माता
मैं मुस्लिम बाहुल्य और मुस्लिम शाशक कस्बे में पैदा हुवा,
चार पाँच की उम्र से सामाजिक चेतना मुझ में जागने लगी थी.
माहौल के हिसाब से ख़ुद को हिन्दुओं से बरतर समझने लगा था.
सेवक लोग उस समय के प्रचलित अछूत हुवा करते थे
जो शक्लन काले कलूटे मज़लूम लगते .
हिन्दू अकसर मुझे चेचक ज़दा चेहरे दिखते .
बड़ों से मालूम हुवा कि चेचक एक बीमारी होती है
जिसमें पूरे शरीर पर फोड़े निकल आते हैं ,
हिदू इसे माता कहते हैं और इलाज नहीं कराते .
मेरे मन में शब्द माता घृणित बीमारी जैसा लगने लगा .
बाज़ार में एक बनिए की दूकान में आग लग गई तो
बूढ़ी बानिन लोगों को आग बुझाने से रोक रही थीं कि
अग्नि माता को मत बुझाव .
इससे मेरी समझ में आया कि वाक़ई माता ख़तरनाक हुवा करती हैं .
मैं अपनी माँ के साथ बस द्वारा कानपुर आ रहा था कि शोर सुना
जय गंगा मय्या की, बस से झांक कर देखा तो पहली बार देखा,
एक विशाल नदी ठाठें मार रही थी, डर लगा.
माँ से मालूम हुवा हिन्दू गंगा नदी को माता कहते हैं.
अभी तक माता बमानी माँ होती है, मैं नहीं जनता था,
इस लिए हर ख़तरनाक बात को माता समझता था.
क़स्बे में काली माई का मेला हुवा करता था जिसमे माताओं की ख़तरनाक तस्वीरें हुवा करती थीं, कोई ख़ूनी ज़बान बीता भर की लपलपाती हुई होती,
तो कोई नर मुंड का हार पहने दुर्गा माता हुवा करती थी.
माँ का तसव्वुर मेरे ज़ेहन में घिनावना ही होता गया.
क़स्बे में गाय का गोश्त एलानया कटता और बिकता.
सुनने में आया कि हिन्दू गाय को भी माता कहते हैं.
माता ! माता !! अंततः मेरी झुंझलाहट को पता चला कि माता के मानी माँ के हैं.
शऊर बेदार हुवा तो इस माता पर ग़ौर किया, बहुत सी माताएं सुनने में आईं,
धरती माता, सीता माता, लक्ष्मी माता, सरस्वती माता, सति माता,
संतोषी माता से होते हुए बात राधे माता (डांसर ) तक आ गई .
पिछले दिनों गऊ माता के सपूतों ने काफ़ी ऊधम कटा
और कई मानव जीव भी काटा.
अब नए सिरे से सियासी भूत अवाम पर चढ़ाया जा रहा है
"भारत माता" .
ख़ैर ! मैं सियासी फ़र्द नहीं समाजी चिन्तक हूँ .
इन माताओं की भरमार में इंसान की असली माता पीछे कर दी गई है .
सदियों से वह इतनी पीछे है कि उसका ठिकाना गंगा पुत्रो के शरण में है .
उसकी किसी हिन्दू को परवाह नहीं कि
अन्य कल्पित माताएं उन्हें दूध भी दे रही हैं और कुर्सियां भी .
हिन्दू भाई अन्य समाज से ख़ुद को नापें तौलें
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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