अल्लाह देख रहा है
काश कि हम अल्लाह को इस क़दर क़रीब समझ कर ज़िन्दगी को जिएँ. मगर अल्लाह की गवाही का डर किसे है?उसकी जगह अगर बन्दे में दरोग़ा जी के बराबर भी अल्लाह का डर हो तो इंसान ग़ुनाहों से बाज़ आ सकता है.कोई देखे या न देखे अल्लाह देख रहा है,की जगह यह बात एकदम सही होगी कि"कोई देखे या न देखे मैं तो देख रहा हूँ."दर अस्ल अल्लाह का कोई गवाह नहीं है,आलावा कुंद ज़ेहन मुसलमानों के जो लाउड स्पीकर से अज़ानें दिया करते कि" मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के अलावा कोई अल्लाह नहीं"और"मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद उसके दूत हैं."अल्लाह ग़ैर मुस्तनद है,और मैं अपनी ज़ात को लेकर सनद रखता हूँ कि मैं हूँ.इस लिए मेरा देखना अपने हर आमाल को यक़ीनी बनता है.इसी को लेकर तबा ताबईन (मुहम्मद के बाद के) कहे जाने वालेमंसूर को सज़ाए मौत हुई,उसने एलान किया था कि मैं ख़ुदा हूँ (अनल हक़)इंसान अगर अपने अंदर छिपे ख़ुदा का तस्लीम करके जीवन जिए तोदुन्या बहुत बदल सकती है.***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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