शपथ गीता की, जो कहूँगा सच कहूँगा (68)
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं - - ->प्रत्येक उद्योग (प्रयास) किसी न किसी दोष से आवृत होता है,
जिस प्रकार अग्नि धुंए से आवृत रहती है.
अतएव हे कुंती पुत्र !
मनुष्य को चाहिए कि स्वाभाव से उत्पन्न कर्म को,
भले ही वह दोष पूर्ण क्यों न हों, कभी त्यागे नहीं.
>>केवल भक्ति से मुझ भगवान् को यथा रूप में जाना जा सकता है. जब मनुष्य ऐसी भक्ति से मेरे पूर्ण भावनामृत में होता है, तो वह बैकुंठ जगत में प्रवेश करता है.
श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय -18 श्लोक -48-55
*
>हे परन्तप !
ब्राह्मणों, क्षत्रियो, वैश्यों तथा शूद्रों में प्रकृति के गुण के अनुसार उनके स्वभाव द्वारा उत्पन्न गुणों के द्वारा भेद किया जाता है.
>>शांति प्रियता, आत्म संयम, तपश्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्य निष्ठां, ज्ञान, विज्ञान तथा धार्मिकता --- यह सरे स्वभाव गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्म करते हैं.
>>>वीरता, शक्ति, संकल्प, द क्ष ता, युद्ध में धैर्य, उदारता तथा नेतृत्व ---
क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण हैं .
>>>>कृषि करना, गो र क्षा तथा व्यापार वैश्यों के स्वाभाविक कर्मा हैं और शूद्रों का कर्म श्रम तथा अन्यों की सेवा करना.
अपने अपने कर्म के गुणों का पालन करते हुए प्रत्येक व्यक्ति सिद्ध हो सकता है.
श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय - 18 श्लोक -41-42-43-44-
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क्या ऐसे स्तर आजके समाजी ताने बाने के लायक़ हैं ?
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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