Monday 24 August 2020

ज़ेहनी ग़ुस्ल


ज़ेहनी ग़ुस्ल 

ज़िंदगी एक दूभर सफ़र है, 
यह तन इसका मुसाफ़िर है. 
आसमान के नीचे धूप, धूल और थकान के साथ साथ सफ़र करके 
हम बेहाल हो जाते हैं. मुसाफ़िर पसीने पसीने हो जाता है, 
लिबास से बदबू आने लगती है, तबीअत में बेज़ारी होने लगती है, 
ऐसे में किसी साएदार पेड़ को पाकर हम राहत महसूस करते है. 
कुछ देर के लिए इस मरहले पर सुस्ताते हैं, पानी मिल गया तो हाथ मुंह भी धो लेते हैं मगर यह पेड़ का साया सफ़र का मरहला होता है, हमें पूरी सेरी नहीं देता. 
हमें एक भरपूर ग़ुस्ल की ज़रुरत महसूस होती है. 
इस सफ़र में अगर कोई साफ़ सफ़फ़ाफ़ और महफूज़ ग़ुस्ल ख़ाना हमको मिल जाए 
तो हम अन्दर से सिटकिनी लगा कर, सारे कपड़े उतार के फेंक देते हैं 
और मादर ज़ाद नंगे हो जाते हैं, फिर जिस्म को शावर के हवाले कर देते हैं. 
अन्दर से सिटकिनी लगी हुई है, कोई खटका नहीं है. सामने कद्दे आदम आईना 
लगा हुआ है. इसमें बग़ैर किसी लिहाज़ के अपने पूरे जिस्म का जायज़ा लेते है, 
आख़िर यह अपना ही तो है. बड़े प्यार से मल मल कर अपने बदन के 
हर हिस्से से गलाज़त छुडाते हैं. जब बिलकुल पवित्र हो जाते हैं 
तो खुश्क तौलिए से जिस्म को हल्का करते हैं, 
इसके बाद धुले जोड़े पहेन कर संवारते हैं. 
इस तरह सफ़र के तकान से ताज़ा दम होकर हम 
अगली मंजिल की तरफ क़दम बढ़ाते हैं.
ठीक इसी तरह हमारा दिमाग भी सफ़र में है, 
सफ़र के तकान से बोझिल है. सफ़र के थकान ने इसे चूर चूर कर रखा है. 
जिस्म की तरह ही ज़ेहन को भी एक हम्माम की ज़रुरत है 
मगर इसके तक़ाज़े से आप बेख़बर हैं जिसकी वजेह से ग़ुस्ल करने का एहसास 
आप नहीं कर पा रहे हैं. 
नमाज़ रोज़े पूजा पाठ और इबादत को ही हम ग़ुस्ल समझ बैठे हैं. 
यह तो सफ़र में मिलने वाले पेड़ नुमा मरहले जैसे हैं, 
हम्मामी मंज़िल की नई राह नहीं. 
ज़ेहनी ग़ुस्ल है इल्हाद या नास्तिकता के साबुन से स्नान.
जिसे की धर्म और मज़हब के सौदागरों ने ग़लत माने पहना रखा है, 
गालियों जैसा घिनावना. बड़ी हिम्मत की ज़रुरत है कि 
आप अपने ज़ेहन को जो भी लिबास पहनाए हुए हैं, महसूस करें कि 
वह सदियों के सफ़र में मैले, गंदे और बदबूदार हो चुके हैं. 
इन को तन से उतार फेंकिए, 
नए फ़ितरी और लौकिक लिबास के बेदाग़ तोहफ़े पैक्ड 
आपका इंतज़ार कर रहे हैं. ज़रुरत है आपको एक ज़ेह्नी ग़ुस्ल की. 
बंद सिटकिनी कगे ग़ुस्ल ख़ाने जाकर  एक दम उरियाँ हो जाइए, 
वैसे ही जैसे आपने अपने शरीर को प्यार और जतन से साफ़ किया हैं, 
अपने ज़ेहन को नास्तिकता और नए मानव मूल्यों के साबुन से मल मल कर धोइए. जदीद तरीन इंसानी क़दरों की ख़ुशबू में बह जाइए, 
जब आप तबदीली का ग़ुस्ल कर रहे होंगे, कोई आप को देख नहीं रहा होगा, 
अन्दर से सिटकिनी लगी हुई होगी. शुरू कीजिए दिमाग़ी ग़ुस्ल. 
धर्मो मज़हब, ज़ात पात की मैल को ख़ूब रगड़ रगड़ कर साफ़ कीजिए, 
हाथ में सिर्फ़ इंसानियत का कीमयाई साबुन हो. 
इस ग़ुस्ल से आप के दिमाग़ का एक एक गोशा पाक और साफ़ हो जाएगा. 
धुले हुए नए जोड़ों को पहन कर बाहर निकलिए. 
अपनी शख़्सियत को बैलौस, बे खौ़फ जसारत के जेवरात से सजाइए, 
इस तरह आप वह बन जाएँगे जो बनने का हक़ क़ुदरत ने आप को अता किया है.
याद रखें जिस्म की तरह ज़ेहन को भी ग़ुस्ल की ज़रुरत हुवा करती है. 
सदियों से आप धर्म ओ मज़हब का लिबास अपने ज़ेहन पर लादे हुए हैं 
जो कि गूदड़ हो चुके हैं. इसे उतार के आग या फिर क़ब्र के हवाले कर दें 
ताकि इसके जरासीम किसी दूसरे को असर अंदाज़ न कर सकें. 
नए हौसले के साथ ख़ुद को सिर्फ़ एक इंसान होने का एलान कर दें. 
***

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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