अकेला चना
मैं एक मिटटी से वापस आ रहा था, साथ में मेरे एक ख़ासे पढ़े लिखे रिश्तेदार भी थे. चलते चलते उन्हों ने एक झाड़ से कुछ पत्तियां नोच लीं, उसमें से कुछ ख़ुद रख लीं और कुछ मुझे थमा दीं. मैं ने सवाल्या निशान से जब उनको देखा तो समझाने लगे कि मिटटी से लौटो तो हमेशा हरी पत्ती के साथ घर में दाख़िल हुवा करो.
मैंने सबब दरयाफ़्त किया कि इस से क्या होता है?
तो बोले इस से होता कुछ नहीं है, ये मैं भी जनता हूँ मगर ये एक समाजी दस्तूर है, इसको निभाने में हर्ज क्या है? घर में घुसो तो औरतें हाथ में हरी पत्ती देखकर मुतमईन हो जाती हैं, वर्ना बुरा मानती है.
ये है क़बीलाई ज़िंदगी की ज़ेह्नी ग़ुलामी का एक नमूना.
ये बीमारी नस्ल दर नस्ल हमारे समाज में चली आ रही है.
ऐसे बहुतेरे रस्म ओ रिवाज को हमारा समाज सदियों से ढोता चला आ रहा है. तअलीम के बाद भी इन मामूली अंध विशवास से लोग उबार नहीं पा रहे.
दूसरी मिसाल इसके बर अक्स मैं तहरीर कर रहा हूँ कि मेरी शरीक-हयात दुल्हन के रूप में अपने घर से रुख़सत होकर मेरे घर नक़ाब के अंदर दाख़िल हुईं, दूसरे दिन उनको समझा बुझा कर नक़ाब को अपने घर से रुख़सत कर दिया,
दोबारा उन पर उसकी साया तक नहीं पड़ी.
मेरे इस फ़ैसले से नई नवेली दुल्हन को भी फ़ितरी राहत महसूस हुई,
मगर वक़्ती तौर पर उनको इसकी मुख़ालिफ़त भी झेलनी पड़ी,
बिल आख़िर मेरी भावजों को इससे हौसला मिला, उन्हों ने भी आख़िर नक़ाब तर्क कर दिया. इसका देर पा असर ये हुवा कि पैंतीस साल बाद हमारे बड़े ख़ान दान ने आख़िर कार नक़ाब को ख़ैर बाद कर बिया.
इन दो मिसालों से मैं बतलाना चाहता हूँ कि अकेला चना भाड़ तो नहीं फोड़ सकता मगर आवाज़ बुलंद कर सकता है. बड़े से बड़े मिशन की कामयाबी के लिए पहला क़दम तो उठाना ही पड़ेगा. इंसान अपने अंदर छिपी सलाहियतों से ख़ुद पहचानने से बचता राहता है.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
No comments:
Post a Comment