मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है.
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है.
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह क़ुरैश 106 = القریش سورتہ
( लेईलाफे कुरैशिन ईलाफेहिम)
समाज की बुराइयाँ, हाकिमों की ज्यादतियाँ और रस्म ओ रिवाज की ख़ामियाँ देख कर कोई साहिबे दिल और साहिबे जिगर उठ खड़ा होता है,
वह अपनी जान को हथेली पर रख कर मैदान में उतरता है.
वह कभी अपनी ज़िदगी में ही कामयाब हो जाता है,
कभी वंचित रह जाता है
और मरने के बाद अपने बुलंद मुकाम को छूता है,
ईसा की तरह.
मौत के बाद वह महात्मा, गुरू और पैग़म्बर तक बन जाता है.
इसका वही मुख़ालिफ़ समाज,
इसके मौत के बाद इसको गुणांक में रुतबा देने लगता है,
इसकी पूजा होने लगती है,
अंततः इसके नाम का कोई धर्म, कोई मज़हब या कोई पन्थ बन जाता है.
धर्म के शरह और नियम बन जाते हैं,
फिर इसके नाम की दुकाने खुलने लगती हैं
और शुरू हो जाती है ब्यापारिक लूट.
अज़ीम इंसान की अजमत का मुक़द्दस खज़ाना, बिल आख़ीर उसी घटिया समाज के लुटेरों के हाथ लग जाता है.
इस तरह से समाज पर एक और नए धर्म का लदान हो जाता है.
हमारी कमज़ोरी है कि हम अज़ीम इंसानों की पूजा करने लगते हैं,
जब कि ज़रुरत है कि हम अपनी ज़िन्दगी उसके पद चिन्हों पर चल कर गुजारें.
हम अपने बच्चों को दीन पढ़ाते हैं, जब कि ज़रुरत है कि उनको आला और जदीद तरीन अख़लाक़ी क़द्रें पढ़ाएँ.
मज़हबी तअलीम की अंधी अक़ीदत, जिहालत का दायरा हैं.
इसमें रहने वाले आपस में ग़ालिब ओ मगलूब और ज़ालिम ओ मज़लूम रहते हैं.
दाओ धर्म कहता है
"जन्नत का ईश्वरीय रास्ता ये है कि अमीरों से ज़्यादा लिया जाए और गरीबों को दिया जाए. इंसानों की राह ये है कि ग़रीबों से लेकर ख़ुद को अमीर बनाया जाए."
कौन अपनी दौलत से ज़मीन पर बसने वालों की ख़िदमत कर सकता है?
वही जिसके पास ईश्वर है. वह इल्म वाला है, जो दौलत इकठ्ठा नहीं करता.
जितना ज्यादः लोगों को देता है उससे ज्यादः वह पाता है."
अल्लाह अपने क़ुरैश पुत्रों को हिदायत देता है कि - - -
"चूँकि क़ुरैश ख़ूगर हो गए,
जाड़े के और गर्मी के, यानी जाड़े और गर्मी के आदी हो गए,
तो इनको चाहिए कि काबः के मालिक की इबादत करें,
जिसने इन्हें भूक में खाना दिया और खौ़फ़ से इन्हें अम्न दिया."
सूरह क़ुरैश 106 आयत (1 -4)
क़ुरआन में आयातों का पैमाना क्या है?
इसकी कोई बुन्याद नहीं है.
आयत एक बात पूरी होने तक तो स्वाभाविक है मगर अधूरी बात किस आधार पर कोई बात हुई ? देखिए, "चूँकि क़ुरैश ख़ूगर हो गए,"
ये आधी अधूरी बात एक आयत हो गई
और कभी कभी पूरा पूरा पैरा ग्राफ़ एक आयत होती है.
इस मसलक की कोई बुनियाद ही नहीं,
इससे ज्यादः अधूरा पन शायद ही और कहीं हो.
नमाज़ियो !
तुम क़ुरैश नहीं हो और न ही (शायद) अरबी होगे, फिर कुरैशियों के लिए,
यह क़ुरैश सरदार की कही हुई बात को तुम अपनी नमाज़ों में क्यूँ पढ़ते हो?
क्या तुम में कुछ भी अपनी जुग़राफ़ियाई ख़ून की ग़ैरत बाकी नहीं बची?
यह क़ुरैश जो उस वक़्त भी झगड़ालू वहशी थे और आज भी अच्छे लोग नहीं हैं.
वह तुमको हिंदी मिसकीन कहते हैं,
तेल की दौलत के नशे में बह आज से सौ साल पहले की अपनी औक़ात भूल गए,
जब हिंदी हाजियों के मैले कपड़े धोया करते थे
और हमारे पाख़ाने साफ़ किया करते थे.
आज वह तुमको हिक़ारत की निगाह से देखते हैं
और तुम उनके नाम के सजदे करते हो.
क्या तुम्हारा ज़मीर इकदम मर गया है?
अगर तुम क़ुरैश या अरबी हो भी तो सदियों से हिंदी धरती पर हो,
इसी का खा पी रहे हो, तो इसके हो जाओ.
क़ुरैश होने का दावा ऐसा भी न हो कि क़स्साब से कुरैशी हो गए हो
या कि जुलाहे से अंसारी,
कई भारतीय वर्गों ने ख़ुद को अरबी मुखियों को अपना नाजायज़ मूरिसे-आला बना रक्खा है ये बात नाजायज़ वल्दियत की तरह है.
बेहतर तो यह है कि नामों आगे क़बीला, वर्ग और जाति सूचक इशारा ही ख़त्म कर दो.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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