गर तुम बुरा न मानो
मैंने क़ुरआन पर क़लम उठाई तो इस्लामी दुन्या हम पर आग बगू़ला हुई ,
मैं डरा न विचलित हुवा.
वह धीरे धीरे मेरे सच के आदी हो गए ,
सच को सुनने और समजने को कौन मूर्ख भला राज़ी न होगा .
कुछ दिन पहले ही मैंने उचित समझा कि हिन्दू समाज को सच जानने और सच समझने की ज़रुरत है,
गरज़ मैंने वेद और गीता को उठाया.
मैं देख रहा हूँ कि मेरे कुछ हिन्दू पाठक उन मुसलामानों से पीछे नहीं जिनका मैंने ज़िक्र किया.
कुछ पाठक तो ऐसे हैं जो क़ुरआनी आलोचना से प्रफुल्लित हुवा करते थे अब मेरे इस नईं शृंखला से हैबत ज़दा हैं,
वह आएँ बाएँ शाएँ बक रहे हैं.
दर अस्ल हक़ीक़त यह है कि मुल्लों और पंडों ने इन पर झूट की परत इतनी मोटी चढ़ाई है कि सच सुनने में इनके कान फट रहे हैं.
अक्सर लोग लिखते हैं,
"जुनैद साहब आपको शर्म आनी चाहिए."
भय्या जी सच को स्वीकार न करने पर आपको शर्म आनी चाहिए.
ग्रन्थ आपका, उनका अनुवाद करता हिन्दू .
मैं तो कुछ पंक्तियों के साथ आपको आईना दिखला रहा हूँ ,
अपना चेहरा गर्द आलूद दिख रहा है आपको ?
तो अपना चेहरा साफ़ करिए, आईने को मत तोडिए.
मेरा यह अभियान हिन्दू समाज से बैर ख़रीदने के लिए नहीं,
बल्कि उनके हित में है.
बहुसंख्यक हैं, खोखले ढोलों के शोर मे , वह अपनी ख़ामियां सुन नहीं पाते.
मैं हिदू हूँ न मुसलमान, केवल मानवता का प्रचारक हूँ.
गीता और क़ुरआन
अर्जुन भगवन कृष्ण से पूछ ते हैं कि
हे जनार्दन !
हे केशव !
यदि आप बुद्धि को सकाम कर्म से श्रेष्ट समझते हैं
तो फिर आप मुझे इस घोर युद्ध में क्यों लगाना चाहते हैं ?
श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय अध्याय -3- श्लोक -1-
भगवान् कृष्ण कहते हैं - - -
हे निष्पाप अर्जुन ! मैं पहले भी बता चुका हूँ कि
आत्म साक्षात्कार का प्रयत्न करने वाले दो प्रकार के पुरुष होते हैं
कुछ इसे ज्ञानयोग द्वारा समझने का प्रयत्न करते हैं
तो कुछ इसे भक्ति मय सेवा के द्वारा.
न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्म से छुटकारा पा सकता है
और न केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है.
श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय अध्याय -3- श्लोक -3-4
और क़ुरआन कहता है - - -
"और जो शख्स अल्लाह कि राह में लडेगा वोह ख्वाह जान से मारा जाए या ग़ालिब आ जाए तो इस का उजरे अज़ीम देंगे और तुम्हारे पास क्या औचित्य है कि तुम जेहाद न करो अल्लाह कि राह में।"
सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (75)
"फिर जब उन पर जेहाद करना फ़र्ज़ कर दिया गया
तो क़िस्सा क्या हुआ कि उन में से बअज़् आदमी
लोगों से ऐसा डरने लगे जैसे कोई अल्लाह से डरता हो,
बल्कि इस भी ज़्यादह डरना
और कहने लगे ए हमारे परवर दीगर !
आप ने मुझ पर जेहाद क्यूँ फ़र्ज़ फरमा दिया?
हम को और थोड़ी मुद्दत देदी होती ----"
सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (77)
धर्मान्धरो !
कैसे तुम्हारी आखें खोली जाएँ कि इस धरती पर प्रचलित धर्म ही सबसे बडे पाप हैं.
यह युद्ध से शुरू होते हैं और युद्ध पर इसका अंत होता है.
युद्ध सर्व नाश करता है जनता जनार्दन का.
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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