अनचाहा सच
मेरे कुछ मित्र भ्रमित हैं कि मैं क़ुरआन या हदीस का पोलता हूँ,
गोया हिंदुत्व का पक्ष धर हूँ.
मैं जब हिन्दू धर्म की पोल खोलता हूँ तो उनको अनचाहा सच मिलता है
और वह मुझे तरह तरह की उपाधियों से उपाधित करने लगते हैं.
उनकी लेखनी उनके मन की बात करने लगती है.
उनकी शंका को मैं दूर करना चाहता हूँ कि
हाँ मैं मुसलमान हूँ.
जैसे कि मैं कभी हिदू हो जाता हूँ या दलित.
हर धर्म की अच्छी बातें हमें स्वीकार हैं.
मैं फिर दावा करता हूँ कि इस्लाम की कुछ फ़िलासफ़ी दूर दूर तक
किसी धर्म में नहीं मिलतीं जिन्हें टिकिया चोर मुल्लाओं ने मेट रख्खा है.
इस्लामी फ़िक़ह के मतलब भी हिन्दू धर्म को नसीब नहीं.
"फ़िक़ह" के अंतर गत हक़ हलाल और मेहनत की रोटी ही मोमिन को मंज़ूर होती है.
हर अमल में ज़मीर उसके सामने खड़ा रहता है.
मुफ़्त खो़री, ठग विद्या, दुआ तावीज़, और कथित यज्ञ जैसे
पाखण्ड से मिलने वाली रोटी हराम होती है.
समाजी बुरे हालात के हिसाब से आपकी लज़ीज़ हांड़ी भी फ़िक़ह को अमान्य है.
इसी तरह "हुक़ूक़ुल इबाद" का चैप्टर भी है कि जिसमे आप किसी के साथ ज़्यादती करते हैं तो ख़ुदा भी लाचार है,
उस मजलूम बन्दे के आगे वह अपनी ख़ुदाई,
मजबूर और मजलूम के हवाले करता है
कि चाहे तो मुजरिम को मुआफ़ कर सकता है.
ख़ुद हिदुस्तान में ऐसे ऐसे बादशाह ग़ुज़रे हैं को फ़िक़ह के हवाले हुवा करते थे.
उनको झूट की सियासत दफ़्नाती रहती है.
"फ़िक़ह और हुक़ूक़ुल इबाद" की हदें जीवन को बहुत नीरस कर देती हैं,
भले ही समाज अन्याय रहित हो जाए.
इसी लिए हिंदुत्व के वह पहलु मुझे अज़ीज़ है
जो ज़िन्दगी में खुशियां भरती हैं,
जैसे ऋतुओं के मेले ठेले, मुकामी कलचर,
जो रक़्स (नृति) और मौसीक़ी (संगीत)से लबरेज़ होते हैं.
अफ़सोस तब होता है जब इस पर धर्म के पाखण्ड ग़ालिब हो जाते हैं.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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