ख़ैराती उम्मत
इस्लाम की बहुत बड़ी कमज़ोरी है दुआ माँगना.
इस बेबुन्याद ज़रीया की बहुत अहमियत है.
हर मौक़ा वह ख़ुशी का हो या सदमें का, दुआ के लिए हाथ फैलाए रहते हैं.
बादशाह से लेकर रिआया तक सब अपने अल्लाह से जायज़, नाजायज़ हुसूल के लिए उसके सामने हाथ फैलाए रहते हैं.
जो मांगते मांगते अल्लाह से मायूस हो जाता है,
वह इंसानों के सामने हाथ फैलाने लगता है.
मुसलमानों में भिखारियों की कसरत, इसी दुआ के तुफ़ैल में है
कि भिखारी भी भीख देने वाले को दुआ देता है,
देने वाला भी उसको इस ख़याल से भीख दे देता है कि
मेरी दुआ क़ुबूल नहीं हो रही,
शायद इसकी ही दुआ क़ुबूल हो जाए.
दुआओं की बरकत का यक़ीन भी मुसलमानों को मुफ़्त खो़र बनाए हुए है.
कितना बड़ा सानेहा है कि मेहनत कश मजदूर को भी
यह दुआओं का मंतर ठग लेता है.
कोई इनको समझाने वाला नहीं कि ग़ैरत के तक़ाज़े को
दुआओं की बरकत भी मंज़ूर नहीं होना चाहिए.
ख़ून पसीने से कमाई हुई रोज़ी ही पायदार होती है.
यही क़ुदरत को भी गवारा है न कि वह मंगतों को पसंद करती है.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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