मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह काफिरून १०९ - पारा ३०(कुल्या अय्योहल कफिरूना)
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.
एक बार मक्का के मुअज़ज़िज़ कबीलों ने मिलकर मुहम्मद के सामने एक तजवीज़ रखी, कि आइए हम लोग मिल कर अपने अपने माबूदों की पूजा एक hi जगह अपने अपने तरीकों से किया करें, ताकि मुआशरे में जो ये नया फ़ितना खडा हुआ है, उसका सद्दे-बाब हो. इससे हम सब की भाई चारगी क़ायम रहेगी, सब के लिए अम्न ओ अमान रहेगा. ,
मंदार्जा ज़ेल सियासी आयतें मुलाहिजा हों- - -"आप कह दीजिए कि ऐ काफ़िरो!
न मैं तुम्हारे माबूदों की परिस्तिश करता हूँ,
और न तुम मेरे माबूदों की परिस्तिश करते हो,
और न मैं तुम्हारे माबूदों की परिस्तिश करूँगा,
और न तुम मेरे माबूद की परिस्तिश करोगे.
तुमको तुम्हारा बदला मिलेगा और मुझको मेरा बदला मिलेगा."सूरह काफिरून १०९ - पारा ३०- आयत (१-६)
बुत परस्तों (मुशरिकीन) की यह तजवीज़ माक़ूल थी जो आजकी जदीद क़द्रों की तरह ही माकूल है , मगर मुहम्मद को यह बात गवारा न हुई. यह पेश कश मुहम्मद को रास नहीं आई क्यूँकि यह इनके तबअ से मेल नहीं खा रही थी. मुहम्मद को अम्न ओ अमान पसंद न था, इसनें जंग, लूट मार और शबखून कहाँ? वह तो अपने तरीकों को दुन्या पर लादना चाहते थे. अपनी रिसालत पर खतरा मसूस करते हुए उन्होंने अपने हरबे के मुताबिक अल्लाह की वह्यी उतरवाई
नमाज़ियो !अल्लाह के पसे पर्दा उसका खुद साख्ता रसूल अपने अल्लाह से अपनी मर्ज़ी उगलवा रहा है.. . . . आप कह दीजिए, जैसे कि नव टंकियों में होता है. अल्लाह को क्या क़बाहत है कि खुद मंज़रे आम पर आकर खुद अपनी बात कहे ? या ग़ैबी आवाज़ नाज़िल करे. इस क़दर हिकमत वाला अल्लाह क्या गूंगा hai कि आवाज़ के लिए उसे किसी बन्दे की ज़रुरत पड़ती है ? यह कुरान साज़ी मुहम्मद का एक ड्रामा है जिस पर तुम आँख बंद करके भरोसा करते हो. सोचो, लाखों सालों से क़ायम इस दुन्या में, हज़ारों साल से क़ायम इंसानी तहज़ीब में, क्या अल्लाह को सिर्फ़ २२ साल ४ महीने ही बोलने का मौक़ा मिला कि वह शर्री मुहम्मद को चुन कर, तुम्हारी नमाज़ों के लिए कुरआन बका?अगर आज कोई ऐसा अल्लाह का रसूल आए तो?
उसके साथ तुम्हारा क्या सुलूक होगा?
उसके साथ तुम्हारा क्या सुलूक होगा?
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
nice post
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