ख़ुद में तलाश
आज हर तरफ़ आध्यात्म की सौदागरी हो रही है.
हर पांचवां आदमी चार को बाबाओं की तरफ़ घसीटता नज़र आ रहा है.
ऊपर से आधुनिक ढ़ंग के संचार का चारों ओर जाल बिछा हुवा है.
हर कैडर के इंसानी दिमाग की घेरा बंदी हो रही है.
हर तबक़े के लिए रूहानी मरज़ की दवा ईजाद हो चुकी है.
ओशो अपने आश्रम में कहीं सेक्स की आज़ादी दे रहे है
तो दूसरी तरफ़ योगी उस के बर अक्स लोगों को सेक्स से
दूर रहने के तरीक़े बतला रहे हैं.
बीच का तबक़ा जो इन दो पाटों में फंसा हुवा है
वह भगवानो की लीला ही देख कर
या लिंग की पूजा करके ही सेक्स की प्यास बुझा लेता है.
और भी गम है ज़माने में लताफत से सिवा.
बीमारियाँ इंसान का एक बड़ा मसअला बनी हुई हैं.
जिसके लिए औसत आदमी डाक्टर के बजाए पीर फ़क़ीर
और बाबाओं के फंदे में खिंचे चले आते है.
समस्या समाधान के लिए लोग एक दूसरों पर आधारित रहते है.
अस्ल में यह मसअले समाज के मंद बुद्धि लोगों के हैं.
समझदार लोग तो ख़ुद अपने आप में बैठ कर समस्या का समाधान तलाश करते है, किसी से दिमाग़ी क़र्ज़ नहीं लेते और न किसी का शिकार होते हैं.
हमारे मसाइल का हम से अच्छा कौन साधक हो सकता है.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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