Thursday 12 December 2019

सच का एलान


सच का एलान

क़ुरआन मुकम्मल तौर पर दरोग़, किज़्ब, लग्व और मक़्र का पुलिंदा है. 
इसके मुसन्निफ़ दर परदा, अल्लाह बने बैठे मुहम्मद 
सरापा मक्र, अय्यारी, क़त्लो-ग़ारत गरी, सियासते-ग़लीज़ और दुश्मने इंसानियत हैं. 
इन की तख़्लीक़ अल्लाह, इंसानों को तनुज़्ज़ली के ग़ार में गिराता हुवा, 
इस्लाम इनकी बिरादरी क़ुरैशियों पर दरूद-सलाम भिजवाता रहेगा, 
इनके हराम ख़ोर ओलिमा बदले में ख़ुद तो हलुवा पूरी खाते है 
और करोरों मुसलमानों को अफ़ीमी इस्लाम की नींद सुलाते हैं.
मैं एक मोमिन हूँ, जो कुछ लिखता हूँ सदाक़त और ईमान की छलनी से 
बात को छान कर लिखता हूँ.
मैं क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा मुसम्मी 
(बमय अलक़ाब) ''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी'' 
को लेकर चल रहा हूँ जो हिंदो-पाक में अपना पहला मुक़ाम रखते हैं. 
मैं उनका एहसान मंद हूँ कि उनसे हमें इतना क़ीमती धरोहर मिला. 
मौलाना ने बड़ी ईमान दारी के साथ अरबी तहरीर का बेऐनेही (अक्षरक्ष:) 
उर्दू में तर्जुमा किया जोकि बाद के आलिमों को खटका और उन्होंने तर्जुमें में कज अदाई करनी शुरू कर दी, करते करते 'कूकुर को धोकर बछिया' बना दिया.
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी'' 
ने इस्लामी आलिम होने के नाते यह किया है कि ब्रेकेट के अंदर अपनी (मनमानी) बातें रख रख कर क़ुरआन की मुह्मिलात में मअने भर दिए हैं, 
मुहम्मद की ग्रामर दुरुस्त करने की कोशिश की है, 
यानी तालिब इल्म अल्लाह और मुहम्मद के उस्ताद बन कर 
उनके कच्चे कलाम की इस्लाह की है, 
उनकी मुतशाइरी को शाइरी बनाने की नाकाम कोशिश की है.
हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी ने एक और 
अहम काम किया है कि रूहानियत के चले आ रहे रवायती फ़ार्मूले 
और शरीयत की बारीकियों का एक चूँ चूँ का मुरब्बा बना कर नाम रखा 
'तरफ़सीर' 
जो कुछ क़ुरआन के तल्ख़ जुज़ थे मौलाना ने इस मुरब्बे से उसे मीठा कर दिया है. 
तरफ़सीर हाशिया में लिखी है, वह भी मुख़फ़फ़फ़ यानी short form में जिसे अवाम किया ख़वास का समझना भी मोहाल है.
दूसरी बात मैं यह बतला दूँ कि 
क़ुरआन के बाद इस्लाम की दूसरी बुनियाद है हदीसें हैं, 
हदीसें बहुत सी लिखी गई हैं जिन पर कई बार बंदिश भी लगीं मगर 
''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की हदीसें मुस्तनद मानी गई हैं. 
मैंने इनको ही अपनी तहरीर के लिए मुन्तख़िब किया है. 
ज़ईफ़ कही जाने वाली हदीसों को छुवा भी नहीं. 
याद रखें कि हदीसें ही इस्लामी इतिहास की बुन्याद हैं. 
अगर इन्हें हटा दिया जाए तो इस्लाम का कोई सच्चा मुवर्रिख़ न मिलेगा 
जैसे तौरेत या इंजील के हैं. 
क्यूं कि यह उम्मी का दीन है. 
ज़ाहिर है मेरी मुख़ालिफ़त में वह लोग ही आएँगे जो 
मुकम्मल झूट क़ुरआन पर ईमान रखते है 
और सरापा शर मुहम्मद को ''सललललाहो अलैहे वसल्लम'' कहते हैं. 
जब कि मैं अरब की आलमी इंसानी तवारीख़ तौरेत (Old Testament) को आधा सच और आधा झूट मान कर अपनी बात पर क़ायम हूँ.
***   
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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