Thursday 26 April 2018

Hindu Dharm 172



दीवालिए लोग 

धार्मिकता हर आईने में अपना रूप तलाशती है. 
जब आइना नकार देता है तो वह बे शर्म हो जाती है 
जिससे धर्म कांटा भी शर्मिंदा हो जाता है. 
दीपावली के पटाखे मानव और मानवता के लिए दिल्ली और दूसरे बड़े शहरों में ज़हर परोस रहे हैं, इससे उनका (धार्मिकता) कोई वास्ता नहीं, 
उनको पहले जवाब दिया जाए कि क़ुरबानी में जानवर बद्ध क्यों ? 
यह बात तो क़ुरबानी के समय उठती रहती है, 
इसको शहरों की हवा में ज़हर घोलने के जवाब में पेश करना ही अनुचित है.
अब आइए बक़रीद की क़ुरबानी पर . 
क़ुरबानी किस अंध विशवास का नतीजा है, 
मैं इस पर हर बक़रीद के मौक़े पर अपने ख़याल का इज़हार करता हूँ. 
क़ुरबानी का मूल धेय था कि अरब में क़ब्ल इस्लाम अरबी मुमालिक के समूह का वार्षिक सम्मलेन हुवा करता था, जिसका दस्तूर था कि हैसियत वाले यहाँ आकर जानवरों की कुर्बानियां किया करें ताकि सम्मलेन के लिए खाने का इंतज़ाम हो सके. बेहतरीन समझौता था. 
अरब में नए धर्म का इस्लाम का उदय हुवा . 
इस्लाम आया सब  कुछ उलट पुलट गया.  
सम्मलेन ने इस्लामियत का रूप धारण किया और हज बन गया. 
क़ुरबानी फ़र्ज़ का चोला पहन लेली है.

क़ुरबानी में इस्लामी तरीका यह है कि गोश्त का तीन हिस्सा किया जाए,
एक हिस्सा गरीबों में तकसीम कर दिया जाए,
दूसरा हिस्सा गरीब रिश्ते दारों में बाँट दिया जाए जो खैरात खाना गवारा नहीं करते.
तीसरा हिस्सा घर वालों का है जो अहबाब और परिवार के काम आए.
फ़ी ज़माना बेतरीन तरीका था जब इंसान गोश्त की एक बोटी को तरसता था.
क़ुरबानी के दिन हर रोज़ के मुकाबले में दो-तीन गुणा जानवर कट जाते है, 
बस यही बात उचित या अनुचित कही जा सकती है. 
उचित इस लिए है कि क़ुरबानी के माध्यम से पूरा समाज जी भरके गोश्त खा लेता है, जैसे दीवाली या होली में हिन्दू जी भर के मिठाई खा लेता है. 
शाकाहारी महानुभावों से क्षमा ! 
जिन को गोश्त की कल्पना से उलटी होने लगती है, 
हाँलाकि मुंह में वह भी ज़बान रखते हैं जो कि मांस का जीता जागता लोथड़ा है, 
साथ में 32 हड्डियों की मोतियाँ भी होती है जिनको दांत कहा जाता है.
किसी के आहार पर प्रहार करना, दनावताचार है. 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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