Sunday 6 May 2012

Soorah Taha 20 2nd

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
रूरह ताहा २०

(दूसरी किस्त)


नया एलान  

ज़िन्दगी एक ही पाई, ये अधूरी है बहुत, 
इसको गैरों से छुड़ा लो, ये ज़रूरी है बहुत. 
इसको जीने की मुकम्मल हमें आज़ादी हो, 
इसको शादाब करें, इसकी न बर्बादी हो. 
इसपे वैसे भी मुआशों की मुसीबत है बहुत, 
तन के कपड़ों की, घर व् बार की कीमत है बहुत. 
इसपे क़ुदरत के सितम ढोने की पाबन्दी है, 
मुल्की क़ानून की, आईन की ये बन्दी है. 
बाद इन सबके, ये जो सासें बची हैं इसकी, 
उसपे मज़हब ने लगा रक्खी हैं मुहरें अपनी. 

खास कर मज़हब-ए-इस्लाम बड़ा मोहलिक है, 
इसका पैगाम ग़लत, इसका गलत मालिक है. 
दीन ये कुछ भी नहीं, सिर्फ़ सियासत है ये, 
बस ग़ुलामी है ये, अरबों की विरासत है ये. 
देखो कुरान में बस थोड़ी जिसारत   करके, 
तर्जुमा सिर्फ़ पढो, हाँ , न अक़ीदत करके. 
झूट है इसमें, जिहालत हैं रिया करी, 
बोग्ज़ हैं धोखा धडी है, निरी अय्यारी है. 
गौर से देखो, निज़ामत  की निज़ामत है कहाँ? 
इसमें जीने के सलीके हैं, तरीक़त है कहाँ? 
धांधली की ये फ़क़त राह दिखाता है हमें, 
गैर मुस्लिम से कुदूरत ये सिखाता है हमें. 
जंगली वहशी कुरैशों में अदावत का सबब, 
इक कबीले का था फितना, जो बना है मज़हब. 
जंग करता है मुस्लमान जहाँ पर हो सुकून, 
इसको मरगूब जेहादी गिजाएँ, कुश्त व् खून. 
सच्चा इन्सान मुसलमान नहीं हो सकता, 
पक्का मुस्लिम कभी इंसान नहीं हो सकता. 
सोहबत ए ग़ैर से यह कुछ जहाँ नज़दीक हुए, 
धीरे धीरे बने इंसान, ज़रा ठीक हुए. 

इनकी अफ़गान में इक पूरी झलक बाकी है, 
वहशत व् जंग व् जूनून, आज तलक बाक़ी है. 
तर्क ए इस्लाम का पैगाम है मुसलमानों ! 
वर्ना, ना गुफ़तनी अंजाम है मुसलमानों ! 
न वह्यी और न इल्हाम है मुसलमानों ! 
एक उम्मी का बुना दाम है मुसलमानों ! 
इस से निकलो कि बहुत काम है मुसलमानों ! 
शब् है खतरे की, अभी शाम है मुसलमानों ! 
जिस क़दर जल्द हो तुम इस से बग़ावत कर दो. 
बाकी इंसानों से तुम तर्क ए अदावत कर दो. 
तुम को ज़िल्लत से निकलने की राह देता हूँ, 

साफ़ सुथरी सी तुम्हें इक सलाह देता हूँ. 
है एक लफ्ज़ इर्तेक़ा, अगर जो समझो इसे, 
इसमें सब कुछ छुपा है समझो इसे. 
इसको पैगम्बरों ने समझा नहीं, 
तब ये नादिर ख़याल था ही नहीं. 
इर्तेक़ा नाम है कुछ कुछ बदलते रहने का, 
और इस्लाम है महदूदयत को सहने का. 
बहते आए हैं सभी इर्तेक़ा की धारों में, 
ये न होती तो पड़े रहते अभी ग़ारों में. 
हम सफ़र इर्तेक़ा के हों, तो ये तरक्क़ी है, 
कायनातों में नहीं ख़त्म, राज़ बाकी है. 

"सितारों के आगे जहाँ और भी है,
अभी इश्क के इम्तेहान और भी हैं"

तर्क ए इस्लाम का मतलब नहीं कम्युनिष्ट बनो, 
या कि फिर हिन्दू व् ईसाई या बुद्धिष्ट बनो, 
चूहे दानों की तरह हैं सभी धर्म व् मज़हब. 
इनकी तब्दीली से हो जाती है आज़ादी कब? 
सिर्फ़ इन्सान बनो तर्क हो अगर मज़हब, 
ऐसी जिद्दत हो संवरने की जिसे देखें सब. 
धर्म व् मज़हब की है हाजत नहीफ़ ज़हनों को, 
ज़ेबा देता ही नहीं ये शरीफ़ ज़हनो को. 
इस से आज़ाद करो जिस्म और दिमागों को. 
धोना बाकी है तुन्हें बे शुमार दागों दागों को. 

सब से पहले तुम्हें तालीम की ज़रुरत है, 
मंतिक व् साइंस को तस्लीम की ज़रुरत है. 
आला क़द्रों की करो मिलके सभी तय्यारी, 
शखसियत में करें पैदा इक आला मेयारी. 
फिर उसके बाद ज़रुरत है तंदुरुस्ती की, 
है मशक्क़त ही फ़कत ज़र्ब, तंग दस्ती की. 
पहले हस्ती को संवारें, तो बाद में धरती, 
पाएँ नस्लें, हो विरासत में अम्न की बस्ती, 
कुल नहीं रब है, यही कायनात है अपनी, 
इसी का थोडा सा हिस्सा हयात है अपनी.. 
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आइए ले चलते हैं आपको मुहम्मदी अल्लाह के ज़टल क़ाफ़िए पर - - -
रूरह ताहा २०

मूसा जब अल्लाह के हुज़ूर में हाज़िर होते हैं तो अल्लाह उनसे पूछता है कि
 ''ऐ मूसा आपको अपनी कौम से जल्दी आने का क्या सबब हुवा ? उन्हों ने जवाब दिया वह लोग यहीं तो हैं, मेरे पीछे और मैं आपके पास जल्दी से चला आया कि आप खुश होंगे. इरशाद हुवा कि हमने तो तुम्हारी कौम को तुम्हारे बाद मुब्तिला कर दिया और उनको सामरी ने गुमराह कर दिया, ग़रज़ मूसा ग़ुस्से और रंज से भरे हुए अपनी कौम की तरफ वापस आए, फरमाने लगे, ऐ मेरी कौम ! क्या तुम्हारे रब ने तुमसे एक अच्छा वादा नहीं क्या था? क्या तुम पर ज़्यादा ज़माना गुज़र गया? या तुमको ये मंज़ूर हुवा कि तुम पर तुम्हारे रब का गज़ब नाज़िल हो? इस लिए तुमने मुझ से जो वादा किया था, उसको खिलाफ किया था. - - - लेकिन कौम के ज़ेवर में से हम पर बोझ लद रहा था. सो हमने उसको आग में डाल दिया, फिर सामरी ने डाल दिया, फिर उसने उन लोगों के लिए एक बछड़ा ज़ाहिर किया कि वह एक क़ालिब था जिसमे एक आवाज़ आई थी. फिर वह कहने लगे तुम्हारे और मूसा का भी तो माबूद यही है - - - ''
रूरह ताहा २० _ आयत (८१-१००)
आप कुच्छ समझे? मैं भी कुछ नहीं समझ सका. तहरीर हूबहू क़ुरआनी है. यह ऊट पटांग न समझ में आने वाली आयतें मुहम्मद उम्मी की हैं, न कि किसी खुदा की. इनमें दारोग गो, मुतफ़न्नी आलिमों ने सर मगजी करके तहरीर को बामअने ओ मतलब बनाने की नाकाम कोशिश की है. सवाल उठता है कि अगर इसमें मअने ओ मतलब पैदा भी हो जाएँ तो पैगाम क्या मिलता है इन्सान को ?यह सब तौरेती वक़ेआत का नाटकीय रूप है.
मेरे भाई क्या कभी आप ने इस कुरआन की हकीक़त जानने की कोशिश की है? जो आप को गुमराह किए हुए है. इसमें कोई भी बात आपको फ़ायदा पहुचने वाली नहीं है, अलावा इसके कि ज़िल्लत को गले लगाने का इलज़ाम तुम पर आयद हो. आखिर ये ओलिमा इसे किस बुन्याद पर कुरआनऐ-हकीम कहते हैं, कोई हिकमत की बात है इसमें? ज़ाती तौर पर हमें कोई ज़िल्लत हो तो काबिले बर्दाश्त है मगर क़ौमी तौर की बे आब्रूई किन आँखों से देखा जाय.
 जागो, देखो कि ज़माना कहाँ जा रहा है और मुसलमान दिन बदिन पिछड़ता जा रहा है. आज के युग में इसका दोष इस्लाम फरोशों पर जाता है जो आप के पुराने मुजरिम हैं.

''जो लोग कुरआन से मुंह फेरेंगे सो वह क़यामत के रोज़ बड़ा बोझ लादेंगे, वह इस अज़ाब में हमेशा रहेगे. बोझ क़यामत के रोज़ उनके लिए बुरा होगा. जिस रोज़ सूर में फूंक मारी जायगी और हम उस रोज़ मुजरिम को मैदान हश्र में इस हालत में जमा करेंगे कि अंधे होंगे, चुपके चुपके आपस में बातें करेंगे कि तुम लोग सिर्फ दस रोज़ रहे होगे, जिस की निस्बत वह बात चीत करेंगे, उनको हम खूब जानते हैं. जबकि उन सब में का सैबुल राय यूं कहता होगा, नहीं तुम तो एक ही रोज़ में रहे और लोग आप से पहाड़ों के निस्बत पूछते हैं, आप फरमा दीजिए कि मेरा रब इनको बिलकुल उदा देगा, फिर इसको इसको मैदान हमवार कर देगा.जिसमें तू न हम्वारी देखेगा न कोई बुलंदी देखेगा. - - - और उस वक़्त तमाम चेहरे हय्युल क़य्यूम के सामने झुके होंगे. ''
इसके बाद मुहम्मद इसी टेढ़ी मेढ़ी भाषा में क़यामत बपा करते हैं, फरिश्तों की तैनाती और सूर की घन गरज भी होती है और ख़ामोशी का यह आलम होता है कि सिर्फ़ पैरों की आहट ही सुनाई देती है, बेसुर तन की गप जो उनके जी में आता है बकते जाते हैं और वह गप कुरआन बनती जाती है.

"ऐसे कुरान से जो मुँह फेरेगा वह रहे रास्त पा जायगा और उसकी ये दुन्या संवर जायगी. वह मरने के बाद अबदी नींद सो सकेगा कि उसने अपनी नस्लों को इस इस्लामी क़ैद खाने से रिहा करा लिया."
रूरह ताहा २० _ आयत (१०१-११२)
इंसान को और इस दुन्या की तमाम मख्लूक़ को ज़िन्दगी सिर्फ एक मिलती है, सभी अपने अपने बीज इस धरती पर बोकर चले जाते हैं और उनका अगला जनम होता है उनकी नसले और पूर्व जन्म हैं उनके बुज़ुर्ग. साफ़ साफ़ जो आप को दिखाई देता है, वही सच है, बाकी सब किज़्ब और मिथ्य है. कुदरत जिसके हम सभी बन्दे है, आइना की तरह साफ़ सुथरी है, जिसमे कोई भी अपनी शक्ल देख सकता है. इस आईने पर मुहम्मद ने गलाज़त पोत दिया है, 
आप मुतमईन होकर अपनी ज़िन्दगी को साकार करिए, इस अज्म के साथ कि इंसान का ईमान ए हाक़ीकी ही सच्चा ईमन है, इस्लाम नहीं. इस कुदरत की दुन्या में आए हैं तो मोमिन बन कर ज़िन्दगी गुज़ारिए,आकबत की सुबुक दोशी के साथ.

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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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