हैं, इस पर मेरी नज़र क्यूँ नहीं जाती?
अकसर ऐसे सवाल आप की नज़र के सामने मेरे ख़िलाफ़ कौधते होंगे. 
बहुत सी अच्छी बातें, बहुत ही पहले कही गई हैं, 
एक से एक अज़ीम हस्तियां और नज़रियात इसलाम से पहले इस ज़मीन पर आ चुकी हैं जिसे कि क़ुरआनी  अल्लाह तसव्वुर भी नहीं कर सकता. अच्छी और सच्ची बातें फ़ितरी होती हैं जिनहें आलमीं सचचाइयाँ भी कह सकते हैं. 
क़ुरआन  में कोई एक बात भी इसकी अपनी सच्चाई या इन्फ़रादी सदाक़त नहीं है. 
हज़ारों बकवास और झूट के बीच अगर किसी का कोई सच आ गया हो तो उसको क़ुरआन  का नहीं कहा जा सकता,
"माँ बाप की ख़िदमत करो" 
अगर क़ुरआन  में कहता है तो इसकी अमली मिसाल श्रवण कुमार 
इस्लाम से सदियों पहले क़ायम कर चुका है. 
मौलाना कूप मंडूकों का मुतलिआ क़ुरआन  तक सीमित है,  
इस लिए उनको हर बात क़ुरआन  में नज़र आती है. 
यही हाल अशिक्षित मुसलमानों का है. 

सूरह के आख़ीर में अल्लाह ख़ुद अपने आप से दुआ मांगता है, 
बक़ौल मुहम्मद क़ुरआन अल्लाह का कलाम है ? 
देखिए आयत में अल्लाह अपने सुपर अल्लाह के आगे कैसे ज़ारो क़तार गिड़गिड़ा रहा है. 
सदियों से अपने फ़लसफ़ा को दोहरते दोहराते, मुल्ला अल्ला को बहरूपिया बना चुका है, 
वह दुआ मांगते वक़्त बन्दा बन जाता है. 
मुहम्मद दुआ मांगते हैं तो एलानिया अल्लाह बन जाते हैं. 
उनके मुंह से निकली बात, चाहे उनके आल औलादों के ख़ैर के लिए हो, चाहे सय्यादों के लिए बरकत की हो, कलाम इलाही बन कर निकलती है. 
आले इब्राहीमा व आला आले इब्राहिम इन्नका हमीदुं मजीद. 
यानी आले इब्राहीम ग़रज़ यहूदियों की ख़ैर ओ बरकत की दुआ दुन्या का हर मुसलमान मांगता है और वह्यि यहूदी मुसलमानों के जानी दुश्मन बने हुए हैं. 
हम हिदुस्तानी मुसलमान यानी अरबियों कि भाष में हिंदी मिस्कीन अरबों के ज़ेहनी ग़ुलाम   बने हुए हैं. 
अल्लाह को ज़ारों क़तार रो रो कर दुआ मांगने वाले पसंद हैं. 
यह एक तरीक़े का नफ़्सियाती ब्लेक मेल है. 
रंज ओ ग़म से भरा हुआ इंसान कहीं बैठ कर जी भर के रो ले तो उसे जो राहत मिलती है, 
अल्लाह उसे कैश करता है, 
(बक़ौल मुहम्मद क़ुरआन अल्लाह का कलाम है ? 
देखिए आयत में अल्लाह अपने सुपर अल्लाह के आगे कैसे ज़ारो क़तार गिडगिडा रहा है. 
सदियों से अपने फ़ल्सफ़े को दोहरते दोहराते मुल्ला अल्ला को बहरूपिया बना चुका है, 
वह दुआ मांगते वक़्त बन्दा बन जाता है. 
मुहम्मद दुआ मांगते हैं तो एलानिया अल्लाह बन जाते हैं. 
उनके मुंह से निकली बात, चाहे उनके आल औलादों के ख़ैर के लिए हो, चाहे सय्यादों के लिए बरकत की हो, कलाम इलाही बन कर निकलती है. 
आले इब्राहीमा व आला आले इब्राहिम इन्नका हमीदुं मजीद. 
यानी आले इब्राहीम ग़रज़ यहूदियों की ख़ैर ओ बरकत की दुआ दुन्या का हर मुसलमान मांगता है और वह्यि यहूदी मुसलमानों के जानी दुश्मन बने हुए हैं. 
हम हिदुस्तानी मुसलमान यानी अरबियों कि भाष में हिंदी मिस्कीन अरबों के ज़ेहनी ग़ुलाम   बने हुए हैं. 
अल्लाह को ज़ारों कतार रो रो कर दुआ मांगने वाले पसंद हैं. 
यह एक तरीक़े का नफ़्सियाती ब्लेक मेल है. 
रंज ओ ग़म से भरा हुआ इंसान कहीं बैठ कर जी भर के रो ले तो उसे जो राहत मिलती है, 
अल्लाह उसे कैश करता है, 
सूरह अलबक़र -2-आयत (284-86)
क़ुरआन  की एक बड़ी सूरह अलबकर अपनी २८६ आयातों के साथ तमाम हुई- जिसका लब्बो लुबाबा दर्ज जेल है - - -


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 13 February 2021

क़ुरआन ला शरीफ़ 9(१२)

क़ुरआन ला शरीफ़ (११)

 सूरह अलबक़र -2-سورتہ البقرہ   
(क़िस्त 10 ) 

उनके ईमान पर मातम कीजिए जो ऐसी अहमक़ाना बातों पर ईमान रखते हैं. फिर दिल पर पत्थर रख कर सब्र कर डालिए कि वह मय अपने बल बच्चों के, तालिबानों का नवाला बन्ने जा रहे हैं. 

"तुम को इस तरह  का क़िस्सा भी मालूम है, जैसे की एक शख़्स  था कि ऐसी बस्ती में ऐसी हालत में उसका गुज़र हुवा कि उसके मकानात अपनी छतों पर गिर गए थे, कहने लगे कि अल्लाह .तअला इस बस्ती को इस के मरे पीछे किस कैफ़ियत से जिंदा करेंगे, सो अल्लाह तअला ने उस शख़्स  को सौ साल जिंदा रक्खा, फिर उठाया, पूछा, कि तू कितनी मुद्दत इस हालत में रहा? उस शख़्स  ने जवाब दिया एक दिन रहा हूँगा या एक दिन से भी कम. अल्लाह ने फ़रमाया नहीं, बल्कि सौ बरस रहा. तू अपने खाने पीने को देख ले कि सड़ी गली नहीं और दूसरे तू अपने गधे की तरफ़ देख और ताकि हम तुझ को एक नज़र लोगों के लिए बना दें.और हड्डियों की तरफ़ देख, हम उनको किस तरह  तरकीब दे देते हें, फिर उस पर गोश्त चढा देते हैं - - - बे शक अल्लाह हर चीज़ पर पूरी क़ुदरत रखते हैं.". 
सूरह अलबक़र -2-आयत (259)
मुहम्मद ऐसी ही बे सिर पैर की मिसालें क़ुरआन  में गढ़ते हैं जिसकी तफ़सीर निगार रफ़ू किया करते हैं..
एक मुफ़स्सिर इसे यूं लिखता है - - -
यानी पहले छतें गिरीं फिर उसके ऊपर दीवारें गिरीं, मुराद यह कि हादसे से बस्ती वीरान हो गई." 
इस सूरह में अल्लाह ने इसी क़िस्म की तीन मिसालें और दी हैं जिन से न कोई नसीहत मिलती है, 
न उसमें कोई दानाई छिपी है, पढ़ कर खिस्याहट अलग होती है. 
अंदाजे बयान बचकाना है, बेज़ार करता है, 
***
अंदाजे बयान बचकाना है, बेज़ार करता है, 
अज़ीयत पसंद हज़रात चाहें तो क़ुरआन उठा कर आयत २६१ देखें. 
सवाल उठता है हम ऐसी बातें वास्ते सवाब पढ़ते हैं? 
दिन ओ रात इन्हें दोहराते हैं, 
क्या अनजाने में हम पागल पन की हरकत नहीं करते ? 
 हाँ ! 
अगर हम इसको अपनी जबान में बा आवाज़ बुलंद दोहराते रहें. 
सुनने वाले यक़ीनन हमें पागल कहने लगेंगे और इन्हें छोडें, 
कुछ दिनों बाद हम ख़ुद अपने आप को पागल महसूस करने लगेंगे. 
आम तौर पर मुसलमान इसी मरज़ का शिकार है जिस की गवाह इस की मौजूदा तस्वीर है. 
वह अपने मुहम्मदी अल्लाह का हुक्म मान कर ही पागल तालिबान बन चुका है. ."
सूरह अलबक़र -2-आयत (261) 
ख़र्च पर मुसलसल मुहम्मदी अल्लाह की ऊट पटांग तक़रीर चलती रहती है. 
मालदार लोगों पर उसकी नज़रे बद लगी रहती है, 
सूद खो़री हराम है मगर बज़रीआ सूद कमाई गई दौलते बिक़ा हलाल हो सकती है 
अगर अल्लाह की साझे दारी हो जाए. 
रहन, बय, सूद और इन सब के साथ साथ गवाहों की हाज़िरी जैसी आमियाना बातें अल्लाह हिकमत वाला खोल खोल कर समझाता है. 
सूरह अलबक़र -2-आयत (263-73)
अल्लाह ने इन आयतों में ख़र्च करने के तरीक़े और उस पर पाबंदियां भी लगाई हैं. 
कहीं पर भी मशक्क़त और ईमानदारी के साथ रिज़्क़ कमाने का मशविरा नहीं दिया है. 
इस के बर अक्स जेहाद लूट मार की तलक़ीन हर सूरह में है. 
"ऐ ईमान वालो! तुम एहसान जतला कर या ईज़ा पहुंचा कर अपनी ख़ैरात को बर्बाद मत करो, उस शख़्स  की तरह  जो अपना मॉल ख़र्च करता है, लोगों को दिखने की ग़रज़ से और ईमान नहीं रखता - - - ऐसे लोगो को अपनी कमाई ज़रा भी हाथ न लगेगी और अल्लाह काफ़िरों को रास्ता न बतला देंगे." 
ज़रा मुहम्मद की हिकमते अमली पर ग़ौर  करें कि वह लोगों से कैसे अल्लाह का टेक्स वसूलते हैं. 
जुमले की ब्लेक मेलिंग तवज्जेह तलब है - - -
और अल्लाह काफ़िर को रास्ता न बतला देंगे - - - 

एक मिसाल अल्लाह की और झेलिए- - - 
"भला तुम में से किसी को यह बात पसंद है कि एक बाग़ हो खजूर का और एक अंगूर का. इस के नीचे नहरें चलती हों, उस शख़्स  के इस बाग़ में और भी मेवे हों और उस शख़्स  का बुढ़ापा आ गया हो और उसके अहलो अयाल भी हों, जान में क़ूवत नहीं, सो उस बाग़ पर एक बगू़ला आवे जिस में आग हो ,फिर वह बाग़ जल जावे. अल्लाह इसी तरह  के नज़ार फ़रमाते हैं, तुम्हारे लिए ताकि तुम सोचो," 
सूरह अलबक़र -2-आयत (266)
"और जो सूद का बक़ाया है उसको छोड़ दो, अगर तुम ईमान वाले हो और अगर इस पर अमल न करोगे तो इश्तहार सुन लो अल्लाह की तरफ़ से कि जंग का - - - 
और इस के रसूल कि तरफ़ से. और अगर तौबा कर लो गे तो तुम्हारे अस्ल अमवाल मिल जाएँगे. न तुम किसी पर ज़ुल्म कर पाओगे, न कोई तुम पर ज़ुल्म कर पाएगा." 
सूरह अलबक़र -2-आयत (279)
. न तुम किसी पर ज़ुल्म कर पाओगे, न कोई तुम पर ज़ुल्म कर पाएगा." 
एक अच्छी बात निकली मुहम्मद के मुँह से पहली बार. 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 12 February 2021

क़ुरआन ला शरीफ़ (10)


क़ुरआन ला शरीफ़  (10)
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सूरह अलबक़र -2-سورتہ البقرہ   
(क़िस्त 9 ) 

मूसा की उम्मत यहूद इल्म जदीद के हर शोबे में आसमान से तारे तोड़ रही है और उम्मते मुहम्मदी आसमान पर ख़्वाबों की जन्नत और दोज़ख़ तामीर कर रही है. इसके आधे सर फ़रोश तरक़्क़ी याफ़्ता क़ौमों के छोड़े हुए हतियार से ख़ुद मुसलमानों पर निशाना साध रहे हैं और आधे सर फ़रोश इल्मी लियाक़त से दरोग़ फ़रोशी कर रहे हैं. 
मुसलमानों! 
ख़ुदा के लिए जागो, 
वक़्त की रफ़्तार के साथ ख़ुद को जोडो, बहुत पीछे हुए जा रहे हो ,
तुम ही न बचोगे तो इस्लाम का मतलब? 
यह इसलाम, यह इस्लामी अल्लाह, यह इस्लामी पयम्बर, सब एक बड़ी साज़िश हैं, काश समझ सको. इसके धंधे बाज़ सब के सब तुम्हारा इस्तेसाल (शोषण) कर रहे है. 
ये जितने बड़े रुतबे वाले, इल्म वाले, शोहरत वाले, या दौलत वाले हैं, सब के सब कल्बे स्याह, बे ज़मीर, दरोग़ गो और सरापा झूट हैं. 
इसलाम तस्लीम शुदा गुलामी है, इस से नजात हासिल करने की हिम्मत जुटाओ, ईमान जीने की आज़ादी है, इसे समझो और मुस्लिम नहीं,मोमिम बनो. 
"अल्लाह के राह में क़त्ताल करो" 
क़ुरआन का यही एक जुमला तमाम इंसानियत के लिए चैलेंज है, 
जिसे कि तालिबान नंगे हथियार लेकर दुन्या के सामने खड़े हुए हैं. 
अल्लाह की राह क्या है? 
इसे कलिमा ए शहादत
"लाइलाहा इललिललाह, मुहम्मदुररसूल लिललाह" 
यानी 
(एक आल्लाह के सिवा कोई अल्लाह आराध्य नहीं और मुहम्मद उसके दूत हैं) 
को आंख बंद करके पढ़ लीजिए और उसकी राह पर निकल पड़िए. 
या जानना चाहते हैं तो किसी मदरसे के तालिब इल्म (छात्र) से अधूरी जानकारी और वहां के मौलाना से पूरी पूरी जानकारी ले लीजिए.
जो लड़के उनके हवाले होते हैं उनको खुफ़िया तअलीम  दी जाती है. 
मौलाना रहनुमाई करते हैं और क़ुरआन  और हदीसें इनको मंजिल तक पहंचा देते हैं. 
मगर ज़रा रुकिए, ये सभी इन्तेहाई दर्जे धूर्त और दुष्ट लोग होते है, 
आप का हिन्दू नाम सुनते ही सेकुलर पाठ खोल देंगे, 
फ़िलहाल हम जैसे ग़ैर जानिब दार पर ही भरोसा कर सकते हैं. 
हम जैसे सच्चों को इस्लाम मुनाफ़िक़ कहता है 
क्यूंकि चेतना और ज़मीर को कलिमा पहले ही खा लेता है. 
जी हाँ ! 
यही कलिमा इंसान को इंसान से मुसलमान बनाता है जो सिर्फ़ एक क़त्ल नहीं क़त्ल का बहु वचन क़त्ताल, सैकडों, हज़ारों क़त्ल करने का फ़रमान जारी करता है. यह फ़रमान किसी और का नहीं अल्लाह में बैठे मुहम्मदुररसूल अल्लाह का होता है. 
अल्लाह तो अपने बन्दों का रोयाँ भी दुखाना नहीं चाहता होगा, 
अगर वह होगा तो बाप की तरह  ही होगा. 

आयत न २४४ के तहत मुहम्मद फिर एक बार मुसलमानों को भड़का रहे हैं कि अल्लाह को मंज़ूर है कि हम काफ़िर का क़त्ताल क रें . 
"अल्लाह जिंदा है, संभालने वाला है, न उसको ऊंघ दबा सकती है न नींद, इसी की ममलूक है सब जो आसमानों में हैं और जो कुछ ज़मीन में है- - - -इसकी मालूमात में से किसी चीज़ को अपने अहाता ए इल्मी में नहीं ला सकते, मगर जिस क़दर वह चाहे इस की कुर्सी ने सब आसमानों और ज़मीन को अपने अंदर ले रखा है,और अल्लाह को इन दोनों की हिफ़ाज़त कुछ गराँ नहीं गुज़रती और वह आली शान और अज़ीमुश्शान है" 
सूरह अलबक़र -2-आयत (255)
मुहम्मद साहब को पता नहीं क्यूँ ये बतलाने की ज़रुरत पड़ गई कि अल्लाह मियां मुर्दा नहीं हैं, 
उन में जान है. और वह बन्दों की तरह  ला परवाह भी नहीं हैं, जिम्मेदार हैं. 
अफ़ीम नहीं खाते या कोई और नशा नहीं करते कि ऊंघते हों, या अंटा ग़फ़ील हो जाएँ, 
सब कुछ संभाले हुए हैं, ये बात अलग है की सूखा, बाढ़, क़हत, ज़लज़ला, तो लाना ही पड़ता है. 
अजब ज़ौक़ के मख़लूक़ हैं, 
जो भी हो अहेद के पक्के हैं. 
दोज़ख़ के साथ किए हुए मुआहिदा को जान लगा कर निभाते, 
उस ग़रीब का पेट जो भरना है. 
सब से पहले उसका मुंह चीरा है, बाक़ी का बाद में - - - 
चालू क़समें जिनको खा लेने पर अल्लाह मुआफ़ करता है, खा कर कहते हैं,
" दीन में ज़बरदस्ती नहीं." 
क़ुरआन  में तज़ाद ((विरोधाभास) का यह सब से बड़ा निशान है. 
दीन ए इस्लाम में तो इतनी ज़बरदस्ती है कि इसे मानो या जज़िया दो या गुलामी क़ुबूल करो 
या तो फिर इस के मुंकिर होकर जान गंवाओ. 
"दीन में ज़बरदस्ती नहीं."
ये बात उस वक़्त कही गई थी जब मुहम्मद की मक्का के क़ुरैश से कोर दबती थी. 
जैसे आज भारत में मुसलमानों की कोर दब रही है, वर्ना इस्लाम का असली रूप तो तालिबानी ही है. 
सूरह अलबक़र -2-आयत (256)
दीन की बातें छोड़ कर मुहम्म्द्द फिर क़िस्सा गोई पर आ जाते हैं. 
अल्लाह से एक क़िस्सा गढ़वाते है, क़िस्सा को पढ़ कर आप हैरान होंगे कि क़िस्सा गो मकानों को उनकी छतों पर गिरवाता है. 
कहानी पढ़िये, कहानी पर नहीं, कहानी कार पर मुकुराइए और उन नमाज़ियों पर आठ आठ आंसू बहाइए जो इसको अनजाने में अपनी नमाज़ों इसे में दोहरात्ते हैं. 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 11 February 2021

क़ुरआन ए ला शारीफ (9)

क़ुरआन ए ला शारीफ  (9)

 सूरह अलबक़र -2-سورتہ البقرہ   
(क़िस्त 8 ) 

"अल्लाह तअला वारिद गीर न फ़रमाएगा तुम्हारी बेहूदा कसमों पर लेकिन वारिद गीर फ़रमाएगा इस पर जिस में तुम्हारी दिलों ने इरादा किया था और अल्लाह .तअला ग़फ़ूर रुर रहीम है" 
सूरह अलबक़र -2-आयत (225)
"जो लोग क़सम खा बैठे हैं अपनी बीवियों से, उन को चार महीने की मोहलत है, सो अगर ये लोग रुजू कर लें तब तो अल्लाह तअला मुआफ़ कर देंगे और अगर छोड़ ही देने का पक्का इरादा कर लिया है तो अल्लाह तअला जानने और सुनने वाले हैं."
सूरह अलबक़र -2-आयत  (227) 
मुस्लिम समाज में औरतें हमेशा पामाल रही हैं आज भी ज़ुल्म का शिकार हैं. मुश्तरका माहोल के तुफ़ैल में कहीं कहीं इनको राहत मिली हुई है जहाँ तअलीम  ने अपनी बरकत बख़्शी है. 
देखिए तलाक़ के कुछ इस तरह  ग़ैर वाज़ह फ़रमाने-मुहम्मदी - - -
"तलाक़ दी हुई औरतें रोक रखें अपने आप को तीन हैज़ तक और इन औरतों को यह बात हलाल नहीं कि अल्लाह ने इन के रहेम में जो पैदा किया हो उसे पोशीदा रखें और औरतों के शौहर उन्हें फिर लौटा लेने का हक़ रखते हैं, बशर्ते ये कि ये इस्लाह का क़स्द रखते हों. और औरतों के भी हुक़ूक़ हैं जव कि मिस्ल उन ही के हुक़ूक़ के हैं जो उन औरतों पर है, क़ाएदे के मुवाफ़िक़ और मर्दों का औरतों के मुक़ाबले कुछ दर्जा बढ़ा हुवा है."
सूरह अलबक़र -2-आयत (228) 
"औरतों के हुक़ूक़ आयत में अल्लाह ने क्या दिया है ? अगर कुछ समझ में आए तो हमें भी समझाना. 
"दो बार तलाक़ देने के बाद भी निकाह क़ायम रहता है मगर तीसरी बार तलाक़ देने के बाद तलाक़ मुकम्मल हो जाती है. और औरत से राबता क़ायम करना हराम हो जाता है, उस वक़्त तक कि औरत का किसी दूसरे मर्द से हलाला न हो जाए."
सूरह अलबक़र -2-आयत (229-30) 

हलाला=हरामा 
मुसलमानों में रायज रुस्वाए ज़माना नाज़ेबगी हलाला जिसको दर असल हरामा कहना मुनासिब होगा, 
वह तलाक़ दी हुई अपनी बीवी को दोबारा अपनाने का एक शर्म नाक तरीक़ा है 
जिस के तहेत मतलूक़ा को किसी दूसरे मर्द के साथ निकाह करना होगा और उसके साथ हम बिस्तरी की शर्त लागू होगी फिर वह तलाक़ देगा, बाद इद्दत (चार महीना दस दिन) ख़त्म औरत का तिबारा निकाह अपने पहले शौहर के साथ होगा, 
तब जाकर दोनों इस्लामी दाग़-बे ग़ैरती को ढोते हुए तमाम जिंदगी गुज़ारेंगे. 
अकसर  ऐसा भी होता है कि टेम्प्रेरी शौहर औरत को तलाक़ ही नहीं देता और वह नई मुसीबत में फंस जाती है, उधर शौहर ठगा सा रह जाता है. 
ज़रा तसव्वुर करें कि मामूली सी बात का इतना बड़ा बतंगड़, 
दो जिंदगियां और उनके मासूम बच्चे ताउम्र रुसवाई का बोझ ढोते रहें. 
"मुहम्मदी अल्लाह तलाक़ शुदा और बेवाओं के लिए अधूरे और बे तुके फ़रमान जारी करता है. बच्चों को दूध पिलाने कि मुद्दत और शरायत पर भी देर तक एलान करता है जो कि ग़ैर ज़रूरी लगते हैं. 
एक तवील ला हासिल गुफ़्तगू जो क़ुरआन में बार बार दोहराई गई है जिस को इल्म का ख़ज़ाना रखने वाले आलिम अपनी तक़रीर में हवाला देते हैं कि अल्लाह ने यह बात फलां फलां सूरतों की फलां फलां आयत में फ़रमाई है, दर असल वह उम्मी मुहम्मद कि बड़ बड़ है जो बार बार क़ुरआन का पेट भरने के लिए आती है, और आलिमों का पेट इन आयातों की जेहालत से भारती है. "
सूरह अलबक़र -2-आयत (२३१-२४२)
अल्लाह औरतों के जिंसी और अज़वाजी मसलों की डाल से फुधक कर अफ़साना निगारी की टहनी पर आ बैठता है बद ज़ायक़ा एक क़िस्सा पढ़ कर, आप भी अपने मुंह का ज़ायका बिगाड़ेंगे - - - 
"तुझको उन लोगों का क़िस्सा तहक़ीक़ नहीं हुवा जो अपने घरों से निकल गए थे और वह लोग हज़ारो ही थे, मौत से बचने के लिए. सो अल्लाह ने उन के लिए फ़रमाया कि मर जाओ, फिर उन को जला दिया. बे शक अल्लाह .तअला बड़े फ़ज़ल करने वाले हैं लोगों पर मगर अकसर लोग शुक्र नहीं करते."
सूरह अलबक़र -2-आयत  (243)
लीजिए अफ़साना तमाम. 
क्या फ़ज़ले इलाही? 
उस ज़ालिम अल्लाह का यही फ़ज़ल है  जिस ने अपने बन्दों को बे यारो मददगार करके जला दिया ? 
ये मुहम्मद कि ज़लिमाना फ़ितरत की लाशुऊरी अक्कासी ही है 
जिसको वह निहायत फूहड़ ढंड से बयान करते हैं. 
देखिए मुहम्मद के मुंह से अल्लाह को या अल्लाह के मुंह से मुहम्मद को, 
यह बैंकिंग प्रोग्राम पेश करते हैं, जेहाद करो - - - 
"अल्लाह के पास आपनी जान जमा करो, मर गए तो दूसरे रोज़ ही जन्नत में दाख़िला, 
मोती के महल, हूरे, शराब, क़बाब, एशे लाफ़ानी, 
अगर कामयाब हुए तो जीते जी माले ग़नीमत का अंबार 
और अगर क़त्ताल से जान चुराते हो का याद रखो लौट कर अल्लाह के पास ही जाना है, 
वहाँ ख़बर ली जाएगी. कितनी मंसूबा बंद तरकीब है बेवक़ूफों के लिए."

"और अल्लाह कि राह में क़त्ताल करो. कौन शख़्स  है ऐसा जो अल्लाह को क़र्ज़ दिया और फिर अल्लाह उसे बढ़ा कर बहुत से हिस्से कर दे और अल्लाह कमी करते हैं और फ़राख़ी करते हैं और तुम इसी तरफ़ ले जाए जाओगे"
सूरह अलबक़र -2-आयत (244-45)
"अगर अल्लाह को मंज़ूर होता वह लोग 
(मूसा के बाद किसी नबी की उम्मत)
उनके बाद किए हुआ बाहम क़त्ल ओ क़त्ताल नहीं करते, बाद इसके, इनके पास दलील पहुँच चुकी थी, लेकिन वह लोग बाहम मुख़्तलिफ़ हुए सो उन में से कोई तो ईमान लाया और कोई काफ़िर रहा. और अगर अल्लाह को मंज़ूर होता तो वह बाहम क़त्ल ओ क़त्ताल न करते लेकिन अल्लाह जो कहते है वह्यि करते हैं"
सूरह अलबक़र -2-आयत (253)
मुहम्मद ने कैसा अल्लाह मुरत्तब किया था? 
क्या चाहता था वह? क्या उसे मंज़ूर था? मन मानी? 
मुसलमान कब तक क़ुरआनी अज़ाब में मुब्तिला रहेगा ? 
कब तक यह मुट्ठी भर इस्लामी ओलिमा  अपमी इल्म के ज़हर की मार ग़रीब मुस्लिम अवाम पर थोपते रहेंगे, 
मूसा को मिली उसके इलोही की दस हिदायतें आज क्या बिसात रखती हैं, हाँ मगर वक़्त आ गया है कि आज हम उनको बौना साबित कर रहे हैं. 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 9 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़

क़ुरआन ए ला शरीफ़

 सूरह अलबक़र -2-سورتہ البقرہ   
(क़िस्त 6 ) 
"आप से लोग चांदों के हालत के बारे में तहकीक करते हैं, आप फ़रमा दीजिए कि वह एक आला ऐ शिनाख्त अवकात हैं लोगों के लिए और हज के लिए. 
और इस में कोई फ़ज़िलत नहीं कि घरों में उस कि पुश्त की तरफ़ से आया करो. हाँ! लेकिन फ़ज़िलत ये है कि घरों में उन के दरवाजों से आओ." 
सूरह अलबक़र -2-आयत (189)
मुहम्मद या उनके अल्लाह की मालूमात आम्मा  और भौगोलिक ज्ञान मुलाहिज़ा हो, 
महीने के तीसों दिन निकलने वाले चाँद को अलग अलग तीस चाँद (चांदों) समझ रहे हैं.
 मुहम्मद तो ख़ैर उम्मी थे मगर इन के फटीचर अल्लाह की पोल तो खुल ही जाती है जिस के पास मुब्लिग़ तीस अदद चाँद हर साइज़ के हैं जिसको वह तारीख़ के हिसाब से झलकाता है.
ओलीमा अल्लाह की ऐसी जिहालत को नाजायज़ हमल की तरह  छुपाते हैं. 
अल्लाह कहता है किसी के घर जाओ तो आगे के दरवाज़े से, 
भला पिछवाड़े से जाने की किसको ज़रूरत पड़ सकती है ? 
मुहम्मद साहब बिला वजेह की बात करते हैं. 
कुछ लोगों के लिए पिछवाड़े का दरवाज़ा मख़सूस होता है.

"और तुम लड़ो अल्लाह की राह में उन लोगों के साथ जो तुम लोगों से लड़ने लगें, और हद से न निकलो, वाक़ई अल्लाह हद से निकलने वालों को पसंद नहीं करता और उनको क़त्ल कर दो जहाँ उनको पाओ और उनको निकाल बाहर करदो, जहाँ से उन्हों ने निकलने पर तुम्हें मजबूर किया था. और शरारत क़त्ल से भी सख़्त तर है - - - फिर अगर वह लोग बाज़ आ जाएँ तो अल्लाह तअला बख़्श देंगे और मेहरबानी फ़रमाएंगे और उन लोगों के साथ इस हद तक लड़ो कि फ़साद-अक़ीदत न रहे और दिन अल्लाह का हो जाए." 
सूरह अलबक़र -2-आयत (190-92) 

मुहम्मद को कुछ ताक़त मिली है, वह मुहतात रवि के साथ इंतेक़ाम पर उतारू हो गए हैं 
"शरारत क़त्ल से सख़्त तर है" 
अल्लाह नबी से छींकने पर नाक काट लो जैसा फ़रमान जारी करा रहा है. 
जैसे को तैसा, अल्लाह कहता है - - - 

"सो जो तुम पर ज़्यादती करे तो तुम भी उस पर ज़्यादती करो जैसा उस ने तुम पर की है" 
सूरह अलबक़र -2-आयत (194) 
क्या ये इंसानी अज़मतें हो सकती हैं? 
ये कोई धर्म हो सकता है? 
ओलिमा डींगें मारा करते हैं कि इसलाम सब्रो इस्तेक़लाल का पैग़ाम देता है और मुहम्मद अमन के पैकर हैं मगर मुहम्मद इब्ने मरियम के उल्टे ही हैं. 

"और जब हज में जाया करो तो ख़र्च ज़रूर ले लिया करो क्यों की सब से बड़ी बात ख़र्च में बचे रहना. और ऐ अक़्ल  वालो! मुझ से डरते रहो. तुम को इस में ज़रा गुनाह नहीं कि हज में मुआश की तलाश करो- - -" 
सूरह अलबक़र -2-आयत (198)
अल्लाह कहता है अक़्ल वालो मुझ से डरते रहो, 
ये बात अजीब है कि अल्लाह अक़्ल वालों को ख़ास कर क्यूँ  डराता है? 
बेवक़ूफ़ तो वैसे भी अल्लाह, शैतान, भूत, जिन्न, परेत, से डरते रहते हैं 
मगर अहले होश से अकसर अल्लाह डर के भागता है क्यों कि ये मतलाशी होते है सदाक़त के. 

"सूरह में हज के तौर तरीकों का एक तवील सिलसिला है, जिसको मुसलमान निज़ाम हयात कहता है."

हज 
हज जैसे ज़ेह्नी तफ़रीह में कोई तख़रीबी पहलू नज़र नहीं आता, 
सिवाय इसके कि ये मुहम्मद का अपनी क़ौम के लिए एक मुआशी ख़्वाब था. 
आज समाज में हज, हैसियत की नुमाइश एक फैशन भी बना हुवा है. 
दरमियाना तबक़ा अपनी बचत पूंजी इस पर बरबाद कर के अपने बुढ़ापे को ठन ठन गोपाल कर लेता है, 
जो अफ़सोस का मुक़ाम है. 
हज हर मुसलमान पर एक तरह  का उस के मुसलमान होने का क़र्ज़ है, 
जो मुहम्मद ने अपनी क़ौम के लिए उस पर लादा है. 
उम्मी की इस सियासत को दुन्या की हर पिछ्ड़ी हुई क़ौम  ढो रही है. 

अल्लाह कहता है - - - 
"क्या तुम्हारा ख़याल है कि जन्नत में दाख़िल होगे, हाँलाकि तुम को अभी तक इन का सा कोई अजीब वक़ेआ पेश नहीं आया है जो तुम से पहले गुज़रे हैं और उन पर ऐसी ऐसी सख्त़ी और तंगी वाक़े हुई है और उन को यहाँ तक जुन्बिशें हुई हैं कि पैग़म्बर तक और जो उन के साथ अहले ईमान थे बोल उठे कि अल्लाह की मदद कब आएगी. याद रखो कि अल्लाह की इमदाद बहुत नज़दीक है"
सूरह अलबक़र -2-आयत (213)
मुहम्मद अपने शागिर्दों को तसल्ली की भाषा में समझा रहे हैं, कि अल्लाह की मदद ज़रूर आएगी और साथ साथ एलान है कि ये क़ुरआन  अल्लाह का कलाम है. इस कशमकश को मुसलमान सदियों से झेल रहा है कि इसे अल्लाह का कलाम माने या मुहम्मद का. 
ईमान लाने वालों ने इस्लाम क़ुबूल करके मुसीबत मोल ले ली है. 
उन के लिए अल्लाह फ़रमाता है - - - 
(तालिबानी आयत) 
"जेहाद करना तुम पर फ़र्ज़ कर दिया गया है और वह तुम को गराँ है और यह बात मुमकिन है तुम किसी अम्र को गराँ समझो और वह तुम्हारे ख़ैर में हो और मुमकिन है तुम किसी अम्र को मरगू़ब समझो और वह तुम्हारे हक़ में ख़राबी हो और अल्लाह सब जानने वाले हैं और तुम नहीं जानते," 
सूरह अलबक़र -2-आयत (214)
नमाज़, रोजा, ज़कात, हज, जैसे बेसूद और मुहमिल अमल, 
माना कि कभी न ख़त्म होने वाले अमले-ख़ैर होंगे मगर ये जेहाद भी कभी न ख़त्म होने वाला अल्लाह का फ़रमाने-अमल है कि जब तक ज़मीन पर एक भी ग़ैर मुस्लिम बचे या एक भी मुस्लिम बचे? 
जेहाद जारी रहे बल्कि उसके बाद भी? 
मुस्लिम बनाम मुस्लिम (फ़िरक़ा वार) बे शक अल्लाह, उसका रसूल और क़ुरआन  अगर बर हक़ हैं 
तो उसका फ़रमान उस से जुदा नहीं हो सकता. 
सदियों बाद तालिबान, अलक़ायदा जैशे मुहम्मद जैसी इस की बर हक़ अलामतें क़ाएम हो रही हैं, 
तो इस की मौत भी बर हक़ है. 
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 8 February 2021

क़ुरआन ला शरीफ़ तर्जुमा और तबसरा

क़ुरआन ला शरीफ़
तर्जुमा और तबसरा
 सूरह अलबक़र -2-سورتہ البقرہ   
(क़िस्त 5 ) 

अल्लाह कहता है - - - 
"मगर जो लोग तौबा कर लें और इस्लाह कर लें तो ऐसे लोगों पर मैं मुतवज्जो हो जाता हूँ और मेरी तो बकसरत आदत है तौबा क़ुबूल कर लेना और मेहरबानी करना." 
सूरह अलबक़र -2-आयत (160) 
अल्लाह की बकसरत आदत पर ग़ौर करें. 
अल्लाह इंसानों की तरह  ही अलामतों का आदी है. 
क़ुरआन  और हदीसों का ग़ौर से मुतालिआ करें तो साफ़ साफ़ पाएँगे कि दोनों के मुसन्निफ़ एक हैं जो अल्लाह को क़ुदरत वाला नहीं बल्कि आदत वाला समझते हैं, 

अल्ला मियां तौबा न करने वालों के हक़ में फ़रमाते हैं - - -
"अलबत्ता जो लोग ईमान न लाए और इसी हालत में मर गए तो इन पर लानत है, अल्लाह की, फ़रिश्तों की, और आदमियों की. उन पर अज़ाब हल्का न होने पाएगा." 
सूरह अलबक़र -2-आयत (161)
भला आदमियों की लानत कैसे हुई ? वह्यि तो ईमान नहीं ला रहे. 
ख़ैर अल्लाह मियां और रसूल मियां बोलते पहले हैं और सोंचते बाद में हैं. 
और इन के दल्लाल तो कभी सोचते ही नहीं. 
* बहुत सी चाल घात की बातें इस के बाद की आयतों में अल्लाह ने बलाई हैं, अपनी नसीहतें और तम्बीहें भी मुसलमान बच्चों को दी हैं. कुछ चीजें हराम क़रार दी हैं, बसूरत मजबूरी हलाल भी कर दी हैं. यह सब परहेज़, हराम, हलाल और मकरूह क़ब्ले इसलाम भी था जिस को भोले भाले मुसलमान इसलाम की देन मानते हैं. 

कहता है - - -
"अल्लाह तअला ने तुम पर हराम किया है सिर्फ़ मुरदार और ख़ून को और ख़िजीर के गोश्त को और ऐसे जानवर को जो ग़ैर अल्लाह के नाम से ज़द किए गए हों. फिर भी जो शख़्स बेताब हो जावे, बशर्ते ये कि न तालिबे लज़्ज़त हो न तजाउज़ करने वाला हो, कुछ गुनाह नहीं होता. 
वाक़ई अल्लाह तअला हैं बड़े ग़फ़ूरुर रहीम" 
सूरह अलबक़र -2-आयत (173) 
क़ुरआन  में क़ायदा क़ानून ज़्यादः तर अधूरे और मुज़बज़ब हैं, इसी लिए मुस्लिम अवाम हमेशा आलिमों से फ़तवे माँगा करती है. 
मरहूम की वसीयत के मुताबिक़ कुल मॉल को हिस्से के पैमाइश या आने के हिसाब से बांटा गया है मगर रूपया कितने आने का है, साफ़ नहीं हो पाता, 
हिस्सों का कुल क्या है? 
वसीयत चार आदमी मिल कर बदल भी सकते हैं, 
फिर क्या रह जाती है मरने वाले की मर्ज़ी? 
क़ुरआन  यतीमों के हक़ का ढोल खूब पीटता है मगर यतीमों पर दोहरा ज़ुल्म देखिए कि अगर दादा की मौजूदगी में बाप की मौत हो जाय तो पोता अपनी विरासत से महरूम हो जाता है. 
क़स्सास और ख़ून  बहा के अजीबो ग़रीब क़ानून हैं. जान के बदले जान, मॉल के बदले मॉल, आँख के बदले आँख, हाथ के बदले हाथ, पैर के बदले पैर, ही नहीं, 
क़ुरआनी  क़ानून देखिए - - - 
"ऐ ईमान वालो! तुम पर क़स्सास फ़र्ज़ किया जाता है, ममक़तूलीन के बारे में, आज़ाद आदमी आज़ाद के एवज़ और ग़ुलाम  , ग़ुलाम   के एवज़ में और औरत औरत के एवज़ में. हाँ, इस में जिसको फ़रीक़ैन की तरफ़ से कुछ मुआफ़ी हो जाए तो माक़ूल तौर पर मतालबा करना और ख़ूबी के तौर पर इसको पहुंचा देना यह तुम्हारे परवर दिगार की तरफ़ से तख़फ़ीफ़ तरह्हुम है जो इस बाद तअददी का मुरक़्क़ब  होगा तो बड़ा दर्द नाक अज़ाब होगा" 
सूरह अलबक़र -2-आयत (179)
एक फिल्म आई थी पुकार जिसमे नूर जहां ने अनजाने में एक धोबी का तीर से ख़ून कर दिया था. 
इस्लामी क़ानून के मुताबिक़ धोबन को बदले में नूर जहाँ के शौहर यानी जहाँगीर के ख़ून करने का हक़ मिल गया था और बादशाह जहाँगीर धोबन के तीर के सामने आँखें बंद करके खड़ा हो गया था. 
ग़ौर करें यह कोई इंसाफ का मेराज नहीं था बल्कि एन ना इंसाफी थी. ख़ता करे कोई और सज़ा पाए कोई. 
हम आप के ग़ुलाम   को क़त्ल कर दें और आप मेरे ग़ुलाम   को, 
दोनों मुजरिम बचे रहे. वाह! अच्छा है मुजरिमों के लिए मुहम्मदी क़ानून. 
सूरह की मंदर्जा ज़ेल आयतों में रोज़ों को फ़र्ज़ करते हुए बतलाया गया है कि कैसे कैसे किन किन हालत में इन की तलाफ़ी की जाए. 
यही बातें क़ुरआनी  हिकमत हैं जिसका राग ओलिमा बजाया करते हैं. 
मुसलमानों की यह दुन्या भाड़ में जा रही है जिसको मुसलमान समझ नहीं पा रहा है. 
यह दीन के ठेकेदार ख़ैराती मदरसों से ख़ैराती रिज़्क़ खा पी कर फ़ारिग़ हुए हैं अब इनको मुफ़्त इज्ज़त और शोहरत मिली है जिसको ये कभी न जाने देंगे भले ही एक एक मुसलमान ख़त्म हो जाए. 
सूरह अलबक़र -2-आयत (184-87) 

"तुम लोगों के वास्ते रोज़े की शब अपनी बीवियों से मशगू़ल रहना हलाल कर दिया गया, क्यूँ कि वह तुम्हारे ओढ़ने बिछोने हैं और तुम उनके ओढ़ने बिछौने हो. अल्लाह को इस बात की ख़बर थी कि तुम ख़यानत के गुनाह में अपने आप को मुब्तिला कर रहे थे. ख़ैर अल्लाह ने तुम पर इनायत फ़रमाई और तुम से गुनाह धोया - - -जिस ज़माने में तुम लोग एतक़ाफ़ वाले रहो मस्जिदों में ये ख़ुदा वंदी ज़ाबते हैं कि उन के नज़दीक़ भी मत जाओ. इसी तरह  अल्लाह .तअला अपने एह्काम लोगों के वास्ते बयान फ़रमाया करते हैं इस उम्मीद पर की लोग परहेज़ रक्खें " 
सूरह अलबक़र -2-आयत (187) 
आज के साइंसी दौर में, यह हैं अल्लाह के एहकाम जिसकी पाबंदी मुल्ला क़ौम से करा रहे हैं. 
उसके बाद सरकार पर इलज़ाम तराशी कि मुसलमानों के साथ भेद भाव. 
मुसलमान का असली दुश्मन इस्लाम है जो आलिम इस पर लादे हुए हैं. 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 7 February 2021

क़ुरआन तर्जुमा और तबसरा


क़ुरआन तर्जुमा और तबसरा 

 सूरह अलबक़र -2-سورتہ البقرہ   
(क़िस्त 4 ) 

सारा, बीवी के अलावा इब्राहीम की एक लौंडी हाजरा (हैगर) थी जिसका बेटा इस्माईल था जिसकी नस्लों से क़ुरैश और ख़ुद हज़रत हैं. आगे हदीस में देखिएगा कि मुहम्मद ने बाबा इब्राहीम को भी अपने सामने बौना कर दिया है. 
मुझे क़ुरानी इबारतों को सोंच सोंच कर हैरत होती है कि क्या आज भी दुन्या में इतने कूढ़ मग्ज़ बाक़ी हैं जो इसे समझ ही नहीं पा रहे हैं? या इस्लामी शातिर इतने मज़बूत हैं कि जो इन पर ग़ालिग़ हैं.                                       
क़ुरआन में पोशीदा धांधली तो मुट्ठी भर लोगों के लिए थी. रात के अंधेरे में सेंध लगाती थी, आज तो दिन दहाड़े डाका डाल रही है. तअलीम  की रौशनी में ऐसी मुहम्मदी जेहालत पर मासूम बच्चा भी एक बार सुन कर मानने से हिचकिचाए. 
"जिस वक़्त याक़ूब का आख़री वक़्त आया अपने बेटों से पूछा, तुम लोग मेरे मरने के बाद किस चीज़ की परस्तिश करोगे? बेटों ने जवाब दिया हम लोग उसी की परस्तिश करेंगे जिस की आप, आप के बुजुर्ग, इब्राहीम, इस्माईल, इसहाक़ परस्तिश करते आऐ हैं, यानी वह्यि माबूद जो वाद्हू ला शरीक है और हम उसी की एताअत पर रहेंगे " 
सूरह अलबक़र -2-आयत   (132-33) 
इस क़िस्म की आयतें क़ुरआन में वाक़ेआत पर आधारित बहुतेरी है जो सभी तौरेत की चोरी हैं मगर सब झूट का लबादा, हाँ जड़ ज़रूर तौरेत में छिपी है. इस वाक़ेए की जड़ है कि यूसफ़ के ख़्वाब के मुताबिक़ जो कि उसने देखा था कि 
एक दिन सूरज और चाँद उसके सामने सर झुकाए खड़े होंगे और ग्यारा सितारे उसके सामने सजदे में पड़े होंगे, 
जो कि पूरा हुवा, जब युसुफ़ मिस्र का बेताज बादशाह हुवा तो उसका बाप ग़रीब याक़ूब और याक़ूब की जोरू उसके सामने सर झुकाए खड़े थे और उसके तमाम सौतेले भाई शर्मिदा सजदे में पड़े थे. 
याक़ूब के सामने दीन का कोई मसला ही न था मसला तो ग्यारा औलादों की रोटी का था. 
मुहम्मद का यह ज़ेहनी शगूफ़ा कहीं नहीं मिलेगा, यूसुफ़ की दास्तान तारीख़ में साफ़ साफ़ है.

"आप फ़रमा दीजिए कि तुम लोग हम से हुज्जत किए जाते हो अल्लाह तअला के बारे में, हालां कि वह हमारा और तुम्हारा रब है. हम को हमारा क्या हुवा मिलेगा और तुम को तुम्हारा किया हुवा, और हम ने हक़ तअला के लिए अपने को ख़ालिस कर रक्खा है. क्या कहे जाते हो कि इब्राहीम और इस्माईल और इसहाक़ और याक़ूब और औलाद याक़ूब यहूद या नसारा थे, कह दीजिए तुम ज़्यादा वाक़िफ़ हो या हक़ तअला और इस शख़्स से ज़्यादः ज़ालिम कौन होगा जो ऐसे शख़्स का इक़्फ़ा करे जो इस के पास मिन जानिब अल्लाह पहंची हो और अल्लाह तुमहारे किए से बे ख़बर नहीं " 
सूरह अलबक़र -2-आयत (138-40) 
आयत १४० बहुत ख़ास है. पूरा क़ुरआन इसी की मदार पर घूमता है जिस से मुसलमान गुमराह होते हैं 
तुम ज़्यादा वाक़िफ़ हो या हक़ तअला ? 
क़ौमों की तवारीख़ कोई सच्चाई नहीं रखती, अल्लाह की गवाही के सामने. 
इसको न मानने वाले ज़ालिम होते हैं, और ज़ालिमों से अल्लाह निपटेगा.
मुसलमानों! 
पूरा यक़ीन कर सकते हो की तवारीख़ अक़वाम के आगे क़ुरानी अल्लाह की गवाही झूटी है. 
मुहम्मद से पहले इस्लाम था ही नहीं तो इब्राहीम और उनकी नस्लें मुसलमान कैसे हो सकती हैं? 
ये सब मजनू बने मुहम्मद की गहरी चालें हैं.
"जिस जगह से भी आप बाहर जाएं तो अपना चेहरा काबा की तरफ़ रक्खा करें और ये बिल्कुल हक़ है और अल्लाह तुम्हारे किए हुए कामो से असला बे ख़बर नहीं है और तुम लोग जहाँ कहीं मौजूद हो अपना चेहरा ख़ानाए काबा की तरफ़ रक्खो ताकि लोगों को तुम्हारे मुक़ाबले में गुफ़तुगू न रहे. मुझ से डरते रहो." 
सूरह अलबक़र -2-आयत (149-50)
इस रसूली फ़रमान पर मुस्कुरइए, तसव्वुर में अमल करिए, भरी महफ़िल में बेवक़ूफ़ी हो जाए तो क़हक़हा लगाइए. भेड़ बकरियों के लिए अल्लाह का यह फ़रमान मुनासिब ही है.
हुवा यूँ था की मुहम्मद ने मक्का से भाग कर जब मदीने में पनाह ली थी तो नमाज़ों में सजदे के लिए रुख़ क़रार पाया था बैतुल मुक़द्दस, जिस को क़िबलाए अव्वल भी कहा जाता है, यह फ़ैसला एक मसलेहत के तहत भी था, जिसे वक़्त आने पर सजदे का रुख़ बदल कर काबा कर दिया गया, जो कि मुहम्मद की आबाई इबादत गाह थी. इस तब्दीली से अहले मदीना में बडी चे-में गोइयाँ होने लगीं, जिसको मुहम्मद ने सख़्ती के साथ कुचल दिया, इतना ही नहीं, मंदर्जा बाला हुक्मे रब्बानी भी जारी कर दिया. 
सूरह अलबक़र -2-आयत (149-50)
मुसलमानों!
तुम्हारी बद नसीबी इन्हीं क़ुरआनी आयातों में छुपी हुई हैं. 
इन्हें ग़ौर से पढो, फिर सोंचो कि क्या तुम मुहम्मदी फ़रेब में मुब्तिला हो? 
इससे निकल कर नई दुन्या में आओ. 
***       
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 6 February 2021

सूरह अलबक़र -2-سورتہ البقرہ (क़िस्त 3)


सूरह अलबक़र -2-سورتہ البقرہ   
(क़िस्त 3) 
अल्लाह की तरफ़ से भेजी गई कच्ची वातों पर जब लोग उंगली उठाते हैं और मुहम्मद को अपनी ग़लती का एहसास होता है तो उस आयत या पूरी की पूरी सूरह अल्लाह से मौक़ूफ़ (अमान्य) करा देते हैं. 
ये भी उनका एक हरबा होता. 
अल्लाह न हुवा एक आम आदमी हुवा जिस से ग़लतियाँ तो होती रहती है, 
उस पर ये कि उस को इस का हक़ है. 
बड़ी ज़ोरदारी के साथ अल्लाह अपनी क़ुदरत की दावेदारी पेश करते हुए अपनी ताक़त का मज़ाहिरा करता है कि वह क़ुरानी आयातों में हेरा-फेरी भी कर सकता है, इसकी वह क़ुदरत रखता है, कल वह ये भी कह सकता है कि वह झूट बोल सकता है, चोरी, चकारी, बे ईमानी जैसे काम भी करने की भी क़ुदरत रखता है. 
ज़बान बदलू अल्लाह कहता है - - - 
"हम किसी आयत का हुक्म मौक़ूफ़ कर देते हैं या उस आयत को फ़रामोश कर देते हैं तो उस आयत से बेहतर या उस आयत के ही मिस्ल ले आते हैं. क्या तुझ को मालूम नहीं कि अल्लाह तअला ऐसे हैं कि इन्हीं की सल्तनत आसमानों और ज़मीन की है और ये भी समझ लो कि तुम्हारे हक़ तअला के सिवा कोई यारो मदद गार नहीं."
सूरह अलबक़र -2-आयत (114)
मुहम्मद इस क़दर ताक़त वर अल्लाह के ज़मीनी कमांडर बन्ने की आरज़ू रखते थे, 
"अल्लाह तअला जब किसी काम को करना चाहता है तो इस काम के निस्बत इतना कह देता है कि कुन यानी हो जा और वह फ़या कून याने हो जाता है " 
सूरह अलबक़र -2-आयत (117) 
विद्योत्मा से शिकस्त खाकर मुल्क के चार चोटी के क़ाबिल ज्ञानी पंडित वापस आ रहे थे , 
रास्ते में देखा एक मूरख (कालिदास) पेड़ पर चढ़ा उसी डाल को काट रहा था जिस पर वह सवार था, 
उन लोगों ने उसे उतार कर उससे पूछा राज कुमारी से शादी करेगा?  
प्रस्ताव पाकर मूरख बहुत ख़ुश हुवा. 
पंडितों ने उसको समझया की तुझको राज कुमारी के सामने जाकर बैठना है, उसकी बात का जवाब इशारे में देना है, जो भी चाहे इशारा कर देना. 
मूरख विद्योत्मा के सामने सजा धजा के पेश किया गया , 
विद्योत्मा से कहा गया महाराज का मौन है, जो बात चाहे संकेत में करें. 
राज कुमारी ने एक उंगली उठाई, 
जवाब में मूरख ने दो उँगलियाँ उठाईं. 
बहस पंडितों ने किया और विद्योत्मा हार गई. दर अस्ल एक उंगली से विद्योत्मा का मतलब एक परमात्मा था जिसे मूरख ने समझा वह उसकी एक आँख फोड़ देने को कह रही है. 
जवाबन उसने दो उंगली उठाई कि जवाब में मूरख ने राज कुमारी कि दोनों आखें फोड़ देने कि बात कही थी. जिसको पंडितों ने आत्मा और परमात्मा साबित किया. 
कुन फाया कून के इस मूर्ख काली दास की पकड़ पैग़म्बरी फ़ार्मूला है जिस पर मुसलमान क़ौम ईमान रक्खे हुए है. ये दीनी ओलिमा कलीदास मूरख के पंडित हैं जो उसके आँख फोड़ने के इशारे को ही मिल्लत को पढ़ा रहे है, दुन्या और उसकी हर शै कैसे वजूद में आई अल्लाह ने कुन फ़या कून कहा और सब हो गया. तअलीम , तहक़ीक़ और इर्तेक़ाई मनाज़िल की कोई अहमियत और ज़रूरत नहीं. 
डार्बिन ने सब बकवास बकी है. 
सारे तजरबे गाह इनके आगे फ़ैल. 
उम्मी की उम्मत उम्मी ही रहेगी, इसके पंडे मुफ़्त खो़री करते रहेंगे उम्मत को दो+दो=पॉँच पढ़ाते रहेंगे . 
यही मुसलमानों की क़िसमत है.
अल्लाह कुन फ़या कून के जादू से हर काम तो कर सकता है 
मगर पिद्दी भर शहर मक्का के काफ़िर को इस्लाम की घुट्टी नहीं पिला सकता. 
ये काएनात जिसे आप देख रहे हैं करोरो अरबो सालों के इर्तेकाई रद्दे अमल का नतीजा है, 
किसी के कुन फ़या कून कहने से नहीं बनी.
 
* अज ख़ुद नाख़्वान्दा और उम्मी मुहम्मद अपने से ज़्यादः ज़हीनो को जाहिल के लक़ब से नवाज़ते हैं जिसकी वकालत आलिमान इस्लाम आज तक आखें बंद करके अपनी रोटियाँ चलाने के लिए करते चले आ रहे हैं - - - 
"कुछ जाहिल तो यूँ कहते हैं कि हम से क्यों नहीं कलाम फ़रमाते अल्लाह तअला ? या हमारे पास कोई और दलील आ जाए. इसी तरह  वह भी कहते आए हैं जो इन से पहले गुज़रे हैं, इन सब के क़ुलूब यकसाँ हैं, हम ने तो बहुत सी दलीलें साफ़ साफ़ बयान कर दी हैं" 
सूरह अलबक़र -2-आयत (118) 
* नाम निहाद अल्लाह के ख़ुद साख़्ता रसूल ढाई तीन हज़ार साल क़ब्ल पैदा होने वाले बाबा इब्राहीम से अपने लिए दुआ मंगवाते हैं, उस वक़्त जब वह काबा की दीवार उठा रहे होते हैं- - - 
"और जब उठा रहे थे इब्राहीम दीवारें ख़ानाए काबा की और इस्माईल भी--- (दुआ गो थे) ऐ हमारे परवर दिगार हम से क़ुबूल फ़रमाइए, बिला शुबहा आप ख़ूब सुनने वाले हैं, जानने वाले हैं, ऐ हमारे परवर दिगार! हमें और मती बना लीजिए और हमारी औलादों में भी एक ऐसी जमात पैदा कीजिए जो आप की मती हो और हम को हमारे हज के अहकाम बता दीजिए और हमारे हाल पर तवज्जे रखिए. फिल हक़ीक़त आप ही हैं तवज्जे फ़रमाने वाले मेहरबानी करने वाले. ऐ हमारे परवर दिगार! और इस जमात से इन्हीं में के एक ऐसे पैग़म्बर भी मुक़र्रर कीजिए जो इन लोगों को आप की आयत पढ़ पढ़ कर सुनाया करें और आसमानी किताब की ख़ुश फ़हमी दिया करें और इन को पाक करें - - - और मिल्लते इब्राहिमी से तो वह्यि रू गर्दानी करेगा जो अपनी आप में अहमक होगा.और हम ने इन को दुन्या में मुन्तख़िब किया और वह आख़िरत में बड़े लायक़ लोगों में शुमार किए जाते हैं" 
सूरह अलबक़र -2-आयत  (127 - 130) 
इस तरह  मुहम्मद एक चाल चलते हुए अपने चलाए हुए दीन इस्लाम को यहूदियों, ईसाइयों, और मुसलमानों के मुश्तरका पूर्वज बाबा इब्राहीम का दीन बनाने की कोशिश कर रहे हैं. गोया साँप और सीढ़ी का खेल खेल कर ख़ुद मूरिसे आला के गद्दी नशीन बन जाते हैं.इब्राहिम बशरी तारीख़ में एक मील का पत्थर है. इनकी जीवनी ऐबो हुनर के साथ तारीख़ इंसानी में पहली दास्तान रखती है. इसी लिए इनको फ़ादर अब्राहम का मुकाम हासिल है. उसको लेकर मुहम्मद ने आलमी राय को गुराह करने की कोशिश की है.
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 5 February 2021

क़ुरआन


"क्या ग़ज़ब है कहते हो और लोगों को नेक काम करने को 
(नेक काम करने से मुराद रसूल अल्लाह सल्लल्लाह अलैहिःवसल्लम पर ईमान लाना) 
और अपनी ख़बर नहीं रखते, हालां कि तुम तिलावत करते हो किताब की, तो क्या तुम इतना भी नहीं समझते." 
सूरह अलबक़र -2-आयत (44)
मुहम्मद की महफ़िल में हर क़िस्म के लोग हुवा करते थे. 
मजबूर इतने की उनके थूक को मुंह पर मल लिया करते थे, 
ख़ुद्दार और बा असर ऐसे की मुहम्मद के तमाम चाल को जानते हुए भी मसलहतन साथ निभाते थे. 
ऐसे ही कोई साहब हैं जो लोगों को नेक कामों की तलक़ीन करते हैं. 
मुहम्मद उनकी बातें सुन कर एतराज़ करते हैं और मज़कूरा आयत नाज़िल करते हैं. इस आयत की पैरवी आम मुसलमान से लेकर ख़ास तालिबान तक अच्छी तरह  लाशऊरी तौर पर कर रहे हैं. 
"आदम और हव्वा की मन गढ़ंत कहानी के बाद मुहम्मद का अल्लाह बनी इस्राईल के सुने सुनाए क़िस्से  पेश करता है. अधूरी जानकारी के बाइस अल्लाह इन का अस्ल बयान नहीं कर पाता. मगर बे सिर ओ पैर की तवील गुफ़तुगू कर के तूल कलामी ज़रूर करता रहता है. 
तौरेत और मूसा के तवस्सुत से इस्लाम की तबलीग़ भी करता है और इन के असर से नव मुस्लिमों को बचाने की कोशिश भी करता है. मुहम्मद की अधकचरी मालूमात की इस्लाह अगर कोई यहूदी अपने तारीख़ी पसे मंज़र में कर भी देता है तो मुहम्मदी अल्लाह उसको झूठा क़रार दे देता है कि तुम ने असलियत बदल डाली है. हम ब हैसियत अल्लाह इस बात के गवाह हैं कि हमारी बातें सच हैं. 
यानी झूठे के आगे सच्चा रोए.
 ऐसे मौक़े पर यहूदी आपस में बातें करते हैं, हम क्यों इन से उलझते हैं? और अपनी जानकारी इन्हें देते हैं. 
यह ग़ालिब लोग हैं, इनसे पार पाना मुश्किल है. अल्लाह कुछ इस अंदाज़ में बातें करता है - - - 
"एहसान मानो कि तुमको मूसा ने अल्लाह के हुक्म से मिस्रयों से आज़ाद कराया, याद करो की वीराने में तुम्हें खाने के लिए बटेरें इफ़रात कर दी थीं और याद करो कि तुम भटक कर गोशाले की तरफ़ चले गए थे" 
सूरह अलबक़र -2-आयत (47-93)
देखिए मुहम्मदी अल्लाह अपने प्यारे नबी से किस मुंसिफ़ाना फ़रमान का एलान करवाता है - - 
"आप कह दीजिए (यहूदियों से) कि आलम आख़िरत अगर तुम्हारे लिए ही फ़ायदे मंद है तो अल्लाह के पास बिला शिरकते ग़ैर, मौत की तमन्ना करो, 
अगर तुम सच्चे हो. और वह कभी भी इस की तमन्ना नहीं करेंगे." 
सूरह अलबक़र -2-आयत (97)
ख़ुदा साख़्ता रसूल की इस पेश कश को क्या कहा जाए ? 
कम से कम ये मर्दों की बात तो नहीं हो सकती. 
कोई क़ौम अपने मुख़ालिफ़ के बहकावे में आकर ख़ुद कुशी की तमन्ना कर सकती है क्या? 
यही बात यहूदी कह सकते हैं कि अगर सिर्फ़ मुसलमान बख़्शे जाएंगे तो वह मौत की तमन्ना क्यूं नहीं करते? 
ऐसी बातों पर ही अहले मक्का मुहम्मद को मजनू कहते थे. 
ऐसे लग्वियात का ख़ालिक़, किर्दगार ए ख़लक़ को बना कर मुसलमान अज़ ख़ुद ज़माने के सामने दिमाग़ी दीवालिया हो जाता है. 

और सुनें अल्लाह की गुफ़्तुगू अल्लाह वाले, अपने ईमान को ताज़ा करें- - - 
"सुलेमान के अहद में बज़ात ख़ुद सुलेमान ने कोई कुफ़्र नहीं किया लेकिन शयातीन कुफ़्र करते थे. और आदमियों को भी जादू की तअलीम  दिया करते और उस जादू की भी जो उस वक़्त फ़रिश्तों पर नाज़िल किया गया था. शहर बाबुल में जिस का नाम हारुत और मारूत, लोग इन से सेहर सीखते, मियां बीवी के बीच झगड़ा कराने के लिए. साहिर लोग किसी को ज़रर नहीं पहुँचा सकते जब तक कि अल्लाह का हुक्म न हो" 
सूरह अलबक़र -2-आयत (102)
ग़ौर  करें कि आप नमाज़ों में क्या पढ़ते हैं? 
यह किसी अल्लाह का क़ुरआन है? 
या फिर किसी उम्मी की ख़ुराफ़ात. 
ऐसी इबारतें क्या वास्ते इबादत हो सकती हैं?
यह अल्ला नहीं, मुल्ला आप से जादू टोना जैसा कुफ़्र करा रहे हैं. 
जागिए. इनका दामन छोडिए. 
क़ुरआन की क़रीब सौ ख़ास ख़ास आयतों का मुतलेआ हम आप को गोश गुजार करा चुके हैं, 
आप ने कहीं कोई काम की बात पाई ? 
आलावा जिहालत के. 
जिन आयात को हम ने नहीं छुवा, वह हाथ लगाने लायक़ थीं भी नहीं, 
यानी दीवाने की झक. 
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 4 February 2021


क़ुरआन  ला शरीफ 

 अल्लाह कहता है - - -
सब अल्लाह के ही लायक़ हैं जो मुरब्बी हैं हर हर आलम के. (१) 
जो बड़े मेहरबान है, निहायत रहेम वाले हैं. (२) 
जो मालिक हैं रोज़ जज़ा के. (३) 
हम सब ही आप की इबादत करते हैं, और आप से ही दरख़्वास्त मदद की करते हैं. (४) 
बतला दीजिए हम को रास्ता सीधा. (५) 
रास्ता उन लोगों का जिन पर आप ने इनआम फ़रमाया न कि रास्ता उन लोगों का जिन पर आप का ग़ज़ब किया गया. (६) 
और न उन लोगों का जो रस्ते में गुम हो गए. (७) 
सूरह फ़ातिहा - 1 (पहला पारा) आयतें (1-7)   
कहते है क़ुरआन अल्लाह का कलाम है, मगर इन सातों आयतों पर नज़र डालने के बाद यह बात तो साबित हो ही नहीं सकती कि यह कलाम किसी अल्लाह जैसी बड़ी हस्ती ने अपने मुँह से अदा क्या हो. 
यह तो साफ़ साफ़ किसी बन्दा-ऐ-अदना के मुँह से निकली हुई अर्ज़दाश्त है. 
अल्लाह ख़ुद अपने आप से इस क़िस्म की दुआ मांगे, क्या यह मज़ाक नहीं है? 
या फिर अल्लाह किसी सुपर अल्लाह के सामने गुज़ारिश कर रहा है ? 
अगर अल्लाह इस बात को फ़रमाता तो वह बात इस तरह  होती ----- 
"सब तारीफ़ मेरे लायक़ ही हैं, मैं ही पालनहार हूँ हर हर आलम का. १ 
मैं बड़ा मेहरबान, निहायत रहेम करने वाला हूँ. २ 
मैं मालिक हूँ रोज़े-जज़ा का..३ 
तो मेरी ही इबादत करो और मुझ से ही दरख़्वास्त करो मदद की. ४ 
ऐ बन्दे मैं ही बतलाऊँगा तुझ को सीधा रास्ता . 5 
रास्ता उन लोगों का जिन पर हम नें इनआम फ़रमाया .६ 
न कि रास्ता उन लोगों का जिन पर हम ने ग़ज़ब किया और न उन लोगों का जो रस्ते से गुमहुए. 7" 
मगर,
 अगर अल्लाह इस तरह  से बोलता तो ख़ुद साख़्ता रसूल की गोट फँस गई होती 
और इन्हें पसे परदा अल्लाह बन्ने में मुश्किल पेश आती. 
बल्कि ये कहना दुरुस्त होगा कि मुहम्मद क़ुरआन को अल्लाह का कलाम ही न बना पाते, 
क्यूँकि ऐसे बड़ बोले अल्लाह को मानता कोई न जो ख़ुद अपने मुँह से अपनी तारीफ़ झाड़ रहा हो.
इस सिलसिले में इस्लामीं ओलिमा इस बात की यूँ रफ़ू गरी करते हैं कि - - -
क़ुरआन में अल्लाह कभी ख़ुद अपने मुँह से कलाम करता है, 
कभी बन्दे की ज़बान से. यह अल्लाह का अंदाज़-बयान है.
याद रखे कि ख़ुदाए बरतर के लिए ऐसी कोई मजबूरी नहीं होनी चाहिए .
कि वह अपने बन्दों को वहम में डालता और ख़ुद अपने सामने गिड़गिड़ाता. 
उसकी क़ुदरत तो ला होगी अगर वह है.
ग़ौर करें पहली आयत----
कहता है --- 
सब अल्लाह के ही लायक़ हैं जो मुरब्बी हैं हर हर आलम के. (१) 
अल्लाह मियाँ! अपने मुँह मियाँ मिट्ठू ? अच्छी बात नहीं, भले ही आप अल्लाह जल्ले शानाहू हों. 
प्राणी की परवरिश अगर आप अपनी तारीफ़ करवाने के लिए कर रहे हैं तो बंद करें पालन हारी. 
वैसे भी आप की दुन्या में लोग दुखी ज़्यादा और सुखी कम हैं. 
दूसरी आयत पर आइए-----
जो बड़े मेहरबान है, निहायत रहेम वाले हैं. (२) 
आप न मेहरबान हैं, न रहेम वाल, यह आगे चल कर क़ुरआनी  आयतें चीख़ चीख़ कर गवाही देंगी, 
आप बड़े मुन्तक़िम ज़रूर हैं और बे क़ुसुर अवाम का जीना हराम किए रहते हैं. 
तीसरी आयत ---
जो मालिक हैं रोज़ जज़ा के. (३) 
यौमे जज़ा (प्रलय दिवस) यहूदियों की कब्र गाह से बर आमद की गई रूहानियत की लाश, 
जिस को ईसाइयत ने बहुत गहराई में दफ़न कर दिया था,  
इस्लाम की हाथ लग गई, 
जिसे मुहम्मद ने अपनी धुरी बनाई. 
मुसलमानों की ज़िंदगी का मक़सद यह ज़मीन नहीं, 
वह आसमान की तसव्वुराती दुनिया है, 
जो यौमे-जज़ा के बाद मिलनी है. 
क़यामत नामा क़ुरआन पढ़ें. 
दर अस्ल मुसलमान यहूदियत को जी रहा है. 
चौथी आयत 
हम सब ही आप की इबादत करते हैं, और आप से ही दरख़्वास्त मदद की करते हैं. (४) 
नातवाँ के मुंह से जल्ले जलाल्लाहू क्या मज़ाक़ है ?
*पाँचवीं आयत 
बतला दीजिए हम को रास्ता सीधा. (५) 
अल्लाह अपने आप से या अपने सुपर अल्लाह से पूछता है कि 
बतला दीजिए हमको सीधा रास्ता. 
क्या अल्लाह टेढ़े रास्ते भी बतलाता है? 
यक़ीनन, आगे आप देखेंगे कि क़ुरानी अल्लाह किस क़द्र अपने बन्दों को टेढ़े रास्तों पर गामज़न कर देता है जिस पर लग कर मुसलमान गुमराह हैं.
क़ुरआन का क़ौल है 
"अल्लाह जिस को चाहे गुमराह करे," 
कूढ़ मगज़ मुसलमान कभी इस पर ग़ौर नहीं करता कि यह शैतानी हरकत इस का अल्लाह क्यों करता है? कहीं दाल में कुछ काला तो नहीं है ? 
छटी आयत 
रास्ता उन लोगों का जिन पर आप ने इनआम फ़रमाया न कि रास्ता उन लोगों का जिन पर आप का ग़ज़ब किया गया. (६) 
यहाँ इब्तेदा में ही मैं आप को उन हस्तियों का नाम बतला दें जिन पर अल्लाह ने करम फ़रमाया है, 
आगे काम आएगा क्यूं कि क़ुरआन  में सैकड़ों बार इन नामों को दोहराया गया है. 
यह नाम हैं---
इब्राहीम, इस्माईल, इस्हाक़, लूत, याक़ूब , यूसुफ़, मूसा, दाऊद, सुलेमान, ज़कर्या, मरयम, ईसा अलैहिस्सलामान वग़ैरह वग़ैरह.
 याद रहे यह हज़रात सब पाषण युग के हैं, जब इंसान कपड़े और जूते पहेनना सीख रहा था 
छटी आयत ग़ौर तलब है कि अल्लाह ग़ज़ब ढाने वाला भी है. 
अल्लाह और अपने मख़लूक़  पर ग़ज़ब भी ढाए? 
सब तो उसी के बनाए हुए हैं बग़ैर उसके हुक्म के पत्ता भी नहीं हिलता, इंसान की क्या मजाल? 
उसने इंसान को ऐसा क्यूं बनाया की ग़ज़ब ढाने की नौबत आ गई?
सातवीं आयत 
अल्लाह अपने आप से दुआ गो है कि 
न उन लोगों का रास्ता  बतलाना`जो रास्ता गुम हुए. 
रास्ता गुम शुदा के भी चंद नाम हैं---
आजर, समूद, आद, फ़िरौन, वग़ैरह. इन का भी नाम क़ुरआन  में बार बार आता है. 
क़ुरआन अपने यहूदी और ईसाई मुरीदों की मालूमाती मदद में रद्दो बदल करके, 

यह किसी अल्लाह का कलाम नहीं, उम्मी और नीम शाएर मुहम्मद का कलाम है. 
इस की हक़ीक़त हर ख़ास ओ आम क़ुरआनी विद्वान को मालूम है, 
मगर वह सब के सब बे ईमान लोग हैं. 
क़ुरआन का दारोग़ ही उनकी रोज़ी रोटी है.
यह सूरह फ़ातेहा की सातों आयतें कलाम-इलाही बन्दे के मुंह से अदा हुई हैं. 
यह सिलसिला बराबर चलता रहेगा, अल्लाह कभी बन्दे के मुंह, से बोलता है, 
कभी मुहम्मद के मुंह से, तो कभी ख़ुद अपने मुंह से. 
माहरीन दलाल ए  क़ुरआन, ओलिमा इस को अल्लाह के गुफ़्तुगू का अंदाजे बयान बतलाते हैं, 
मगर माहरीन-ज़बान इंसानी इस को एक उम्मी जाहिल का पुथन्ना क़रार देते हैं. 
जिस को मुहम्मद ने वज्दानी कैफ़ियत में गढ़ा है. 
मुहम्मद को जब तक याद रहता है कि वह अल्लाह की ज़बान से बोल रहे हें तब तक ग्रामर सही रहती है,
जब भूल जाते है तो उनकी अपनी बात हो जाती है. 
यह बहुत मुश्किल भी था की पूरी क़ुरआन अल्लाह के मुंह से बुलवाते. 
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान