खुदाओं की दुन्या
ऐसा लगता है कि यह एशिया महाद्वीप की सर ज़मीं का तक़ाज़ा है कि इस पर पैदा होने वाला मानव बग़ैर भगवान, अल्लाह या किसी रूहानी हस्ती के पुर सुकून रह ही नहीं सकता. इनकी ज़ेहनी ग़िज़ा के लिए कम से कम एक झूटी महा शक्ति, एकेशवर, कोई वाहिद ए मुतलक़, कोई सुपर पावॅर चाहिए ही.
पहले जानमाज़ चाहिए फिर दस्तर ख़्वान,
पहले मंदिर व मस्जिद उसके बाद घर की छत.
कुछ भी हो एक परम पूज्य चाहिए ही जो इनकी तरह ही सोच विचार वाला हो,
इंसान जानवर, पेड़, दरिया, परबत, हत्ता कि पत्थर की मूर्ति ही क्यों न हो.
कोई शक्ल ओ सूरत न हो तो निरंकार ही सही,
कोई न कोई आफ़ाक़ी ख़ुदा इनको चाइए ही वरना सांस लेना दूभर हो जाए.
वह अनेशश्वर वादी को पशु मानते हैं, हैवान समझते हैं
जो सुकर्म और कुकर्म में कोई अंतर नहीं समझता.
मैं कभी कभी अतीत में दूर तक जाता हूँ ब्रह्मा, विष्णु, महेश काल तक जो अढाई अरब साल का होता है, इसी महाकाल में संसार निर्मित होता है और इसका अंत होता है - - - तो मैं इस मिथ्य को सत्य मान लेता हूँ कि इसी में नजात है कि आगे दूर तक मत सोचो.
इसके बाद तौरेत का झूट जो यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों के लिए ख़याल ए सवाब बना हुवा है, का वर्णण आता है जो सिर्फ साढ़े छः हज़ार साल पहले दुन्या के वजूद में आने की बात करता है. वह नाटा ठिंगना और हास्य स्पद लगता है.
लाखो वर्ष पहले के इंसानी और हैवानी कंकाल मिलते है
तो पहला आदमी आदम कहाँ ठहरता है ?
यह दोनों सूरतें कोरी कल्पनाएँ हैं, जहाँ पर अक़ल ए इंसानी जाकर अटक जाती है. इनको कंडम किए बिना वह आगे नहीं बढ़ सकता.
अब बचती है डरबन की थ्योरी जो बतलाती है कि इंसान का वजूद भी दूसरे जीवों की तरह पानी से ही हुवा. यह ख़याल अभी तक का सत्य मालूम पड़ता है, बाक़ी पूर्ण सत्य आने वाले भविष्य में छुपा हुवा है.
आप अपने सर मुबारक को खुजलाएं कि आप अपने सरों में इन अक़ली गद्दा रूहानियत फ़रोशों की दूकानों से ख़रीदा हुवा सौदा सजाए हुए हैं ???
या बेदारी की तरफ़ आने के लिए तैयार हैं ?
इन पाखंडियो के द्वारा मुरत्तब किए हुए ख़ुदाओं में से जो कम अज़ कम एक को नहीं मानता, यह कहते हैं वह जानवर है.
अब मैं आपको फिर डर्बिन की तरफ़ मोड़ रहा हूँ जिस में कुछ न कुछ सच्चाई नज़र आएगी. हो सकता है इंसान की शाख जीव जंतु से कुछ अलग हो मगर इंसान हैवानी हालात से दो चार होते हुए ही यहाँ तक पहुंचा है. पाषाण युग तक इंसान यक़ीनी तौर पर हैवानो का हम सफ़र रहा है, इसके बावजूद तब तक आदमी सिर्फ़ आदमी ही था. उस वक़्त तक इंसानी ज़ेहन में किसी बाक़ायदा अल्लाह का तसव्वर क्यों नहीं आया ?
उस वक़्त किसी खुदा के जैसे नहीं बल्कि वजूद की बक़ा पर तवज्जो हुवा करती थी.
यह ख़ुदा फ़रोश इंसान के लिए ख़ुदा को इतना ही फ़ितरी और लाज़िम मानते हैं तो उस वक़्त ख़ुद ख़ुदा ने अपनी ज़ात को क्यों नहीं मनवा लिया?
जैसा कि मैंने अर्ज़ किया कि अहद ए संग के क़ब्ल आदमी हैवानों का हम सफ़र था, इसके बाद इसको पहाड़ी खोहों, दरख़्तों और ज़मीनी पैदावारों ने कुछ राहत पहुंचाई. प्राकृतिक हल चल से भी कुछ नजात मिली, इंसान इंसानी क़बीलों में रहने लगा जिसकी वजह से इसमें कुछ हिम्मत और ताक़त आई. इसके बावजूद इसे जान तोड़ मेहनत और अपनी सुरक्षा से छुटकारा नहीं मिला. वह इतना थक कर चूर हो जाता कि उसे और कुछ सोचने का मौक़ा ही न मिलता. उस वक़्त तक किसी ख़्दा का विचार इसके दिल में नहीं आया.
वह रचना कालिक सीढ़ियाँ चढ़ता गया,
चहार दीवारियाँ इंसान को सुरक्षित करती गईं,
ज़मीनी फ़स्लेँ तरतीब पाने लगीं,
जंगली जानवर मवेशी बनकर क़ाबू में आने लगे.
राहत की सासें जब उसे मयस्सर हुईं तो ज़ेहनों को कुछ सोचने का मौक़ा मिला.
इंसानी क़बीलों के कुछ अय्यारों ने इस को भापा और ख़ुदाओं का रूहानी जाल बिछाना शुरू किया. इस कोशिश में वह बहुत कामयाब हुवा. होशियार ओझों के यह फ़ार्मूले ज़ेहनी ख़ुराक के साथ साथ मनोरंजन के साधन भी साबित हुए.
इस तरह लोगों के मस्तिष्क में ख़ुदा का बनावटी वजूद दाखिल हुवा
जोकि रस्म व रिवाज बनता हुवा वज्द और जुनून की कैफ़ियत अख़्तियार कर गया.
दुन्या भर की ज़मीनों पर ख़ुदा अंकुरित हुवा,
कहीं देव और देवियाँ उपजीं,
कहीं पैग़मबर और अवतार हुए तो कहीं निरंकार.
इंसान ज़हीन होता गया, नफ़ा और नुक़सान विकसित हुए,
फ़ायदे मंद चीज़ों को पूजने की तमीज़ आई,
जिससे डरा उसे भी पूजना प्रारम्भ कर दिया.
छोटे और बड़े ख़ुदा बनते गए या यूं कहें कि
आने वाली महा शक्ति के कल पुर्ज़े ढलना शुरू हुए,
जो बड़ी ताक़त बनी, उसका ख़ुदा तस्लीम होता गया.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
No comments:
Post a Comment