मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है.
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है.
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह वाक़िया-56 - سورتہ الواقیہ
(क़िस्त )
सूरह वाक़िया-56 - سورتہ الواقیہ
(क़िस्त )
वक़ेआ का मतलब है जो बात वाक़े (घटित ) हुई हो और वाक़ई (वास्तविक) हुई हो.
इस कसौटी पर अल्लाह की एक बात भी सहीह नहीं उतरती.
यहाँ वक़ेआ से मुराद क़यामत से है जोकि कोरी कल्पना है.
वैसे पूरा का पूरा क़ुरआन ही क़यामत पर तकिया किए हुए है.
सूरह में क़यामत का एक स्टेज बनाया गया है जिसके तीन बाज़ू हैं
पहला दाहिना बाज़ू और दूसरा बायाँ बाज़ू तीसरा आला दर्जा (?).
दाएँ तरफ़ वाले माशा अल्लह, सब जन्नती होने वाले होते हैं और बाएँ जानिब वाले कमबख़्त दोज़खी.
मजमें की तादाद मक्का की आबादी का कोई जुजवी हिस्सा लगती है
जब कि क़यामत के रोज़ जब तमाम दुन्या की आबादी उठ खड़ी होगी,
तो ज़मीन पर इंसान के लिए खड़े होने की जगह नहीं होनी चाहिए.
बाएँ बाजू वाले की ख़ातिर अल्लाह खौलते हुए पानी से करता है.
इसके पहले अल्लाह ने जिस क़यामती इजलास का नक़्शा पेश किया था,
उसमें नामाए आमाल दाएँ और बाएँ हाथों में बज़रीया फ़रिश्ता बटवाता है.
ये क़यामत का बदला हुवा प्रोगराम है.
याद रहे कि अल्लाह किसी भी बाएँ पहलू को पसंद नहीं करता,
इसकी पैरवी में मुसलमान अपने ही जिस्म के बाएँ हिस्से को सौतेला समझते हैं.
अपने ही बाएँ हाथ को नज़र अन्दाज़ करते हैं यहाँ तक हाथ तो हाथ पैर को भी. मुल्ला जी कहते हैं मस्जिद में दाख़िल हों तो पहला क़दम दाहिना हो.
अल्लाह को इस बात की ख़बर नहीं कि जिस्म की गाड़ी का इंजन दिल,
बाएँ जानिब होता है.
मुहम्मदी अल्लाह क़ानूने फ़ितरत की कोई बारीकी नहीं जानता .
क़ुरआनी ख़ुराफ़ातें पेश हैं - - -
"जब क़यामत वाक़े होगी,
जिसके वाक़े होने में कोई ख़िलाफ़ नहीं है, तो पस्त कर देगी, बुलंद कर देगी, (बुलंद कर देगी या पस्त ?)
जब ज़मीं पर सख़्त ज़लज़ला आएगा और ये पहाड़ रेज़ा रेज़ा हो जाएगे. "
सूरह वाक़ेआ 56 आयत (1-5)
जिन मुख़ालिफ़ों और मुन्किरों के बीच मुहम्मद अपने क़ुरआनी तबलीग़ में लगे हुए है, वहीँ कहते हैं "जिसके वाक़े होने में कोई ख़िलाफ़ नहीं है,"
इन्हीं आयतों को लेकर मुसलमान हर क़ुदरती नागहानी पर कहने लगते हैं, क़यामत के आसार हैं, जब कि इंसानियत दोस्त इसका मुक़ाबिला करके इंसानों को बचने में लग जाते हैं.
"और तुम तीन किस्म के हो जाओगे,
सो जो दाहिने वाले हैं, वह दाहिने वाले कितने अच्छे होगे,
जो बाएँ वाले हैं वह कितने बुरे लोग हैं,
जो आला दर्जे के हैं वह तो आला दर्जे के ही होंगे."
सूरह वाक़ेआ 56 आयत (6-10)
औघड़ मुहम्मद एक हदीस में कहते हैं कि हर इंसान की तक़दीर माँ के पेट में ही लिख दी जाती है, फिर नेक अमल और बद अमल का नुक़सान या फ़ायदा, मुस्लिम व काफ़िर का हेर फेर क्यूं? \
क्या मुसलमानों की समझ में ये बात नहीं आती ?
"ये लोग आराम से बागों में होंगे, ( बाग़ भी कोई रहने की जगह होती है?)
इनका एक बड़ा गिरोह तो अगले लोगों में होगा, और थोड़े से लोग पिछले लोगों में होंगे, (ऐसा क्यूं ? कोई ख़ास वजह? इन सवालों के जवाब मुल्ले तैयार कर सकते है.)
सोने के तारों से बने तख़्तों पर तकिया लगाए आमने सामने बैठे होंगे,
(सोने के तारों से बने तख़्त ? रसूल भूल जाते है कि उनकी बातों में झोल आ गया, जिसे मुतरज्जिम रफ़ू करता है, ब्रेकेट लगा के कि अल्लाह का मतलब है सोने के तारों से बने तकिए जो तख़्तों पर होंगे.)
उनके पास ऐसे लड़के, जो हमेशा लड़के ही रहेंगे, ये चीजें लेकर हमेशा आमद ओ रफ़्त करेगे,
(यहाँ के परहेज़गार नमाज़ी वहां लड़के (लौंडे)बाज़ हो जावेंग?
क्या इसी लिए होती है नमाज़ों की कसरत.)
आबखो़रे और आफ़ताबे और ऐसा जाम जो बहती हुई शराब से भरा जाएगा, ( मुसलमानों! अगर जाम ओ सुबू चाहत है तो इसी दुन्या में हाज़िर है बस कि मोमिन हो जाओ.)
बे खटके हो हयात कि जीना सवाब है,
बच्चों का हक़ अदा हो तो पीना सवाब है.
न इससे इनको सुरूर होगा न अक़्ल में फ़ितूर आएगा,
(जिस जाम से सुरूर न हो वह जाम नहीं शरबत है.)
और मेवे जिनको पसंद करेंगे, और परिंदों का गोश्त जो इनको मरगू़ब होगा,
(सब कुछ इसी दुन्या में मयस्सर है, बस तुम को बा ज़मीर मोमिन बनना है.)
और गोरी गोरी, बड़ी बड़ी आँखों वाली औरतें होंगी जैसे पोशीदा रख्खे हुए मोती,
ये उनके ईमान के बदले में मिलेगा, (अय्याश पैग़मबर की अय्याश उम्मत !
(अगर तुमको इन आयातों का यक़ीन है तो उसके पीछे तुम्हारी नीयतें वाबस्ता हैं.
कुछ शर्म ओ हया तुम में बाक़ी है तो मोमिन की बातों पर आओ.)
और न वहाँ कोई बक बक सुनेंगे न कोई बेहूदा बात, ( ख़ुद क़ुरआन मुजस्सम बेहूदा है, बेहूदगी देखने के लिए कहीं बाहर जाने की ज़रुरत नहीं.)
बस सलाम ही सलाम की आवाज़ आएगी,
(आजिज़ हो जाओगे ऐसी जन्नत से जहाँ लोग हर वक़्त कहते रहेगे "अल्लाह तुमको सलामत रख्खे". ये सलाम तुम्हारी चिढ बन जाएगी, ये जज़बए ख़ैर नहीं बल्कि जज़बए बद नियती है.)
जो दाहिने वाले हैं, वह दाहिने वाले कितने अच्छे हैं, वह बागों में होंगे जहाँ बे ख़र (बिना कांटे की ) बेरियाँ होंगी,
(एक इस्लामी हूर चड्ढी और बिकनी पहने इस जन्नत में बेर के पेड़ पर चढ़ी, बीरें खा रही थी कि मोलवी साहब ने पूछा क्या हो रहा है?
उसने जवाब दिया मुझे बस दो ही शौक़ है, अच्छा ख़ाने का और अच्छा पहिनने का.)
बिना कांटे की बेरियाँ कब होती हैं? कांटे दार तो उसका पेड़ होता है.
क्या बिना कांटे हे पेड़ की बेरियाँ अंगूर जैसी होती हैं?
मुहम्मद अपनी बक बक में दूर का अंदेशा नहीं रखते.
काफ़िरों को दूर की गुमराही का तअना ज़रूर देते हैं.
और तह बतह केले होगे, और लम्बा लम्बा साया होगा, और चलता हुवा पानी होगा, और कसरत से मेवे होंगे,
(बागों में इनके सिवा और क्या होगा? कोई नई बात भी है?तह बतह केले की तरह.)
वह न ख़त्म होंगे और न कोई रोक टोक होगी,
(पेटुओं की भूख जग रही होगी इस माले मुफ्त पर.)
और ऊंचे ऊंचे फर्श होगे,
( वहां ऊंचे ऊंचे फर्श की क्या ज़रुरत होगी? क्या जन्नत में भी बाढ़ वग़ैरह आती है?)
हम ने औरतों को ख़ास तौर पर बनाया है, यानी हम ने उनको ऐसा बनाया है कि जैसे कुँवारियाँ हों, महबूबा हैं हम उम्र में."
(मुसलमानों सुन लो वहाँ तुम्हारे लिए ऐसी हम उम्र औरतें बनाई जाएंगी? शर्त ये है कि तुम जवानी में ही उठ जाओ, क्यूंकि वह हम उम्र होगी. बूढ़े खूसट होकर मरे तो तुम्हारी हूरें पोपली बुढिया होंगी .
बकौल मुहम्मद दुन्या की ज़्यादः हिस्सा औरतें जहन्नमी होंगी,
जहाँ तुम्हारी माँ, बहेन और बेटियाँ हैं,
जिनको तुम जान से भी ज़्यादः अज़ीज़ समझते हो.
इस लिए अल्लाह तुम्हारे अय्याशी के लिए सदा बहार कुंवारियां पेश करता है.
सूरह वाक़ेआ 56 आयत (11-37)
मुहम्मदी अल्लाह क़यामत बरपा करने का नज़ारा क़यामत आने से पहले ही मुसलमानों को दिखला रहा है, क्या ये बात सहीह लगती है?
क़ुरआन की बहुत सी बातें आज नए ज़माने ने झूट साबित कर दिया है
फिर भी इन पर यक़ीन रखना मुसलमानों का ईमान है.
इन्ही झूट और गुनहगारी को वास्ते इबादत नमाज़ों में दोहराते हैं.
इन्हें पढ़ कर सलाम फेरते हैं और एक झूठे पर दरूद ओ सलाम भेजते हैं.
कुछ तो चेतो, कुछ तो जागो!!
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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