Saturday, 20 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़ (18)


क़ुरआन ए ला शरीफ़  (18)

सूरह आले इमरान- 3-سورتہ آل عمران 
(क़िस्त 4) 
मुहम्मद उम्मी थे अर्थात निक्षर. तबीयतन शायर थे, मगर ख़ुद को इस मैदान में छुपाते रहते, 
मंसूबा था कि जो शाइरी करूंगा वह अल्लाह का कलाम क़ुरआन होगा. इस बात की गवाही में क़ुरआन में मिलनें वाली तथा कथित काफ़िरों के मुहम्मद पर किए गए व्यंग ''शायर है न'' है. 
शाइरी में होनें वाली कमियों को, चाहे वह विचारों की हों, चाहे व्याकरण की, 
मुहम्मद अल्लाह के सर थोपते हैं. 
अर्थ हीन और विरोधा भाशी मुहम्मद की कही गई बातें
 ''मुश्तबाहुल मुराद '' आयतें बन जाती हैं जिसका मतलब अल्लाह बेहतर जानता है. देखें.
 सूरह आले इमरान 3  आयत 6+7) 
यह तो रहा क़ुरआन के लिए गारे-हिरा में बैठ कर मुहम्मद का सोंचा गया पहला पद्य आधारित मिशन 
''क़ुरआन''. 
दूसरा मिशन मुहम्मद का था गद्य आधारित. इसे वह होश हवास में बोलते थे, ख़ुद को पैग़म्बराना दर्जा देते हुए, हांलाकि यह उनकी जेहालत की बातें होतीं जिसे कठबैठी या कठ मुललाई कहा जाय तो ठीक होगा. यही मुहम्मदी ''मुश्तबाहुल मुराद '' कही जाती हैं. 
क़ुरआन और हदीसों की बहुत सी बातें यकसाँ हैं, ज़ाहिर है एह ही शख़्स  के विचार हैं, ओलिमा-ए-दीन इसे मुसलमानों को इस तरह  समझाते हैं कि अल्लाह ने क़ुरआन में कहा है जिस को हुज़ूर (मुहम्मद) ने हदीस फ़लाँ फ़लाँ में भी फ़रमाया है. 
अहले हदीस का भी एक बड़ा हल्क़ा है जो मुहम्मद कि जेहालत पर कुर्बान होते हैं. 
शिया कहे जाने वाले मुस्लिम हदीसें चिढ़ते हैं.
मैं क़ुरआन के साथ साथ हदीसें भी पेश करता रहूँगा. 

तो लीजिए क़ुरआनी  अल्लाह फ़रमाता है - - -
"अल्लाह काफ़िरों से मुहब्बत नहीं करता"
सूरह आले इमरान 3  आयत (32)
क्या काफ़िर अल्लाह के बन्दे नहीं हैं? 
फिर वह रब्बुल आलमीन कैसे हुवा? 
क़ुरआन की इन दोग़ली बातों का मौलानाओं के पास जवाब नहीं है. 
वह काफ़िरों से मुहब्बत नहीं करता तो काफ़िर भी अल्लाह को लतीफ़ा शाह से ज़्यादः नहीं समझते, 
मुसलमान इस्लामी ओलिमा से अपनी हजामतें बनवाते रहें और काफ़िरों के आगे हाथ फैलाते रहें.
अल्लाह कहता है - -
"मोमिनों! किसी ग़ैर मज़हब वालों को अपना राज़दार मत बनाओ. ये लोग तुम्हारी ख़राबी में किसी क़िस्म की कोताही नहीं करते और अगर तुम अक़्ल रखते हो तो, हम ने अपनी आयतें खोल खोल कर सुना दीं. काफ़िरों से कह दो कि ग़ुस्से से मर जाओ, अल्लाह तुम्हारे दिलों से खूब वक़िफ़ है. ऐ मुसलमानों! दो गुना, चार गुना सूद मत खाओ ताकि नजात हासिल हो सके.''
सूरह आले इमरान 3  आयत (33) 
क्या यह कम ज़रफी की बातें किसी ख़ुदाए बर हक़ की हो सकती हैं? 
क्या जगत का पालन हार अगर, है कोई तो ऐसा ग़लीज़ दिल ओ दिमाग रखता होगा? 
अपने बन्दों को कहेगा की मर जाओ, 
नहीं ये ग़लाज़त किसी इंसानी दिमाग की है और वह कोई और नहीं मुहम्मद हैं. 
यह टुच्ची मसलेहत की बातें किसी मर्द बच्चे तक को ज़ेबा नहीं देतीं, अल्लाह तो अल्लाह है.
ज़्यादः या कम सूद खाने को मना करने वाला अल्लाह हो ही नहीं सकता.  
मुसलमानों! जागो !!
कहीं तुम धोके में अल्लाह की बजाए किसी शैतान की इबादत तो नहीं कर रहे हो? 
कलाम इलाही पर एक मुंसिफ़ाना नज़र डालो, आप को ऐसी तअलीम  दी जा रही है कि दूसरों की नज़र में हमेशा मशकूक बने रहो . 
एक हिंदू दूसरे हिन्दू से आपस में, मुझे भांपे बग़ैर बात कर रहे थे कि मुसलमान पर कभी विश्वास न करना चाहे वह जलते तवे पर अपने चूतड़ रख दे, 
उसकी बात की इस आयात से तस्दीक़ हो जाती है. 
अल्लाह ने क़ुरआन में अपनी बातें खोल खोल कर समझाईं हैं, 
अल्ला मियां! 
 आज आलिमान दीन तुम्हारी बातें ढकते फिर रहे हैं. 
सूरह आले इमरान से मुराद है इमरान यानी मरियम के बाप की औलादें - - -
अल्लाह अब सूरह के उन्वान पर आता है, 
इमरान की जोरू जिसका नाम अल्लाह भूल रहा है ( ? ) की गुफ़्तगू अल्लाह से चलती है, वह लड़के की उम्मीद किए बैठी रहती है, हो जाती है लड़की, जिसका नाम वह  मरियम रखती है. उधर बूढा ज़कारिया अल्लाह से एक वारिस की दरख़्स्त करता है जो पूरी हो जाती है, 
(इस का लड़का बाइबिल के मुताबिक़ मशहूर नबी योहन हुवा. जिस को कि उस वक़्त के हाकिम शाह हीरोद ने फांसी देदी थी. मुहम्मद को उसकी हवा भी नहीं लगी) 
इन सूरतों में जिब्रील ईसा की विलादत की बे सुरी तान छेड़ते हैं. बहुत देर तक अल्लाह इस बात को तूल दिए रहता है. इस को मुसलमान चौदह सौ सालों से कलाम इलाही मान कर ख़त्म क़ुरआन किया करते हैं.
सूरह आले इमरान 3 आयत (34-48) 
देखिए कि मुहम्मद ईसा से कैसे गारे की चिडि़या में, उसकी दुम उठवा कर फूंक मरवाते हैं 
और वह जानदार होकर फुर्र से उड़ जाती है - -
"बनी इस्राईल की तरफ़ से भेजेंगे पयम्बर बना कर, वह कहेंगे कि तुम लोगों के पास काफ़ी दलील लेकर आया हूँ, तुम्हारे परवर दिगर की जानिब से. 
वह ये है कि तुम लोगों के लिए गारे की ऐसी शक्ल बनाता हूँ जैसे परिंदे की होती है, फिर इस के अंदर फूंक मार देता हूँ जिस से वह परिंदा बन जाता है. 
और अच्छा कर देता हूँ मादर जाद अंधे और कोढ़ी को और ज़िन्दा कर देता हूँ. मुर्दों को अल्लाह के हुक्म से. 
और मैं तुम को बतला देता हूँ जो कुछ घर से खा आते हो और जो रख आते हो. 
बिला शुबहा इस में काफ़ी दलील है तुम लोगों के लिए, अगर तुम ईमान लाना चाहो."
सूरह आले इमरान 3 आयत (49)
उम्मी मुहम्मद की बस की बात न थी कि किसी वाक़िये को नज़्म कर पाते जैसे क़ाबिल तरीन हस्तियाँ रामायण और महाभारत के रचैताओं ने शाहकार पेश किए हैं. 
अभी वह इमरान का क़िस्सा भी बतला नहीं सके थे कि ईसा कि पैदाइश पर आ गए. 
ईसा के बारे में जो जग जाहिर सुन रखी थी उसको अल्लाह की आगाही बना कर अपने क़बीलाई लाख़ैरों  को परोस रहे हैं. उम्मियों और जाहिलों की अकसरियत माहौल पर ग़ालिब हो गई और पेश क़ुरआनी  लाल बुझक्कड़ड़ी मुल्क का निज़ाम बन गए, जैसा कि आज स्वात घाटी जैसी कई जगहों पर हो रहा है.
इस मसअला का हल सिर्फ़ जगे हुए मुसलमानों को ही हिम्मत के साथ करना होगा, कोई दूसरा इसे हल करने नहीं आएगा. कोई दूसरा अपना फ़ायदा देख कर ही किसी के मसअले में पड़ता है क्यूँ कि सब के अपने ख़ुद के ही बड़े मसाइल हैं. 
मुसलमानों! 
बेदार हो जाओ, इन क़ुरआनी  आयतों को समझो, समझ में आजाएं तो इन्हें अपने सुल्फ़ा की भूल समझ कर दफ़ना दो और इस से जुड़े हुए ज़रीया मआश को हराम क़रार दे कर समाज को पाक करो.
"और मैं इस तौर पर आया हूँ कि तसदीक़ करता हूँ इस किताब को जो तुम्हारे पास इस से पहले थी,यानी तौरेत की. और इस लिए आया हूँ कि तुम लोगों पर कुछ चीजें हलाल कर दूं जो तुम पर हराम कर दी गई थीं और मैं तुम्हारे पास दलील लेकर आया हूँ, तुम्हारे परवर दिगर की जानिब से. हासिल यह कि तुम लोग परवर दिगर से डरो और मेरा कहना मनो"
सूरह आले इमरान 3 आयत (50) 
मुहम्मद के पास लौट फिर कर वह्यि बातें आती हैं, नया ज़्यादः कुछ कहने को नहीं है. 
जिन आयातों को मैं छू नहीं रहा हूँ, उनमे कही गई बातें ही दोहराई गई हैं या इनतेहाई दर्जा लग़वियात है. 
यहूदी बहुत ही तौहम परस्त और अपने आप ने बंधे हुए होते हैं जिनके कुछ हराम को मुहम्मद हलाल कर रहे हैं. ग़ैर यहूदी अहले मदीना और अहले मक्का को इस से कोई लेना देना नहीं. मुहम्मद के अल्लाह की सब से बड़ी फ़िक्र की बात यह है कि लोग उस से डरते रहें. बन्दों की निडर होने से उसकी कुर्सी को ख़तरा क्यूँ है, 
मुसलमानों के समझ में नहीं आता कि यह ख़तरा पहले मुहम्मद को था और अब मुल्लों को है. 
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Friday, 19 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़ (17)


क़ुरआन ए ला शरीफ़  (17)


सूरह आले इमरान- 3-سورتہ آل عمران 
(क़िस्त 3) 

मैं हिन्दू हूँ न मुसलमान, न क्रिश्चेन और न ही कोई धार्मिक आस्था रखने वाला व्यक्ति. 
मैं सिर्फ़ एक इंसान हूँ, मानव मात्र. 
हिदू और मुस्लिम संस्कारों में ढले आदमी को मानव मात्र बनना बहुत ही मुश्किल काम है. 
कोई बिरला ही सत्य और सदाक़त से आँखें मिला पाता है कि परिवेश का ग़लबा 
उसके सामने त्योरी चढ़ाए खड़ा रहता है और वह फिर आँखें मूँद कर असत्य की गोद में चला जाता है. 
ग़ालिब कहता है - - - 
बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना, 
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना.
(हर आदमी, आदमी का बच्चा होता है चाहे उसे भेड़िए ने ही क्यूं न पाला हो 
और सभ्य होने के बाद ही आदमी इंसान कहलाता है)
मैं सिर्फ़ इंसान हो चुका हूँ इस लिए मैं इंसान दोस्त हूँ. 
दुन्या में सब से ज़्यादः दलित, दमित, शोषित और मूर्ख क़ौम  है मुसलमन, 
उस से ज़्यादः हमारे भारत में अछूत, हरिजन, दलित और पिछड़ा वर्ग के नामों से, 
पहचान रखने वाला हिन्दू है. 
पहले अंतर राष्ट्रीय क़ौम को क़ुरआनी आयातों ने पामाल कर रखा है,
दूसरे को भारत में लोभ और पाखण्ड ने. 
मुट्ठी भर लोग इन दोनों को उँगलियों पर नचा रहे हैं. 
मैं फ़िलहाल मुसलमानों को इस दलदल से निकलने का बेड़ा उठता हूँ, 
हिन्दू भाइयो के शुभ चिन्तक लाखों हैं. 
इस लिए मैं इस मुसलमन मानव जाति का असली शुभ चिन्तक हूँ, 
यही मेरा मानव धर्म है. 
नादान मुसलमान मुझे अपना दुश्मन समझते हैं 
जब कि मैं उनके अज़ली दुश्मन इस्लाम की का विरोध करता हूँ 
और वाहियात गाथा क़ुरआन का. 
हर मानवता प्रेमी पाठक से मेरा अनुरोध है कि वह मेरे अभियान के साथ आएं, 
मेरे ब्लॉग को मुस्लिम भाइयों के कानों तक पहुँचाएँ. 
हर साधन से उनको इसकी सूचना दें. 
मैं मानवता के लिए जान कि बाज़ी लगा कर मैदान में उतरा हूँ, 
आप भी कुछ कर सकते हैं .

देखें क़ुरआन की बकवासें - - -
 
"बिल यक़ीन जो लोग कुफ़्र करते हैं, हरगिज़ उनके काम नहीं आ सकते, उनके माल न उनके औलाद, अल्लाह तअला के मुक़ाबले में, ज़र्रा बराबर नहीं और ऐसे लोग जहन्नम का सोख़ता होंगे."
सूरह आले इमरान 3  आयत (१०)

ख़ुद ला वलद मुहम्मद अपने दामाद की औलादों हसन और हुसैन का हश्र हौज़ ऐ कौसर के कनारे खड़े खड़े देख रहे होंगे. दुश्मने-इंसानियत मुहम्मद तमाम उम्र अपने मुख़ालिफ़ो को मारते पीटते और काटते कोसते रहे, असर उल्टा रहा अहले कुफ़्र सुर्ख रू रहे और फलते फूलते रहे, मुसलमान पामाल रहे और ज़र्द रू हुए. आज भी उम्मते मुहम्मदी पूरी दुन्या के सामने एक मुजरिम की हैसियत से खड़ी हुई है. 
किस क़दर कमज़ोर हैं क़ुरआनी आयतें, मौजूदा मुसलमानों को कैसे समझाया जाय? 

"आप फ़रमा दीजिए क्या मैं तुम को ऐसी चीज़ बतला दूँ जो बेहतर हों उन चीजों से, ऐसे लोगों के लिए जो डरते हैं, उनके मालिक के पास ऐसे ऐसे बाग़ हैं जिन के नीचे नहरें बह रही हैं, हमेशा हमेशा के लिए रहेंगे, और ऐसी बीवियां हैं जो साफ़ सुथरी की हुई हैं और ख़ुश नूदी है अल्लाह की तरफ़ से बन्दों को."
सूरह आले इमरान 3  आयत (15)

देखिए कि इस क़ौम की अक़्ल को दीमक खा गई. अल्लाह रब्बे कायनात बंदे मुहम्मद को आप जनाब कर के बात कर रहा है, इस क़ौम के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती. 
अल्लाह की पहेली है बूझें? 
अगर नहीं बूझ पाएँ तो किसी मुल्ला की दिली आरज़ू पूछें कि वह नमाजें क्यूँ पढता है? 
ये साफ़ सुथरी की हुई बीवियां कैसी होंगी, ये पता नहीं, अल्लाह जाने, जिन्से लतीफ़ होगा भी या नहीं? औरतों के लिए कोई जन्नती इनाम नहीं फिर भी यह नक़िसुल अक़्ल  कुछ ज़्यादह ही सूम सलात वालियाँ होती हैं. अल्लाह की बातों में कहीं कोई दम दरूद है? 
कोई निदा, कोई इल्हाम जैसी बात है? दीन के कलम कारों ने अपनी कला कारी से इस रेत के महेल को सजा रक्खा है. 

"अल्लाह बड़ी नरमी के साथ बन्दों को अपनी बंदगी की अहमियत को समझाता है. काफ़िरों की सोहबतों के नशेब ओ फ़राज़ समझाता है. अपनी तमाम ख़ूबियों के साथ बन्दों पर अपनी मालिकाना दावेदारी बतलाता है. दोज़ख़ पर हुज्जत करने वालों को आगाह करता है. क़ुरआन  से इन्हिराफ़ करने वालों का बुरा अंजाम है, ग़रज़ ये कि दस आयातों तक अल्लाह की क़ुरआनी तान छिड़ी रहती है जिसका कोई नतीजा अख्ज़ करना मुहाल है."  
सूरह आले इमरान 3  आयत (16-26)

अल्लाह की जुग़राफ़ियाई मालूमात और क़ुदरत की राज़दारी के बारे में देखें. 
उम्मी मुहम्मद का तकमील करदा अल्लाह कहता है - - -
"कि वह  रात को दिन में दाख़िल कर देते हैं और दिन को रात में. वह  जानदार चीज़ों को बेजान से निकाल लेता है (जैसे अंडे से चूज़ा) और बे जान चीज़ों को जानदार से निकाल लेता है (जैसे परिंदों से अंडा) "
सूरह आले इमरान 3  आयत (27)

इस बात को मुहम्मद क़ुरआन में बार बार दोहराते हैं मगर आज के दौर में ओलिमा इस बात को जाहिल अवाम के आगे भी नहीं बयान करते, न ही अपनी तहरीर में कहीं इस आयत को छूते हैं. 
मगर मिस्कीन हिंदी हर रोज़ अपनी नमाज़ों में ज़रूर इस जेहालत को पढ़ते हैं. 
सोचिए कि जो शख़्स  यूनानी साइंस दानो, सुकरात और अरस्तु से सदियों बाद पैदा हुवा हो उसकी समाजी जानकारी इतनी भी न हो कि रात और दिन कैसे होते है और अंडा जो परिन्दे के पेट से पैदा होता है वह जानदार होता है, जाहिलों के सरदार मोहम्मद अल्लाह के रसूल बने बैठे हैं.
 मुसलमानों के ये बद तरीन दुश्मन ओलिमा जो मुसलमानों को जिंदा नोच नोच कर खा रहे हैं, 
ऐसे गाऊदी को सरवर-कायनात जैसे सैकडों लक़ब से नवाज़े हुवे हैं. 
*यहूदियों का ख़ुदा यहुवा हमेशा यहूदियों पर मेहरबान रहता है, 
गाड एक बाप की तरह  हमेशा अपने ईसाई बेटों को मुआफ़ किए रहता है, 
ज़्यादह तर धार्मिक भगवान दयालु होते हैं, 
बस की एक मुसलमानों का अल्लाह है जो उन पर पैनी नज़र रखता है. 
वह  बार बार इन्हें धमकियाँ दिए रहता है. हर वक़्त याद दिलाता है रहता कि वह बड़ा अज़ाब देने वाला है. सख़्त बदला लेने वाला है. चाल चलने वाला वाला है. गर्दन दबोचने वाला है. क़हर ढाने वाला है. 
वह मुसलमानों को हर वक़्त डराए रहता है. 
उसे डरपोक बन्दे पसंद हैं, बसूरत दीगर उसकी राह में जेहादी. 
वह  मुसलमानों को महदूद होकर जीने की सलाह देता है, 
जिस की वजह से हिदुस्तानी मुसलमान कशमकश की ज़िन्दगी जीने पर मजबूर हैं. 
इन्हें मुल्क में मशकूक नज़रों से देखा जाए तो क्यूँ न देखा जाए ? 
देखिए अल्लाह कहता है - - -
''मुसलमानों को चाहिए कुफ्फारों को दोस्त न बनाएं, मुसलमानों से तजाउज़ करके जो शख़्स ऐसा करेगा, वह शख़्स  अल्लाह के साथ किसी शुमार में नहीं मगर अल्लाह तुम्हें अपनी ज़ात से डराता है." 
सूरह आले इमरान 3  आयत (28)

इस क़ुरआनी  आयात को सुनने के बाद भारत की काफ़िर हिन्दू अक्सरीयत आबादी मुस्लिम अवाम को दोस्त कैसे बना सकती है? ऐसी क़ुरआनी आयतों के पैरोकारों को हिन्दू अपना दुश्मन मानें तो क्यूँ न मानें? दुन्या के तमाम ग़ैर मुस्लिम मुमालिक में बसे हुए मुसलमानों के साथ किस दर्जा ना आकबत अन्देशाना और ज़हरीला ये पैग़ाम है इसलाम का. 
मुस्लिम ख़वास और मज़हबी रहनुमा कहते हैं कि उनके बुज़ुर्गों ने पाकिस्तान न जाकर हिंदुस्तान जैसे सैकुलर मुल्क में रहना पसंद किया, इस लिए उन्हें सैकुलर हुक़ूक़ मिलने चाहिएं. सैकुलरटी की बरकतों के दावे दार ये लोग सैकुलर भी हैं और ऐसी आयात वाली क़ुरआन के पुजारी भी. 
इन्हीं की जुबान में - - -
" ये सब के सब हिदुस्तान के जदीद मुनाफ़िक़ हैं" इन से सावधान रहे हिंदुस्तान."

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday, 18 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़ (16)

o
क़ुरआन ए ला शरीफ़  (16)

सूरह आले इमरान- 3-سورتہ آل عمران 
(क़िस्त 2) 

मुसलमानों के साथ कैसा अजीब मज़ाक है कि उनका अल्लाह अपनी तमाम कार गुज़रियाँ ख़ुद गिनवा रहा है, वह भी उनका झूठा गवाह बन कर, उन का मुंसिफ़ बन कर. 
अफ़सोस का मुक़ाम ये है कि मुसलमान ऐसे अल्लाह पर यक़ीन करता है. जब तक उसका यक़ीन पुख़्ता है तब तक उसका ज़वाल भी यक़ीनी है. ख़ुदा न करे वह दिन भी आ सकता है कि कहा जाय एक क़ौम ए जेहालत उम्मत ए मुहम्मदी हुवा करती थी. 

तौरेत, इंजील, ज़ुबूर जैसी सैकड़ों तारीख़ी किताबें अपने वाजूदों को तस्लीम और तसदीक़ कराए हुए है, 
इन के सामने क़ुरआन हक़ीक़त में अल्लम ग़ल्लम से ज़्यादः कुछ भी नहीं. 
क़ुरआन का उम्मी मुसन्निफ़ सनद दे, तौरेत, इंजील को, तो तौरेत व इंजील की तौहीन है. 
क़ुरआन के मुताबिक़ मूसा पर आसमानी किताब तौरेत और ईसा पर आसमानी किताब इंजील नाज़िल हुई थी मगर इन दोनों की उम्मातें के पास इनकी मुस्तनद तारीख़ है. मूसा ने तौरेत लिखना शुरू किया जिसको कि बाद के उसे यहूद नबी मुसलसल बढ़ाते गए जो बिल आख़ीर ओल्ड टेस्टामेंट की शक्ल में महफूज़ हुई जोकि यहूदियों और ईसाइयों की तस्लीम शुदा बुनियादी किताब है. 
ईसा के बाद इस के हवारियों ने जो कुछ इस के हालात लिखे या लिखवाए वह इंजील है. 
दाऊद ने जो गीत रचे वह ज़ुबूर है.
सुलेमान और छोटे छोटे नबियों ने जो हम्दो सना की वह सहीफ़े हैं. 
यह सब किताबें आलमी स्कूलों, कालेजों, लाइबब्रेरिज में दस्तयाब हैं और रोज़े रौशन की तरह  अयाँ हैं. 
बहुत तरफ़सील के साथ सब कुछ देखा जा सकता है. 
ये किताबें मुक़द्दस ज़रूर मानी जाती हैं मगर आसमानी नहीं, सब ज़मीनी हैं, 
क़ुरआन इन्हें ज़बरदस्ती आसमानी बनाए हुए है, इन्हें अपने रंग में रंगने के लिए. 
इनकी मौजूदयत को क़ुरआनी  अल्लाह (इस्लामी सियासत के तहत) नक़ली कहता है.
इस की सज़ा मुसलमानों को चौदह सौ सालों से सिर्फ़ मुहम्मद की ख़ुद सरी, ख़ुद पसंदी और ख़ुद बीनी की वजह से चुकानी पड़ रही है. 
बात अरब दुन्या की थी, समेट लिया पूरे एशिया अफ्रीका और आधे योरोप को. हम फ़िलहाल अपने उप महा द्वीप की बात करते हैं कि ये आग हम को एकदम पराई लग रही है जिसमे यह मज़हबी रहनुमा हम को धकेल रहे हैं
 
"सब कुछ संभालने वाले हैं. अल्लाह ने आप के पास जो क़ुरआन भेजा है वाक़ेअय्यत के साथ इस कैफ़ियत से कि वह तसदीक़ करता है उन किताबों को जो इस से पहले आ चुकी हैं और इसी तरह  भेजा था तौरेत और इंजील को."
सूरह आले इमरान 3 आयत(3)
मुहम्मदी अल्लाह की वाक़ेअय्यत ऊपर बयान कर चुके हैं.

"जो लोग मुंकिर हैं, अल्लाह .तअला के आयतों के इन के लिए सज़ाए सख़्त है और अल्लाह .तअला ग़लबा वाले हैं, बदला लेने वाले हैं.''
सूरह आले इमरान 3 आयत(4) 
मुंकिर के लफ़्ज़ी माने तो होते हैं इंकार करने वाला, 
इंसान या तो किसी बात का मुंकिर होता है या इक़रारी मगर लफ़्ज़ मुंकिर का इस्लामी करण होने के बाद इसके मतलब बदल कर इसलाम क़ुबूल कर के फिर जाना वाला मुंकिर हो जाना है, 
ऐसे लोगों की सज़ा मोहसिन इंसानियत, सरवरे कायनात, मालिके क़ौनैन, हज़रात मुहम्मद मुस्तफ़ा, रसूल अकरम, सल्लललाहो अलैहे वालेही वसल्लम ने मौत फ़रमाई है. 
जो ताक़त कायनात पर ग़ालिब होगी, क्या वजह है कि वह हमारे हाँ न पर, हमारी मर्ज़ी पर, हमारे अख़्तियार पर क्यों न ग़ालिब हो, उसको मोहतसिब और मुन्तक़िम होने की ज़रुरत ही क्यूँ पड़ी.? 
ये क़ुरआन के उम्मी ख़ालिक़ का बातिल पैग़ाम है. ख़ालिक़े हक़ीक़ी का नहीं हो सकता. 
मुसलमानों होश में आओ. क़ुरआन के बातिल एजेंट अपना कारोबार चला रहे हैं और कुछ भी नहीं. 
इन का कई बार सर क़लम किया गया है मगर ये सख़्त जान फिर पनप आते हैं.

इसी तरह  अरबों के मुश्तरका बुज़ुर्ब अब्राहम जो अरब इतिहासकारों के लिए पहला मील का पत्थर है, 
जिस से इंसानी समाज की तारीख़ शुरू होती है और जो फ़ादर अब्राहम कहे जाते है, उनको भी मुहम्मद ने मुसलमान बना लिया और उनका दीन इसलाम बतलाया. ख़ुद पैदा हुए उनके हज़ारों साल बाद.  
अपने बाप को भी काफ़िर और जहन्नमी कहा मगर इब्राहीम अलैहिस्सलाम को जन्नती मुसलमान. 
काश मुसलमानों को कोई समझाए कि हिम्मत के साथ सोचें कि वह कहाँ हैं? 
एक लम्हे में ईमान दारी पर ईमान ला सकते है. मुस्लिम से मोमिन बन सकते हैं.

"जिसने नाज़िल किया किताब को जिस का एक हिस्सा वह आयतें हैं जो कि इश्तेबाह मुराद से महफूज़ हैं और यही आयतें असली मदार हैं किताब का. दूसरी आयतें ऐसी हैं जो कि मुश्तबाहुल मुराद हैं, सो जिन लोगों के दिलों में कजी है वह इन हिस्सों के पीछे हो लेते हैं. जो मुश्तबाहुल मुराद हैं, सो सोरिश दूंढने की ग़रज़ से. हालांकि इस का सही मतलब बजुज़ अल्लाह .तअला के कोई नहीं जनता."
सूरह आले इमरान 3 आयत(6+7) 
मुहम्मदी अल्लाह अपनी क़ुरआनी  आयातों की ख़मियों की जानकारी देता है कि इन में कुछ साफ़ साफ़ हैं और यही क़ुरआन की धुरी हैं और कुछ मशकूक हैं जिनको शर पसंद पकड़ लेते हैं. इस बात की वज़ाहत आलिमान क़ुरआन यूँ करते हैं कि क़ुरआन में तीन तरह  की आयतें हैं---
१- अदना (जो साफ़ साफ़ मानी रखती हैं)
२- औसत (जो अधूरा मतलब रखती हैं)
३-तवास्सुत (जो पढने वाले की समझ में न आए और जिसको अल्लाह ही बेहतर समझे.)
सवाल उठता है कि एक तरफ़ दावा है हिकमत और हिदायते-नेक से भरी हुई क़ुरआन अल्लाह की अजीमुश्शान किताब है और दूसरी तरफ़ तवस्सुत और औसत की मजबूरी ? 
अल्लाह की मुज़बज़ब बातें, एहकामे इलाही में तज़ाद, का मतलब क्या है ?
हुरूफ़े मुक़त्तेआत का इस्तेमाल जो किसी मदारी के छू मंतर की तरह  लगते हैं. 
क्या अल्लाह की गुफ़्तगू ऐसी होनी चाहिए ??
दर अस्ल क़ुरआन कुछ भी नहीं, मुहम्मद के वजदानी कैफ़ियत में बके गए बड़ का एह मजमूआ है. 
इन में ही बाज़ बातें ताजाऊज़ करके बे मानी हो गईं तो उनको मुश्तबाहुल मुराद कह कर अल्लाह के सर हांडी फोड़ दिया है. 
वाज़ह हो कि जो चीजें नाज़िल होती हैं, वह बला होती हैं. 
अल्लाह की आयतें हमेशा नाज़िल हुई हैं. 
कभी प्यार के साथ बन्दों के लिए पेश नहीं हुईं. 
कोई क़ुरआनी आयत इंसानी ज़िन्दगी का कोई नया पहलू नहीं छूती, 
कायनात के किसी राज़ हाय का इन्केशाफ़ नहीं करती, जो कुछ इस सिलसिले में बतलाती है दुन्या के सामने मज़ाक़ बन कर रह जाता है. बे सर पैर की बातें पूरे क़ुरआन में भरी पड़ी हैं, 
बस कि क़ुरआन की तारीफ़, 
तारीफ़ ? किस बात की तारीफ़ ?? उस बात का पता नहीं. 
इस की पैरवी मुल्ला, मौलवी, ओलिमाए दीन करते हैं जिन की नक़ल मुसलमान भी करता है. 
आम मुसलमान नहीं जनता की क़ुरआन में क्या है, 
ख़ास जो कुछ जानते हैं वह सोचते है भाड़ में जाएँ, हम बचे रहें इन से, यही काफ़ी है. 
यह आयत बहुत ख़ास इस लिए है कि ओलिमा नामुराद अकसर लोगों को बहक़ते हैं कि क़ुरआन को समझना बहुत मुश्किल है.
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Wednesday, 17 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़ (15


क़ुरआन ए ला शरीफ़  (15 )


सूरह आले इमरान- 3-سورتہ آل عمران 
(क़िस्त 1) 
एक हदीस मुलहिज़ा फ़रमाएँ - - -
इस्लाम के दूसरे सूत्राधार अली मौला से रवायत है कि 
''एक ऊंटनी बद्र के जंग से माले-ग़नीमत (लूट) में मुझे मिली और एक रसूल ने तोह्फ़तन दी. इन दोनों को एक अंसार के सेहन में बाँध कर मैं सोंच रहा था कि इन पर अज़ख़ुर घास लाद कर लाया करूंगा और बेचूगा, इस तरह  कुछ पैसा जमा कर के फ़ातिमा का वलीमा करूंगा जो कि अभी तक मुझ पर उधार था. इसी घर में हम्ज़ा बिन अब्दुल मतलब मुहम्मद के चचा शराब पी रहे थे, साथ में एक लौंडी ग़ज़ल गा रही थी जो कुछ इस तरह  थी - - - 
(तर्जुमा)
 चल ऐ हम्ज़ा इन मोटे ऊंटों पे जा,
बंधे हैं सेहन में जो सब एक जा,
चला इनकी गर्दन पे जल्दी छुरा,
मिला इनको तू ख़ून  में और लुटा,
बना इनके टुकड़ों से उम्दा जो हों,
गज़क गोश्त का हो पका और भुना. 
उसकी ग़ज़ल सुन कर हम्ज़ा ने तलवार उठाई और ऊटों की कोखें फाड़ दीं. अली यह मंज़र देख कर मुहम्मद के पास भागे हुए गए और जाकर शिकायत की, जहाँ ज़ैद बिन हारसा भी मौजूद थे. तीनों अफ़राद जब हम्ज़ा के पास पहुंचे तो वह नशे में धुत्त था. उन सभों को देख कर ग़ुस्से के आलम में लाल पीला हो रहा हो गया, बोला, 
'' तुम लोग हो क्या? मेरे बाप दादों के ग़ुलाम   हो.'' 
यह सुन कर मुहम्मद उलटे पाँव वापस हो गए

(देखें हदीस ''मुस्लिम - - - किताबुल अशर्बता'' + बुखारी १५७)
यह मुहम्मद का बहुत निजी मामला था, एक तरफ़ दामाद, दूसरी तरफ़ ख़ुदा ख़ुदा करके हुवा, 
मुसलमान बहादुर चचा हम्ज़ा ? 
होशियार अल्लाह के ख़ुद साख़ता रसूल को एक रास्ता सूझा, 
दूसरे दिन ही अल्लाह की क़ुरआनी आयत नाज़िल करा दी कि शराब हराम हुई. 
मदीने में मनादी करा दी गई कि अल्लाह ने शराब को हराम क़रार दे दिया है.
जाम ओ पैमाना तोड़ दिए गए, मटके और ख़ुम पलट दिए गए, 
शराबियों के लिए कोड़ों की सज़ाएं मुक़रर्र हुईं. 
कल तक जो शराब लोगों की महबूब मशरूब थी, उस से वह महरूम कर दिए गए. यक़ीनन ख़ुद मुहम्मद ने मयनोशी उसी दिन छोड़ी होगी क्यूं कि कई क़ुरआनी आयतें शराबियों की सी इल्लत की बू रखती हैं. 
लोगों की तिजारत पर गाज गिरी होगी, मुहम्मद की बला से, उनका तो कौल था कि सब से बेहतर तिजारत है जेहाद जिसमे लूट के माल से रातो रात माला माल हो जाओ. 
ग़ौर  करें की मुहम्मद ने अपने दामाद अली के लिए लोगों को शराब जैसी नेअमत से महरूम कर दिया. 
शराब ज़ेहन इंसानी के लिए नेअमत ही नहीं दवा भी है, 
दवा को दवा की तरह  लिया जाए न के अघोरियों की तरह . शराब जिस्म के तमाम आज़ा को संतुलित रखती है, आज की साइंसी खोज में इसका बड़ा योगदान है. यह ज़ेहन के दरीचों को खोलती है जिसमे नए नए आयाम की आमद होती है. इसकी लम्स क़ुदरत की अन छुई परतें खोलती हैं. 
शराब इंसान को मंजिल पाने के लिए मुसलसल अंगड़ाइयां अता करती है. 
आलमे इस्लाम की बद नसीबी है कि शराब की बे बरकती ने इसे कुंद जेहन, कौदम, और गाऊदी बना दिया है. इस्लाम तस्लीम करने के बाद कोई मुस्लिम बन्दा ऐसा नहीं हुवा जिस ने कि कोई नव ईजाद की हो. 
हमारे मुस्लिम समाज का असर हिन्दू समाज पर अच्छा खासा पड़ा है. 
इस समाज ने मुस्लिम समाज के रस्मो-रिवाज, खान पान, लिबासों, पोशाक, और तौर तरीक़ों को अपनाया और ऐसा नहीं कि सिर्फ़ हिन्दुओं ने ही अपनाया हो, मुसलमानों ने भी हिन्दू रस्म को अपनाया. 
यूं कहें कि इस्लाम क़ुबूल करने के बाद भी अपने रस्मो रिवाज पर क़ायम रहे. 
मसलन दुल्हन का सुर्ख लिबास हो या जात बिरादरी. 
मगर सोमरस जो कि ऋग वेद मन्त्र का पवित्र उपहार है, हिदू समाज में हराम कैसे हो गया, 
मोदी का गुजरात इसे क्यूं क़ुबूल किए हुए है? 
गांधी बाबा इसके ख़िलाफ़ क्यूं सनके? 
यह तो वाक़ई आबे हयात है. 
किसी के लिए मीठा और चिकना हराम है तो किसी के लिए नमक और मिर्च. 
ज़्यादः खाना नुक़सान देह हो तो हराम हो जाता है और ग़रीब को कम खाना तो मजबूरी में हराम होता ही है. 
यह हराम हलाल का कन्सेप्ट ही इस्लामी बेवक़ूफ़ियों में से एक है. 
हराम गिज़ा वह होती है जो मुफ़्त और बग़ैर मशक्क़त की हो, 
दूसरों का हक़ हो लूट पाट की हो. 
मुसलमानों! 
माले ग़नी मत बद तरीन हराम गिज़ा है. 

आइए तीसरे पारे आले इमरान की बख़िया उधेडी जाए - - - 

"अलिफ़-लाम-मीम" 
सूरह आले इमरान 3 आयत (1)
यह लफ़्ज़ मोहमिल (यानी अर्थ शून्य) है जिसका मतलब अल्लाह ही जनता है. 
ऐसे हरफ़ों या लफ्ज़ों को क़ुरआनी  मंतक़ियों ने हुरूफ़ ए मुक़त्तेआत का नाम दिया है. 
यह सूरत के पहले आते हैं. 
यहाँ पर यह एक आयत यानी कोई बात, कोई पैग़ाम की हैसियत भी रखता है. 
इस अर्थ हीन शब्द के आगे + ग़ल्लम लगा कर किसी अक़्ल मंद ने इसे अल्लम ग़ल्लम कर दिया, 
गोया इस का पूरा पूरा हक़ अदा कर दिया, अल्लम ग़ल्लम. 
क़ुरआन का बेहतरीन नाम अल्लम ग़ल्लम हो सकता है.

"अल्लाह तअला ऐसे हैं कि उन के सिवा कोई क़ाबिल माबूद बनाने के नहीं और वह ज़िन्दा ओ जावेद है."
सूरह आले इमरान 3 आयत(२)
यहाँ पर मैं फिर आप को एक बार याद दिला दूँ कि क़ुरआन कलाम अल्लाह नहीं कलाम मुहम्मद है, 
जैसा कि वह अल्लाह के बारे में बतला रहे हैं, 
साथ साथ उसकी मुशतहरी भी कर रहे हैं. इस आयत में बेवक़ूफ़ी कि इत्तेला है. 
अल्लाह अगर है तो क्या मुर्दा होगा ? 
मुसलमान तो मुर्दा ख़ुदाओं का दामन थाम कर भी अपनी नय्या पार लगा लेता है. यह अल्लाह के ज़िन्दा होने और सब कुछ संभालने की बात मुहम्मद ने पहले भी कही है आगे भी इसे बार बार दोहराते रहेंगे.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Tuesday, 16 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़ (14 )

क़ुरआन ए ला शरीफ़  (14 )

 सूरह आले इमरान- 3-سورتہ آل عمران 

(क़िस्त 1) 

एक हदीस मुलहिज़ा फ़रमाएँ - - -

इस्लाम के दूसरे सूत्राधार अली मौला से रवायत है कि 

''एक ऊंटनी बद्र के जंग से माले-ग़नीमत (लूट) में मुझे मिली और एक रसूल ने तोह्फ़तन दी. इन दोनों को एक अंसार के सेहन में बाँध कर मैं सोंच रहा था कि इन पर अज़ख़ुर घास लाद कर लाया करूंगा और बेचूगा, इस तरह  कुछ पैसा जमा कर के फ़ातिमा का वलीमा करूंगा जो कि अभी तक मुझ पर उधार था. इसी घर में हम्ज़ा बिन अब्दुल मतलब मुहम्मद के चचा शराब पी रहे थे, साथ में एक लौंडी ग़ज़ल गा रही थी जो कुछ इस तरह  थी - - - 

(तर्जुमा)

 चल ऐ हम्ज़ा इन मोटे ऊंटों पे जा,

बंधे हैं सेहन में जो सब एक जा,

चला इनकी गर्दन पे जल्दी छुरा,

मिला इनको तू ख़ून  में और लुटा,

बना इनके टुकड़ों से उम्दा जो हों,

गज़क गोश्त का हो पका और भुना. 

उसकी ग़ज़ल सुन कर हम्ज़ा ने तलवार उठाई और ऊटों की कोखें फाड़ दीं. अली यह मंज़र देख कर मुहम्मद के पास भागे हुए गए और जाकर शिकायत की, जहाँ ज़ैद बिन हारसा भी मौजूद थे. तीनों अफ़राद जब हम्ज़ा के पास पहुंचे तो वह नशे में धुत्त था. उन सभों को देख कर ग़ुस्से के आलम में लाल पीला हो रहा हो गया, बोला, 

'' तुम लोग हो क्या? मेरे बाप दादों के ग़ुलाम   हो.'' 

यह सुन कर मुहम्मद उलटे पाँव वापस हो गए


(देखें हदीस ''मुस्लिम - - - किताबुल अशर्बता'' + बुखारी १५७)

यह मुहम्मद का बहुत निजी मामला था, एक तरफ़ दामाद, दूसरी तरफ़ ख़ुदा ख़ुदा करके हुवा, 

मुसलमान बहादुर चचा हम्ज़ा ? 

होशियार अल्लाह के ख़ुद साख़ता रसूल को एक रास्ता सूझा, 

दूसरे दिन ही अल्लाह की क़ुरआनी आयत नाज़िल करा दी कि शराब हराम हुई. 

मदीने में मनादी करा दी गई कि अल्लाह ने शराब को हराम क़रार दे दिया है.

जाम ओ पैमाना तोड़ दिए गए, मटके और ख़ुम पलट दिए गए, 

शराबियों के लिए कोड़ों की सज़ाएं मुक़रर्र हुईं. 

कल तक जो शराब लोगों की महबूब मशरूब थी, उस से वह महरूम कर दिए गए. यक़ीनन ख़ुद मुहम्मद ने मयनोशी उसी दिन छोड़ी होगी क्यूं कि कई क़ुरआनी आयतें शराबियों की सी इल्लत की बू रखती हैं. 

लोगों की तिजारत पर गाज गिरी होगी, मुहम्मद की बला से, उनका तो कौल था कि सब से बेहतर तिजारत है जेहाद जिसमे लूट के माल से रातो रात माला माल हो जाओ. 

ग़ौर  करें की मुहम्मद ने अपने दामाद अली के लिए लोगों को शराब जैसी नेअमत से महरूम कर दिया. 

शराब ज़ेहन इंसानी के लिए नेअमत ही नहीं दवा भी है, 

दवा को दवा की तरह  लिया जाए न के अघोरियों की तरह . शराब जिस्म के तमाम आज़ा को संतुलित रखती है, आज की साइंसी खोज में इसका बड़ा योगदान है. यह ज़ेहन के दरीचों को खोलती है जिसमे नए नए आयाम की आमद होती है. इसकी लम्स क़ुदरत की अन छुई परतें खोलती हैं. 

शराब इंसान को मंजिल पाने के लिए मुसलसल अंगड़ाइयां अता करती है. 

आलमे इस्लाम की बद नसीबी है कि शराब की बे बरकती ने इसे कुंद जेहन, कौदम, और गाऊदी बना दिया है. इस्लाम तस्लीम करने के बाद कोई मुस्लिम बन्दा ऐसा नहीं हुवा जिस ने कि कोई नव ईजाद की हो. 

हमारे मुस्लिम समाज का असर हिन्दू समाज पर अच्छा खासा पड़ा है. 

इस समाज ने मुस्लिम समाज के रस्मो-रिवाज, खान पान, लिबासों, पोशाक, और तौर तरीक़ों को अपनाया और ऐसा नहीं कि सिर्फ़ हिन्दुओं ने ही अपनाया हो, मुसलमानों ने भी हिन्दू रस्म को अपनाया. 

यूं कहें कि इस्लाम क़ुबूल करने के बाद भी अपने रस्मो रिवाज पर क़ायम रहे. 

मसलन दुल्हन का सुर्ख लिबास हो या जात बिरादरी. 

मगर सोमरस जो कि ऋग वेद मन्त्र का पवित्र उपहार है, हिदू समाज में हराम कैसे हो गया, 

मोदी का गुजरात इसे क्यूं क़ुबूल किए हुए है? 

गांधी बाबा इसके ख़िलाफ़ क्यूं सनके? 

यह तो वाक़ई आबे हयात है. 

किसी के लिए मीठा और चिकना हराम है तो किसी के लिए नमक और मिर्च. 

ज़्यादः खाना नुक़सान देह हो तो हराम हो जाता है और ग़रीब को कम खाना तो मजबूरी में हराम होता ही है. 

यह हराम हलाल का कन्सेप्ट ही इस्लामी बेवक़ूफ़ियों में से एक है. 

हराम गिज़ा वह होती है जो मुफ़्त और बग़ैर मशक्क़त की हो, 

दूसरों का हक़ हो लूट पाट की हो. 

मुसलमानों! 

माले ग़नी मत बद तरीन हराम गिज़ा है. 


आइए तीसरे पारे आले इमरान की बख़िया उधेडी जाए - - - 


"अलिफ़-लाम-मीम" 

सूरह आले इमरान 3 आयत (1)

यह लफ़्ज़ मोहमिल (यानी अर्थ शून्य) है जिसका मतलब अल्लाह ही जनता है. 

ऐसे हरफ़ों या लफ्ज़ों को क़ुरआनी  मंतक़ियों ने हुरूफ़ ए मुक़त्तेआत का नाम दिया है. 

यह सूरत के पहले आते हैं. 

यहाँ पर यह एक आयत यानी कोई बात, कोई पैग़ाम की हैसियत भी रखता है. 

इस अर्थ हीन शब्द के आगे + ग़ल्लम लगा कर किसी अक़्ल मंद ने इसे अल्लम ग़ल्लम कर दिया, 

गोया इस का पूरा पूरा हक़ अदा कर दिया, अल्लम ग़ल्लम. 

क़ुरआन का बेहतरीन नाम अल्लम ग़ल्लम हो सकता है.


"अल्लाह तअला ऐसे हैं कि उन के सिवा कोई क़ाबिल माबूद बनाने के नहीं और वह ज़िन्दा ओ जावेद है."

सूरह आले इमरान 3 आयत(२)

यहाँ पर मैं फिर आप को एक बार याद दिला दूँ कि क़ुरआन कलाम अल्लाह नहीं कलाम मुहम्मद है, 

जैसा कि वह अल्लाह के बारे में बतला रहे हैं, 

साथ साथ उसकी मुशतहरी भी कर रहे हैं. इस आयत में बेवक़ूफ़ी कि इत्तेला है. 

अल्लाह अगर है तो क्या मुर्दा होगा ? 

मुसलमान तो मुर्दा ख़ुदाओं का दामन थाम कर भी अपनी नय्या पार लगा लेता है. यह अल्लाह के ज़िन्दा होने और सब कुछ संभालने की बात मुहम्मद ने पहले भी कही है आगे भी इसे बार बार दोहराते रहेंगे.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Monday, 15 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़ (13 )


क़ुरआन ए ला शरीफ़  (13)

सूरह  ए अल्ब्बक्र का इख़्तेसार 

 * शराब और जुवा में बुराइयाँ हैं और अच्छइयां भी. 
*ख़ैर  और ख़ैरात में उतना ही ख़र्च करो जितना आसान हो. 
* यतीमों के साथ मसलेहत की रिआयत रखना ज़्यादः बेहतर है. 
*काफ़िर औरतों के साथ शादी मत करो भले ही लौंडी के साथ कर लो. 
*काफ़िर शौहर मत करो, उस से बेहतर ग़ुलाम  है. 
*हैज़ एक गन्दी चीज़ है हैज़ के आलम में बीवियों से दूर रहो. 
*मर्द का दर्जा औरत से बड़ा है. 
*सिर्फ़ दो बार तलाक़ दिया है तो बीवी को अपना लो चाहे छोड़ दो. 
*तलाक़ के बाद बीवी को दी हुई चीजें नहीं लेनी चाहिएं, 
मगर आपसी समझौता हो तो वापसी जायज़ है. 
जिसे दे कर औरत अपनी जन छुडा ले. 
*तीसरे तलाक़ के बाद बीवी हराम है.
*हलाला के अमल के बाद ही पहली बीवी जायज़ होगी. 
*माएँ अपनी औलाद को दो साल तक दूध पिलाएं 
तब तक बाप इनका ख़याल रखें. 
ये काम दाइयों से भी कराया जा सकता है. 
*एत्काफ़ में बीवियों के पास नहीं जाना चाहिए. 
*बेवाओं को शौहर के मौत के बाद चार महीना दस दिन निकाह के लिए रुकना चाहिए. 
*बेवाओं को एक साल तक घर में पनाह देना चाहिए 
*मुसलमानों को रमज़ान की शब में जिमा हलाल हुवा.
वग़ैरह वग़ैरह सूरह कि ख़ास बातें, 
इस के अलावः नाकाबिले कद्र बातें जो फ़ुज़ूल कही जा सकती हैं. 
भरी हुई हैं.
तमाम आलिमान को मोमिन का चैलेंज है.
मुसलमान आँख बंद कर के कहता है क़ुरआन में निज़ाम हयात 
(जीवन-विधान) है.
नमाज़ियो!
ये बात मुल्ला, मौलवी उसके सामने इतना दोहराते हैं कि वह सोंच भी नहीं सकता कि ये उसकी जिंदगी के साथ सब से बड़ा झूट है. 
ऊपर की बातों में आप तलाश कीजिए कि कौन सी इन बेहूदा बातों का आज की ज़िन्दगी से वास्ता है. 
इसी तरह  इनकी हर हर बात में झूट का अंबार रहता है. 
इनसे नजात दिलाना हर मोमिन का क़स्द होना चाहिए . 
***  


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday, 14 February 2021

क़ुरआन ए ला शरीफ़ (12)


क़ुरआन ए ला शरीफ़  (12)

 सूरह अलबक़र -2-سورتہ البقرہ   
(क़िस्त 11 ) 
"लेन देन किया करो तो एक दस्तावेज़ तैयार कर लिया करो, इस पर दो मर्दों की गवाही करा लिया करो, दो मर्द न मिलें तो एक मर्द और दो औरतों की गवाही ले लो" 
सूरह अलबक़र -2-आयत (283)
यानी दो औरत=एक मर्द 
क़ुरआन  में एक लफ़्ज़ या कोई फ़िक़रा या अंदाज ए  बयान का सिलसिला बहुत देर तक क़ायम रहता है जैसे कोई अकसर जाहिल लोग पढ़े लिखों की नक़्ल में पैरवी करते हैं. इस लिए भी ये उम्मी मुहम्मद का कलाम है, साबित करने के लिए लसानी तूल कलामी दरकार है. 
यहाँ पर अल्लाह के रसूल की धुन है 
"लोग आप से पूछते हैं. "
अल्लाह का सवाल फ़र्ज़ी होता है, जवाब में वह जो बात कहना चाहता है. 
ये जवाब एन इंसानी फ़ितरत के मुताबिक़ होते हैं, जो हज़ारों सालों से तस्लीम शुदा हैं. 
जिसे आज मुसलमान क़ुरआनी  ईजाद मानते हैं. 
आम मुसलमान समझता है इंसानियत, शराफ़त, और ईमानदारी, सब इसलाम की देन है, 
ज़ाहिर है उसमें तअलीम  की कमी है. उसे महदूद मुस्लिम मुआशरे में ही रखा गया है. 

क़ुरआन  में कीड़े निकालना भर मेरा मक़सद नहीं है, 
बहुत सी अच्छी बातें हैं, इस पर मेरी नज़र क्यूँ नहीं जाती?
अकसर ऐसे सवाल आप की नज़र के सामने मेरे ख़िलाफ़ कौधते होंगे. 
बहुत सी अच्छी बातें, बहुत ही पहले कही गई हैं, 
एक से एक अज़ीम हस्तियां और नज़रियात इसलाम से पहले इस ज़मीन पर आ चुकी हैं जिसे कि क़ुरआनी  अल्लाह तसव्वुर भी नहीं कर सकता. अच्छी और सच्ची बातें फ़ितरी होती हैं जिनहें आलमीं सचचाइयाँ भी कह सकते हैं. 
क़ुरआन  में कोई एक बात भी इसकी अपनी सच्चाई या इन्फ़रादी सदाक़त नहीं है. 
हज़ारों बकवास और झूट के बीच अगर किसी का कोई सच आ गया हो तो उसको क़ुरआन  का नहीं कहा जा सकता,
"माँ बाप की ख़िदमत करो" 
अगर क़ुरआन  में कहता है तो इसकी अमली मिसाल श्रवण कुमार 
इस्लाम से सदियों पहले क़ायम कर चुका है. 
मौलाना कूप मंडूकों का मुतलिआ क़ुरआन  तक सीमित है,  
इस लिए उनको हर बात क़ुरआन  में नज़र आती है. 
यही हाल अशिक्षित मुसलमानों का है. 

सूरह के आख़ीर में अल्लाह ख़ुद अपने आप से दुआ मांगता है, 
बक़ौल मुहम्मद क़ुरआन अल्लाह का कलाम है ? 
देखिए आयत में अल्लाह अपने सुपर अल्लाह के आगे कैसे ज़ारो क़तार गिड़गिड़ा रहा है. 
सदियों से अपने फ़लसफ़ा को दोहरते दोहराते, मुल्ला अल्ला को बहरूपिया बना चुका है, 
वह दुआ मांगते वक़्त बन्दा बन जाता है. 
मुहम्मद दुआ मांगते हैं तो एलानिया अल्लाह बन जाते हैं. 
उनके मुंह से निकली बात, चाहे उनके आल औलादों के ख़ैर के लिए हो, चाहे सय्यादों के लिए बरकत की हो, कलाम इलाही बन कर निकलती है. 
आले इब्राहीमा व आला आले इब्राहिम इन्नका हमीदुं मजीद. 
यानी आले इब्राहीम ग़रज़ यहूदियों की ख़ैर ओ बरकत की दुआ दुन्या का हर मुसलमान मांगता है और वह्यि यहूदी मुसलमानों के जानी दुश्मन बने हुए हैं. 
हम हिदुस्तानी मुसलमान यानी अरबियों कि भाष में हिंदी मिस्कीन अरबों के ज़ेहनी ग़ुलाम   बने हुए हैं. 
अल्लाह को ज़ारों क़तार रो रो कर दुआ मांगने वाले पसंद हैं. 
यह एक तरीक़े का नफ़्सियाती ब्लेक मेल है. 
रंज ओ ग़म से भरा हुआ इंसान कहीं बैठ कर जी भर के रो ले तो उसे जो राहत मिलती है, 
अल्लाह उसे कैश करता है, 
(बक़ौल मुहम्मद क़ुरआन अल्लाह का कलाम है ? 
देखिए आयत में अल्लाह अपने सुपर अल्लाह के आगे कैसे ज़ारो क़तार गिडगिडा रहा है. 
सदियों से अपने फ़ल्सफ़े को दोहरते दोहराते मुल्ला अल्ला को बहरूपिया बना चुका है, 
वह दुआ मांगते वक़्त बन्दा बन जाता है. 
मुहम्मद दुआ मांगते हैं तो एलानिया अल्लाह बन जाते हैं. 
उनके मुंह से निकली बात, चाहे उनके आल औलादों के ख़ैर के लिए हो, चाहे सय्यादों के लिए बरकत की हो, कलाम इलाही बन कर निकलती है. 
आले इब्राहीमा व आला आले इब्राहिम इन्नका हमीदुं मजीद. 
यानी आले इब्राहीम ग़रज़ यहूदियों की ख़ैर ओ बरकत की दुआ दुन्या का हर मुसलमान मांगता है और वह्यि यहूदी मुसलमानों के जानी दुश्मन बने हुए हैं. 
हम हिदुस्तानी मुसलमान यानी अरबियों कि भाष में हिंदी मिस्कीन अरबों के ज़ेहनी ग़ुलाम   बने हुए हैं. 
अल्लाह को ज़ारों कतार रो रो कर दुआ मांगने वाले पसंद हैं. 
यह एक तरीक़े का नफ़्सियाती ब्लेक मेल है. 
रंज ओ ग़म से भरा हुआ इंसान कहीं बैठ कर जी भर के रो ले तो उसे जो राहत मिलती है, 
अल्लाह उसे कैश करता है, 
सूरह अलबक़र -2-आयत (284-86)
क़ुरआन  की एक बड़ी सूरह अलबकर अपनी २८६ आयातों के साथ तमाम हुई- जिसका लब्बो लुबाबा दर्ज जेल है - - -


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान