- मैं जुनैद 'मुंकिर'
हर बात के दो पहलू होते हैं, पहला ये कि इसे मान लिया जाए, यानी इक़रार.
दूसरा ये कि उसको न माना जाए यानी इंकार.
बातें चाहे मशविरा हों, हुक्म हो या फिर ईश वाणी जिसे वह्यि का नाम दे दिया जाता है.
इक़रार करने की आदत या ख़सलत आम लोगों में होती है
मगर इंकार की हिम्मत कम ही लोगों में होती है.
इसी रिआयत से मैंने अपना तख़ल्लुस (उपनाम) मुंकिर रखा है .
सदियों से इंसान मज़हबी चक्की में पिसता चला आ रहा है.
इसके गिर्द इंकार की कोई गुंजाईश नहीं है.
घुट घुट कर फ़र्द मज़हबी झूटों का शिकार रहा है.
मज़हब की ज़्यादः तर बातें मा फ़ौक़ुल फ़ितरत (अलौकिक) होती हैं
जिनको डरा धमका कर या फुसला कर अय्यार धर्म ग़ुरु आम इंसान से मनवा लेते हैं.
झूट को तस्लीम करके झूटी ज़िन्दगी जीना इंसान की क़िस्मत बन जाती है .
हमारी मशरिक़ी दुन्या बनिस्बत मग़रिब के कुछ ज़्यादः ही झूट जीना पसंद करती है, जिसके नतीजे में यह हमेशा कमज़ोर और मग़रिब की ग़ुलाम रही है .
वक़्त आ गया है कि हम इन झूठे मज़हबी पाखण्ड के मुंकिर हो जाएँ .
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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