Sunday 31 January 2021

>मुज्रिमाने-दीन

>मुज्रिमाने-दीन 

मुहम्मद पुर अमन तो किसी को रहने ही नहीं देना चाहते थे, 
चाहे वह मुसलमान हो चुके सीधे, टेढ़े लोग हों, चाहे मासूम और ज़हीन काफ़िर.
दुन्या के तमाम मुसलामानों के सामने यह फ़रेबी क़ुरआन के रसूली फ़रमान मौजूद हैं मगर ज़बाने ग़ैर में, जोकि वास्ते तिलावत है.
इस्लाम के मुज्रिमाने-दीन डेढ़ हज़ार साल से इस क़दर झूट का प्रचार कर रहे हैं कि झूट सच ही नहीं बल्कि पवित्र भी हो चुका है,
मगर यह पवित्रता बहर सूरत अंगार पर बिछी हुई राख की परत की तरह है.
अगर मुसलामानों ने आँखें न खोलीं तो वह इसी अंगार में एक रोज़ भस्म हो जाएँगे, उनको अल्लाह की दोज़ख भी नसीब न होगी.
क़ुरआनी आयातों में मुहम्मदी अल्लाह नव मुस्लिम बने लोगों को जेहाद के लिए वर्गलाता है, इनके लिए कोई हद, कोई मंजिल नहीं, बस लड़ते जाओ,
मरो, मारो वास्ते सवाब. 
सवाब ?
एक पुर फ़रेब तसव्वुर, एक कल्पना,  मफ़रूज़ा जन्नत, ख़यालों में बसी हूरें और लामतनाही ऐश की ज़िन्दगी जहाँ शराब, क़बाबऔर शबाब मुफ़्त, 
बीमारी आज़ारी का नमो निशान नहीं.
कौन बेवक़ूफ़ इन बातों का यक़ीन करके इस दुन्या की अज़ाबी ज़िन्दगी से नजात न चाहेगा? हर बेवक़ूफ़ इस ख़्वाब में मुब्तिला है.
मुहम्मद कहते हैं कि पहला हल तो यहीं दुन्या में धरा हुवा है. 
जंग जीते तो ज़न, ज़र, ज़मीन तुम्हारे क़दमों में, हारे, तो शहीद हुए,
 इस से वहाँ लाख गुना रक्खा है.
अजीब बात है कि ख़ुद मुहम्मद ठाठ बाट की शाही ज़िन्दगी जीना पसंद नहीं करते थे, न महेल, न रानियाँ, पट रानियाँ, न सामाने ऐश.
मरने के बाद विरासत में उनके खाते में बाँटने लायक़ कुछ ख़ास न था.
वह ऐसे भी नहीं थे कि अवामी फ़लाह की अहमियत की समझ रखते हों,
कोई शाह राह बनवाई हो,
कुएँ खुदवाए हों,
मुसाफ़िर ख़ाने तामीर कराए हों,
तालीमी इदारे क़ायम किए हो.
यह काम अगर उनकी तहरीक होती तो आज मुसलामानों की सूरत ही कुछ और होती.
मुहम्मद काफ़िरों, मुशरिकों, यहूदियों, ईसाइयों, आतिश परस्तों और मुल्हिदों के दुश्मन थे, तो मुसलमानों के भी दोस्त न थे.
मामूली इख़्तेलाफ़ पर एक लम्हा में वह अपने साथी मुसलमान को मस्जिद के अन्दर इशारों इशारों में काफ़िर कह देते.
उनके अल्लाह की राह में फ़िराख़ दिली से ख़र्च न करने वाले को जहन्नुमी क़रार दे देते.
उनकी इस ख़सलात का असर पूरी क़ौम पर रोज़े अव्वल से लेकर आज तक है.
उनके मरते ही आपस में मुसलमान ऐसे लड़ मरे की काफ़िरों को बदला लेने की ज़रुरत ही न पड़ी.
गोकि जेहाद इस्लाम का कोई रुक्न नहीं मगर जेहाद क़ुरान का फ़रमान- ए-अज़ीम है जो कि मुसलामानों के घुट्टी में बसा हुवा है. 
क़ुरान मुहम्मद की वाणी है जिसमे उन्हों ने उम्मियत की हर अदा से, 
चाल घात के उन पहलुओं को छुआ है जो इंसान को मुतास्सिर कर सकें.
अपनी बातों से मुहम्मद ने ईसा, मूसा बनने की कोशिश की है, 
बल्कि उनसे भी आगे बढ़ जाने की.
इसके लिए उन्हों ने किसी के साथ समझौता नहीं किया, चाहे सदाक़त हो, चाहे शराफ़त, चाहे उनके चचा और दादा हों, यहाँ तक की चाहे उनका ज़मीर हो.
अपनी तालीमी ख़ामियों को जानते हुए, अपने खोखले कलाम को मानते हुए, 
वह अड़े रहे कि ख़ुद को अल्लाह का रसूल तस्लीम कराना है.
मुहम्मद का अनोखा फ़ार्मूला था लूट मार के माल को ''माले गनीमत'' क़रार देना. यानी इज्तेमाई डकैती को ज़रीया मुआश बनाना. 
इससे बेकारों को रोज़ी मिल गई थी. बाक़ी  दुन्या मुसलमान ग़ालिब हो गए थे. आज बाक़ी दुन्या मिल कर मुसलामानों की घेरा बंदी कर रही है,
तो कोई हैरत की बात नहीं.
मुसलमानों को चाहिए कि वह अपने गरेबान में मुँह डाल कर देखें और तर्क इस्लाम करके मज़हबे इंसानियत अपनाएं जो इंसान का असली रंग रूप है. 
सारे धर्म नक़ली रंग व रोग़न में रंगे हुए हैं, सिर्फ और सिर्फ़ इंसानियत ही इंसान का असली धर्म है जो उसके अन्दर ख़ुद से फूटता रहता है.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 29 January 2021

हसन बासरी


हसन बसरी

मानव समाज में कुछ गुमनाम हस्तियाँ ऐसी छाप छोड़ जाती हैं कि उनकी गुमनामी को तलाशते हुए इंसानियत राह ए रास्त तक पहुँच जाती है . 
ऐसे ही थे बसरा के फ़क़ीर, बाग़ी ए इस्लाम हसन बसरी. 
वह मेहनत मज़दूरी करके गुज़ारा करते थे. उनकी समकालीन मशहूर बाग़ी ए इस्लाम राबिया बसरी हुवा करती थीं.
अरब में इस्लाम की दूसरी पीढ़ी का दौर था, सहाबी ए इक्राम (मुहम्मद कालीन) मुहम्मद के साथ ही अल्ला को प्यारे हो चुके थे. ताबेईन (सहबियो के ताबे) का दौर शुरू हो गया था. अल्लाह के रसूल के बाद असामाजिक तत्वों को पूरी आज़ादी मिल चुकी थी.अरब में शरीफ़ और जदीद लोगों की सासें मुहाल थीं. जैसे कि आज भारत में कामरेड, माओ वादी और नक्सली वग़ैरा. 
इसी वक़्त मक्का में इस्लाम के ख़िलाफ़ बग़ावत का एलान हो गया थाऔर टेक्स देना बंद कर दिया था. मक्कियों ने मुहम्मद को अल्लाह का रसूल मानने से इंकार कर दिया था, मगर निरंकार और सिर्फ़ एक अल्लाह को मानने का एतराफ़ ज़रूर कर लिया.
ख़लीफ़ा अबु बक्र ने उनकी बात मान ली थी कि बहर हाल आधे इस्लाम को मान गए थे. "लाइलाहा इल्लिल्लाह."
इसी आतंकी दौर में हसन बसरी का वजूद दहशत गर्दों के चंगुल में था. हालांकि उनकी शख़्सियत इस्लाम पर भारी पड रही थी, आला मुकाम हस्ती जो हुवा करते थे.
बसरा के नव जवानों ने फ़ैसला किया कि बसरा में एक मस्जिद बनवाई जाए. 
कमेटी बनी, तय हुवा कि पहला चंदा बरकत के तौर पर हसन बसरी से लिया जाए.
लोग उनके पास पहुंचे और मुद्दआ बतलाया. फिर चादर फैला कर अर्ज़ किया कि बरकत के तौर पर आप इसमें कुछ डाल दीजिए.
लोगों की फ़रमाइश सुनकर सूफ़ी हसन के चेहरे का रंग उड़ गया था,
उसी पल शागिर्दों ने देखा कि वह कुभला गए थे.
हसन ने बड़ी नक़ाहत के साथ जेब में पड़े एक सिक्के को निकाल कर चादर में डाल दिया जिसकी क़ीमत कम्तरीन सिक्कों में थी.
शाम को कमेटी के लोग उनके पास दोबारः आए और मुआज़रत के साथ हसन का दिया हुआ वह सिक्का उन्हें वापस कर दिया, यह कहते हुए कि सिक्का खोटा है
और आपका ही है कि एक पैसे की अत्या आपके सिवा किसी ने नहीं दिया.
हसन के चेहरे पर उसी वक़्त रौनक आ गई,
वह ख़ुशी से खिल उट्ठे,
हसन के साथी हैरत ज़दा थे.
पूछ ही लिया कि पैसा देते हुए आपकी कैफ़ियत क्या हुई थी ?
और इसकी वापसी पर ख़ुशी की यह लहर ?
सूफ़ी हसन ने कहा कि चंदा देते वक़्त मुझे अपनी कमाई पर शक हुवा
कि मैं ने कहीं पर काम चोरी तो नहीं की ?
कि मेरी कमाई पानी और मिटटी में मिलने जा रही है ?
पैसा वापस हुवा तो मेरी बेचैनी ख़त्म हुई.
उनहोंने कहा यह पैसा मुझे कल की मजदूरी में फलां शख़्स ने दिया था,
जाकर उसकी ख़बर लेता हूँ .
यह थी एक मोमिन ही अज़मत जो ईमान की ज़िन्दगी जीता था.
और इस्लामी गुंडों से छिपा छिपा फिरता था.
एक बार हसन बसरी दीवाना वार भागे चले जा रहे थे,
उनके एक हाथ में जलती हुई मशाल थी और दूसरे हाथ में पानी भरा लोटा.
लोगों ने रोका और पूछा, कहाँ जा रहे हो हसन ?
हसन बोले, जा रहा हूँ उस जन्नत में आग लगाने जिसकी लालच में लोग नमाज़ पढ़ते हैं - - - और जा रहा हूँ उस दोज़ख में पानी डालने जिसके डर से लोग नमाज़ पढ़ते हैं.
बहुत बड़ा फ़लसफ़ा है कि कायनात में डूब कर सच्चाइयों को तलाशा जाए.
लालच और भय से मुक्त.
जैसे कि हमारे वैज्ञानिक करते हैं,
उन्हों ने दुन्या को गुफाओं से उठाकर शीश महल में रख दिया है.
जिंदा संत हाकिन इसकी मिसाल है.
 ***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 28 January 2021

सत्य का दास


सत्य  का दास 

अल्लाह, गाड और भगवान् 
अगर इंसान किसी अल्लाह, गाड या  भगवान को नहीं मानता तो 
सवाल उठता है कि वह इबादत और आराधना किसकी करता होगा ? 
मख़लूक़ (जीव) फ़ितरी तौर पर किसी न किसी की आधीन होना चाहती है. 
एक चींटी अपने रानी के आधीन होती है, 
तो एक हाथी अपने झुण्ड के सरदार हाथी या पीलवान का अधीन होता है. 
कुत्ते अपने मालिक की सर परस्ती चाहते है, 
तो परिंदे अपने जोड़े पर मर मिटते हैं. 
इन्सान की क्या बात है, उसकी हांड़ी तो भेजे से भरी हुई है, 
हर वक्त मंडलाया करती है, 
नेकियों और बदियों का शिकार किया करती है.
शिकार, शिकार और हर वक़्त शिकार, 
इंसान अपने वजूद को ग़ालिब करने की उड़ान में हर वक़्त 
दौड़ का खिलाडी बना रहता है,
मगर बुलंदियों को छूने के बाद भी वह किसी की अधीनता चाहता है.
सूफ़ी तबरेज़ अल्लाह की तलाश में इतने गहराई में गए कि 
उसको अपनी ज़ात के आलावा कुछ न दिखा, 
उसने अनल हक (मैं खुदा हूँ) कि सदा लगाई, 
इस्लामी शाशन ने उसे टुकड़े टुकड़े कर के दरिया में बहा देने की सज़ा दी. 
मुबालग़ा ये है कि उसके अंग अंग से अनल हक़ की सदा निकलती रही.
कुछ ऐसा ही गौतम के साथ हुवा कि 
उसने भी भगवन की अंतिम तलाश में ख़ुद को पाया और
" आप्पो दीपो भवः " का नारा दिया.
मैं भी किसी के आधीन होने के लिए बेताब था, 
ख़ुदा की शक्ल में मुझे सच्चाई मिली और मैंने उसमे जाकर पनाह ली.
कानपूर के 92 के दंगे में, मछरिया की हरी बिल्डिंग मुस्लिम परिवार की थी, 
दंगाइयों ने उसके निवासियों को चुन चुन कर मारा, मगर दो बन्दे उनको न मिल सके, जिनको कि उन्हें ख़ास कर तलाश थी. 
पड़ोस में एक हिन्दू बूढ़ी औरत रहती थी, 
भीड़ ने कहा इसी घर में ये दोनों शरण लिए हुए होंगे, 
भीड़ ने आवाज़ लगाई, घर की तलाशी लो. 
घर की मालिकन बूढी औरत अपने घर की मर्यादा को ढाल बना कर 
दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई. 
उसने कहा कि मजाल है मेरे जीते जी मेरे घर में कोई घुस जाए, 
रह गई बात कि अन्दर मुसलमान हैं ? 
तो मैं ये गंगा जलि सर पर रख कर कहती हूँ कि 
मेरे घर में कोई मुसलमान नहीं है. 
बूढी औरत ने झूटी क़सम खाई थी, 
दोनों व्यक्ति घर के अन्दर ही थे, 
जिनको उसने मिलेट्री आने पर उसके हवाले किया. 
ऐसे झूट का भी मैं अधीन हूँ.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 27 January 2021

दो+दो=चार. न तीन, न पांच


दो+दो=चार. न तीन, न पांच

मक्र कभी हक़ीक़त का सामना नहीं कर सकता, 
मुहम्मद आलमे-इंसानियत के बद तरीन मुजरिम हैं.
ख़ुदा के लिए अपने आप को और अपनी औलादों को आने वाले वक़्त से बचाओ. 
अभी सवेरा है, वरना अपनी नस्लों को मुहम्मद के किए धरे की सज़ा भुगतने के लिए तैयार रख्खो. 
तुमको छूट है कि मोमिन बन के अपने बुज़ुर्गों की भूल की तलाफ़ी करो.
मुसलमानो ! 
ईमान दार मोमिन ही क़ुरआन की सही तर्जुमानी कर सकता है, 
ये ज़मीर फ़रोश ओलिमा सच बोलने की हिम्मत भी नहीं कर सकते. 
क़ुरआन में फ़र्ज़ी वाक़िये और नामुकम्मल ग़ुफ़्तगू में आलिम ने क्या क्या न आरिफ़ाना (आध्यात्मिक) मिर्च मसालों की छ्योंक बघारी हैं कि 
पढ़ कर दिल मसोसता है. 
तुम जागो, जग कर मोमिन हो जाओ, 
मोमिन का ईमान ही इंसान का मुकम्मल मज़हब है, 
जिसका कोई झूठा पैग़म्बर नहीं, 
कोई चाल-घात की बातें नहीं, सीधा सादा एलान कि 2+2=4 होता है, 
न तीन और न पाँच. 
फूल में ख़ुशबू होती है, इसे किसने पैदा किया? 
इसकी तलाश में मत जाओ कि तुम्हारी तलाश की राह में 
कोई मुहम्मद बना हुवा पैग़म्बर बैठा होगा. 
बहुत से सवाल, जवाब नहीं रखते, 
कि वक़्त कब शुरू हुआ था? कब ख़त्म होगा? 
सम्तें (दिशाएँ) कहाँ से शुरू होती हैं, कहाँ ख़त्म होंगी? 
इन सवालों को ज़मीन की दीगर मख़लूक़ की तरह सोचो ही नहीं. 
फ़ितरत की इस दुन्या में चार दिन के लिए आए हो, 
फ़ितरी ज़िन्दगी जी लो.
तुम्हें सुलाए हुए हैं. जागो, आँखें खोलो. 
मुसलमानों ,
इक्कसवीं सदी की सुब्ह हुए देर हुई, 
देखो कि ज़माना चाँद सितारों पर सीढियां लगा रहा है. 
कल जब यह ज़मीन सूरज के गोद में चली जाएगी तो बाक़ी लोग अपनी अपनी नस्लों को लेकर उस सय्यारे पर बस जाएँगे और तुम्हारी नस्लें कहीं की न होंगी. 
तुम समझते हो कि तुम हक़ बजानिब हो? 
तो तुम बहके हुए हो. तुमको बहकाए हुए हैं, इस्लामी ओलिमा, 
जिनका कि ज़रीआ मुआश ही इस्लाम है. 
इनका पूरा माफ़िया लामबंद है. 
इनकी पकड़ सीधे सादे मुसलमानों को अपनी मुट्ठी में दबोचे हुए है. 
ज़रा सर उठा कर तो देखो, इनके एजेंट तुम को फ़तवा देना शुरू कर देंगे, 
समाज में इनके इस्लामी गुंडे तुम्हारे बग़ल में ही बैठे होंगे, 
तुम को अलावा समझाने बुझाने के ये और कोई राय नहीं देंगे.
हर एक का मुआमला पेट से जुड़ा हुवा है यह तो तुम मानते हो ? 
वह भी मजबूर हैं कि उनकी रोज़ी रोटी है, 
गोरकुन की तरह. कोई मुक़र्रिर बना हुवा है, कोई मुफ़क्किर, 
कोई प्रेस चला कर, इस्लामी किताबों की इशाअत और तबाअत कर रहा है.
जो उसकी रोज़ी है, 
कोई नमाज़ पढ़ाने के काम पर, तो कोई अज़ान देने का मुलाज़िम है, 
मीडिया वाले भी ओलिमा को बुला कर तुम्हें आकर्षित करते हैं 
ताकि चैनल के शाख़ उरूज पाए.
यह सब मिल कर तुम्हें सुलाए हुए हैं. 
कोई जगाने वाला नहीं हैं. 
तुम ख़ुद आँखें खोलनी होगी.
नोट :-
मेरे हिंदी लेख ख़ास कर उन मुस्लिम नव जवानो के लिए होते हैं जो उर्दू नहीं जानते . 
अगर इसे ग़ैर मुस्लिम भी पढ़ें तो अच्छा है, हमें कोई एतराज़ नही , 
बस इतनी ईमान दारी के साथ कि अपने गरेबान में मुंह डाल कर देखें 
कि कहीं उनके धर्म में भी कोई मानवीय मूल्य आहत तो नहीं होते. धन्यवाद .
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 26 January 2021

इनसे मुंह फेरिए - -


इनसे मुंह फेरिए - -

मुसलमानों को अँधेरे में रखने वाले इस्लामी विद्वान, मुस्लिम बुद्धि जीवी और क़ौमी रहनुमा, समय आ गया है कि अब जवाब दें- - -
 लाखों, करोरों, अरबों बल्कि उस से भी कहीं अधिक बरसों से इस ब्रह्मांड का रचना कार अल्लाह क्या चौदह सौ साल पहले केवल तेईस साल चार महीने (मोहम्मद का पैगम्बरी काल) के लिए अरबी जुबान में बोला था ?
वह भी मुहम्मद से सीधे नहीं, किसी तथा फ़रिश्ता जिब्रील के माध्यम से,
वह भी बाआवाज़ बुलंद नहीं काना-फूसी कर के ?
मुहम्मद से उनकी बीवियाँ और जनता कहती रही कि जिब्रील आते हैं तो सब को दिखाई क्यूँ नहीं पड़ते? 
उनकी उचित मांग थी और मोहम्मद बहाने बनाते रहे.
क्या उसके बाद अल्लाह को साँप सूँघ गया कि स्वयंभू अल्लाह के रसूल की मौत के बाद उसकी बोलती बंद हो गई ? 
और जिब्रील अलैहिस्सलाम मृत्यु लोक को सिधार गए ? 
उस महान रचना कार के सारे काम तो बदस्तूर चल रहे हैं, 
मगर झूठे अल्लाह और उसके रसूल के छल में आ जाने वाले लोगों के काम चौदह सौ सालों से रुके हुए हैं, 
मुस्लमान वहीँ अटका हुआ है जहाँ सदियों पहले था, 
उसके हम रकाब यहूदी, ईसाई और दीगर क़ौमें मुसलमानों को सदियों पीछे अतीत के अंधेरों में छोड़ कर प्रकाश मय संसार में बढ़ गए हैं.
हम मोहम्मद की गढ़ी हुई जन्नत के लिए वजू, रुकू और सजदे में लिप्त है.
मुहम्मदी अल्लाह मुहम्मद के बाद क्यूँ मुसलमानों में किसी से वार्तालाप नहीं कर रहा है ? 
जो वार्ता उसके नाम से की गई है उस में कितना दम है?
ये सवाल तो आगे आएगा जिसका वाजिब उत्तर इन बदमाश आलिमो को देना होगा.... मुसलमानो !क़ुरआन का पोस्ट मार्टम खुली आँख से देखें
आप जागें, मुस्लिम से मोमिन हो जाएँ और ईमान की बात करें. अगर ज़मीर रखते हैं तो सदाक़त अर्थात सत्य को ज़रूर समझेंगे.
और अगर इसलाम की कूढ़ मग़ज़ी ही ज़ेह्न में समाई है तो जाने दीजिए अपनी नस्लों को तालिबानी जहन्नम में ,
जिन ग़लाज़तों में आप सने हुए हैं उसे ईमान के सच्चे साबुन से धोइए और पाक ज़ेहन के साथ ज़िंदगी का आग़ाज़ करिए. ग़लाज़त भरे पयाम आपको मुख़ातिब करते हैं इन्हें सुनकर इनसे मुंह फेरिए - - -  
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 25 January 2021

हिन्दू कुश


हिन्दू कुश 

हिदुस्तान का इतिहास आज बड़े नाज़ुक मोड़ पर आकर खड़ा हुआ है. 
एक बड़े इंक़लाब की आमद आमद है. 
नाज़ी वाद ने फिर सर उठाया हुआ है. 
मनुवाद ने अवाम को चरका देकर इक़तेदार पर क़ब्ज़ा कर लिया है. 
मनुवादी निज़ाम की झलकियाँ झलकने लगी हैं. 
देश 3.५ % बरहमन जिनका केवल 10 % ही साज़िशी हैं, 
बाक़ी 90% सीधे सादे अवाम हैं. 
यही मुट्ठी भर लोग  इंसानियत के दुश्मन पूरे तालाब को गन्दा किए हुए हैं. 
फिर एक बार यह साज़िशी, वह समय लाना चाहते हैं कि लोग इनके ग़ुलाम हों जाएँ, 
आज ओरिजनल मनु वाद की पुस्तक मनु स्मृति भारत की बाज़ारों से ग़ायब है जो १९६० तक गीता प्रेस गोरखपुर जनता को उपलब्ध कराती थी. 
मनु वाद की नियमावली के तहत सारा धन, बल और साधन बरह्मनो का है. 
उनके तुफ़ैल (सौजन्य) में ही किसी दूसरे को कुछ मिल सकता है. 
यहाँ तक कि शूद्रों की लड़कियों का गौना तीन दिन किसी बरहमन के हरम से होकर गुज़रता था. 
शूद्रों को मिटटी के बर्तन, वह भी टूटे हुए, में खाने का हुक्म था. 
बरहमन की लाठी सर से एक बीता ऊंची, ठाकुर की क़द बराबर, बनियों की क़द से एक बालिश्त कम और शूद्रों को केवल सोटा रखने का हुक्म था. 
अलने बच्चों के नाम भी शूद्र कलुवा ललुवा बुधवा जैसे अपमान जनक रख सकते थे. पूरी किताब मनु स्मृति ऐसे क़ानून से भरी हुई है.
आज जब मैं जब मनुवादी लिखता हूँ तो मेरा आशय किसी ज़ात बरहमन, क्षत्री या वैश से नहीं होता बल्कि मनुवाद की सोच को पालने वाले व्यक्ति से होता है. 
आज इन बिरादरियों में क़ाबिल ए क़द्र लोग मौजूद हैं. 
गांधी बनिया थे तो विश्व नाथ प्रताप सिंह ठाकुर और नेहरु पंडित, 
जिन पर मैं न्योछावर जाऊं. 
ऐसे ही घृणित राम विलास पासबान और माया वती जैसे शूद्र भी हैं 
जो मनुवादी हो गए हैं.
हज़ारों साल पहले स्वर्ण आर्यन यूरेशिया से आए हुए माने जात्ते हैं. 
हिष्ट पुष्ट सफ़ैद रंगत की यह मानव प्रजाति 
छल और बल पूर्वक भारत के मूल निवास्यों पर ग़ालिब होते गए. 
दो ढाई सौ वर्ष ईसा पूर्व, यह मानव प्रजाति भारत इतिहास के पन्नो में आई. 
कुछ इतिहास कर लिखते हैं कि ये मूल निवासी रूस के थे. 
यह हज़ारों साल तक पूरब में एशिया और पश्चिम में योरोप तक फैलते गए. 
शांति स्वभाव मानव जाति में यह उत्पाती समूह क़ब्ज़ा करता गया. 
ऐसे ही प्रविर्ति के इस्राईली भी हुवा करते थे, 
कुछ खोजी इतिहास कार आर्यन और इस्रईलियों को एक ही मानते हैं, 
कुछ अलग. जो भी हो, दोनों की मानसिकता एक है. 
आर्यन बरहमन ख़ुद को ब्रह्मा के मुख पुत्र मानते है 
और यहूदियों का अपना ख़ुदा होता है 
जिसने उनसे वादा किया है कि एक दिन तुम पूरी दुन्या के शाशक होगे. 
दोनों में एक बात यकसां है कि दोनों नसलन होते हैं. 
ठाकुर चाहे तो बरहमन नहीं बन सकता, 
फिलिस्ती चाहे तो कभी यहूदी नहीं बन सकता. 
यही इनकी ख़ूबी कहें या ख़ामी, इन को दुन्या में रुसवा किए हुए है. 
5000 साल से यहूदियों का को देश नहीं बन पाया, 
अब इस्राईल वजूद में आया है,  
देखिए कब तक क़ायम रहता है. 
इसी तरह बरहमन धर्म मनुवाद पूरे एशिया पर छा जाने के बाद आज  
हिन्द और नेपाल में इसकी दुर्गन्ध बची हुई है. 
बाकी एशिया में इनके प्रताड़ित बौध आबाद हैं या इनके धुर विरोधी मुसलमान. 
मैं मानता हूँ कि आज इस्लाम रुस्वाए ज़माना है मगर 1400 सौ साल पहले यह इंक़लाब बन कर दुन्या पर छा गया था. 
मनुवाद और यहूदियत के ग़लबे में फंसे हुए मानव समाज में एक लाख़ैरे अनपढ़ ग़रीब ने ख़ुद को अल्लाह का दूत घोषित करके ग़रीब अवाम को आवाज़ दी कि तुम भी इंसान हो, तुम्हारे भी इस ज़माने में कुछ हुक़ूक़ है. 
इस की तहरीक ने देखते ही देखते आधी दुन्या पर क़ब्ज़ा कर लिया. 
इसका पैग़ाम था हुक़ूक़ुल इबाद का, यानी हर बन्दे का हक़ अदा होना, 
सिर्फ़ बरह्मनो और यहूदियों का नहीं. 
नतीजतन पूर्वी एशिया के मलेशिया, इंडोनेशिया से लेकर पश्चिमी एशिया ईरान और अफ़ग़ानिस्तान तक इस्लामी नीम साम्यवाद का ग़लबा हो गया. 
अफ़ग़ानिस्तान से लेकर ताजिकिसतान किर्गिसतान, काराकोरम, पामीर और चीन तक फैला हुआ 800 किलोमीटर लंबा और चार किलोमीटर चौड़ा पहाड़ी सिलसिला हिदू कुश बन गया, जहाँ मनु वाद और मनुराज का नाम व निशान भर बाक़ी हैं. 
 धरती का यह हिस्सा कभी मनु वाद का गढ़ हुआ करता था. 
आज फिर मनुवाद ने अंगडाई ली है, 
कहीं अंजाम में उसे दूसरा हिन्दू कुश न मिले.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 24 January 2021

मुस्लिम - - - किताबुल हुदूद


मुस्लिम - - - किताबुल हुदूद

मख़ज़ूमी क़बीले की एक ख़ातून को मुहम्मद ने चोरी के जुर्म में पकड़ा और ख़ुद उसका हाथ अपने हाथों से क़लम किया.
इसके लिए लोगों ने काफ़ी कोशिश की कि ख़ातून एक मुअज़ज़िज़ क़बीले की फ़र्द थीं और चोरी बहुत मामूली थी, लोगों ने मुहम्मद के चहीते ओसामा से भी सिफ़ारिश कराई मगर मुहम्मद न म़ाने.
बोले शरीफ़ को सज़ा न दी जायगी तो रज़ील एतराज़ करेंगे. बरहाल कसाई तबअ मुहम्मद ने उस सिन्फ़ ए नाज़ुक के हाथ कट डाले.
* बड़ा सवाल ये उठता है कि जेहाद के पहाड़ जैसे डाका को वह हक़ बजानिब ठहराते थे और राई जैसी चोरी को बड़ा जुर्म, मुहम्मद को इस जिहादी डाके की सज़ा इनकी सर क़लमी से वसूली जाती, अगर वह किसी डाके में नाकाम होकर गिरफ़्तार होते.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 23 January 2021

तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म)


तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म)

तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) इंसानी ज़ेहन का वह रद्देअमल (प्रतिक्रिया) है जो फ़ितरी (लौकिक) बातों को ही मानता है, ग़ैर फ़ितरी (अलौकिक) दलीलें उसके लिए लामअनी (व्यर्थ) होती हैं.
तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) धर्म व मज़हब के कल्पित ख़ुदाओं और उसके नियम को कूड़ेदान में डालता है. इंसान क़ुदरती तौर पर कभी आसमान में उड़ नहीं सकता, 
अल्लाह के रसूल हज़ार एलान करते रहें, 
पवन सुत हनुमान लाख डींगें मरते रहें, 
तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म), इन बातों पर कभी यक़ीन नहीं कर सकता.
तसव्वुफ़ धार्मिकता से पहले ही वजूद में आ चुका था. 
इस्लाम से पहले ठोस तसव्वुफ़ इस्लाम का असली बैरी था, 
काफ़िर (मूर्ति पूजक) , मुशरिक (अल्लाह के शरीक) मुल्हिद (नास्तिक) यहाँ तक कि बहुत से यहूदी और ईसाई भी मुसलमान बन गए थे 
मगर तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) की सच्चाई लोगों के दिलों से न निकल सकी. 
यहाँ तक कि ख़ुद मुहम्मद सूफ़ी उवैस करनी के मुरीद थे. 
इस तरह तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) इस्लाम में गडमड होता गया. 
इस्लाम का आड़ लेते हुए हज़ारो किताबें हैं जो तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) को फ़रोग़ देती हैं. जब कि इस्लाम इसे हराम क़रार देता है. 
तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) इस्लाम का एक हिस्सा बनता गया और इस्लाम विरोधी भी इस्लाम अपनाते गए, तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) के कशिश में आकर. मुसलमान कहते हैं, 
इस्लाम फैल रहा है, 
ठीक कहते हैं मगर नहीं जानते कि इस्लाम की आड़ में तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) का विस्तार हो रहा है. 
मैं भी कभी कभी तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) की महफ़िल में झूमने लग जाता हूँ. 
सूफ़ियों के क़ौल (क़ववाली) की महफ़िल में सच्चाई का नशा जो होता है. 
हिन्दू धर्म में तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) का कोई स्थान नहीं बल्कि इसकी कल्पना भी नहीं. इस्लाम के आने के बाद ही इसमें सूफ़ी नुमा संत पैदा हुए. 
हिन्दुओं में तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) के स्थान पर 
"भक्ति" का चलन ज़्यादा देखने को मिलता है 
जो मानव मूल्यों को और भी संकुचित और संकीर्ण करता है.
यह मसाइल ए तसववुफ़ यह तेरा बयान ग़ालिब,
तुझे हम वली समझते जो न बादा ख्वार होता. 
तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) के मसाइल (समस्याएँ) ही अलग होते हैं, 
कि वहां सदाक़त (सत्य) के सिवा कोई मसअला ही नहीं. 
तसव्वुफ़ (सूफ़िज़्म) की पैरवी में ही लोग मुझे कभी कट्टर मुसलमान 
और कभी पक्का काफ़िर समझने लगते हैं.
हिन्दू के लिए मैं इक, मुस्लिम ही हूँ आख़िर,
मुस्लिम ये समझते हैं, गुमराह है काफ़िर,
इंसान भी होते हैं, कुछ लोग जहाँ में,
ग़फ़लत में हैं यह दोनों, समझाएगा 'मुनकिर'.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 22 January 2021

सदाक़त की चिंगारी


सदाक़त की चिंगारी
 
आज क़ुरआनी बातों से क्या एक दस साल के बच्चे को भी बहलाया जा सकता है? मगर मुसलमानों का सानेहा है कि एक जवान से लेकर बूढ़े तक इसकी आयतों पर ईमान रखते हैं. वह झूट को झूट और सच को सच मान कर अपना ईमान कमज़ोर नहीं करना चाहते, वह कभी कभी माहौल और समाज को निभाने के लिए मुसलमान बने रहते है. वह इन्हीं हालत में ज़िन्दगी बसर कर देना चाहते है. ये समझौत इनकी ख़ुद ग़रजी है , वह अपने नस्लों के साथ गुनाह कर रहे है, इतना भी नहीं समझ पाते. इनमें बस ज़रा सा सदाक़त की चिंगारी लगाने की ज़रुरत है. फिर झूट के बने इस फूस के महल में ऐसी आग लगेगी कि अल्लाह का जहन्नुम जल कर ख़ाक हो जाएगा.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 21 January 2021

सन बसरी


हसन बसरी

मानव समाज में कुछ गुमनाम हस्तियाँ ऐसी छाप छोड़ जाती हैं कि उनकी गुमनामी को तलाशते हुए इंसानियत राह ए रास्त तक पहुँच जाती है . 
ऐसे ही थे बसरा के फ़क़ीर, बाग़ी ए इस्लाम हसन बसरी. 
वह मेहनत मज़दूरी करके गुज़ारा करते थे. उनकी समकालीन मशहूर बाग़ी ए इस्लाम राबिया बसरी हुवा करती थीं.
अरब में इस्लाम की दूसरी पीढ़ी का दौर था, सहाबी ए इक्राम (मुहम्मद कालीन) मुहम्मद के साथ ही अल्ला को प्यारे हो चुके थे. ताबेईन (सहबियो के ताबे) का दौर शुरू हो गया था. अल्लाह के रसूल के बाद असामाजिक तत्वों को पूरी आज़ादी मिल चुकी थी.अरब में शरीफ़ और जदीद लोगों की सासें मुहाल थीं. जैसे कि आज भारत में कामरेड, माओ वादी और नक्सली वग़ैरा. 
इसी वक़्त मक्का में इस्लाम के ख़िलाफ़ बग़ावत का एलान हो गया थाऔर टेक्स देना बंद कर दिया था. मक्कियों ने मुहम्मद को अल्लाह का रसूल मानने से इंकार कर दिया था, मगर निरंकार और सिर्फ़ एक अल्लाह को मानने का एतराफ़ ज़रूर कर लिया.
ख़लीफ़ा अबु बक्र ने उनकी बात मान ली थी कि बहर हाल आधे इस्लाम को मान गए थे. "लाइलाहा इल्लिल्लाह."
इसी आतंकी दौर में हसन बसरी का वजूद दहशत गर्दों के चंगुल में था. हालांकि उनकी शख़्सियत इस्लाम पर भारी पड रही थी, आला मुकाम हस्ती जो हुवा करते थे.
बसरा के नव जवानों ने फ़ैसला किया कि बसरा में एक मस्जिद बनवाई जाए. 
कमेटी बनी, तय हुवा कि पहला चंदा बरकत के तौर पर हसन बसरी से लिया जाए.
लोग उनके पास पहुंचे और मुद्दआ बतलाया. फिर चादर फैला कर अर्ज़ किया कि बरकत के तौर पर आप इसमें कुछ डाल दीजिए.
लोगों की फ़रमाइश सुनकर सूफ़ी हसन के चेहरे का रंग उड़ गया था,
उसी पल शागिर्दों ने देखा कि वह कुभला गए थे.
हसन ने बड़ी नक़ाहत के साथ जेब में पड़े एक सिक्के को निकाल कर चादर में डाल दिया जिसकी क़ीमत कम्तरीन सिक्कों में थी.
शाम को कमेटी के लोग उनके पास दोबारः आए और मुआज़रत के साथ हसन का दिया हुआ वह सिक्का उन्हें वापस कर दिया, यह कहते हुए कि सिक्का खोटा है
और आपका ही है कि एक पैसे की अत्या आपके सिवा किसी ने नहीं दिया.
हसन के चेहरे पर उसी वक़्त रौनक आ गई,
वह ख़ुशी से खिल उट्ठे,
हसन के साथी हैरत ज़दा थे.
पूछ ही लिया कि पैसा देते हुए आपकी कैफ़ियत क्या हुई थी ?
और इसकी वापसी पर ख़ुशी की यह लहर ?
सूफ़ी हसन ने कहा कि चंदा देते वक़्त मुझे अपनी कमाई पर शक हुवा
कि मैं ने कहीं पर काम चोरी तो नहीं की ?
कि मेरी कमाई पानी और मिटटी में मिलने जा रही है ?
पैसा वापस हुवा तो मेरी बेचैनी ख़त्म हुई.
उनहोंने कहा यह पैसा मुझे कल की मजदूरी में फलां शख़्स ने दिया था,
जाकर उसकी ख़बर लेता हूँ .
यह थी एक मोमिन ही अज़मत जो ईमान की ज़िन्दगी जीता था.
और इस्लामी गुंडों से छिपा छिपा फिरता था.
एक बार हसन बसरी दीवाना वार भागे चले जा रहे थे,
उनके एक हाथ में जलती हुई मशाल थी और दूसरे हाथ में पानी भरा लोटा.
लोगों ने रोका और पूछा, कहाँ जा रहे हो हसन ?
हसन बोले, जा रहा हूँ उस जन्नत में आग लगाने जिसकी लालच में लोग नमाज़ पढ़ते हैं - - - और जा रहा हूँ उस दोज़ख में पानी डालने जिसके डर से लोग नमाज़ पढ़ते हैं.
बहुत बड़ा फ़लसफ़ा है कि कायनात में डूब कर सच्चाइयों को तलाशा जाए.
लालच और भय से मुक्त.
जैसे कि हमारे वैज्ञानिक करते हैं,
उन्हों ने दुन्या को गुफाओं से उठाकर शीश महल में रख दिया है.
जिंदा संत हाकिन इसकी मिसाल है.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 20 January 2021

अल्लाह की २+२+५


अल्लाह की २+२+५

हलाकू के समय में अरब दुन्या का दमिश्क़ शहर इस्लामिक माले ग़नीमत से खूब फल फूल रहा था. ओलिमाए दीन (धर्म गुरू)झूट का अंबार किताबों की शक्ल में खड़ा किए हुए थे. हलाकू बिजली की तरह दमिश्क़ पर टूटा, लूट पाट के बाद इन ओलिमाओं की ख़बर ली, सब को इकठ्ठा किया और पूछा 
यह किताबें किस काम आती हैं? जवाब था पढने के. 
फिर पूछा - सब कितनी लिखी गईं? 
जवाब- साठ हज़ार . 
सवाल - - साठ हज़ार पढने वाले ? ? फिर साठ हज़ार और लिखी जाएंगी ???. इस तरह यह बढती ही जाएंगी. 
फिर उसने पूछा तुम लोग और क्या करते हो? 
ओलिमा बोले हम लोग आलिम हैं हमारा यही काम है. 
हलाकू को हलाकत का जलाल आ गया . 
हुक्म हुवा कि इन किताबों को तुम लोग खाओ. 
ओलिमा बोले हुज़ूर यह खाने की चीज़ थोढ़े ही है. 
हलाकू बोला यह किसी काम की चीज़ नहीं है, और न ही तुम किसी कम की चीज़ हो. हलाकू के सिपाहिओं ने उसके इशारे पर दमिश्क़ की लाइब्रेरी में आग लगा दी और सभी ओलिमा को मौत के घाट उतर दिया. आज भी इस्लामिक और तमाम धार्मिक लाइब्रेरी को आग के हवाले कर देने की ज़रुरत है.
क़ज़ज़ाक़ लुटेरे और वहशी अपनी वहशत में कुछ अच्छा भी कर गए
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 19 January 2021

धन्यविवाद योगी जी + मोदी जी.


धन्यविवाद योगी जी + मोदी जी.

अजीब साज़िश है कि अनजाने में योगी महाराज का मुसलमानों के ख़िलाफ़ उठाया गया हर क़दम, मुसलमानों के हक़ में उनकी बेहतरी के लिए होता है, यहाँ तक कि मोदी महान का भी हर इरादा भी.
हज के सफ़र में भारत सरकार ने जो अनुदान (ख़ैरात) रोका है, वह मुसलमानों को ख़ैरात खो़री अथवा दान भक्षक न बन्ने का पैग़ाम देता है. 
एक इस्लामी सूफ़ी कहता है - - - 
"जिस्म पर पहने हुए लिबास में एक गिरह कपड़ा भी अगर मुफ़्त का, चोरी का या ख़ैरात का अगर होता है तो उस बन्दे की नमाज़ अल्लाह क़ुबूल नहीं करता."
अब आगे ज़रुरत है कि मुसलमानों को हज के फ़ुज़ूल ख़रची से बचाया जाए. 
दुन्या के इतनी बड़ी मुस्लिम आबादी मक्का पहुँच कर शैतान को कंकड़ मरने जाती है ? शैतान तो अल्लाह की तरह ज़मीन पर हर जगह मौजूद है, कहीं भी उसको सजदा किया जा सकता है या कंकड़ मारा जा सकता है. 
मुसलमान हज को फ़ुज़ूल ख़रची मान कर अपनी बचत को अपनी नस्लों को तालीम के मैदान में उतारें, जहाँ कोई रूकावट नहीं. 
बेशक बर्फ़ानी बाबा के बर्फीले तानासुल (लिंग) के दर्शन में मग्न आस्था वानों को वह (मोदी और योगी) बढ़ावा देते रहें और उनको निचोड़ते रहें.  
तीन तलाक़ भी मुस्लिम समाज में मूज़ी बीमारी की तरह फैला हुवा है. इसे भी कोई मोदी ही ख़त्म कर दिया है. इससे मुस्लिम  समाज और मज़बूत होगा और तथा कथित लव जिहाद का चलन और मज़बूत हो जाएगा, हिन्दू लड़कियाँ जल जाने से बेहतर लव जिहाद के मैदान में कूदना पसंद करेंगी.
 मदरसों को MODERN EDUCATIN से सुसज्जित करना तो योगी महाराज का बहुत बड़ा क़दम होगा, बेहतर है कि उनके लौंडे कैलाश पर्बत चढ़ते रहें और कांवड़ ढोते रहें.
लाउड स्पीकर पर पाबंदी, सबसे ज़्यादा हराम खो़र मुल्लों को अपाहिज बनता है जो पाँच वक़्त अज़ान देकर, किसी वक़्त भी तबलीग़ करके जनता के कान खाते हैं मुसलमानों के असली दुश्मन यही हैं, उसके बाद ही पुजारीयों का. 
इस अपराध से मुसलमानों को कोई योगी ही बचा सकता है.  
धन्यविवाद योगी जी + मोदी जी.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 18 January 2021

खेद है कि यह वेद है . . .


वेद दर्शन - - - खेद है कि यह वेद है . . .

हे शूर इंद्र ! तुमने अधिक मात्रा में जल बरसाया, उसी को घृत असुर ने रोक लिया था. तुमने उस जल को छुड़ा लिया था. तुमने स्तुत्यों द्वारा उन्नति पाकर स्वयं को मरण रहित मानने वाले दास घृत को नीचे पटक दिया था.
द्वतीय मंडल सूक्त 11-2
क़ुरआन की तरह वेद को भी हिन्दू समझ नहीं पाते, वह अरबी में है, यह संस्कृत में. ज़रुरत है इन किताबों को लोगों को उनकी भाषा में पढाई जाए और इसे विषयों में अनिवार्य कर दिया जाए जब तक कि विद्यार्थी इसे पढने से तौबा न करले.
*
हे शूर इंद्र ! तुम बार बार सोमरस पियो. मद (होश) करने वाला सोमरस तुमको प्रसन्न करे. सोम तुम्हारे पेट को भर कर तुम्हारी वृध करे. पेट भरने वाला सोम तुम्हें तिरप्त करे. द्वतीय मंडल सूक्त 11-11
सोमरस अर्थात दारू हवन की ज़रूरी सामग्री हुवा करती थी, अब पता नहीं है या नहीं हवन के बाद शराब इन पुरोहितों को ऐश का सामान होती.
*
हे इंद्र ! तुम्हारी जो धनयुक्त स्तोता की इच्छा पूरी करती है, वह हमें प्रदान करो. 
तुम सेवा करने योग्य हो, इस लिए हमारे अतरिक्त वह दक्षिणा किसी को न देना. 
हम पुत्र पौत्रआदि को साथ लेकर यज्ञ में तुम्हारी अधिक स्तुति करेंगे.
द्वतीय मंडल सूक्त 11-21
यह है वेदों की पुजारियों की मानसिता जो आज के समाज में ज़हर कई.
(ऋग्वेद / डा. गंगा सहाय शर्मा / संस्तृत साहित्य प्रकाशन नई दिल्ली )
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 17 January 2021

मुहम्मदुर रसूलिल्लाह (मुहम्मद ईश्वर के दूत हैं)


मुहम्मदुर रसूलिल्लाह
(मुहम्मद ईश्वर के दूत हैं)

मुहम्मद की फ़ितरत का अंदाज़ा क़ुरआनी आयतें निचोड़ कर निकाला जा सकता है कि वह किस कद्र ज़ालिम ही नहीं कितने मूज़ी तअबा शख़्स थे. क़ुरआनी आयतें जो ख़ुद मुहम्मद ने वास्ते तिलावत बिल ख़ुसूस महफ़ूज़ कर दीं, इस एलान के साथ कि ये बरकत का सबब होंगी न कि इसे समझा समझा जाए.
अगर कोई समझने की कोशिश भी करता है तो उनका अल्लाह उस पर एतराज़ करता है कि ऐसी आयतें मुशतबह मुराद (संदिग्ध) हैं जिनका सही मतलब अल्लाह ही जानता है.
इसके बाद जो अदना (सरल) आयतें हैं और साफ़ साफ़ हैं वह अल्लाह के किरदार को बहुत ही ज़ालिम, जाबिर, बे रहम, मुन्तक़िम और चालबाज़ साबित करती है बल्कि अल्लाह इन अलामतों का ख़ुद एलान करता है कि
अगर ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' (मुहम्मद ईश्वर के दूत हैं) को मानने वाले न हुए तो. अल्लाह इतना ज़ालिम और इतना क्रूर है कि इंसानी खालें जला जला कर उनको नई करता रहेगा, इंसान चीख़ता चिल्लाता रहेगा और तड़पता रहेगा मगर उसको मुआफ़ करने का उसके यहाँ कोई जवाज़ नहीं है, कोई कांसेप्ट नहीं है.
मज़े की बात ये कि दोबारा उसे मौत भी नहीं है कि मरने के बाद नजात कि सूरत हो सके, उफ़! इतना ज़ालिम है मुहमदी अल्लाह?
सिर्फ़ इस ज़रा सी बात पर कि उसने इस ज़िन्दगी में ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' क्यूं नहीं कहा. हज़ार नेकियाँ करे इन्सान, कुरआन गवाह है कि सब हवा में ख़ाक की तरह उड़ जाएँगी अगर ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' नहीं कहा क्यों कि हर अमल से पहले ईमान शर्त है और ईमान है ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' .
इस क़ुरआन का ख़ालिक़ कौन है जिसको मुसलमान सरों पर रखते हैं ?
मुसलमान अपनी नादानी और नादारी में यक़ीन करता है कि उसका अल्लाह .
वह जिस दिन बेदार होकर कुरआन को खुद पढ़ेगा तब समझेगा कि इसका खालिक तो दग़ाबाज़ ख़ुद साख़्ता अल्लाह का बना हुवा रसूल मुहम्मद है.
उस वक़्त मुसलमानों की दुन्या रौशन हो जाएगी.
मुहम्मद कालीन मशहूर सूफ़ी ओवैस करनी जिसके तसव्वुफ़ के कद्रदान मुहम्मद भी थे, जिसको कि मुहम्मद ने बाद मौत के अपना पैराहन पहुँचाने की वसीअत की थी, मुहम्मद से दूर जंगलों में छिपता रहता कि इस ज़ालिम से मुलाक़ात होगी तो कुफ्र ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' मुँह पर लाना पड़ेगा.
इस्लामी वक्तों के माइल स्टोन हसन बसरी और राबिया बसरी इस्लामी हाकिमों से छुपे छुपे फिरते थे कि यह ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' को कुफ्र मानते थे.
मक्के के आस पास फ़तेह मक्का के बाद इस्लामी गुंडों का राज हो गया था.
किसी कि मजाल नहीं थी कि मुहम्मद के ख़िलाफ़ मुँह खोल सके .
मुहम्मद के मरने के बाद ही मक्का वालों ने हुकूमत को टेक्स देना बंद कर दिया कि ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' कहना हमें मंज़ूर नहीं
'लाइलाहा इल्लिल्लाह' तक ही सही है.
अबुबकर ख़लीफ़ा ने इसे मान लिया मगर उनके बाद ख़लीफ़ा उमर आए और उन्हों ने फिर बिल जब्र ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' पर अवाम को आमादः कर लिया .
इसी तरह पुश्तें गुज़रती गईं, सदियाँ गुज़रती गईं, जब्र, ज़ुल्म,
ज़्यादती और बे ईमानी ईमान बन गया.
आज तक चौदह सौ साल होने को हैं सूफ़ी मसलक ''मुहम्मदुर रसूल्लिल्लाह'' को मज़ाक़ ही मानता है, वह अल्लाह को अपनी तौर पर तलाश करता है,
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 16 January 2021

बन्दों का हक


बन्दों का हक 

धर्म और ईमान के मुख़्तलिफ नज़रिए और माने अपने अपने हिसाब से गढ़ लिए गए हैं. आज के नवीतम मानव मूल्यों का तकाज़ा इशारा करता है कि धर्म और ईमान हर वस्तु के उसके गुण और द्वेष की अलामतें हैं. 
इस लम्बी बहेस में न जाकर मैं सिर्फ़ मानव धर्म और ईमान की बात पर आना चाहूँगा. मानव हित,जीव हित और धरती हित में जितना भले से भला सोचा और भर सक किया जा सके वही सब से बड़ा धर्म है और उसी कर्म में ईमान दारी है.
वैज्ञानिक हमेशा ईमानदार होता है क्यूँकि वह नास्तिक होता है, इसी लिए वह अपनी खोज को अर्ध सत्य कहता है. वह कहता है यह अभी तक का सत्य है कल का सत्य भविष्य के गर्भ में है.
मुल्लाओं और पंडितों की तरह नहीं कि आखरी सत्य और आख़िरी निज़ाम की ढपली बजाते फिरें. धर्म और ईमान हर आदमी का व्यक्तिगत मुआमला होता है मगर होना चाहिए हर इंसान को धर्मी और ईमान दार, कम से कम दूसरे के लिए. इसे ईमान की दुन्या में ''हुक़ूक़ुल इबाद'' कहा गया है, अर्थात ''बन्दों का हक़'' आज के मानव मूल्य दो क़दम आगे बढ़ कर कहते हैं ''हुक़ूक़ुल मख़लूकात'' अर्थात हर जीव का हक़.
धर्म और ईमान में खोट उस वक़्त शुरू हो जाती है जब वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो जाता है. धर्म और ईमान , धर्म और ईमान न राह कर मज़हब और रिलीज़न यानी राहें बन जाते हैं. इन राहों में आरंभ हो जाता है कर्म कांड, वेश भूषा,नियमावली, उपासना पद्धित, जो पैदा करते हैं इंसानों में आपसी भेद भाव. 
राहें कभी धर्म और ईमान नहीं हो सतीं. 
धर्म तो धर्म कांटे की कोख से निकला हुआ सत्य है, 
पुष्प से पुष्पित सुगंध है, उपवन से मिलने वाली बहार है. 
हम इस धरती को उपवन बनाने के लिए समर्पित राहें यही मानव धर्म है. 
धर्म और मज़हब के नाम पर रची गई पताकाएँ, दर अस्ल अधार्मिकता के चिन्ह हैं.
लोग अक्सर तमाम धर्मों की अच्छाइयों(?) की बातें करते हैं यह धर्म जिन मरहलों से गुज़र कर आज के परिवेश में कायम हैं, क्या यह अधर्म और बे ईमानी नहीं बन चुके है? क्या यह सब मानव रक्त रंजत नहीं हैं? 
इनमें अच्छाईयां है कहाँ? 
जिनको एक जगह इकठ्ठा किया जाय, यह तो परस्पर विरोधी हैं..
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 15 January 2021

ज़मीर फरोश ओलिमा


ज़मीर फरोश ओलिमा 

मेरे गाँव की एक फूफी के बीच बहु-बेटियों की बात चल रही थी किमेरा फूफी ज़ाद भाई बोला अम्मा लिखा है औरतों को पहले समझाओ बुझाओ, न मानें तो घुस्याओ लत्याओ, फिरौ न मानैं तो अकेले कमरे मां बंद कर देव, यहाँ तक कि वह मर न जाएँ . फूफी आखें तरेरती हुई बोलीं उफरपरे! कहाँ लिखा है? बेटा बोला तुम्हरे क़ुरआन मां.-- आयं? कह कर फूफी बेटे के आगे सवालिया निशान बन कर रह गईं. बहुत मायूस हुईं और कहा ''हम का बताए तो बताए मगर अउर कोऊ से न बताए''
मेरे ब्लॉग के मुस्लिम पाठक कुछ मेरी गंवार फूफी की तरह ही हैं.वह मुझे राय देते हैं कि मैं तौबा करके उस नाजायज़ अल्लाह के शरण में चला जाऊं. मज़े कि बात ये है कि मैं उनका शुभ चिन्तक हूँ और वह मेरे. ऐसे तमाम मुस्लिम भाइयों से दरख्वास्त है कि मुझे पढ़ते रहें, मैं उनका ही असली खैर ख्वाह हूँ .हिदी ब्लॉग जगत में एक सांड के नाम से जाना जाने वाला कैरानवी है जो खुद तो परले दर्जे का जाहिल है मगर ज़मीर फरोश ओलिमा की लिखी हुई कपटी रचनाओं को बेच कर गलाज़त भरी रोज़ी से पेट पालता है. अल्लाह का चैलेंज, अंतिम अवतार, बौद्ध मैत्रे जैसे सड़े गले राग खोंचे लगाए गाहकों को पत्ता रहता है. उसको लोगों के धिक्कार की परवाह नहीं. मेरे हर आर्टिकल पर अपना ब्लाक लगा देता है, कि मेरे पास आ मैं जेहालत बेचता हूँ. 
''यह मत देखो कि किसने कहा है, यह देखो की क्या कहा है.''

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 14 January 2021

सौ सौ झूट के बाद


सौ सौ झूट के बाद

लोग ख़ुद  साख़्ता रसूल की बातों में आ तो जाते हैं मगर बा असर काफ़िरों का ग़लबा भी इनके ज़ेहनों पर सवार रहता है. वह उनसे मिलते जुलते हैं, इनकी जायज़ बातों का एतराफ़ भी करते हैं जो ख़ुद  साख़्ता रसूल को पसंद नहीं, मुख़बिरों और चुग़ल खो़रों से इन बातों की ख़बर बज़रीआ वह्यीय ख़ुद  साख़्ता रसूल को हो जाती है और ख़ुद  साख़्ता रसूल कहते हैं,
"अल्लाह ने इन्हें सारी ख़बर देदी है "
वह फिर से लोगों को पटरी पर लाने के लिए क़यामत से डराने लगते हैं, इस तरह क़ुरआन मुकम्मल होता रहता. मुहम्मद के फेरे में आए हुए लोगों को ज़हीन अफ़राद समझते हैं - - -
"ये शख़्स मुहम्मद, बुज़ुर्गों से सुने सुनाए क़िस्से को क़ुरआनी आयतें गढ़ कर बका करता है. इसकी गढ़ी हुई क़यामत से खौ़फ़ खाने की कोई ज़रुरत नहीं. चलो तुमको अंजाम में मिलने वाले इसके गढ़े हुए अज़ाबों को की ज़िम्मेदारी मैं अपने सर लेने का वादा करता हूँ, अगर तुम इसके जाल से निकलो"
माज़ी के इस पसे-मंज़र में डूब कर मैं पाता हूँ कि दौरे-हाज़िर के पीरो मुर्शिदों, स्वामियों और स्वयंभू भगवानों की दूकानों को, जो बहुत क़रीब नज़र आती हैं और बहुत पास मिलते हैं वह सादा लौह, गाऊदी, अय्यार मुसाहिबों और लाख़ैरों की भीड़, मुरीदों के ये चेले, ऐसे ही लोग मुहम्मद के जाल में आ जाते, जिनको समझा बुझा कर राहे-रास्त पर लाया जा सकता था.
मैं ख़ुद  साख़्ता रसूल की हुलिया का तसव्वुर करता हूँ . . .
नीम दीवाना, नीम होशियार, मगर गज़ब का ढीठ.
झूट को सच साबित करने का अहेद बरदार,
सौ सौ झूट बोल कर आख़िर कार
"हज़रात मुहम्मद रसूल अल्लाह सललललाह अलैहे वसल्लम"
बन ही गया. वह अल्लाह जिसे ख़ुद इसने गढ़ा,
उसे मनवा कर, पसे पर्दा ख़ुद अल्लाह बन बैठा.
झूट ने माना कि बहुत लम्बी उम्र पाई मगर अब और नहीं.
मुहम्मद के गिर्द अधकचरे ज़ेहन के लोग हुवा करते जिन्हें सहाबाए-कराम कहा जाता है, जो एक गिरोह बनाने में कामयाब हो गए.
गिरोह में बेरोज़गारों की तादाद ज़्यादः थी. कुछ समाजी तौर पर मज़लूम हुवा करते थे, कुछ मसलेहत पसंद और कुछ बेयारो मददगार.
कुछ लोग तफरीहन भी महफ़िल में शरीक हो जाते.
कभी कभी कोई संजीदा भी जायज़ा लेने की ग़रज़ से आकर खड़ा हो जाता और अपना ज़ेहनी ज़ायका बिगाड़ कर आगे बढ़ जाता
और लोगों को समझाता . . .
इसकी हैसियत देखो, इसकी तालीम देखो, इसका जहिलाना कलाम देखो, बात कहने की भी तमीज नहीं, जुमले में अलफ़ाज़ और क़वायद की कोताही देखो. इसकी चर्चा करके नाहक ही इसको तुम लोग मुक़ाम दे राहे हो, क्या ऐसे ही सिडी सौदाई को अल्लाह ने अपना पैग़मबर चुना है?
बहरहाल इस वक़्त तक मुहम्मद ने तनाज़ा, मशग़ला और चर्चा के बदौलत मुआशरे में एक पहचान बना लिया था.
एक बार मुहम्मद मक्का के पास एक मुक़ाम तायाफ़ के हाकिम के पास अपनी रिसालत की पुडिया लेकर गए. उसको मुत्तला किया कि
"अल्लाह ने मुझे अपना रसूल मुक़रार किया है."
उसने इनको सर से पाँव तक देखा और थोड़ी गुफ़्तगू की और जो कुछ पाया उस पैराए में इनसे पूछा - - -
"ये तो बताओ कि मक्का में अल्लाह को कोई ढंग का आदमी नहीं मिला कि एक अहमक को अपना रसूल बनाया? "
उसने धक्के देकर इन्हें बाहर निकाला और लोगों को माजरा बतलाया.
लोगों ने लात घूसों से इनकी तवाज़ो किया,
बच्चों ने पागल मुजरिम की तरह इनको पथराव करते हुए बस्ती से बाहर किया. क़ुरआनी आयतें लाने वाले जिब्रील अलैहस्सलाम दुम दबा कर भागे, और अल्लाह आसमान पर बैठा ज़मीन पर अपने रसूल का तमाशा देखता रहा.
मगर साहब ! मुहम्मद अपनी मिटटी के ही बने हुए थे, न मायूस हुए न हार मानी. जेहाद की बरकत 'माले ग़नीमत' का फ़ार्मूला काम आया.
फतह मक्का के बाद तो तायाफ़ के हुक्मरान जैसे उनके क़दमों में पड़े थे.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 13 January 2021

जिंस ए लतीफ़


जिंस ए लतीफ़ 

बड़े ही पुर कशिश शब्द हैं, जिंस ए लतीफ़. 
जिंस के लफ्ज़ी मअने है 'लिंग' 
लतीफ़=लुत्फ़ देने वाला. 
अर्थात 'लिंगाकर्षण'.  
जिंस ए लतीफ़ उर्दू में खुला और प्राकृतिक सच है 
जो कि हिंदी में शायद संकोच और लज्जा जनक हो सकता है. 
मैंने दो बच्चों को देखा कि सुबह एक साथ दोनों खुली छत पर जागे, 
उट्ठे और पेशाब करने चले गए, 
मैंने देखा कि लड़का अपनी बहन की नंग्नता की तरफ़ आकर्षित था, 
बार बार जगह बदल कर वह इसे देखना चाहता था. 
लड़की ने भी लड़के की जिज्ञासा को महसूस किया मगर ख़ामोश पेशाब करती रही. 
यह दोनों भाई बहन थे और उम्र 5-6 साल की थी, 
मासूम किसी तरह से गुनाहगार नहीं कहे जा सकते. 
एक दूसरे के जिंस ए लतीफ़ की ओर आकर्षित थे 
जो कि क़ुदरती रद्दे अमल था. 
जिन बच्चों में यह प्रवृति नहीं होती उन पर नज़र रखनी चाहिए कि 
कहीं वह एबनार्मल तो नहीं.
नादान माँ बाप को यह फ़ितरत बुरी मालूम पड़ती है, 
वह इस उम्र से ही टोका टाकी शुरू कर देते हैं.
मगर समझदार वालदैन के लिए यह ख़ुश खबरी है कि बच्चे नार्मल हैं.
यही एबनार्मल बच्चे बड़े होकर ब्रहमचारी, योगी, योगिनें, यहाँ तक कि किन्नर  और होम्यो - - - आदि बन जाते हैं. 
ऐसे लोग बड़े होकर दुन्या में अपना मुक़ाम भी पाना चाहते हैं, 
यदि उग्र हुए तो धार्मिक परिधानों के साथ दाढ़ी, चोटी और जटा की वेषभूषा अपनाते हैं. यह आधे अधूरे और नपुंसक लोग कुदरत का बदला समाज से लेते हैं. 
अपने अधूरेपन का इंतेक़ाम समाज में नफ़रत फैला कर संतोष पाते हैं. 
आजकल मनुवादी व्यवस्था में इनका बोलबाला है.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday 12 January 2021

क़ुदरत की बनावट


क़ुदरत की बनावट    

क़ुदरत को अगर ख़ुदा का नाम दिया जाए तो इसका भी कोई जिस्म होगा 
जैसे कि इंसान का एक जिस्म है. 
क़ुरआन और तौरेत की कई आयतों के मुताबिक़ ख़ुद बख़ुद 
इलाही मुजस्सम साबित होता है. 
इंसान के जिस्म में एक दिमाग़ है .
 दिमाग़ रखने वाला ख़ुदा झूठा साबित हो चुका है.

क़ुदरत (बनाम ख़ुदा) के पास कोई दिमाग़ नहीं है बल्कि एक बहाव है, 
इसके अटल उसूलों के साथ. 
इसके बहाव से मख़लूक़ को कभी सुख होता है कभी दुःख. 
ज़रुरत है क़ुदरत के जिस्म की बनावट को समझने की 
जैसे कि मेडिकल साइंस ने इंसानी जिस्म को समझा है 
और लगातार समझने की कोशिश कर रहा है. 
इनके ही कारनामों से इंसान क़ुदरत के सैकड़ों कह्र से नजात पा चुका है. 
मलेरिया, ताऊन, चेचक जैसी कई बीमारियों से 
और बाढ़, अकाल जैसी आपदाओं से नजात पा रहा है. 
जंगलों और ग़ुफाओं की रिहाइश गाह आज हमें पुख़ता मकानों तक लेकर आ गई हैं. हमें ज़रुरत है क़ुदरत बनाम ख़ुदा के जिस्मानी बहाव को समझने की, 
नाकि उसकी इबादत करने की. 

इस रास्ते पर हमारे जदीद पैग़म्बर साइंस दान गामज़न हैं. 
यही पैग़म्बरान वक़्त एक दिन इस धरती को जन्नत बना देंगे.
इनकी राहों में दीन धरम के ठेकेदार रोड़े बिखेरे हुए हैं. 
जगे हुए इंसान ही इन मज़हब फ़रोशों को सुला सकते है.
जागो, आँखें खोलो, अल्लाह के फ़रमान पर ग़ौर करो 
और मोमिन के मशविरे पर, 
फ़ैसला करो कि कौन तुमको ग़ुमराह कर रहा है - - -
***
 
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 11 January 2021

मुसलमानो!


मुसलमानो!

एक बार फिर तुम से गुज़ारिश है कि तुम मुस्लिम से मोमिन बन जाओ. 
मुस्लिम और मोमिन के फ़र्क़ को समझने कि कोशिश करो. 
मुहम्मद ने दोनों लफ़्ज़ों को ख़लत मलत कर दिया है और तुम को गुमराह किया है कि मुस्लिम ही असल मोमिन होता है जिसका ईमान अल्लाह और उसके रसूल पर हो. यह किज़्ब है, दरोग़ है, झूट है, 
सच यह है कि आप के किसी अमल में बे ईमानी न हो, यही ईमान है, 
इसकी राह पर चलने वाला ही मोमिन कहलाता है. 
जो कुछ अभी तक इंसानी ज़ेहन साबित कर चुका है वही अब तक का सच है, 
वही इंसानी ईमान है. अक़ीदतें और आस्थाएँ कमज़ोर और बीमार ज़ेहनों की पैदावार हैं जिनका नाजायज़ फ़ायदा ख़ुद साख़ता अल्लाह के झूठे पयम्बर, भगवन रूपी अवतार , गुरु और महात्मा उठाते हैं.
तुम समझने की कोशिश करो. 
मैं तुम्हारा सच्चा ख़ैर ख़्वाह हूँ. 
ख़बरदार ! कहीं मुस्लिम से हिन्दू न बन जाना वर्ना सब गुड गोबर हो जायगा, क्रिश्चेन न बन जाना, बौद्ध न बन जाना वर्ना मोमिन बन्ने के लिए फिर एक सदी दरकार होगी. 
धर्मांतरण बक़ौल जोश मलीहाबादी एक चूहेदान से निकल कर दूसरे चूहेदान में जाना है. बनना ही है तो मुकम्मल इन्सान बनो, इंसानियत ही दुन्या का आख़िरी मज़हब होगा. मुस्लिम जब मोमिन हो जायगा तो इसकी पैरवी में ५१% भारत मोमिन हो जायगा।
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 10 January 2021

धर्म और ईमान


धर्म और ईमान 

धर्म और ईमान के मुख़तलिफ़ नज़रिए और माने, अपने अपने हिसाब से गढ़ लिए गए हैं. आज के नवीतम मानव मूल्यों का तकाज़ा, इशारा करता है कि धर्म और ईमान हर वस्तु के उसके गुण और द्वेष की अलामतें हैं. इस लम्बी बहेस में न जाकर मैं सिर्फ़ मानव धर्म और ईमान की बात पर आना चाहूँगा. मानव हित, जीव हित और धरती हित में जितना भले से भला सोचा और भरसक प्रयास किया जा सके वही सब से बड़ा धर्म है और उसी कर्म में ईमान दारी है.
वैज्ञानिक हमेशा ईमानदार होता है क्यूँकि वह नास्तिक होता है, इसी लिए वह अपनी खोज को अर्ध सत्य कहता है. वह कहता है यह अभी तक का सत्य है कल का सत्य भविष्य के गर्भ में है.
मुल्लाओं और पंडितों की तरह नहीं कि आख़िरी सत्य और आख़िरी निज़ाम की ढपली बजाते फिरें.
धर्म और ईमान हर आदमी का व्यक्तिगत मुआमला होता है मगर होना चाहिए हर इंसान को धर्मी और ईमान दार, कम से कम दूसरे के लिए. इसे ईमान की दुन्या में ''हुक़ूक़ुल इबाद'' कहा गया है, अर्थात ''बन्दों का हक़'' आज के मानव मूल्य दो क़दम आगे बढ़ कर कहते हैं ''हुक़ूक़ुल मख़लूक़ात '' अर्थात हर जीव का हक़.
धर्म और ईमान में खोट उस वक़्त शुरू हो जाती है जब वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो जाता है. धर्म और ईमान, धर्म और ईमान न रह कर मज़हब और रिलीज़न यानी राहें बन जाते हैं. इन राहों में आरंभ हो जाता है कर्म कांड, वेश भूषा, नियमावली, उपासना पद्धित, जो पैदा करते हैं इंसानों में आपसी भेद भाव.
राहें कभी धर्म और ईमान नहीं हो सकतीं. धर्म तो धर्म कांटे की कोख से निकला हुआ सत्य है, पुष्प से पुष्पित सुगंध है, उपवन से मिलने वाली बहार है. हम इस धरती को उपवन बनाने के लिए समर्पित रहें , यही मानव धर्म है. धर्म और मज़हब के नाम पर रची गई पताकाएँ, दर अस्ल अधार्मिकता के चिन्ह हैं.
आप अक्सर तमाम धर्मों की अच्छाइयों(?) की बातें करते हैं यह धर्म जिन मरहलों से गुज़र कर आज के परिवेश में कायम हैं,
क्या यह अधर्म और बे ईमानी नहीं बन चुके है?
क्या यह सब मानव रक्त रंजित नहीं हैं?
इनमें अच्छाईयां है कहाँ? जिनको एक जगह इकठ्ठा किया जाय, यह तो परस्पर विरोधी हैं..मैं आप का कद्र दान हूँ, बेहतर होता कि आप अंत समय में मानव धर्म के प्रचारक बन जाएँ और अपना पाखंडी गेरुआ वेश भूषा और दाढ़ी टोपी तर्क करके साधारण इंसान जैसी पहचान बनाएं.
***
 
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 9 January 2021

मुसलमानो!


मुसलमानो!

एक बार फिर तुम से गुज़ारिश है कि तुम मुस्लिम से मोमिन बन जाओ. 
मुस्लिम और मोमिन के फ़र्क़ को समझने कि कोशिश करो. 
मुहम्मद ने दोनों लफ़्ज़ों को ख़लत मलत कर दिया है और तुम को गुमराह किया है कि मुस्लिम ही असल मोमिन होता है जिसका ईमान अल्लाह और उसके रसूल पर हो. यह किज़्ब है, दरोग़ है, झूट है, 
सच यह है कि आप के किसी अमल में बे ईमानी न हो, यही ईमान है, 
इसकी राह पर चलने वाला ही मोमिन कहलाता है. 
जो कुछ अभी तक इंसानी ज़ेहन साबित कर चुका है वही अब तक का सच है, 
वही इंसानी ईमान है. अक़ीदतें और आस्थाएँ कमज़ोर और बीमार ज़ेहनों की पैदावार हैं जिनका नाजायज़ फ़ायदा ख़ुद साख़ता अल्लाह के झूठे पयम्बर, भगवन रूपी अवतार , गुरु और महात्मा उठाते हैं.
तुम समझने की कोशिश करो. 
मैं तुम्हारा सच्चा ख़ैर ख़्वाह हूँ. 
ख़बरदार ! कहीं मुस्लिम से हिन्दू न बन जाना वर्ना सब गुड गोबर हो जायगा, क्रिश्चेन न बन जाना, बौद्ध न बन जाना वर्ना मोमिन बन्ने के लिए फिर एक सदी दरकार होगी. 
धर्मांतरण बक़ौल जोश मलीहाबादी एक चूहेदान से निकल कर दूसरे चूहेदान में जाना है. बनना ही है तो मुकम्मल इन्सान बनो, इंसानियत ही दुन्या का आख़िरी मज़हब होगा. मुस्लिम जब मोमिन हो जायगा तो इसकी पैरवी में ५१% भारत मोमिन हो जायगा।
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday 6 January 2021

मुहम्मदी अल्लाह का क़यामती साया


मुहम्मदी अल्लाह का क़यामती साया 

आज इक्कीसवीं सदी में दुन्या के तमाम मुसलामानों पर 
मुहम्मदी अल्लाह का क़यामती साया ही मंडला रहा है.
जो क़बीलाई समाज का मफ़रूज़ा ख़दशा हुवा करता था. 
अफ़गानिस्तान दाने दाने को मोहताज है, 
ईराक अपने दस लाख बाशिदों को जन्नत नशीन कर चुका है, 
मिस्र, लीबिया, यमन और दीगर अरब रियासतों पर 
इस्लामी तानाशाहों की चूलें ढीली हो रही हैं, 
तमाम अरब मुमालिक अमरीका और योरोप के ग़ुलामी में जा चुके है, 
लोग तेज़ी से ईसाइयत की गोद में जा रहे हैं, 
कम्युनिष्ट रूस से आज़ाद होने वाली रियासतें जो इस्लामी थीं, 
दोबारा इस्लामी गोद में वापस होने से साफ़ इंकार कर चुकी हैं, 
११-९ के बाद अमरीका और योरोप में बसे मुसलमान मुजरिमाना वजूद ढो रहे हैं, 
अरब से चली हुई बुत शिकनी की आंधी हिदुस्तान में आते आते कमज़ोर पड़ चुकी है, 
सानेहा ये है कि ये न आगे बढ़ पा रही है और न पीछे लौट पा रही है, 
अब यहाँ बुत इस्लाम पर ग़ालिब हो रहे हैं, 
१८ करोड़ बे कुसूर हिदुस्तानी बुत शिकनों के आमाल की सज़ा भुगत रहे हैं, 
हर माह के छोटे मोटे दंगे और सालाना बड़े फसाद 
इनकी मुआशी हालत को बदतर कर देते हैं, 
और हर रोज़ ये समाजी तअस्सुब के शिकार हो जाते हैं, 
इन्हें सरकारी नौकरियाँ बमुश्किल मिलती है, 
बहुत सी प्राइवेट कारखाने और फ़र्में इनको नौकरियाँ देना गवारा नहीं करती हैं, 
दीनी तालीम से लैस मुसलमान वैसे भी हाथी का लेंड होते है, 
जो न जलाने के काम आते हैं न लीपने पोतने के, 
कोई इन्हें नौकरी देना भी चाहे तो ये उसके लायक़ ही नहीं होते. 
लेदे के आवां का आवां ही खंजर है.
दुन्या के तमाम मुसलमान जहाँ एक तरफ़ अपने आप में पस मानदा है, 
वहीँ दूसरी क़ौमों की नज़र में जेहादी नासूर की वजेह से ज़लील और ख़्वार है. 
क्या इससे बढ़ कर क़ौम पर कोई क़यामत आना बाक़ी रह जाती है? 
ये सब उसके झूठे मुहम्मदी अल्लाह और उसके नाक़िस क़ुरआन की बरकत है. 
आज हस्सास तबा मुसलमान को सर जोड़कर बैठना होगा कि 
बुजुर्गों की नाक़बत अनदेशी ने अपने जुग़राफ़ियाई वजूद को क़ुर्बान करके 
अपनी नस्लों को कहीं का नहीं रक्खा.
ईरान में बज़ोर शमशीर इस्लामी वबा आई कमज़ोरों ने इसे निगल लिया 
मगर गग\ग़यूर ज़रथुर्सठी ने इसे ओढना गवारा नहीं किया, 
घर बार और वतन की क़ुरबानी देकर हिदुस्तान में आ बसे 
जिहें पारसी कहा जाता है, 
दुन्या में सुर्ख़रू है.
सिर्फ़ मुट्ठी भर पारसी के सामने तमाम ईरान पानी भरे.
मुसलामानों के सिवा हर क़ौम मूजिदे जदीदयात है 
जिनकी बरकतों से आज इंसान मिर्रीख के लिए पर तौल रहा है. 
इस्लाम जब से वजूद में आया है मामूली सायकिल जैसी चीज़ भी 
कोई मुसलमान ईजाद नहीं कर सका, 
हाँ इसकी मरम्मत और इसका पंचर जोड़ने के काम में ज़रूर लगा हुवा पाया जाता है.
अब भी अगर मुसलमान इस्लाम पर डटा रहा तो 
इसकी बद नसीबी ही होगी कि 
एक दिन वह दुन्या के लिए माज़ी की क़ौम बन जाएगा.
*****

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

साही मरे मूड के मारे, हम संतन का का पड़ी - - -  
Pawan Prajapati
July १, २०१८· 

जो मांस नहीं खाएगा वह 21 बार पशु योनी में पैदा होगा-मनुस्मृति (5/35)
स्कन्ध पुराण की शिक्षा तो पूर्णतया अमानवीय, अप्राकृति व असवैंधानिक है, जिसमें लिखा गया है कि किसी भी स्त्री के विधवा होने पर उसके बाल काट दो, सफेद वस्त्र पहना दो और उसे खाने को केवल इतना दिया जाए कि वह मात्र जीवित रह सके अर्थात उस अबला विधवा नारी को हड्डियों का पिंजर मात्र बना दिया जाए।
इसके अनुसार किसी विधवा को पुनर्विवाह करना पाप माना गया है। याद रहे, ऐसे ही पुराणों की शिक्षाओं के कारण हमारे देश में वेश्यावृति और सति प्रथा ने जन्म लिया था। इसी प्रकार कुछ अन्य ब्राह्मणवादी ग्रंथों ने औरतों व दलितों के साथ घोर अन्याय करने की शिक्षा दी और हकीकत यह है कि इसी अन्याय के कारण भारतवर्ष को एक बहुत लंबी गुलामी का सामना करना पड़ा। उदाहरण के लिए……..
मनुस्मृति(100) के अनुसार पृथ्वी पर जो कुछ भी है, वह ब्राह्मणों का है।
मनुस्मृति(101) के अनुसार दूसरे लोग ब्राह्मणों की दया के कारण सब पदार्थों का भोग करते हैं।
मनुस्मृति (11-11-127) के अनुसार मनु ने ब्राह्मणों को संपत्ति प्राप्त करने के लिए विशेष अधिकार दिया है। वह तीनों वर्णों से बलपूर्वक धन छीन सकता है अर्थात चोरी कर सकता है।
मनुस्मृति (4/165-4/१६६) के अनुसार जान-बूझकर क्रोध से जो ब्राह्मण को तिनके से भी मारता है, वह 21 जन्मों तक बिल्ली की योनी में पैदा होता है।
मनुस्मृति (5/35) के अनुसार जो मांस नहीं खाएगा, वह 21 बार पशु योनी में पैदा होगा।
मनुस्मृति (64 श्लोक) के अनुसार अछूत जातियों के छूने परपर स्नान करना चाहिए।
गौतम धर्म सूत्र(2-3-4) के अनुसार यदि शूद्र किसी वेद को पढ़ते सुन लें तो उनके कान में पिघला हुआ सीसा या लाख डाल देनी चाहिए।
मनुस्मृति (8/21-22) के अनुसार ब्राह्मण चाहे अयोग्य हो, उसे न्यायाधीश बनाया जाए वर्ना राज्य मुसीबत में फंस जाएगा। इसका अर्थ है कि भूत पुर्व में भारत के उच्चत्तम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री अलतमस कबीर साहब को तो रखना ही नही चाहिये था !
मनुस्मृति (8/267) के अनुसार यदि कोई ब्राह्मण को दुर्वचन कहेगा तो वह मृत्युदंड का अधिकारी है।
मनुस्मृति (8/270) के अनुसार यदि कोई ब्राह्मण पर आक्षेप करे तो उसकी जीभ काटकर दंड दें।
मनुस्मृति (5/157) के अनुसार विधवा का विवाह करना घोर पाप है।
विष्णुस्मृति में स्त्री को सती होने के लिए उकसाया गया है !
शंख स्मृति में दहेज देने के लिए प्रेरित किया गया है।
देवल स्मृति में तो किसी को भी बाहर देश जाने की मनाही है।
बृहदहरित स्मृति में बौद्ध भिक्षु व मुंडे हुए सिर वालों को देखने की मनाही है।
ऐतरेय ब्राह्मण(3/24/27) के अनुसार वही नारी उत्तम है, जो पुत्र को जन्म दे। (35/5/2/४7) के अनुसार पत्नी एक से अधिक पति ग्रहण नहीं कर सकती, लेकिन पति चाहे कितनी भी पत्नियां रखे ।
आपस्तब (1/10/51/ 52), बोधयान धर्मसूत्र (2/4/6), शतपथ ब्राह्मण (5/2/3/14) के अनुसार जो स्त्री अपुत्रा है, उसे त्याग देना चाहिए।
तैत्तिरीय संहिता(6/6/4/3) के अनुसार पत्नी आजादी की हकदार नहीं है।
शतपथ ब्राह्मण (9/6) के अनुसार केवल सुंदर पत्नी ही अपने पति का प्रेम पाने की अधिकारी है।
बृहदारण्यक उपनिषद् (6/4/7) के अनुसार अगर पत्नी संभोग करने के लिए तैयार न हो तो उसे खुश करने का प्रयास करो। यदि फिर भी न माने तो उसे पीट-पीटकर वश में करो।
मैत्रायणी संहिता(3/8/3) के अनुसार नारी अशुभ है। यज्ञ के समय नारी, कुत्ते व शूद्र को नहीं देखना चाहिए अर्थात नारी व शूद्र कुत्ते के समान हैं। (1/10/11) के अनुसार नारी तो एक पात्र(बर्तन) के समान है।
महाभारत(12/40/1) के अनुसार नारी से बढक़र अशुभ कुछ भी नहीं है। इनके प्रति मन में कोई ममता नहीं होनी चाहिए।

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday 4 January 2021

ख़ालिस काफ़िर


ख़ालिस काफ़िर 

ख़ालिस काफ़िर ले दे के नेपाल या भारत में ही बाक़ी बचे हुए हैं. 
कुफ़्र और शिर्क इंसानी तहज़ीब की दो क़ीमती विरासतें है. 
इनके पास दुन्या की क़दीम तरीन किताबें हैं जिन से इस्लाम ज़दा मुमालिक महरूम हो गए हैं. 
इनके पास बेश क़ीमती चारों वेद मौजूद हैं, जो कि मुख़्तलिफ़ चार इंसानी मसाइल का हल हुवा करते थे, इन्हीं वेदों की रौशनी में १८ पुराण हैं. माना कि ये मुबालग़ों से लबरेज़ है, मगर तमाज़त और ज़हानत के साथ, जिहालत से बहुत दूर हैं. 
इसके बाद इनकी शाख़ें १०८ उप निषद मौजूद हैं, 
रामायण और महा भारत जैसी क़ीमती गाथाएँ, गीता जैसी सबक आमोज़ किताबें, अपनी असली हालत में मौजूद हैं. 
ये सारी किताबें तख़लीक़ हैं, तसव्वर की बुलंद परवाज़ें हैं, जिनको देख कर दिमाग हैरान हो जाता है और अपनी धरोहर पर रश्क होता है. जब बड़ी बड़ी क़ौमों के पास कोई रस्मुल ख़त भी नहीं था, तब हमारे पुरखे ऐसे ग्रन्थ रचा करते थे. 
अरबों का कल्चर भी इसी तरह मालामाल था और कई बातों में वह आगे था, जिसे इस्लाम की आमद ने धो दिया. बढ़ते हुए कारवाँ की गाड़ियाँ बैक गेर में चली गई.
माज़ी में इंसानी दिमाग को रूहानी मर्कज़ियत देने के लिए मफ्रूज़ा माबूदों, देवी देवताओं और राक्षसों के किरदार उस वक़्त के इंसानों के लिए अलहाम ही थे. 
तहजीबें बेदार होती गईं और ज़ेहनों में बलूग़त आती गई, काफ़िर अपने ग्रंथो को एहतराम के साथ ताक़ पर रखते गए. ख़ुशी भरी हैरत होती है कि आज भी उनके वच्चे अपने पुरखों की रचनाओं को पौराणिक कथा के रूप में पहचानते हैं.
मुसलमान इसकी पौराणिक कथा की जगह, मुल्लाओं की बखानी हुई पौराणिक हक़ीक़त की तरह जानते हैं और इन देव परी की कहानियों पर यक़ीन और अक़ीदा रखते है. यह मुसलमान कभी बालिग़ हो ही नहीं सकते. एक वक़्त इस्लामी इतिहास में ऐसा आ गया था कि इंगलिस्तान अरबों के क़ब्ज़े में होने को था कि बच गया. इतिहास कार "वर्नियर" लिखता है 
"अगर कहीं ऐसा हो जाता तो आज आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में पैगम्बर मुहम्मद के फ़रमूदात पढाए जा रहे होते."
अरब भी मुहम्मद को देखने और सुनने के बाद कहते थे कि 
"इसका कुरआन शायर के परेशान ख़यालों का पुलिंदा है" 
इस हक़ीक़त को जिस क़द्र जल्दी मुसलमान समझ लें, इनके हक में होगा .
एक ही हल है कि मुसलमान अपने बुनयादी कल्चर को संभालते हुए मोमिन बन जाने की सलाह है. जिसकी तफ़सील हम बार बार अपने मज़ामीन में दोहराते है. 
कोई भी गैर मुस्लिम नहीं चाहता कि मुसलमान इस्लाम का दामन छोड़े.
अरब तरके इस्लाम करके बेदार हुए तो योरप और अमरीका के हाथों से तेल का ख़ज़ाना निकल जाएगा, भारत के मालदार लोगों के हाथों से नौकर चाकर, मजदूर, मित्री और एक बड़ा कन्ज़ियूमर तबक़ा सरक जाएगा. तिजारत और नौकरियों में दूसरे लोग कमज़ोर हो जाएँगे, गोया सभी चाहते है कि दुन्या कि २०% आबादी सोलवीं सदी में अटकी रहे.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 3 January 2021

धर्म


धर्म 

दुन्या के तमाम धर्मों का गहराई के साथ अध्यन करने वाले और उसके बाद सिर्फ़ मानव धर्म को श्रेष्ट बतलाने वाले डा.राम स्वरुप ऋषिकेश कहते हैं - - - 
हिन्दू कहते हैं जो वेदों में लिखा है वह धर्म है , 
पारसी कहते हैं जो अहुन वइर्यो में लिखा है वह सत्य है , 
जैन कहते हैं जो जैन सूत्रों में लिखा है वह धर्म है , 
बौद्ध कहते है जो त्रिपटक में लिखा है वह धर्म है ,
ईसाई कहते हैं जो बाइबिल में लिखा है वह धर्म है , 
मुसलमान कहते हैं जो क़ुरआन में लिखा है वह धर्म है,
 सिख कहता है जो गुरु ग्रन्थ में है वह सत्य है - - - 
इस तरह अलग अलग फ़िरक़ों के अलग अलग धर्म है , कोई मुश्तरका ग्रन्थ नहीं है जिसको सब बिना शक शुबहा किए हुए मान लें कि यह है हम सबका धर्म.  
शायद कोई ऐसी किताब नहीं, 
वजह ?
उपरोक्त सभी किताबें विभिन्न धर्मों की अपनी अपनी हैं.  
क्योंकि यह सब विभिन्न वक़तों में, विभिन्न हालात में और विभिन्न धर्म गुरुओं द्वारा अलग अलग भाषा में लिखी गई हैं.  
ऐसी हालत में किताबों में यकसानियत संभव नहीं. 
सच्चाई ये है कि हर एक का पूज्य , आत्मा, देवी देवता , जन्नत दोज़ख़ , पुनर जन्म , नजात , कायनात और क़यामत वग़ैरा के विषय इतने सूक्ष्म हैं कि इन पर बहस सदियों से करते चले आ रहे हैं और सदियों तक करते रहेंगे मगर इंसान आपस में सहमत नहीं हो पाएगा. 
तो फिर क्या किया जाए ?

***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Saturday 2 January 2021

सभ्यताओं की झलकियाँ


सभ्यताओं की झलकियाँ 

मुसलमानों का सिर्फ़ एक त्यौहार ईद है ? 
इसे त्यौहार क्यूँ कहते है आज तक समझ न आया. 
एक माह के मसनवी फ़ाक़े के बाद, फ़ाक़े से नजात मिलने की ख़ुशी होती है, 
तो यह मसनवी फ़ाक़ा कशी क्यूँ ? 
मुसलमान रोज़ नमाज़ पांच बार पढ़ता है 
तो ईद  के दिन नमाज़ छः बार पढ़ना पड़ता है, 
क्या इससे ख़ुशी मिलती है ? 
तो छः बार रोज़ नमाज़ पढ़ी जाय ताकि हर रोज़ ईद हो.
TV पर इसकी झलक दिखलाई जाती है जहाँ वह 
एक दूसरे को ईद की ख़ुशियों की मुबारक बाद देते हैं. 
सवाल उठता है कौन सी ख़ुशी ? कैसी ख़ुशी ?? 
क्या इस रोज़ जन्नत में मिलने वाली शराबन तहूरा की इजाज़त होती है ? 
नहीं. वह तो मरने के बाद मिलेगी वह भी अल्लाह की मर्ज़ी पर मुनहसर है.
ईद मनाने का आधार क्या है ? 
क्या इस रोज़ जवान साल लड़के और लड़कियों पर परदे दारी की पाबन्दी ख़त्म होती है ? क्या बच्चों के लिए मनोरंजन के सामान मुहय्या किए जाते हैं ? क्या बूढों के इस दिन नमाज़ी कसरत से छुट्टी मिल जाती है ? 
नहीं किसी के लिए कोई रिआयत नहीं, उल्टा घर का मुख्या नए कपड़ों और जूतों के ख़र्च में मुब्तिला हो जाता है. 
टेलिविज़न पर हर त्योहारों की झलक दिलाई जाती है, 
मुसलमानों की ईद और बकरीद जिनमे वह बेजारी और थकन के साथ गले मिलते हैं या काबा के तवाफ़ में मशक्क़त के साथ भागते और शैतान को घायल करते हुए दिखते हैं.
ईसाइयों का त्योहार नया साल तो बरहाल कई मानी रखता है, 
हर शख़्स को नया साल देखने की तमन्ना होती है कि ज़िंदगी को नया साल नसीब हुवा. उसके बाद क्रिसमस आता है कि ईसा क्रूज़ पर चढ़ कर अमर हुए.
मुसलमानों और ईईसाइयों के त्योहारों के बाद हिन्दुओं के त्यौहार आते हैं. 
इनके किस त्यौहार को बड़ा कहें, सुझाई नहीं देता, 
इनके तो साल में ३६५ दिन त्यौहार होते हैं. 
आज कल बड़ा त्यौहार महा कुंभ आयोजित हो रहा है. 
अनुमान है कि इसमें १५ करोड़ लोग शामिल होंगे. दुन्या के 50 छोटे मुल्को की कुल आबादी से भी ज़्यादः, 
इस बार तो यह त्यौहार राज्य सरकार मना रही रही है.अल्ला ख़ैर करे.
 टेलिविज़न पर हर त्योहारों की झलक दिलाई जाती है, 
ईद बकरीद मुसलमान गले मिलता है और काबा की परिकर्मा करते हुए दिखता है, इसाई जश्न हक़ीक़ी बटोरते सैंटा क्लाज़ बच्चो को बहलाते हुए नज़र आएंगे. 
भारत की सभ्यता के धरोहर नागा बाबाओं का झुण्ड का झुण्ड नंग धुडंग कुंभ में अपने ठुल्लुओं को उछालते हुए नज़र आएगे. 
हिन्दू और मुस्लिम अपने अपने गरेबानों में झांके, उसके बाद गाली गलौज करें.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday 1 January 2021

शैतानुर्रजीम


शैतानुर्रजीम

हुक्म है कि हर काम अल्लाह के नाम से शुरू किया जाय.
यानी "बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम" पढने के बाद.
किसी जानदार को हलाल करो तब भी पहले मुँह से निकले बिस्मिल्लाह - - -
ख़ुद क़ुरान पाठ में भी इस बात का एहतेमाम है,
मगर कारी पहले पढता है
"आऊजो बिल्लाहे-मिनस-शैतानुर्रजीम"
जिसका मतलब है "अल्लाह की पनाह चाहता हूँ उस मातूब (प्रकोपित) किए गए शैतान से"
यहाँ पर शैतान ने अल्लाह मियाँ को भी गच्चा दे दिया कि
क़ुरआन पाठ से पहले उसका नाम भी लेना पड़ता है,
यानी उसकी हैबत से डर के साथ साथ, अल्लाह मियाँ का नाम आता है.
ये है मुहम्मद की अक़्ल ए कोताह का नमूना.
ऐसी बहुत सी गलतियाँ अल्लाह के कलाम में हैं जो बदली नहीं जा सकतीं.
इसी तरह इस्लामी नअरा है
"नारा ए  तकबीर-अल्लाह हुअकबर"
यानी तकब्बुर (घमंड) का नारा, अल्लाह बड़ा है.
सवाल उठता है अल्लाह बड़ा है तो छोटा कौन है?
बड़ा कहने का इशारा होता है कि इससे छोटा भी कोई है?
यहाँ पर भी अल्लाह के मुक़ाबिले में छोटा अल्लाह यानी शैतान खड़ा हुवा है.
दोनों की ख़स्लतें भी एक जैसी हैं. दोनों हर जगह मौजूद हैं.
दोनों इंसान के हर अमल में दख़्ल रखते हैं.
क़ुरआन बार बार कहता है
"अल्लाह जिसको गुमराह करता है उसको राह ए रास्त पर कोई नहीं ला सकता."
शैतान भी लोगों को गुमराह करता है.और अल्लाह भी 
शैतान को कहो "अल्लाह-हुअसगर"यानी छोटे अल्लाह मियाँ.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान