तजावुज़ और जुमूद
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मैं इस्लाम का आम जानकर हूँ , इसका आलिम फ़ाज़िल नहीं.
इस की गहराइयों में जाकर देखा तो इसका मुंकिर हो गया,
सिने बलूग़त में आकर जब इस पर नज़रे-सानी किया तो जाना कि
इसमें तो कोई गहराई ही नहीं है.
लिहाज़ा इसके अंबारी लिटरेचर से सर को बोझिल करना मुनासिब नहीं समझा.
जिन पर नज़र गई तो पाया कि कालिमा ए हक़ के नाहक़ जवाज़ थे.
हो सकता है कि कहीं पर मेरी अधूरी जानकारी दर पेश आ जाए
मगर मेरी तहरीक में इसकी कोई अहमियत नहीं है,
क्यूँ कि इनकी बहसें बाहमी इख़्तलाफ़ और तजावुज़ व जुमूद के दरमियान हैं.
टोपी लगा कर नमाज़ पढ़ी जाए, बग़ैर टोपी पहने भी नमाज़ जायज़ है - - ,
ये इनके मौज़ूअ हुवा करते हैं.
मेरा सवाल है नमाज़ पढ़ते ही क्यूँ हो?
मेरा मिशन है मुसलमानों को इस्लामी नज़र बंदी से नजात दिलाना
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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