मुहम्मद नाक़बत अंदेश
मुहम्मद जानते थे कि अल्लाह नाम की कोई मख़लूक़ नहीं है.
उसका वजूद क़यासों में मंडला रहा है,
इस लिए वह ख़ुद को अल्लाह बना कर कयासों में समा गए.
इस हक़ीक़त को हर साहिब ए होश जानता है
और हर बद ज़ाद आलिम भी.
मगर माटी के माधव अवाम को हमेशा झूट और मक्र में ही सच्चाई नज़र आती है.
वक़्त मौजूँ हो तो कोई भी होशियार मुहम्मद,
अल्लाह का मुखौटा पहन कर भेड़ों की भीड़ में खड़ा हो सकता है
और वह कम अक़लों का ख़ुदा बन सकता है.
दो चार नस्लों के बाद प्रोपेगंडा से वह मुस्तनद भी हो जाता है.
ये हमारी पूरब की दुन्या की ख़ासियत है.
मुहम्मद ने अल्लाह का रसूल बन कर कुछ ऐसा ही खेल खेला
जिस से सारी दुन्या मुतास्सिर है.
मुहम्मद इन्तेहाई दर्जा ख़ुद परस्त और ख़ुद ग़रज़ इंसान थे.
वह हिकमते-अमली में चाक चौबंद,
पहले मूर्ति पूजकों को निशाना बनाया,
अहले किताब (ईसाई और यहूदी) को भाई बंद बना रखा,
कुछ ताक़त मिलने के बाद मुल्हिदों और दहरियों ( कुछ न मानने वाले, नास्तिक ) को निशाना बनाया और मज़बूत हुए,
तो उसके बाद अहले किताब को भी छेड़ दिया कि इनकी किताबें असली नहीं हैं,
इन्हों ने फ़र्ज़ी गढ़ ली हैं, असली तो अल्लाह ने वापस ले ली हैं.
हालाँक़ि अहले किताब को छेड़ने का मज़ा इस्लाम ने भरपूर चखा,
और चखते जा रहे हैं मगर ख़ुद परस्त और ख़ुद ग़रज़ मुहम्मद को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. वह अवाम को अपने सजदे में झुका हुवा देखना चाहते थे,
इसके अलावा कुछ भी नहीं.
ईमान लाने वालों में एक तबका मुन्किरों का पैदा हुआ
जिसने इस्लाम को अपना कर फिर तर्क कर दिया,
जो मुहम्मदी ख़ुदा को क़रीब से देखा तो इसे झूट क़रार दिया,
उनको ग़ालिब मुहम्मद ने क़त्ल कर देने का हुक्म जरी कर दिया,
इससे बा होश लोगों का सफ़ाया हो गया,
जो डर कर इस्लाम में वापस हुए वह मुरतिद कहलाए.
मुहम्मद ख़ुद सरी, ख़ुद सताई, ख़ुद नुमाई और ख़ुद आराई के पैकर थे.
अपनी ज़िन्दगी में जो कुछ चाहा, पा लिया,
मरने के बाद भी कुछ छोड़ना नहीं चाहते थे कि
ख़ुद को पैग़म्बरे-आखरुज़ ज़मा बना कर क़ायम हो गए,
यही नहीं वह अपनी जिहालत भरी क़ुरआन को अल्लाह का आख़री निज़ाम बना गए.
मुहम्मद ने मानव जाति के साथ बहुत बड़ा जुर्म किया है
जिसका ख़ामयाज़ा सदियों से मुसलमान कहे जाने वाले बन्दे झेल रहे है.
अध् कचरी, पुर जेह्ल और नाक़िस कुछ बातों को आख़री निज़ाम क़रार दे दिया है.
क्या उस शख़्स के सर में ज़रा भी भेजा नहीं था कि वह इर्तेक़ाई तब्दीलियों को समझा ही नहीं.
क्या उसके दिल में कोई इंसानी दर्द था ही नहीं कि इसके झूट एक दिन नंगे हो जाएँगे.
तब इसकी उम्मत का क्या हश्र होगा?
आज इतनी बड़ी आबादी हज़ारों झूट में क़ैद, मुहम्मद की बख़्शी हुई सज़ा काट रही है. वह सज़ा जो इसे विरासत में मिली हुई है,
वह सज़ा जो ज़ेहनों में पिलाई हुई घुट्टी की तरह है,
वह क़ैद जिस से रिहाई ख़ुद क़ैदी नहीं गवारा करता,
रिहाई दिलाने वाले से जान पर खेल जाता है.
इन पर अल्लाह तो रहम करने वाला नहीं, आने वाले वक्तों में देखिए, क्या हो?
कहीं ये अपने बनाए हुए क़ैद ख़ाने में ही दम न तोड़ दें.
या फिर इनका कोई सच्चा पैग़ामबर पैदा हो.
मुहम्मद जानते थे कि अल्लाह नाम की कोई मख़लूक़ नहीं है.
उसका वजूद क़यासों में मंडला रहा है,
इस लिए वह ख़ुद को अल्लाह बना कर कयासों में समा गए.
इस हक़ीक़त को हर साहिब ए होश जानता है
और हर बद ज़ाद आलिम भी.
मगर माटी के माधव अवाम को हमेशा झूट और मक्र में ही सच्चाई नज़र आती है.
वक़्त मौजूँ हो तो कोई भी होशियार मुहम्मद,
अल्लाह का मुखौटा पहन कर भेड़ों की भीड़ में खड़ा हो सकता है
और वह कम अक़लों का ख़ुदा बन सकता है.
दो चार नस्लों के बाद प्रोपेगंडा से वह मुस्तनद भी हो जाता है.
ये हमारी पूरब की दुन्या की ख़ासियत है.
मुहम्मद ने अल्लाह का रसूल बन कर कुछ ऐसा ही खेल खेला
जिस से सारी दुन्या मुतास्सिर है.
मुहम्मद इन्तेहाई दर्जा ख़ुद परस्त और ख़ुद ग़रज़ इंसान थे.
वह हिकमते-अमली में चाक चौबंद,
पहले मूर्ति पूजकों को निशाना बनाया,
अहले किताब (ईसाई और यहूदी) को भाई बंद बना रखा,
कुछ ताक़त मिलने के बाद मुल्हिदों और दहरियों ( कुछ न मानने वाले, नास्तिक ) को निशाना बनाया और मज़बूत हुए,
तो उसके बाद अहले किताब को भी छेड़ दिया कि इनकी किताबें असली नहीं हैं,
इन्हों ने फ़र्ज़ी गढ़ ली हैं, असली तो अल्लाह ने वापस ले ली हैं.
हालाँक़ि अहले किताब को छेड़ने का मज़ा इस्लाम ने भरपूर चखा,
और चखते जा रहे हैं मगर ख़ुद परस्त और ख़ुद ग़रज़ मुहम्मद को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. वह अवाम को अपने सजदे में झुका हुवा देखना चाहते थे,
इसके अलावा कुछ भी नहीं.
ईमान लाने वालों में एक तबका मुन्किरों का पैदा हुआ
जिसने इस्लाम को अपना कर फिर तर्क कर दिया,
जो मुहम्मदी ख़ुदा को क़रीब से देखा तो इसे झूट क़रार दिया,
उनको ग़ालिब मुहम्मद ने क़त्ल कर देने का हुक्म जरी कर दिया,
इससे बा होश लोगों का सफ़ाया हो गया,
जो डर कर इस्लाम में वापस हुए वह मुरतिद कहलाए.
मुहम्मद ख़ुद सरी, ख़ुद सताई, ख़ुद नुमाई और ख़ुद आराई के पैकर थे.
अपनी ज़िन्दगी में जो कुछ चाहा, पा लिया,
मरने के बाद भी कुछ छोड़ना नहीं चाहते थे कि
ख़ुद को पैग़म्बरे-आखरुज़ ज़मा बना कर क़ायम हो गए,
यही नहीं वह अपनी जिहालत भरी क़ुरआन को अल्लाह का आख़री निज़ाम बना गए.
मुहम्मद ने मानव जाति के साथ बहुत बड़ा जुर्म किया है
जिसका ख़ामयाज़ा सदियों से मुसलमान कहे जाने वाले बन्दे झेल रहे है.
अध् कचरी, पुर जेह्ल और नाक़िस कुछ बातों को आख़री निज़ाम क़रार दे दिया है.
क्या उस शख़्स के सर में ज़रा भी भेजा नहीं था कि वह इर्तेक़ाई तब्दीलियों को समझा ही नहीं.
क्या उसके दिल में कोई इंसानी दर्द था ही नहीं कि इसके झूट एक दिन नंगे हो जाएँगे.
तब इसकी उम्मत का क्या हश्र होगा?
आज इतनी बड़ी आबादी हज़ारों झूट में क़ैद, मुहम्मद की बख़्शी हुई सज़ा काट रही है. वह सज़ा जो इसे विरासत में मिली हुई है,
वह सज़ा जो ज़ेहनों में पिलाई हुई घुट्टी की तरह है,
वह क़ैद जिस से रिहाई ख़ुद क़ैदी नहीं गवारा करता,
रिहाई दिलाने वाले से जान पर खेल जाता है.
इन पर अल्लाह तो रहम करने वाला नहीं, आने वाले वक्तों में देखिए, क्या हो?
कहीं ये अपने बनाए हुए क़ैद ख़ाने में ही दम न तोड़ दें.
या फिर इनका कोई सच्चा पैग़ामबर पैदा हो.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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