Wednesday 3 July 2019

मुहम्मद रसूल बक़लम ख़ुद

मुहम्मद रसूल बक़लम ख़ुद     

 सूरह अनकबूत में इस्लाम के शुरूआती दौर के नव मुस्लिमों की ज़ेहनी कशमकश की तस्वीरें साफ़ नज़र आती हैं. लोग ख़ुद साख़्ता रसूल की बातों में आ तो जाते हैं मगर बा असर काफ़िरों का ग़लबा भी इनके ज़ेहन पर सवार राहता है. 
वह उनसे मिलते जुलते हैं, इनकी जायज़ बातों का एतराफ़ भी करते हैं जो ख़ुद साख़्ता रसूल को पसंद नहीं, मुख़बिरों और चुग़ल खो़रों से इन बातों की ख़बर बज़रीआ वह्यि ख़ुद साख़्ता रसूल को हो जाती है और ख़ुद साख़्ता रसूल कहते हैं, 
"अल्लाह ने इन्हें सारी ख़बर दे दी है " 
वह फिर से लोगों को पटरी पर लाने के लिए क़यामत से डराने लगते हैं, 
इस तरह क़ुरआन मुकम्मल होता रहता है. 
मुहम्मद के फेरे में आए हुए लोगों को ज़हीन अफ़राद समझते हैं - - -
"ये शख़्स  मुहम्मद, बुज़ुर्गों से सुने सुनाए क़िस्से को क़ुरआनी आयतें गढ़ कर बका करता है. इसकी गढ़ी हुई क़यामत से खौ़फ़ खाने की कोई ज़रुरत नहीं. चलो तुमको अंजाम में मिलने वाले इसके गढ़े हुए अज़ाबों की ज़िम्मेदारी मैं अपने सर लेने का वादा करता हूँ, अगर तुम इसके जाल से निकलो"
माज़ी के इस पसे-मंज़र में डूब कर मैं पाता हूँ कि दौरे-हाज़िर के पीरो मुर्शिदों, स्वामियों और स्वयंभू भगवानों की दूकानों को, जो बहुत क़रीब नज़र आती हैं और रसूल बहुत पास मिलते हैं. 
वह सादा लौह अवाम, 
अय्यार मुसाहिबों और लाख़ैरों की भीड़, 
मुरीदों के ये चेले, 
ऐसे ही लोग मुहम्मद के जाल में आते, 
जिनको समझा बुझा कर राहे-रास्त पर लाया जा सकता था.
मैं ख़ुद साख़्ता रसूल की हुलिया का तसव्वुर करता हूँ . . . 
नीम दीवाना, नीम होशियार, मगर गज़ब का ढीठ. 
झूट को सच साबित करने का अहेद बरदार, 
सौ सौ झूट बोल कर आख़िर कार 
"हज़रात मुहम्मद रसूल अल्लाह सललललाह अलैहे वसल्लम" 
बन ही जाता है,
 वह अल्लाह जिसे ख़ुद इसने गढ़ा, 
उसे मनवा कर, पसे पर्दा ख़ुद अल्लाह बन जाता है. 
झूट ने माना कि बहुत लम्बी उम्र पाई मगर अब और नहीं.  
मुहम्मद के गिर्द अधकचरे ज़ेहन के लोग हुवा करते 
जिन्हें सहाबाए-किराम कहा जाता है, 
जो एक गिरोह बनाने में कामयाब हो गए. 
गिरोह में बे रोज़गारों की तादाद ज़्यादः थी. 
कुछ समाज़ी तौर पर मजलूम हुवा करते थे, 
कुछ मसलेहत पसंद और कुछ बेयारो मददगार. 
कुछ लोग तरफ़रीहन भी महफ़िल में शरीक हो जाते. 
कभी कभी कोई संजीदा भी जायज़ा लेने की ग़रज़ से आकर खड़ा हो जाता और अपना ज़ेहनी ज़ायका बिगाड़ कर आगे बढ़ जाता 
और लोगों को समझाता . . . 
इसकी हैसियत देखो, इसकी तअलीम देखो, इसका जहिलाना कलाम देखो, 
बात कहने की भी तमीज़ नहीं, 
जुमले में अलफ़ाज़ और क़वायद की कोताही देखो. 
इसकी चर्चा करके नाहक़ ही इसको तुम लोग मुक़ाम दे राहे हो, 
क्या ऐसे ही सिड़ी सौदाई को अल्लाह ने अपना पैग़ामबर चुना है?
   बहरहाल इस वक़्त तक मुहम्मद ने तनाज़ा, मशगला और चर्चा के बदौलत 
मुआशरे में एक पहचान बना लिया था. 
एक बार मुहम्मद मक्का के पास एक मुक़ाम तायाफ़  के हाकिम के पास 
अपनी रिसालत की पुड़िया लेकर गए. 
उसको मुत्तला किया कि 
"अल्लाह ने मुझे अपना रसूल मुक़रार किया है." 
उसने इनको सर से पाँव तक देखा और थोड़ी ग़ुफ़्तगू की और जो कुछ पाया उस पैराए में इनसे पूछा 
"ये तो बताओ कि मक्का में अल्लाह को कोई ढंग का आदमी नहीं मिला 
कि एक अहमक़ को अपना रसूल बनाया? " 
उसने धक्के देकर इन्हें बाहर निकाला और लोगों को माजरा बतलाया. 
लोगों ने लात घूसों से इनकी तवाज़ो किया, 
बच्चों ने पागल मुजरिम की तरह  इनको पथराव करते हुए बस्ती से बाहर किया. 
क़ुरआनी आयतें लाने वाले जिब्रील अलैहस्सलाम दुम दबा कर भागे, 
और अल्लाह आसमान पर बैठा ज़मीन पर अपने रसूल का तमाशा देख़ता  रहा.
मगर साहब ! 
मुहम्मद अपनी मिटटी के ही बने हुए थे, न मायूस हुए न हार मानी. 
जेहाद की बरकत 'माले ग़नीमत' का फ़ार्मूला काम आया. 
फ़तह मक्का के बाद तो तायाफ़ के हुक्मरान जैसे उनके क़दमों में पड़े थे.
*** 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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