हज
हज जैसे ज़ेह्नी तफ़रीह में कोई तख़रीबी पहलू नज़र नहीं आता,
सिवाय इसके कि ये मुहम्मद का अपनी क़ौम के लिए एक मुआशी ख़्वाब था.
आज समाज में हज, हैसियत की नुमाइश एक फैशन भी बना हुवा है.
दरमियाना तबक़ा अपनी बचत पूंजी इस पर बरबाद कर के अपने बुढ़ापे को
ठन ठन गोपाल कर लेता है,
जो अफ़सोस का मुक़ाम है.
हज हर मुसलमान पर एक तरह का उस के मुसलमान होने का क़र्ज़ है,
जो मुहम्मद ने अपनी क़ौम के लिए उस पर लादा है.
उम्मी की इस सियासत को दुन्या की हर पिछ्ड़ी हुई क़ौम ढो रही है.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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