आधीनता
अगर इंसान किसी अल्लाह, गाड और भगवान् को नहीं मानता तो सवाल उठता है कि वह इबादत और आराधना किसकी करे ?मख़लूक़ फ़ितरी तौर पर किसी न किसी की आधीन रहना चाहती है.एक चींटी अपने रानी के आधीन होती है,तो एक हाथी अपने झुण्ड के सरदार हाथी या पीलवान का अधीन होता है.कुत्ते अपने मालिक की सर परस्ती चाहते है,तो परिंदे अपने जोड़े पर मर मिटते हैं.इंसान की क्या बात है, उसकी हांड़ी तो भेजे से भरी हुई है, हर वक्त मंडलाया करती है, नेकियों और बदियों का शिकार किया करती है.शिकार, शिकार और हर वक़्त शिकार,इंसान अपने वजूद को ग़ालिब करने की उडान में हर वक़्त दौड़ का खिलाडी बना रहता है, मगर बुलंदियों को छूने के बाद भी वह किसी की अधीनता चाहता है.सूफ़ी तबरेज़ अल्लाह की तलाश में इतने ग़र्क़ हो गएकि उसको अपनी ज़ात के आलावा कुछ न दिखा,उसने अनल हक़ (मैं ख़ुदा हूँ) की सदा लगाईं,इस्लामी शाशन ने उसे टुकड़े टुकड़े कर के दरिया में बहा देने की सज़ा दी.कुछ ऐसा ही गौतम के साथ हुवा कि उसने भी भगवन की अंतिम तलाश में ख़ुद को पाया और
" आप्पो दीपो भवः " का नारा दिया.
मैं भी किसी के आधीन होने के लिए बेताब था,ख़ुदा की शक्ल में मुझे सच्चाई मिली और मैंने सदाक़त मे जाकर पनाह ली.कानपूर के 92 के दंगे में, मछरिया की हरी बिल्डिंग मुस्लिम परिवार की थी,दंगाइयों ने उसके निवासियों को चुन चुन कर मारा,मगर दो बन्दे उनको न मिल सके, जिनको कि उन्हें ख़ास कर तलाश थी.पड़ोस में एक हिन्दू बूढ़ी औरत रहती थी,भीड़ ने कहा इस के घर में ये दोनों शरण लिए हुए होंगे,घर की तलाशी लो.बूढी औरत अपने घर की मर्यादा को ढाल बना कर दरवाज़े खड़ी हो गई.उसने कहा कि मजाल है मेरे जीते जी मेरे घर में कोई घुस जाए, रह गई अन्दर कोई मुसलमान हैं ?तो मैं ये गंगा जलि सर पर रख कर कहती हूँ किमेरे घर में कोई मुसलमान नहीं है.औरत ने झूटी क़सम खाई थी, दोनों व्यक्ति घर के अन्दर ही थे, जिनको उसने मिलेट्री आने पर उसके हवाले किया.ऐसे झूट का भी मैं अधीन हूँ.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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