मुसलमानो की क़समें
मुसलमानो को क़समें खाने की कुछ ज़्यादः ही आदत है
जो कि इसे विरासत में इस्लाम से मिली है.
मुहम्मदी अल्लाह भी क़स्में खाने में पेश पेश है
और इसकी क़समें अजीबो ग़रीब है.
उसके बन्दे अपने ख़ालिक़ की क़सम खाते हैं,
तो अल्लाह जवाब में अपनी मख़लूक़ की क़समें खाता है,
मजबूर है अपनी हेकड़ी में कि उससे बड़ा कोई है नहीं कि
जिसकी क़समें खा कर वह अपने बन्दों को यक़ीन दिला सके,
उसके कोई माँ बाप नहीं कि जिनको क़ुरबान कर सके.
इस लिए वह अपने मख़लूक़ और तख़लीक़ की क़समें खाता है.
क़समें झूट के तराज़ू में पासंग (पसंघा) का काम करती हैं
वर्ना ज़बान के "ना का मतलब ना और हाँ का मतलब हाँ"
ही इंसान की क़समें होनी चाहिए.
अल्लाह हर चीज़ का खालिक़ है, सब चीज़ें उसकी तख़लीक़ है,
जैसे कुम्हार की तख़लीक़ माटी के बने हांड़ी, कूंडे वग़ैरा हैं,
अब ऐसे में कोई कुम्हार अगर अपनी हांड़ी और कूंडे की क़समें खाए तो कैसा लगेगा? और वह टूट जाएँ तो कोई मुज़ायका नहीं,
कौन इसकी सज़ा देने वाला है.
क़ुरआन माटी की हांड़ी से ज़्यादः है भी कुछ नहीं.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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