खेद है कि यह वेद है (53)
हे अग्नि !
हम हव्य दाताओं के लिए सुख कारक घर प्रदान करें,
अग्नि के पास से धरती, आकाश और स्वर्ग का उत्तम धन हमारे पास आए.
तृतीय मंडल सूक्त 13(4)
(ऋग्वेद / डा. गंगा सहाय शर्मा / संस्तृत साहित्य प्रकाशन नई दिल्ली )
दोसतो ! मुनकिर बनो, अर्थात इनकार करना भी सीखो. स्वीकार करते करते तुमने इस ज़मीं को उततु कर दिया है. समाज को दिशाहीन कर दिया है. 21 वीं सदी में उट्ठक बैठक की नमाज़ें पढ़ रहे हैं. भंगेड़ी और चरसी भगवानों का घंटा हिला रहे हैं.
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
No comments:
Post a Comment