मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं
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सूरह आले इमरान ३
सातवीं क़िस्त
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सूरह आले इमरान ३
सातवीं क़िस्त
चौथे पारे के शुरुआत में यहूदियों से इनके बुजुर्गों पर मुहम्मद विरोध करते हुए नई नई बातें मन गढ़ंत पेश करते हैं. उनको अपनी गढ़ी हुई बातें मनवाने की कोशिश करते है और मुसलमानों को उनकी सही बातें मानने से रोकते हैं.
मुहम्मद के पास दो ही नुस्ख़े है पहला दोज़ख का खौ़फ़ दिखाना और दूसरा जन्नत की लालच देना.
अल्लाह कहता है रोजे क़यामत लोगों के चेहरे दो रंग के होंगे,
सफ़ेद और काले.
काले मुंह वाले दोज़खी और सफ़ेद चेहरे वाले बेहिश्ती.
मुहम्मद अपनी अल्प संख्यक उम्मत को समझाते हैं कि काफ़िरों से अगर मुक़ाबला होगा तो पीठ दिखला कर भागने वाले यही काफ़िर होंगे, मगर ज़रूरी है कि तुम साबित क़दम रहो. मुहम्मद को शायद कभी कभी अपनों से ही अपने जान को ख़तरा लगता है, घुमाओ दार बातों में वोह अल्लाह की ज़बान में बोलते हैं.
मुसलमानों!
सोचो अचानक मुहम्मद किसी अदभुत अल्लाह को पैदा करते है, उसके फ़रमान अपने कानों से अनदेखे फ़रिश्ते से सुनते हैं और उसको तुम्हें बतलाते है. वोह अल्लाह सिर्फ़ २३ सालों की जिंदगी जिया, न उसके पहले कभी था, न उसके बाद कभी हुवा.
इस मुहम्मदी अल्लाह पर भरोसा करना क्या अपने आप को धोका देना नहीं है?
सोचो कि ऐसे अल्लाह की क़ैद से रिहाई की ज़रुरत है?
करना कुछ भी नहीं है, बस जो ईमान उस से ले कर आए थे उसे वापस कर दो.
लौटा दो ऐसे हवाई और नामाक़ूल अल्लाह को उस का ईमान.
ईमान लाओ मोमिन का जो धर्म कांटे का ईमान रखता है.
क़ुरकआन कहता है - - -
"मगर हाँ! एक तो इस ज़रिए के सबब जो अल्लाह की तरफ़ से है, दूसरे इस ज़रिए से जो आदमी के तरफ़ से है और मुस्तहक़ हो गए गज़ब इलाही के और जमा दी गई उन पर पस्ती, यह इस वजह से हुवा कि वह लोग मुनकिर हो जाया करते थे एह्काम इलाही के और क़त्ल कर दया करते थे पैगम्बरों को नाहक और यह बे वज्ह हुवा कि इन लोगों ने इताअत न की और दायरे से निकल निकल जाते थे।"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (92-112)
यह गुनूदगी के आलम में बकी गई अल्लाह की कुछ और आयतें थीं. आप निकाल सकें तो कोई मतलब, निकालें. अय्यार ओलिमा तो इस मे अपनी इल्म का जादू भर के पुर हिकमत, पुर रहमत, पुर अज़मत वगैरा वगैरा बनाए हुए हैं. अगर आप भी इसे नज़र अंदाज़ करते हैं तो याद रखें कि आने वाले कल में आप अपनी नस्लों के मुजरिम होंगे.
* अहले किताब यानी यहूदियों में से एक हिस्से की मुहम्मद दिल खोल कर तारीफ़ करते हैं, उनकी जो अपनी किताब पर अमल करते हैं, मगर काफ़िरों के लिए नफ़रत में अज़ाफा हो जाता है अल्लाह इन से नफ़रत के पाठ कैसे पढाता है,
देखिए - -
"हाँ तुम ऐसे हो कि उन लोगों से मुहब्बत रखते हो और वोह लोग तुम से असला मुहब्बत नहीं रखते, हालां कि तुम तमाम किताबों पर ईमान रखते हो और ये लोग जो तुम से मिलते हैं कह देते हैं ईमान ले आए और जब अलग होते हैं, तो तुम पर अपनी उँगलियाँ काट काट खाते हैं, मारे ग़ैज़ के.आप कह दीजिए की तुम मर रहो अपने ग़ुससे में."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (113-119)
इस आयात से उस वक़्त के गैरत मंद, होश मंद और मजबूर अक्लमंदों पर सोच कर आज भी दिल कुढ़ता है. कितने मजबूर हो गए होगे ज़ीहोश, साहिबे फ़िक्र और साहिबे ईमान. यह अल्लाह है कि नौज़बिल्लाह है?
बन्दों को कहता है कि ग़ुससे से मर रहो. ऐसे अल्लाह को पुजवाने वाले ख़बीस आलिमों तुम को कब शर्म आएगी? तुम्हारे अल्लाह को एक काफ़िर कह रहा है
"तू अपनी क़ह्हारी में मर"
* इस सूरह में शुरूआती इस्लामी जंगो का तज़करा है. पहली जंग बदर में हुई थी जिसमे मुसलमानों को फ़तह मिली थी और दूसरी जंग ओहद में हुई थी जिस में शिकस्त. फ़तह वाली जंग में अल्लाह ने मुसलमानों को मदद के लिए ३००० फ़रिश्ते भेज दिए थे. जंगे ओहद जो कि बकौल अल्लाह के मुहम्मद कि रज़ा के ख़िलाफ़ लड़ी गई थी, इस लिए फ़रिश्तों कि मदद नहीं आई.
"जब कि आप मुसलमानों से फ़रमाते थे कि क्या तुम को ये अमर काफ़ी न होगा कि तुहारा रब तुहें इमदाद करे, ३००० फरिश्तों के साथ जो उतारे जाएँगे. हाँ क्यूँ नहीं अगर तुम मुश्तकिल होगे और मुत्तकी रहोगे और वोह लोग तुम पर एक दम से आ पहुंचेगे तो तुम्हारा रब तुम्हारी मदद फ़रमाएगा,५००० फरिश्तों से जो एक ख़ास वज़ा बनाएँ होंगे और ये महज़ इस लिए कि तुम्हारे लिए बशारत हो और ताकि तुम्हारे दिलों को क़रार हो जाए और नुसरत सिर्फ़ अल्लाह की तरफ़ से है जो कि ज़बर दस्त है."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (125-26)
जंगे ओहद हार जाने के बाद जिन लोगों को मुहम्मद के अल्लाह ने ५००० फ़रिश्तों की बटालियन भेजने की मदद की यकीन दहानी कराई थी वह कहीं नज़र नहीं आए और मुसलमानों को हार की जिल्लत ढोनी पड़ी, इस हालत में मुहम्मद की कला बाजियां देखने लायक हैं - - -
अल्लाह अपने रसूल से कहता है ---
"आप का कोई दख्ल नहीं यहाँ तक कि अल्लाह उन पर (काफिरों पर) या तो मुतवज्जो हो जाए या उन को कोई सज़ा देदे क्यूँ कि वह ज़ुल्म भी बड़ा कर रहे हैं - - -
वोह जिसको चाहे बख्श दे जिसको चाहे अजाब दे - - -
ईमान वालो सूद मत खाओ कई हिस्से और अल्लाह से डरो - - -
ख़ुशी से कहना मानों अल्लाह और उसके रसूल का, उम्मीद है रहम किए जाओगे - - -
और दौडो मग़फ़िरत की तरफ़ जो परवर दिगार की तरफ़ से है - - -
ऐसे लोग जो ख़र्च करते हैं फ़राग़त में और तंगी में और ग़ुस्से को ज़ब्त करने वाले और लोगों से दर गुज़र करने वाले और अल्लाह ऐसे लोगों को महबूब रखता है और तुम हिम्मत मत हारो और रंज मत करो और ग़ालिब तुम ही रहोगे अगर तुम पूरे मोमिन हो."
सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (128-139)
"अगर तुम को ज़ख्म पहुंच जाय तो उस क़ौम को भी ऐसा ही ज़ख्म पाहुंचा है और हम इन अय्याम को उन लोगों के बीच अदलते बदलते रहा करते हैं, ताकि अल्लाह ईमान वालों को जान ले और तुम में से बाजों को शहीद बनाना था और अल्लाह ज़ुल्म करने वालों से मुहब्बत नहीं करते और ताकि मेल कुचैल से साफ़ कर दे ईमान वालों को और मिटा दे काफिरों को"
सूरह आले इमरान ३ तीसरा पारा आयात (141-40)
क़ुरआन की ये औसत सूरतें हैं जो मशकूक हुवा करती हैं, गोया इसमें इस्लामी मुल्लाओं के लिए मनमानी करने की काफी गुंजाईश है. खुद अल्लाह भी मुसलमानों के साथ जीत की यक़ीन दहानी कराने के बाद भी हार हो जाने पर कैसी मक्र की बातें करने लगा है, देखा जा सकता है. अँधेरे में रखने वाले इस्लामी विद्वान, मुस्लिम बुद्धि जीवी और क़ौमी रहनुमा, समय आ गया है कि अब जवाब दें- - -
कि लाखों, करोरों, अरबों बल्कि उस से भी कहीं अधिक बरसों से इस ब्रह्मांड का रचना कार अल्लाह क्या चौदह सौ साल पहले केवल तेईस साल चार महीने (मोहम्मद का पैगम्बरी काल) के लिए अरबी जुबान में बोला था? वह भी मुहम्मद से सीधे नहीं, किसी तथा कथित दूत के माध्यम से, वह भी बाआवाज़ बुलंद नहीं काना-फूसी कर के ? जनता कहती रही कि जिब्रील आते हैं तो सब को दिखाई क्यूँ नहीं पड़ते? जो कि उसकी उचित मांग थी और मोहम्मद बहाने बनाते रहे. क्या उसके बाद अल्लाह को साँप सूँघ गया कि स्वयम्भू अल्लाह के रसूल की मौत के बाद उसकी बोलती बंद हो गई और जिब्रील अलैहिस्सलाम मृत्यु लोक को सिधार गए ? उस महान रचना कार के सारे काम तो बदस्तूर चल रहे हैं, मगर झूठे अल्लाह और उसके स्वयम्भू रसूल के छल में आ जाने वाले लोगों के काम चौदह सौ सालों से रुके हुए हैं, मुस्लमान वहीँ है जहाँ सदियों पहले था, उसके हम रकाब यहूदी, ईसाई और दीगर कौमें आज हम मुसलमानों को सदियों पीछे अतीत के अंधेरों में छोड़ कर प्रकाश मय संसार में बढ़ गए हैं. हम मोहम्मद की गढ़ी हुई जन्नत के मिथ्य में ही नमाज़ों के लिए वज़ू, रुकू और सजदे में विपत्ति ग्रस्त है. मुहम्मदी अल्लाह उन के बाद क्यूँ मुसलमानों में किसी से वार्तालाप नहीं कर रहा है? जो वार्ता उसके नाम से की गई है उस में कितना दम है? ये सवाल तो आगे आएगा जिसका वाजिब उत्तर इन बदमआश आलिमो को देना होगा....
क़ुरआन का पोस्ट मार्टम खुली आँख से देखें "हर्फ़ ए ग़लत" का सिलसिला जारी हो गया है. आप जागें, मुस्लिम से मोमिन हो जाएँ और ईमान की बात करें. अगर ज़मीर रखते हैं तो सदाक़त अर्थात सत्य को ज़रूर समझेंगे और अगर इसलाम की कूढ़ मग्ज़ी ही ज़ेह्न में समाई है तो जाने दीजिए अपनी नस्लों को तालिबानी जहन्नम में.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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