Sunday, 10 November 2019

औरत का मुक़ाम ?


औरत का मुक़ाम ?  
       
ख़ुद साख़्ता रसूल एक हदीस में फ़रमाते हैं कि जो शख़्स मेरी ज़बान और 
तानासुल (लिंग) पर मुझे क़ाबू दिला दे उसके लिए मैं जन्नत की ज़मानत लेता हूँ , 
और उनका अल्लाह कहता है कि शर्म गाहों की हिफ़ाज़त करो. 
मुहम्मद ख़ुद अल्लाह की पनाह में नहीं जाते. 
अल्लाह ने सिर्फ़ मर्दों को इंसानी दर्जा दिया है 
इस बात का एहसास बार बार क़ुरआन  कराता है. 
क़ुरानी जुमले पर ग़ौर करिए 
"लेकिन अपनी बीवियों और लौंडियों पर कोई इलज़ाम नहीं" 
एक मुसलमान चार बीवियाँ बयक वक़्त रख सकता है उसके बाद लौंडियों की छूट. 
इस तरह एक मर्द = चार औरतें +लौडियाँ बे शुमार. 
इस्लामी ओलिमा, इन्हें इनका अल्लाह ग़ारत करे, 
ढिंढोरा पीटते फिरते है कि इस्लाम ने औरतों को बराबर का मुक़ाम दिया है. 
इन फ़ासिक़ो के चार टुकड़े कर देने चाहिए कि 
इस्लाम औरतों को इंसान ही नहीं मानता. 
अफ़सोस का मक़ाम ये है कि ख़ुद औरतें ज़्यादः ही 
इस्लामी ख़ुराफ़ात में पेश पेश राहती हैं .
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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