खेद है कि यह वेद है (47)
हे नित्य गमनशील अग्नि !
जिन उषाओं से अन्न द्वारा विधि पूर्वक यज्ञं किया जाता है,
शोभन स्तुत्याँ बोली जाती हैं
एवं जो पक्षियों एवं मानवों के विविध शब्दों से पहचानी जाती हैं,
वे उषाएँ तुम्हारे लिए संपत्ति शालनी बन कर प्रकाशित होती हैं.
हे अग्नि ! तुम अपनी विस्तीर्ण ज्वाला की विशालता से
यजमान द्वारा किया हुवा सारा पाप समाप्त करो.
तृतीय मंडल सूक्त 7(10)
इस तरह वेद मन्त्र से यजमान के सारे पाप धुल जाते हैं
और दूसरे दिन से वह फिर पाप कर्म की शुरुआत कर देता है,
इस तरह हिन्दू धर्म का कारोबार चलता रहता है.
समस्त मानव कल्याण का उद्घोष वेदों में ढूँढा जाए तो कहीं नहीं मिलेगा.
आज भी यज्ञं हिन्दू समाज में प्रचलित है,
अब तो सरकारी स्तर पर इसका चलन हो रहा है.
फिर मनु विधान की आमद आमद है
या किसी खुनी इन्कलाब का इंतज़ार किया जाए.
महान एवं यजमानों द्वारा चाहे गए,
अग्नि धरती और आकाश के बीच अपने उत्तम स्थान पर स्थिति होते हैं.
चलने वाली सूर्य रुपी एक ही पति की पत्नियाँ,
जरा रहित, दूसरों द्वारा अहिंसित एवं जल रूपी दूध लेने वाले,
धरती एवं आकाश, उस शीघ्र गामी अग्नि की गाएँ हैं.
तृतीय मंडल सूक्त 6(4)
कोई तत्व, कोई पैगाम, कोई सार, कोई आसार नज़र आते हैं इन मन्त्रों में ? आज इक्कीसवीं सदी में क़ुरआन के साथ साथ इन वेदों पर भी बैन लगना चाहिए जो जिहालत की बातें करते हैं.
मेरे परमर्श दाता वेद को समझने के लिए कई मशविरे देते हैं
जैसे मुल्ला कहते हैं क़ुरआन पढने से पहले नहा धोकर और वजू करके पाक होना चाहिए .
मतलब ये है कि मन को इन्हें स्वीकारने के लिए तैयार करना चाहिए.
यह किताबें कोई प्रेमिकाए नहीं जिनके मिलन से पहले कल्पनाएँ करनी पड़ती है.
(ऋग्वेद / डा. गंगा सहाय शर्मा / संस्तृत साहित्य प्रकाशन नई दिल्ली )
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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