दो+दो=चार. न तीन, न पांच
मक्र कभी हक़ीक़त का सामना नहीं कर सकता,
मुहम्मद आलमे-इंसानियत में बद तरीन मुजरिम हैं.
ख़ुदा के लिए अपने आप को और अपनी औलादों को आने वाले वक़्त से बचाओ.
अभी सवेरा है, वरना अपनी नस्लों को मुहम्मद के किए धरे की सज़ा भुगतने के लिए तैयार रख्खो.
तुमको छूट है कि मोमिन बन के अपने बुज़ुर्गों की भूल की तलाफ़ी करो.
मुसलमानो !
ईमान दार मोमिन ही क़ुरआन की सही तर्जुमानी कर सकता है,
ये ज़मीर फ़रोश ओलिमा सच बोलने की हिम्मत भी नहीं कर सकते.
क़ुरआन में फ़र्ज़ी वाक़िये और नामुकम्मल ग़ुफ़्तगू में आलिम ने क्या क्या न आरिफ़ाना (आध्यात्मिक) मिर्च मसालों की छ्योंक बघारी हैं कि
पढ़ कर दिल मसोसता है.
तुम जागो, जग कर मोमिन हो जाओ,
मोमिन का ईमान ही इंसान का मुकम्मल मज़हब है,
जिसका कोई झूठा पैग़म्बर नहीं,
कोई चल-घात की बातें नहीं, सीधा सादा एलान कि 2+2=4 होता है,
न तीन और न पाँच.
फूल में ख़ुशबू होती है, इसे किसने पैदा किया?
उसकी तलाश में मत जाओ कि तुम्हारी तलाश की राह में
कोई मुहम्मद बना हुवा पैग़म्बर बैठा होगा.
बहुत से सवाल, जवाब नहीं रखते,
कि वक़्त कब शुरू हुआ था? कब ख़त्म होगा?
सम्तें (दिशाएँ) कहाँ से शुरू होती हैं, कहाँ ख़त्म होंगी?
इन सवालों को ज़मीन की दीगर मख़लूक़ की तरह सोचो ही नहीं.
फ़ितरत की इस दुन्या में चार दिन के लिए आए हो,
फ़ितरी ज़िन्दगी जी लो.
***
तुम्हें सुलाए हुए हैं.
जागो, आँखें खोलो.
इक्कसवीं सदी की सुब्ह हुए देर हुई,
देखो कि ज़माना चाँद सितारों पर सीढियां लगा रहा है.
कल जब यह ज़मीन सूरज के गोद में चली जाएगी तो बाक़ी लोग अपनी अपनी नस्लों को लेकर उस सय्यारे पर बस जाएँगे और तुम्हारी नस्लें कहीं की न होंगी.
तुम समझते हो कि तुम हक़ बजानिब हो?
तो तुम बहके हुए हो. तुमको बहकाए हुए हैं, इस्लामी ओलिमा,
जिनका कि ज़रीआ मुआश ही इस्लाम है.
इनका पूरा माफ़िया लामबंद है.
इनकी पकड़ सीधे सादे मुसलमानों को अपनी मुट्ठी में दबोचे हुए है.
ज़रा सर उठा कर तो देखो, इनके एजेंट तुम को फ़तवा देना शुरू कर देंगे,
समाज में इनके इस्लामी गुंडे तुम्हारे बग़ल में ही बैठे होंगे,
तुम को अलावा समझाने बुझाने के ये और कोई राय नहीं देंगे.
हर एक का मुआमला पेट से जुड़ा हुवा है यह तो तुम मानते हो ?
वह भी मजबूर हैं कि उनकी रोज़ी रोटी है,
गोरकुन की तरह. कोई मुक़र्रिर बना हुवा है, कोई मुफ़क्किर,
कोई प्रेस चला कर, इस्लामी किताबों की इशाअत और तबाअत कर रहा है.
जो उसकी रोज़ी है,
कोई नमाज़ पढ़ाने के काम पर, तो कोई अज़ान देने का मुलाज़िम है,
मीडिया वाले भी ओलिमा को बुला कर तुम्हें आकर्षित करते हैं
ताकि चैनल के शाख़ उरूजपे.
यह सब मिल कर तुम्हें सुलाए हुए हैं.
कोई जगाने वाला नहीं हैं.
तुम ख़ुद आँखें खोलनी होगी.
***
मक्र कभी हक़ीक़त का सामना नहीं कर सकता,
मुहम्मद आलमे-इंसानियत में बद तरीन मुजरिम हैं.
ख़ुदा के लिए अपने आप को और अपनी औलादों को आने वाले वक़्त से बचाओ.
अभी सवेरा है, वरना अपनी नस्लों को मुहम्मद के किए धरे की सज़ा भुगतने के लिए तैयार रख्खो.
तुमको छूट है कि मोमिन बन के अपने बुज़ुर्गों की भूल की तलाफ़ी करो.
मुसलमानो !
ईमान दार मोमिन ही क़ुरआन की सही तर्जुमानी कर सकता है,
ये ज़मीर फ़रोश ओलिमा सच बोलने की हिम्मत भी नहीं कर सकते.
क़ुरआन में फ़र्ज़ी वाक़िये और नामुकम्मल ग़ुफ़्तगू में आलिम ने क्या क्या न आरिफ़ाना (आध्यात्मिक) मिर्च मसालों की छ्योंक बघारी हैं कि
पढ़ कर दिल मसोसता है.
तुम जागो, जग कर मोमिन हो जाओ,
मोमिन का ईमान ही इंसान का मुकम्मल मज़हब है,
जिसका कोई झूठा पैग़म्बर नहीं,
कोई चल-घात की बातें नहीं, सीधा सादा एलान कि 2+2=4 होता है,
न तीन और न पाँच.
फूल में ख़ुशबू होती है, इसे किसने पैदा किया?
उसकी तलाश में मत जाओ कि तुम्हारी तलाश की राह में
कोई मुहम्मद बना हुवा पैग़म्बर बैठा होगा.
बहुत से सवाल, जवाब नहीं रखते,
कि वक़्त कब शुरू हुआ था? कब ख़त्म होगा?
सम्तें (दिशाएँ) कहाँ से शुरू होती हैं, कहाँ ख़त्म होंगी?
इन सवालों को ज़मीन की दीगर मख़लूक़ की तरह सोचो ही नहीं.
फ़ितरत की इस दुन्या में चार दिन के लिए आए हो,
फ़ितरी ज़िन्दगी जी लो.
***
तुम्हें सुलाए हुए हैं.
जागो, आँखें खोलो.
इक्कसवीं सदी की सुब्ह हुए देर हुई,
देखो कि ज़माना चाँद सितारों पर सीढियां लगा रहा है.
कल जब यह ज़मीन सूरज के गोद में चली जाएगी तो बाक़ी लोग अपनी अपनी नस्लों को लेकर उस सय्यारे पर बस जाएँगे और तुम्हारी नस्लें कहीं की न होंगी.
तुम समझते हो कि तुम हक़ बजानिब हो?
तो तुम बहके हुए हो. तुमको बहकाए हुए हैं, इस्लामी ओलिमा,
जिनका कि ज़रीआ मुआश ही इस्लाम है.
इनका पूरा माफ़िया लामबंद है.
इनकी पकड़ सीधे सादे मुसलमानों को अपनी मुट्ठी में दबोचे हुए है.
ज़रा सर उठा कर तो देखो, इनके एजेंट तुम को फ़तवा देना शुरू कर देंगे,
समाज में इनके इस्लामी गुंडे तुम्हारे बग़ल में ही बैठे होंगे,
तुम को अलावा समझाने बुझाने के ये और कोई राय नहीं देंगे.
हर एक का मुआमला पेट से जुड़ा हुवा है यह तो तुम मानते हो ?
वह भी मजबूर हैं कि उनकी रोज़ी रोटी है,
गोरकुन की तरह. कोई मुक़र्रिर बना हुवा है, कोई मुफ़क्किर,
कोई प्रेस चला कर, इस्लामी किताबों की इशाअत और तबाअत कर रहा है.
जो उसकी रोज़ी है,
कोई नमाज़ पढ़ाने के काम पर, तो कोई अज़ान देने का मुलाज़िम है,
मीडिया वाले भी ओलिमा को बुला कर तुम्हें आकर्षित करते हैं
ताकि चैनल के शाख़ उरूजपे.
यह सब मिल कर तुम्हें सुलाए हुए हैं.
कोई जगाने वाला नहीं हैं.
तुम ख़ुद आँखें खोलनी होगी.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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