शपथ गीता की, जो कहूँगा सच कहूँगा. (27)
>हे पांडु पुत्र !
जिसे संन्यास कहते हैं,
उसे ही तुम योग अर्थात परब्रह्म से युक्त होना जानो
क्योंकि इन्द्रीय तृप्ति के लिए इच्छा को त्यागे बिना
कोई कभी योगी नहीं हो सकता.
श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय -6 - श्लोक -2
>इच्छा को त्यागने की बात तो किसी हद तक सही है,
खाने पीने की कीमती गिज़ा, कीमती कपड़े, आभूषण, सवारी और ताम झाम के बारे में
गीता की राय सहीह है
मगर हर जगह जो इन्द्रीयतृप्ति की बात होती है तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है.
इस सुख से न किसी का शोषण होता है न शारीरिक अथवा मानसिक हानि.
इस मुफ्त में बखशे हुए क़ुदरत के तोहफे से गीता को क्यों बैर है ?
समझ से बाहर है.
इन्द्रीयतृप्ति की इच्छा समान्यता भरी हुई नाक की तरह एक खुजली है,
इसे छिनक कर फिर विषय पर आ बैठो.
इन्द्रीयतृप्ति के बाद ही दिमाग़ और दृष्टि कोण को संतुलन मिलता है.
इन्द्रीयतृप्ति से खुद को तो आनंद मिलता है, किसी दूसरे को भी आनंद मिलता है. इन्द्रीयतृप्ति सच पूछो तो पुण्य कार्य है,
परोपकार है.
एक योगी एक को और हज़ार योगी हजारों बालाओं को इस प्रकृतिक सुख से वंचित कर देते है.
यह सामाजिक जुर्म है.
और क़ुरआन कहता है - - -
>क़ुरआन ब्रह्मचर्य को सख्ती के साथ नापसंद करता है. वह इसके लिए चार चार शादियों की छूट देता है.
दोनों sex के मुआमले में असंतुलित हैं. दोनों ही शिद्दत पसंद हैं.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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