शपथ गीता की, जो कहूँगा सच कहूँगा. (60)
> उन्हें विश्वास है कि इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है.
>>इस प्रकार मरण काल तक उनको अपार चिंता होती रहती है.
वह लाखों इच्छाओं के जाल में बंध कर
तथा काम और क्रोध में लीन होकर इन्द्रीय तृप्ति के लिए
अवैध ढ़ंग से धन संग्रह करते हैं.
>>>इस प्रकार अनेक चिंताओं से उद्विग्न होकर तथा मोहजाल बंध कर वे इन्द्रीय भोग में अत्याधिक आसक्त हो जाते हैं और नरक में गिरते हैं.
>>>> जो लोग ईर्ष्यालु तथा क्रूर हैं और नराधम हैं,
उन्हें मैं निरंतर विभिन्न असुरी योनियों में, भवसागर में डालता रहता हूँ.
श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय -16 श्लोक -11-12-16 -19
*इन्द्रियों की तुष्टि ही मानव सभ्यता को गति देती है.
यह आरायशी पहलू अगर मानव सभ्यता में न होता तो यह गतिहीन होकर गर्त में समा जाती. मरते दम तक इसकी चिंता मनुष्य को सालती रहती कि उसने अपने हद तक और चेष्टा तक काम कर दिया है,
बिजली को क़ैद कर लिया है, प्रवाह के साधन,
हे पीढियो !
तुम्हारा आविष्कार होगा, उस के बाद का काम तुम्हारे बच्चे करेंगे,
काम और क्रोध तथा कथित भगवान् की ही पैदा की हुई इंसानी खसलत है,
कौन दोषी है इसका ?
यह क्षणिक खुजली है, शरीर को खुजला कर अपने लक्ष में लग जाओ.
नरक यह धरती उस वक़्त से बनना शुरू हुई जब धर्मों का ज़हरीला आविष्कार हुवा.
>>>>हे अहमक़ भगवन ! तू मानव को ईर्ष्यालु, क्रूर और नराधम ही क्यों बनाता है ?
क्या तू भी योनियों की क्रीडा का रसिया है ?
(यह गोपियों के राजा किशन हैं, हो भी सकते हैं)
निरंतर विभिन्न असुरी योनियों के भवसागर में विरोधियों को डाल कर निकलता है ? तेरा खेल तू ही जाने, या यह पंडे, जनता तो मूरख है.
और क़ुरआन कहता है - - -
>आदमी पर अल्लाह की मार. वह कैसा है,
अल्लाह ने उसे कैसी चीज़ से पैदा किया,
नुत्फे से इसकी सूरत बनाई, फिर इसको अंदाज़े से बनाया.``
फिर इसको मौत दी,
फिर इसे जब चाहेगा दोबारह जिंदा कर देगा.
सूरह अबस ८० - पारा ३० आयत(१४-२२)
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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