मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है.
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है.
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह दह्र/इंसान- 76 = سورتہ الدّھر
(मुकम्मल)
`"बेशक इंसान पर ज़माने में एक ऐसा वक़्त भी आ चुका है जिसमे वह कोई चीज़ क़ाबिल ए तज़करा न था. हमने इसको मख़लूत नुतफ़े से पैदा किया, इस लिए हम उसको मुकल्लिफ़ (तकलीफ़ ज़दा) बनाईं, सो हमने इसको सुनता देखाता बनाया. हमने इसको रास्ता बतलाया, यातो वह शुक्र गुज़ार हो गया या नाशुक्रा हो गया . हमने काफ़िरों के लिए ज़ंजीर, और तौक़ और आतिशे सोज़ान तैयार कर राखी हैं."
सूरह दह्र 76 आयत ( 1-4)
ज़बान की क़वायद से नावाक़िफ़ उम्मी मुहम्मद का मतलब है कि तारीख़ ए इंसानी में, इंसान उन मरहलों से भी गुज़रा कि इसका कोई कारनामः काबिले-बयान नहीं.
इंसान माज़ी की दुश्वार गुज़ार जिंदगी में अपनी नस्लों को आज तक बचाए रख्खा यही इसका बड़ा कारनामा है, जब कि कोई इंसानी तख़य्युल का अल्लाह भी इंसानी दिमाग़ में न आया था.
इंसान मख़लूत नुतफ़े से पैदा हुवा, यह भी अल्लाह को बतलाने की ज़रुरत नहीं कि इल्म मुहम्मद से बहुत पहले इंसान को हो चुका है.
"उसको मुकल्लिफ़ बनाईं"
ये सच है इसी का फ़ायदा उठाते हुए मुहम्मद ने इन पर लूट मार का कहर बरपा किया था कि इंसान में क़ूवाते बर्दाश्त बहुत है.
ये सच है इसी का फ़ायदा उठाते हुए मुहम्मद ने इन पर लूट मार का कहर बरपा किया था कि इंसान में क़ूवाते बर्दाश्त बहुत है.
किसी कमज़र्फ अल्लाह को हक़ नहीं पहुँचता कि वह मख़लूक़ को बंधक बनाने के लिए पैदा करे. .
मुहम्मद ने इंसानों "के लिए ज़ंजीर, और तौक और आतिशे सोज़ान तैयार कर राखी हैं." बस देर है उनके जाल में जा फंसो.
ग़ौर करो कि अगर आप मुहम्मदी अल्लाह को नहीं मानते या जो भी नहीं मानता उसके लिए उसकी बातें मज़हक़ा खेज़ हैं.
"जो नेक हैं वह ऐसी जामे शराब पिएंगे जिसमे काफ़ूर की आमेज़िश होगी.यानी ऐसे चश्में से जिससे अल्लाह के ख़ास बन्दे पिएँगे. जिसको वह बहा कर ले जाएँगे, वह लोग वअज़ बात को पूरा करते हैं और ऐसे दिन से डरते हैं जिसकी सख़्ती आम होगी."
सूरह दह्र ७६ आयत (आयत ५-७)
जन्नत में मिलने वाली यही शराब, कबाब और शबाब की लालच में मुसलमान अपनी मौजूदा ज़िन्दगी को इन से महरूम किए हुए है.
काफ़ूर मुस्लिम जनाजों को सुगन्धित करता है, जन्नत में इसकी गंध को पीना भी पडेगा.
काफ़ूर मुस्लिम जनाजों को सुगन्धित करता है, जन्नत में इसकी गंध को पीना भी पडेगा.
"पर तकिया लगाए हुए होंगे .
वहाँ तपिश पाएँगे न जाड़ा,
और जन्नत में दरख़्तों के साए जन्नातियों पर झुके होंगे .
और उनके मेवे उनके अख़्तियार में होंगे,
और उनके पास चाँदी के बर्तन लाए जाएँगे,
और आब खो़रे जो शीशे के होगे जिनको भरने वालों ने
मुनासिब अंदाज़ में भरा होगा
मुनासिब अंदाज़ में भरा होगा
और वहां उनको ऐसा जमे शराब पिलाया जाएगा जिसमें
सोंठ की आमेज़िश होगी.
सोंठ की आमेज़िश होगी.
यानी ऐसे चश्में से जो वहाँ होगा जिसका नाम सलबिल होगा,
और उनके पास ऐसे लड़के आमद ओ रफ़्त करेंगे जो हमेशा लड़के ही रहेंगे,
और ए मुख़ातिब! तू अगर उनको देखे तो समझे मोती हैं, बिखर गए हैं,
और ए मुख़ातिब तू अगर उस जगह को देखे तो तुझको बड़ी नेमत और बड़ी सल्तनत दिखाई दे
उन जन्नातियों पर बारीक रेशम के सब्ज़ कपडे होंगे और दबीज़ रेशम के भी, और उनको सोने के कंगन पहनाए जाएँगे.
और उनका रब उनको पाकीज़ा शराब देगा
जिसमें न नजासत होगी न कुदूरत."
जिसमें न नजासत होगी न कुदूरत."
सूरह दह्र ७६ - आयत (आयत १४-२१)
क़ुररान की आयतें कहती हैं कि जन्नतियों को तमाम आशाइशों के साथ साथ नवखेज़ लौंडे (पाठक मुआफ़ करें) होगे जो हमेशा नव उम्र ही होंगे, अल्लाह अपने मुख़ातिब को रुजूअ करता है वह
"मोती हैं, बिखर गए हैं"
क्या उसकी पेश कश जन्नातियो के लिए लौंडे बाजी की है (एक बार फिर पाठक मुझ को मुआफ़ करें) दुरुस्त यही है.ये अमल भी शराब नोशी की तरह जन्नत में रवा होगा.
इग्लाम बाज़ी समाज की बदतरीन बुराई है जिसका ज़िक्र दो ग़ैरत मंद आपस में आँख मिला कर नहीं कर सकते. और अल्लाह अपनी जन्नत में इसकी खुली दावत देता. इस फ़ेल से समाज बातिनी तौर पर और ज़ेह्नी तौर पर मजरूह होता है ,जिस्मानी तौर पर बीमार हो जाता है, मेयारी तौर पस्त. सर उठा कर चलने लायक़ नहीं रह जाता .
दो इग्लाम बाज़ मर्द होते हुए भी नामर्द हो जाते हैं.
किसी तहरीक को चलाने के लिए उमूमन जायज़ और नाजायज़ हरबे इस्तेमाल होते हैं, ये सियासत तक ही महदूद नहीं, धर्म तक इसका इस्तेमाल करते हैं मगर सबकी अपनी कुछ न कुछ हदें होती हैं हद्दे कमीनगी तक जाने के लिए इंसान सौ बार सोचता है और मुहम्मदी अल्लाह एक बार भी नहीं सोचता. इसका बुरा असर मुआशरे में बड़ी गहराई तक जाता है. अल्लाह के बलिग़ान दीन इन आयातों का सहारा लेकर मस्जिद के हुजरों में अक्सर मासूमों को अपना शिकार बनाते हैं.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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