इब्तेदा
मक्का वाले मुहम्मद की रिसालत को बहुत ही मामूली एक समाजी वाक़ेए के तौर पर लिए हुए थे.
मुहम्मद ज्यादः हिस्सा तो माहौल की तफ़रीह हुवा करते थे.
अपने सदियों पुराने पूज्य की शान में मुहम्मद की ग़ुसताख़ियों को बर्दाश्त करने में एक लिहाज़ भी था कि,
काबा के तकिया दारों के खानदान के फ़र्द होने का,
इसके अलावा मालदार बीवी के शौहर होने का लिहाज़ भी उनको बचाता रहा.
फिर एक मुहज़्ज़ब समाज में एतदाल भी होता है, क़ूवते बर्दाश्त के लिए.
समाज की ये भी ज़िम्मेदारी होती है कि फक्कड़ लोगों को अहेमियत न दो,
उन्हें झेलते रहो.
ख़ुद को अल्लाह का रसूल कहना अपनी बे सिर पैर की बातों की तुकबंदी बना कर उसे अल्लाह का कलाम कहना, आयतें की एक फ़रिश्ते के ज़रिए आमद,
सब मिला कर समाज के लिए अच्छा मशग़ला थे मुहम्मद.
इन पर पाबन्दी लगाना मुनासिब न था.
बड़ी ग़ौर तलब बात है कि
उस वक़्त 360 देवी देवताओं का मुत्तःदा निज़ाम किसी जगह क़ायम होना.
ये कोई मामूली बात नहीं थी. हरम में 360 मूर्तियाँ दुन्या की 360 मुल्कों,
ख़ित्तों और तमद्दुन की मुश्तरका अलामतें थीं.
काबा का ये कल्चर जिसकी बुन्याद पर अक़वाम मुत्तहदा क़ायम हुवा.
काबा मिस्मार न होता तो हो सकता था कि आज का न्यू यार्क मक्का होता और अक़्वाम मुत्तहदा जगह हरम क़ायम होता,
इस्लाम से पहले इतना ठोस थी अरबी सभ्यता.
अल्लाह वाहिद के ख़ब्ती, मुहम्मद ने
इर्तेक़ा के पैरों में बेड़ियाँ पहना कर क़ैद कर दिया.
मुहम्मद की दीवानगी बारह साल तक मक्का में सर धुनती रही.
जब पानी सर से ऊपर उठा तो अहले मक्का ने तय किया कि इस फ़ितने का ख़त्म हो.
क़ुरैशियों ने इन्हें मौत के घाट उतारने का फ़ैसला कर लिया.
मुहम्मद को जब इस बात का इल्म हुवा तो
उनकी पैग़म्बरी सर पर पैर रख कर मक्का से रातो रात भागी.
अल्लाह के रसूल का इस सफ़र में बुरा हल था
कि मुरदार जानवरों की सूखी हुई चमड़ी चबा चबा कर जान बचानी पड़ी,
न इनके अल्लाह ने इनको रिज्क़ मुहय्या किया न जिब्रील को तरस आई.
रसूल अपने परम भक्त अबुबकर के साथ मदीने पहुँच गए
जहां इन्हें सियासी पनाह इस लिए मिली कि
मदीने के साथ मक्का वालों की पुरानी रंजिश चली आ रही थी.
ग्यारह साल बाद मुहम्मद तस्लीम शुदा अल्लाह के रसूल और फ़ातेह बनकर जब बस्ती में दाख़िल हुए तो आलमे इंसानियत की तारीख़ में वह मनहूस तरीन दिन था. उसी दिन से कभी मुसलमानों पर और कभी मुसलमानों के पड़ोसी मुल्क के बाशिंदों पर ज़मीन तंग होती गई.
कुछ लोग इस वहम के शिकार हैं कि
मुसलमानों ने सदियों आधी दुन्या पर हुकूमत की.
इनका अंदरूनी सानेहा ये है कि मुसलमान हमेशा आपस में ही एक दूसरे की गर्दनें काट कर फ़ातेह और मफतूह रहे.
वह बाहमी तौर पर इतना लड़े मरे कि पढ़ कर हैरत नाक अफ़सोस होता है.
मुसलमानों की आपसी जंग मुहम्मद के मरते ही शुरू हुई जिसमें एक लाख ताज़े ताज़े हुए मुसलमान मारे गए,
ये थी जंगे "जमल" जो मुहम्मद की बेगम आयशा और दामाद अली के दरमियान हुई,
फिर तो ये सिलसिला शुरू हुआ तो आज तक थमने का नाम नहीं लिया.
मुहम्मद के चारो ख़लीफ़ा आपसी रंजिश के बाईस एक दूसरे की साज़िश से क़त्ल हुए,
इस्लाम के ज़्यादः तर शशक साज़िशी तलवारों से कम उम्र में मौत के घाट उतारे गए.
इस्लाम का सब से ख़तरनाक पहलू जो उस वक़्त वजूद में आया था,
वह था जंग के ज़रीया लूट पाट करके हासिल किए गए
अवामी इमलाक को ग़नीमत कह कर जायज़ करार देना.
लोगों का ज़रीया मुआश बन गई थीं जंगें.
चौदह सौ साल ग़ुज़र गए,
इस्लामियों में इसकी बरकतें आज भी क़ायम हैं.
अफ़ग़ानिस्तान में आज भी किराए के टट्टू मिलते हैं
चाहे उनके हाथों मुसलमानों का क़त्ल करा लो,
चाहे काफ़िर का.
इस्लाम में रह कर ग़ैर जानिबदारी तो हो ही नहीं सकती कि
उसका गला कट्टर मुसलमान मुनाफ़िक़ कह कर पहले दाबते हैं
जो ग़ैर जानिब दार होता है.
इस्लाम के इन घिनावनी सदियों को मुस्लिम इतिहास कार
इस्लाम का सुनहरा दौर लिखते हैं.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
No comments:
Post a Comment