मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह यूनुस 10
(क़िस्त -3)
अल्लाह कहता है - - -
''और बअज़े हैं जो इस पर ईमान लाएँगे और बअज़े हैं जो इस पर ईमान न लाएँगे और आप का रब इन मुफ़स्सिदों को ख़ूब जानता है और अगर आप को झुट्लाते है तो कह दीजिए कि मेरा किया हुवा मुझको और तुम्हारा किया हुवा तुमको मिलेगा. तुम मेरे किए हुए के जवाब देह नहीं, मैं तुम्हारे किए का जवाब देह नहीं.''
सूरह यूनुस १० पारा 11 आयत (४१)
मुहम्मद के मुहिम में एक वक़्त मजबूरी आन पड़ी थी कि ऐसी आयतें नाज़िल होने लगीं (देखें तारीख़ इस्लाम) वर्ना जेहादी अल्लाह के मुँह से इस क़िस्म की बातें ?
तौबा ! तौबा !!
यह आयत आज मुल्लाओं और सियासत दानों के बहुत काम आ रही है. जैसे मुहम्मद के काम वक़्ती तौर पर आ गई थी,
ताक़त मिलते ही फिर ये लोग जेहादी तालिबान बन जाएँगे.
''इन में से कुछ ऐसे हैं जो आप की तरफ़ कान लगा कर बैठे हैं, क्या आप बहरों को सुनाते हैं कि जिनके अन्दर कोई समझ ही न हो. और बअज़ ऐसे हैं जो सिर्फ़ देख रहे हैं तो क्या आप अंधों को रास्ता दिखाना चाहते हैं, गो इनको बसीरत भी नहीं है. यकीनी बात है कि अल्लाह तअला लोगों पर ज़ुल्म नहीं करता लेकिन लोग ख़ुद ही को तबाह करते हैं.''
सूरह यूनुस १० पारा 11 आयत (४२-४४)
बड़े मियाँ ! आप की बातों में कोई दम ख़म हो, कोई इंक़्शाफ़ हो,
इंक़्शाफ़ के नाम पर जेहालत की बातें कि अण्डे को आप बेजान बतलाते हैं
और उसमें से जानदार परिन्द निकालते हैं,
फिर परिन्द से बेजान अण्डा निकलने का अल्लाह का मुआज्ज़ा दिखलाते है.
आप के बातें वही ईसा मूसा की घिसी पिटी कहानियाँ दोहराती रहती हैं,
कहाँ तक सुनें लोग?
ऊंघने तो लगेंगे ही, अनसुनी तो करेंगे ही.
आप कहते हैं कि वह सब हम्मा तन बगोश हो जाएँ.
मुहम्मद की इन बातों से अंदाजः लगाया जा सकता है कि उनके गिर्द कैसे कैसे लोग रहते होंगे, उस वक़्त इस क़ुरआन की वक़अत क्या रही होगी ?
क़ुरआन की वक़अत तो आज भी वही है मगर हराम खो़र ओलिमा और तलवार की धार ने, इस पर सोने का मुलम्मा चढ़ा रखा है.
नमाज़ अगर दुन्या के लोगों की मादरी जुबानों में हो जाए तो चन्द दिनों में ही इस्लाम की पोल पट्टी खुल जाय.
अवाम नए सिरे से आप को नए लकबों से नवाज़ना शुरू करदे.
''लोग कहते हैं कि यह वादा (क़यामत का) कब वाक़ेअ होगा, अगर तुम सच्चे हो? आप फ़रमा दीजिए कि अपनी ज़ात ख़ास के लिए किसी नफ़ा या किसी नुक़सान का अख़्तियार नहीं रखता मगर जितना अल्लाह को मंज़ूर हो. हर उम्मत के लिए एक मुअय्यन वक़्त है. जब उनका यह मुअय्यन वक़्त आ पहुचता है तो एक पल न पीछे हट सकते हैं न आगे सरक सकते है.''
सूरह यूनुस १० पारा 11 आयत (५०)
''क्या वह (क़यामत) वाक़ई है? आप फ़रमा दीजिए कि हाँ ! वह वाक़ई है और तुम किसी तरह उसे आजिज़ नहीं कर सकते.''
सूरह यूनुस १० पारा 11 आयत (५३)
मुहम्मद ने मुसलमानों के लिए अल्लाह को हाथ, पाँव, नाक, कान, मुँह, दिल और इंसानी दिमाग़ रखने वाला एक घटिया हयूला का पैकर खड़ा कर रखा है, तभी तो मजबूर बीवियों की तरह अपने शौहर नुमा बन्दों से आजिज़ भी हो रहा है, वर्ना इंसानों और जिनों से दोज़ख के पेट भरने का वादा किए हुए अल्लाह को इनकी क्या परवाह होनी चाहिए.
बेचारा मुसलमान हर वक़्त अपने परवर दिगार को अपने सामने तैनात खड़ा पाता है. वह ससी, सहमी हुई ज़िन्दगी गुज़रता है. कुदरत की बख़्शी हुई इस अनमोल जिसारत ए लुत्फ़ से लुत्फ़ अन्दोज़ ही नहीं हो पाता. क़यामत का खौ़फ़नाक लिए अधूरी ज़िन्दगी पर क़िनाअत करता हुवा इस दुन्या से उठ जाता है.
क़ौम की माली, सनअती, तामीरी और इल्मी तरक़्क़ी में यह अल्लाह की फूहड़ आयतें बड़ी रुकावट बनी रहती हैं. अवाम जो इन बातों की गहराइयों में जाते हैं वह हक़ीक़त को समझने के बाद या तो इस से अपना दामन झाड़ लेते हैं या इसका फ़ायदा उठाने में लग जाते हैं.
हर मज़हब की लग-भग यही कहानी है.
''याद रखो अल्लाह के दोस्तों पर न कोई अंदेशा और न वह मग़मूम होते हैं. वह वो हैं जो ईमान लाए और परहेज़ रखते हैं. इनके लिए दुन्यावी ज़िन्दगी में भी और आख़रत में भी ख़ुश ख़बरी है - - -''
सूरह यूनुस १० पारा 11 आयत (५३)
आज अल्लाह के दोस्तों पर तमाम दुन्या को अंदेशा है.
हर मुल्क में मुसलामानों को मशकूक नज़रों से देखा जाता है.
एक मुसलमान किसी मुसलमान पर भरोसा नहीं करता.
इनकी हर बात इंशा अल्लाह के शक ओ शुबहा में घिरी रहती है.
कोई वादा क़ाबिले-एतबार नहीं होता. आख़रत के नाम पर एक दूसरे को धोका दिया करते हैं.
भोले भाले अवाम आख़रत का शिकार हैं.
क़ुरआन एक हज़ार बार कहता है जो कुछ ज़मीन और आसमान के दरमियान है अल्लाह का है.
कौन काफ़िर कहता है कि यह सब उनके बुतों का है ?
या कौन मुल्हिद कहता है कि नहीं यह सब उसका है?
कौन पागल कहता है कि अल्लाह का नहीं, सब बागड़ बिल्लाह का है,
कि मुहम्मद उस से पूछते रहते हैं कि कोई दलील हो तो पेश करो.
वह ख़ुद अल्लाह के दलाल बने फिरते हैं,
इसका सुबूत जब कोई पूछता है तो बड़ी आसानी से कह देते हैं
कि इसका गवाह मेरा अल्लाह काफ़ी है.
सूरह यूनुस १० पारा 11 आयत (६५-७४)
नूह के बाद मुहम्मद मूसा का तवील क़िस्सा फिर नए सिरे से ले बैठते है.
इनके तख़रीबी ज़ेहन में दूसरे मौज़ूअ का ज़्यादः मसाला भी नहीं है.
शुरू कर देते हैं फ़िरौन और मूसा की मुक़ालमों की फूहड़ जंग जिसको पढ़ कर एहसास होता है कि
एक चरवाहा इस से बढ़ कर क्या बयान कर सकता है.
इसमें तबलीग़ इस्लाम की होश्यारी खटकती रहती है.
अक़ीदत मंदों की लेंडी ज़रूर तर हुवा करती है यह और बात है.
बयान का वाक़ेअय्यत से कोई लेना देना नहीं. मसलन - - -
''ए मूसा ! आप मुसलामानों को बशारत दे दें और मूसा ने अर्ज़ किया ए हमारे रब !
तूने फ़िरौन को और इसके सरदारों को सामान तजम्मुल और तरह तरह के सामान ए दुनयावी, ज़िन्दगी में इस वास्ते दी हैं कि वह आप के रस्ते से लोगों को गुमराह करें?
ए मेरे रब ! तू उनके सामान को नेस्त नाबूद कर दे और इनके दिलों को सख़्त करदे,
सो ईमान न लाने पावें, यहाँ तक कि अज़ाबे-अलीम देख लें और फ़रमाया कि तुम दोनों की दुआ कुबूल कर लीं.''
सूरह यूनुस १० पारा 11 आयत (७५-८९)
मुहमदी क़ुरआन की नव टंकी देखिए ,
रसूल खेत की कहते हैं, मूसा खलियान की सुनता है और अल्लाह गोदाम की क़ुबूल करता है.
इन आयतों को पढ़ कर मुहम्मद की गन्दी ज़ेहन्यत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वह बनी नवअ इंसान के कितने हम दर्द थे फिर भी यह हराम ज़ादे ओलिमा उनको मोह्सिने-इंसानियत कहते नहीं थकते.
''और हमने बनी इस्राईल को दरिया के पार कर दिया, फिर उनके पीछे पीछे फ़िरौन मय अपने लश्कर के ज़ुल्म और ज़्यादती के इरादे से चला, यहाँ तक कि जब डूबने लगा तो कहने लगा मैं ईमान लाता हूँ , बजुज़ इसके कि जिस पर बनी इस्राईल ईमान ले हैं. कोई माबूद नहीं कि मैं मुसलमानों में दाख़िल होता हूँ.''
सूरह यूनुस १० पारा 11 आयत (९०)
क़ुरआन में कितना छल कपट और झूट है यह आयत इस बात की गवाही देती है - - -
१- क़ुरआन का अल्लाह यानी मुहम्मद बक़लम ख़ुद कहते है कि फ़िरऑन मय अपने लस्कर के दरियाए नील पार कर रहा था और उसमें ग़र्क़ हुवा.
तौरेती तवारीख़ कहती है कि यह वाक़िया नील नदी नहीं बल्कि नाड सागर का है और लश्करे फ़िरौन ग़र्क़ हुई, फिरौन नहीं.
२- क़ुरआन का अल्लाह यानी मुहम्मद बक़लम ख़ुद कहते है कि फ़िरौन
''कहने लगा मैं ईमान लाता हूँ बजुज़ इसके कि जिस पर बनी इस्राईल ईमान लाए हैं''
यानी यहूदियत को छोड़ कर, जब कि वह यहूदियत के नबी मूसा के बद दुआ का शिकार हुवा था,
दो हज़ार साल बाद पैदा होने वाले इस्लाम पर कैसे ईमान लाया?
कि फिरौन कहता है ''कोई माबूद नहीं कि मैं मुसलमानों में दाख़िल होता हूँ.''
कि फिरौन कहता है ''कोई माबूद नहीं कि मैं मुसलमानों में दाख़िल होता हूँ.''
यहूदियत की बेग़ैरती के साथ मुख़ालिफ़त करते हुए, बे शर्मी के साथ इस्लाम की तबलीग़ ?
कोई मुर्दा कौम रही होगी जिसने इन बातों को तस्लीम किया होगा जो आज बेहिस मुसलमानों पर इस्लाम ग़ालिब है.
है कोई जवाब दुन्या के मुसलमानों के पास ?
मुस्लिम सरबराहों के पास ?
आलिमों और फज़िलों के पास ?
''फिर अगर बिल फ़र्ज़ आप इस किताब क़ुरआन की तरफ़ से शक में हों जोकि हमने तुम्हारे पास भेजा है तो तुम उन लोगों से पूछ देखो जो तुम से पहले की किताबों को पढ़ते हैं यानी तौरेत और इंजील तो कुरआन को सच बतलाएंगे. बेशक आप के पास रब की सच्ची किताब है. आप हरगिज़ शक करने वालों में न हों और न उन लोगों में से हों जिन्हों ने अल्लाह की आयतों को झुटलाया. कहीं आप तबाह न हो जाएँ.''
सूरह यूनुस १० पारा 11 आयत (९४-९५)
अपने रसूल को अल्लाह ख़ालिक़ ए कायनात को समझाने बुझाने की ज़रुरत पड़ रही है कि खुदा नख़ास्ता यह भी आदम ज़ाद है, गुमराह न हो जाएं. साथ साथ वह इनको ईसा मूसा का हम पल्ला भी क़रार दे रहा है. चतुर मुहम्मद ने अवाम को रिझाने की कोई राह नहीं छोड़ी.
*देखें कि अल्लाह की इन बातों से आप कोई नतीजा निकल सकते हैं - - -
''अगर आप का रब चाहता तो तमाम रूए ज़मीन के लोग सब के सब ईमान ले आते. सो क्या आप लोगों पर ज़बर दस्ती कर सकते हैं, जिस से वह ईमान ही ले आएं. हालाँकि किसी का ईमान बग़ैर अल्लाह के हुक्म मुमकिन नहीं और वह बे अक़्ल लोगों पर गन्दगी वाक़े कर देता है और जो लोग ईमान लाते हैं उनको दलायल और धमकियाँ कुछ फ़ायदा नहीं पहुँचातीं.''
सूरह यूनुस १० पारा 11 आयत (१००)
यहाँ मुहम्मदी अल्लाह ख़ुद अपनी ख़सलत के ख़िलाफ़ किस मासूमयत से बातें कर रहा है ?
ज़बरदस्ती, ज़्यादती, जौर व ज़ुल्म तो उसका तरीक़ा ए कार है,
यहाँ मूड बदला हुवा है.
वह अपने बन्दों की रचना पहले बे अक़्ली के सांचे से करता है फिर उन पर ग़लाज़त उँडेल कर मज़ा लेता है. मुसलमान उसके इस हुनर पर तालियाँ बजाते हैं.
कैसा तज़ाद (विरोधाभास) है अल्लाह की आयत में कि बग़ैर उसके हुक्म के कोई ईमान नहीं ला सकता और ईमान न लाने वालों के लिए अज़ाब भी नाज़िल किए हुए है.
यह उसके कैसे बन्दे हैं जो उस से जवाब तलबी नहीं करते,
वह नहीं मिलता तो कम अज कम उसके एजेंटों को पकड़ कर उनके चेहरों पर गन्दगी वाक़ेअ करें.
यहाँ मूड बदला हुवा है.
वह अपने बन्दों की रचना पहले बे अक़्ली के सांचे से करता है फिर उन पर ग़लाज़त उँडेल कर मज़ा लेता है. मुसलमान उसके इस हुनर पर तालियाँ बजाते हैं.
कैसा तज़ाद (विरोधाभास) है अल्लाह की आयत में कि बग़ैर उसके हुक्म के कोई ईमान नहीं ला सकता और ईमान न लाने वालों के लिए अज़ाब भी नाज़िल किए हुए है.
यह उसके कैसे बन्दे हैं जो उस से जवाब तलबी नहीं करते,
वह नहीं मिलता तो कम अज कम उसके एजेंटों को पकड़ कर उनके चेहरों पर गन्दगी वाक़ेअ करें.
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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