मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा
क़िस्त 5
हलाक़ू के समय में अरब दुन्या का दमिश्क़ शहर इस्लामिक माल ए ग़नीमत से ख़ूब फल फूल रहा था. ओलिमा ए दीन (धर्म गुरू) झूट का अंबार किताबों की शक्ल में खड़ा कर रहे थे.
हलाक़ू बिजली की तरह दमिश्क़ पर टूटा,
लूट पाट के बाद उसने ओलिमा की ख़बर ली, जो इस्लामी झूट के किताबों की मीनार खडी किए हुए थे.
सब को इकठ्ठा किया और पूछा यह किताबें किस काम आती हैं?
जवाब था पढने के.
फिर पूछा - सब कितनी लिखी गईं?
जवाब- साठ हज़ार.
फिर उसने पूछा तुम लोग और क्या करते हो? ज़रीया मुआश ??
ओलिमा बोले हम लोग आलिम हैं हमारा यही काम है.
हलाक़ू पर हलाक़त का जलाल चढ़ गया.
हुक्म दिया- - -
इन किताबों को तुम लोग खाओ.
ओलिमा बोले हुज़ूर यह खाने की चीज़ थोढ़े ही है.
हलाक़ू बोला यह किसी काम की चीज़ नहीं है,
और न ही तुम किसी कम की चीज़ हो.
हलाक़ू के सिपाहिओं ने उसके इशारे पर दमिश्क की लाइब्रेरी में आग लगा दी. वह उस वक़्त दुन्या की सबसे बड़ी इस्लामी लाइब्रेरी थी.
और सभी ओलिमा को मौत के घाट उतार दिया.
आज भी इस्लामिक और तमाम धार्मिक लाइब्रेरी को आग के हवाले कर देने की ज़रुरत है.
क़ज़ज़ाक़ लुटेरे और वहशी अपनी वहशत में कुछ अच्छा भी कर गए.
हलाक़ू का ही पोता चंगेज़ ख़ान जिसने इस्लाम को स्वीकारा मगर क़ज़ज़ाक़ परम्परा के साथ.
मुसलमान होने के बाद उसने दो मुल्लाओं को नौकरी पर रख लिया ताकि वह समय समय पर उसकी रहनुमाई किया करें. कि मौक़ा ब मौक़ा इस्लाम क्या कहता है.
उनमें एक थे बड़े मुल्ला और दूसरे छोटे मुल्ला,
दोनों एक दूसरे के छुपे दुश्मन. जैसा कि हमेशा से होता चला आ रहा है.
एक दिन अचनाक चंगेज़ कि बूढी माँ मर गई.
बड़े मुल्ला इस्लामिक तौर तरीक़े बतलाने के लिए तलब किए गए,
बाक़ी मंगोली क़बीलाई एतबार से जो होता है वह होगा, उस से इस्लाम का कोई लेना देना नहीं.
माँ के साथ साथ उसके तमाम नौकर चाकर, साज व् सामान, कुछ दिनों का खाना पीना दफ़न करना क़ज़ज़ाक़ी हुक्म हुवा,
मौक़ा मुनासिब था कि बड़े मुल्ला छोटे को इसी बहाने निपटा दें.
उनहोंने चंगेज़ को राय दिया कि हुज़ूर क़ब्र में मुनकिर नकीर मुर्दे को ज़िदा करके सवाल जवाब के लिए आते है,
एक मुल्ला की वहां ज़रुरत पड़ेगी, अम्माँ बेचारी कहाँ जवाब दे पाएगी ? बेहतर है कि छोटे मुल्ला को इन के हमराह कर दें.
वह बहुत क़ाबिल भी है.
चंगेज़ को बात मुनासिब लगी और हुक्म हुवा कि छोटे मुल्ला को अम्माँ के साथ दफ़न कर दिया जाए.
हुक्म सुन कर छोटे मुल्ला की जान निकल गई कि यह कारस्तानी बड़े मुल्ला की है.
वह भाग कर चंगेज़ के पास गया और बोला यह क्या नादानी कर रहे हैं आप?. हुज़ूर समझदारी से काम लें , बूढी माँ के लिए बूढ़े मुल्ला को रखिए.
आप ने सुना नहीं कि बड़ा होकर भी उसने मेरी तारीफ़ की.
मैं यक़ीनन उस से ज़्यादा क़ाबिल हूँ.
आप मुझको अपने लिए बचा के क्यूं नहीं रखते,
आप के सर लाखों के ख़ूनों का गुनाह है, मैं बखूबी मुनकिर नकीर से निमट सकता हूँ, आपका हम उम्र भी हूँ.
अम्माँ के लिए इस बूढ़े मुल्ला को भेज दें,ये मुनासिब होगा.
चंगेज़ को बात समझ में आ गई और बड़े मुल्ला जी बुढिया के साथ दफ़न कर दिए गए.
क़ज़ज़ाक़ों का क़ज़ज़ाकिस्तान इस्लाम के असर में आकर एक इस्लामी मुल्क बन गया था.
७९ साल तक रूस की ला मज़हबीयत ने उसे मुसलमान से इंसान बनाया फिर वह आज़ाद हुए.
आज़ाद क़ज़ज़ाकिस्तान के सामने मुस्लिम मुमालिक ने फिर इस्लामी लानत के टुकड़े फेंके जिसे उस जगी हुई कौम ने ठुकरा दिया.
चंगेज़ का पोता तैमूर लंग हुवा जिसकी ज़ुल्म की कहानी दिल्ली कभी नहीं भूलेगी. तैमूर का पोता बाबर, बाबर के पोते दर पोते बहादुर शाह ज़फर और उनकी पोती आज कोलकोता की गली में चाय कि फुट पाथी दूकान पर झूटी प्यालियाँ धोती है.
अब अल्लाह की २+२=५ की बातों पर आओ और
मुसलमान बने रहो या फिर आँखें खोलो,
बहादुर और ईमान दार मोमिन बन कर जीने का अहद करो.
मोमिन जिसका कि इस्लाम ने इस्लामी करण करके मुस्लिम कर दिया है और अपने झूट को सच का जामा पहना दिया.
अल्लाह कहता है.- - -
"यह तो कभी न हो सकेगा कि सब बीवियों में बराबरी रखो, तुम्हारा कितना भी दिल चाहे."
सूरह निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा- आयात (129)
यह क़ुरआनी आयत है अपनी ही पहली आयात के मुक़ाबले में जिसमें अल्लाह कहता है दो दो तीन तीन चार चार बीवियां कर सकते हो मगर मसावी सुलूक और हुक़ूक़ की शर्त है, और अब अपनी बात काट रहा है,
कुरानी कठमुल्ले मुहम्मदी अल्लाह की इस कमजोरी का फ़ायदा यूँ उठाते है की अल्लाह ये भी तो कहता है.
"ऐ ईमान वालो! इंसाफ पर खूब क़ायम रहने वाले और अल्लाह के लिए गवाही देने वाले रहो."
सूरह निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा- आयात (135)
मुसलमानों !
सोचो तुम्हारा अल्लाह इतना कमज़ोर है कि बन्दों की गवाही चाहता है?
अगर तुम पीछे हटे तो वोह मुक़दमा हार जाएगा.
उस झूठे और कमज़ोर अल्लाह को हार जाने दो.
ताक़त वर जीती जागती क़ुदरत तुम्हारा इन्तेज़ार अपनी सदाक़त की बाहें फैलाए हुए कर रही है.
"जब एहकाम ए इलाही के साथ इस्तेह्ज़ा (मज़ाक) होता हुवा सुनो तो उन लोगों के पास मत बैठो - - - इस हालत में तुम भी उन जैसे हो जाओगे।''
सूरह निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा- आयात (140)
मुहम्मद की उम्मियत में पुख्तगी थी, अपनी जेहालत पर ही उनका ईमान था जिसमें वह आज तक कामयाब हैं. जब तक जेहालत क़ायम रहेगी मुहम्मदी इसलाम क़ायम रहेगा.
इस आयात में यही हिदायत है कि तालीमी रौशनी में इस्लामी जेहालत का मज़ाक बनेगा. "ज़मीन नारंगी की तरह गोल और घूमती हुई दिखती है, रोटी की तरह चिपटी और क़ायम नहीं है."
एहकाम ए इलाही में ज़्यादा तर इस्तेहज़ा के सिवा है क्या ?
इस में एक से एक हिमाक़तें दरपेश आती हैं. 👀
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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