खेद है कि यह वेद है (46)
महान एवं यजमानों द्वारा चाहे गए,
अग्नि धरती और आकाश के बीच अपने उत्तम स्थान पर स्थिति होते हैं.
चलने वाली सूर्य रुपी एक ही पति की पत्नियाँ,
जरा रहित, दूसरों द्वारा अहिंसित एवं जल रूपी दूध लेने वाले,
धरती एवं आकाश, उस शीघ्र गामी अग्नि की गाएँ हैं.
तृतीय मंडल सूक्त 6(4)
कोई तत्व, कोई पैगाम, कोई सार, कोई आसार नज़र आते हैं इन मन्त्रों में ?
आज इक्कीसवीं सदी में क़ुरआन के साथ साथ इन वेदों पर भी बैन लगना चाहिए जो जिहालत की बातें करते हैं.
मेरे परमर्श दाता वेद को समझने के लिए कई मशविरे देते हैं
जैसे मुल्ला कहते हैं क़ुरआन पढने से पहले नहा धोकर और वजू करके पाक होना चाहिए .
मतलब ये है कि मन को इन्हें स्वीकारने के लिए तैयार करना चाहिए.
यह किताबें कोई प्रेमिकाए नहीं जिनके मिलन से पहले कल्पनाएँ करनी पड़ती है.
(ऋग्वेद / डा. गंगा सहाय शर्मा / संस्तृत साहित्य प्रकाशन नई दिल्ली )
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
No comments:
Post a Comment