खेद है कि यह वेद है (66)
हे अग्नि !
तुम हमारे सामने आकर अनुकूल एवं कर्म साधक बनो.
जिस प्रकार मित्र के सामने मित्र एवं संतान के प्रति माता पिता होते हैं.
मनुष्य मनुष्य के द्रोही बने हैं.
तुम हमारे विरोधी शत्रुओं को भस्म करो.
हे अग्नि हमें हराने के इच्छुक शत्रुओं के बाधक बनो.
हमारे शत्रु तुमको द्रव्य नहीं देते.
उनकी इच्छा नष्ट करो.
हे निवास देने वाले एवं कर्म ज्ञाता अग्नि !
यज्ञ कर्मों में मन न लगाने वालों को दुखी करो
क्योकि तुम्हारी किरणें जरा रहित हैं.
त्रतीय मंडल सूक्त 1
(ऋग्वेद / डा. गंगा सहाय शर्मा / संस्तृत साहित्य प्रकाशन नई दिल्ली )
इन वेद मन्त्रों से ज़ाहिर होता है कि कुंठित वर्ग अग्नि से आग्रह कर रहा है
कि वह उसके दुश्मनो का नाश करे.
कौन थे इन मुफ्त खोरों के दुश्मन ?
वही जो इनको दान दक्षिणा नहीं देते थे, न इनको टेते थे.
यही प्रवृति आज भी बनी हुई है.
आज भी इस वर्ग को गवारा नहीं कि कोई इनसे आगे बढे.
मंदिरों और मूर्तियों को गंगा जल से धोते हैं,
यदि शुद्र या दलिद्र बना वर्ग इसमें प्रवेश कर जाए.
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