Sunday 30 March 2014

Soorah dahar 76

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
***

सूरह दहर 76 - पारा २९ 

स्वयंभू भगवानो के सिलसिले की एक कड़ी का और अन्त हुवा. 
सत्य श्री साईं अपनी भविष वाणी, जिसके अनुसार उनकी उम्र ९२ साल होगी असत्य हुई ६ साल पहले ही ऐसी मौत मरे कि उनका शरीर आधा अर्थात ३२ किलो रह गया. भगतों ने कहा,
 "संसार में बढ़ते हुए पापों को उन्हों ने अपने ऊपर ले लिया."
उनका दावा था कि वह  भूत कालिक शिर्डी के साईं का अवतार थे दावा ये भी है कि दोबारा अवतार लेगे.यानी उनके असत्य का सम्राज कायम रहेगा. देखिए कि इससे कौन होशियार पैदा होता है. 

शिर्डी का मुस्लिम फकीर जिसके पास दो जोड़े कपडे भी ढंग के न थे एक टूटी फूटी वीरान मस्जिद को अपना घर बना लिया था, उसी हालत में वह इस दुन्या से गया. उसकी मूर्ति करोरो का धंधा दे गई है और शयाने लोग हराम की कमाई का ज़रीया बनाए हुए है. 
दूसरी तरफ सत्य श्री साईं एक नया बुत जनता को पूजने के लिए दे गए है. उनकी ये दूसरी दूकान है. ये अरबों की संपत्ति छोड़ कर मरे जिसके बदौलत हजारो अस्पताल कालेज और दूसरे धर्मार्थ संस्थाएं चल रही हैं. 
"ये सब अंधविश्वास के कोख से निकले हुए चमतकार हैं, इस से अन्धविश्वासी बड़े बड़े डाक्टरसे ले कर जजों तक की घुस पैठ है, जिन्हों ने बाबा के रस्ते को फायदे मंद समझा."

अब हम एक महान हस्ती की बात करते हैं जो अंध विश्वासों से कोसों दूर कर्म फल के बिलकुल पास खड़ा है, जो न मदारियों का चमत्कार नता को दिखलाता है, न झूट के पुल बांधता है. उसने अपने कर्म से दुन्या को नई ईजाद दिया, करोरो लोगों को रोज़ी रोटी दिया. उसने वह काम किया जो "सवाब ए जारिया" कहलाता है अर्थात हमेशा हमेशा के लिए जारी रहने वाला पुन्य. 
वह अपनी सफेद कमाई के बलबूते पर दुन्या का सब से बड़ा अमीर बना . उसने अपनी चाहीती बीवी के नाम पर एक न्यास बना कर अपनी दौलत का आधे से ज़्यादा हिस्सा दान कर दिया इतनी दौलत जो स्वयंभु बाबा के साम्राज को अपने जेब में रख ले., जिसमे दुनया के ईमान दार तरीन लोग शामिल हैं. 
आप समझ गए होंगे की मैं बिल गेट की बात कर रहा हूँ.
स्वयंभु बाबा और बिल गेट की तुलना इस तरह से की जा सकती है - - -

बिल गेट ने इंजीनियरिंग की एक परत को उकेरा जो तराशने के बाद हीरा बनी और बाबा ने मदारियों की हाथ की सफाई पेश किया जिसे कई बार जादूगरों ने उनको चैलेज करके रुसवा किया.
बिल गेट ने नए आविष्कार को जन्म दिया, पाला पोसा और बाबा ने पुराने अंध विशवास को नई नस्ल को परोसा.
बिल गेट ने करोरों लोगों को रोज़गार दिया और बाबा ने लाखों लोगों को निकम्मा और काहिल बनाया. उनके करोड़ों अरबों वर्किग आवर्स बर्बाद किए कि बैठ तालियाँ बजा बजा कर बाबा का गुणगान करते हैं.
बिल गेट ने सारी कमाई मुल्क को टेक्स भरके किया और वबा का सारा पैसा टेक्स चोरों की काली कमाई का है. दान धर्म पर कोई अपनी हलाल की कमाई चंदा में नहीं देता.

ये बिल गेट की और बाबा की तुलना नहीं है बल्कि पच्छिम और पूरब की मानसिकता की तुलना है. हम भारतीय हमेशा झूट को पूजते हैं और पश्चिम यथार्थ पर विश्वास रखता है. हमारी दास मानसिकता हमेशा दास्ता की परिधि में रहती है. वह इसका फायदा उठाते हैं.
आइए देखें कि इस स्वयंभु बाबाओं का असर मुसलमान पर कितना  गहरा है - - -
  
सूरह  दह्र ७६  - पारा २९  

`"बेशक इंसान पर ज़माने में एक ऐसा वक़्त भी आ चुका है जिसमे वह कोई चीज़ काबिले तजकारा न था. हमने इसको मखलूत नुतफे से पैदा किया, इस लिए हम उसको मुकल्लिफ (तकलीफ ज़दा)  बनाईं, सो हमने इसको सुनता देखता बनाया. हमने इसको रास्ता बतलाया, यातो वह शुक्र  गुज़ार हो गया या नाशुक्रा हो गया . हमने काफिरों के लिए ज़ंजीर, और तौक और आतिशे सोज़ान तैयार कर राखी हैं."
सूरह  दह्र ७६  - पारा २९ आयत (आयत १-४)

ज़बान की कवायद से नावाकिफ उम्मी मुहम्मद का मतलब है की तारीख ए इंसानी में, इंसान उन मरहलों से भी गुज़रा कि इसका कोई करनामः काबिले-बयान नहीं.
इंसान माजी की दुश्वार गुज़ार जिंदगी में अपनी नस्लों को आज तक बचाए रख्खा यही इसका कारनामा है जब  कि कोई इंसानी तखय्युल का अल्लाह भी इंसानी दिमाग में न आया था. इंसान मख्लूत नुत्फे से पैदा हवा, यह भी अल्लाह को बतलाने की ज़रुरत नहीं कि इल्म मुहम्मद से बहुत पहले इंसान को हो चूका है. "उसको मुकल्लिफ (तकलीफ ज़दा)  बनाईं" ये सच है इसी का फायदा उठाते हुए मुहम्मद ने इन पर लूट मार का कहर बरपा किया था कि इंसान में कूवाते बर्दाश्त बहुत है.

किसी कमज़र्फ अल्लाह को हक नहीं पहुँचता कि वह मखलूक को बंधक बनाने के लिए पैदा करे.  .
मुहम्मद ने इंसानों " के लिए ज़ंजीर, और तौक और आतिशे सोज़ान तैयार कर राखी हैं." 
बस देर है उनके जाल में जा फंसो. गौर करी कि अगर आप मुहम्मदी अल्लाह को नहीं मानते  या जो भी नहीं मानता उसके लिए उसकी बातें मज्हका खेज़ हैं.

"जो नेक हैं वह ऐसी जामे शराब पिएंगे जिसमे काफूर की आमेज़िश होगी.यानी ऐसे चश्में से जिससे अल्लाह के खास बन्दे पिएँगे. जिसको वह बहा कर ले जाएँगे, वह लोग वाज बात को पूरा करते हैं और ऐसे दिन से डरते हैं जिसकी सख्ती आम होगी."
सूरह  दह्र ७६  - पारा २९ आयत (आयत ५-७)

जन्नत में मिलने वाली यही शराब, कबाब और शबाब की लालच में मुसलमान अपनी मौजूदा ज़िन्दगी को इन से महरूम किए हुए है. काफूर मुस्लिम जनाजों को सुगन्धित करता है, जन्नत में इसकी गंध को पीना भी पडेगा.

मसह्रियों पर तक्यिया लगे हुए होंगे .
वहाँ तपिश पाएँगे न जाड़ा,
और जन्नत में दरख्तों के साए जन्नातियों पर झुके होंगे .
और उनके मेवे उनके अख्तियार में होंगे,
और उनके पास चाँदी के बर्तन लाए जाएँगे,
और आब खोरे जो शीशे के होगे जिनको भरने वालों ने मुनासिब अंदाज़ में भरा होगा
और वहां उनको ऐसा जमे शराब पिलाया जाएगा जिसमें सोंठ की आमेज़िश होगी.
यानी ऐसे चश्में से जो वहाँ होगा जिसका नाम सलबिल होगा,
और उनके पास ऐसे लड़के आमद ओ रफ्त करेंगे जो हमेशा लड़के ही रहेंगे,
और ए मुखातिब! तू अगर उनको देखे तो समझे मोती हैं, बिखर गए हैं,
और ए मुखातिब तू अगर उस जगह को देखे तो तुझको बड़ी नेमत और बड़ी सल्तनत दिखाई दे
उन जन्नातियों पर बारीक रेशम के सब्ज़ कपडे होंगे और दबीज़ रेशम के भी,
 और उनको सोने के कंगन पहनाए जाएँगे.
और उनका रब उनको पाकीज़ा शराब देगा जिसमें न नजासत होगी न कुदूरत."
सूरह  दह्र ७६  - पारा २९ आयत (आयत १४-२१)

क़ुररान की आयतें कहती हैं कि जन्नतियों  को तमाम आशाइशों  के साथ साथ नवखेज़ लौंडे (पाठक मुआफ करें) होगे जो हमेशा नव उम्र ही होंगे, अल्लाह अपने मुखातिब को रुजूअ करता है वह 
"मोती हैं, बिखर गए हैं" 
क्या उसकी पेश श जन्नातियो के लिए लौंडे बाजी की है (एक बार फिर पाठक मुझ को  मुआफ  मुआफ करें) दुरुस्त यही है.ये अमल भी शराब नोशी की तरह जन्नत में राव होगा.
 इग्लाम बाज़ी समाज की बदतरीन बुराई है जिसका ज़िक्र दो गैरत मंद आपस में आँख मिला कर नहीं कर सकते. और अल्लाह अपनी जन्नत में इसकी खुली दावत देता. इस फेल से समाज बातिनी तौर पर और जेहनी तौर पर मजरूह होता है ,जिस्मानी तौर पर बीमार हो जाता है मेयारी तौर पस्त. सर उठा कर चलने लायक नहीं रह जाता . दो इग्लाम बाज़ मर्द होते हुए भी नामर्द हो जाते हैं. 


किसी तहरीक को चलाने के लिए उमूमन जायज़ और नाजायज़ हरबे इस्तेमाल होते हैं, ये सियासत तक ही महदूद नहीं, धर्म तक इसका इस्तेमाल करते हैं मगर सबकी अपनी कुछ न कुछ हदें होती हैं हद्दे कमीनगी तक जाने के लिए इंसान सौ बार सोचता है और मुहम्मदी अल्लाह एक बार भी नहीं सोचता. इसका बुरा असर मुआशरे में बड़ी गहराई तक जाता है. अल्लाह के बलिगान दीन इन आयातों का सहारा लेकर मस्जिद के हुजरों  में अक्सर मासूमों को अपना शिकार बनाते हैं.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 27 March 2014

Soorah qayamah 75

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह क़ियामह ७५- पारा २९ 

आज इक्कीसवीं सदी में दुन्या के तमाम मुसलामानों पर मुहम्मदी अल्लाह का क़यामती साया ही मंडला रहा है. जो कबीलाई समाज का मफरूज़ा खदशा हुवा करता था. अफगानिस्तान दाने दाने को मोहताज है, ईराक अपने दस लाख बाशिदों को जन्नत नशीन कर चुका है, मिस्र, लीबिया और दीगर अरब रियासतों पर इस्लामी तानाशाहों की चूलें ढीली हो रही हैं तमाम अरब मुमालिक अमरीका और योरोप के गुलामी में जा चुके है, लोग तेज़ी से ईसाइयत की गोद में जा रहे हैं, 
कम्युनिष्ट रूस से आज़ाद होने वाली रियासतें जो इस्लामी थीं, दोबारा इस्लामी गोद में वापस होने से साफ़ इंकार कर चुकी हैं, ११-९ के बाद अमरीका और योरोप में बसे मुसलमान मुजरिमाना वजूद ढो रहे हैं, अरब से चली हुई बुत शिकनी की  आंधी हिदुस्तान में आते आते कमज़ोर पड़ चुकी है, सनेहा ये है कि ये न आगे बढ़ पा रही है और न पीछे लौट पा रही है, अब यहाँ बुत इस्लाम पर ग़ालिब हो रहे हैं, 
१८ करोड़ बे कुसूर हिदुस्तानी बुत शिकनों के आमाल की सज़ा भुगत रहे हैं, हर माह के छोटे मोटे दंगे और सालाना बड़े फसाद इनकी मुआशी हालत को बदतर कर देते हैं, और हर रोज़ ये समाजी  तअस्सुब के शिकार हो जाते हैं, इन्हें सरकारी नौकरियाँ बमुश्किल मिलती है, बहुत सी प्राइवेट कारखाने और फर्में इनको नौकरियाँ देना गवारा नहीं करती हैं, 
दीनी तालीम से लैस मुसलमान वैसे भी हाथी का लेंड होते है, जो न जलाने के काम आते हैं न लीपने पोतने के, कोई इन्हें नौकरी देना भी चाहे तो ये उसके लायक ही नहीं होते. लेदे के आन्वां का आवां ही खंजर है.

दुन्या के तमाम मुसलमान जहाँ एक तरफ अपने आप में पस मानदा है, वहीँ  दूसरी कौमों की नज़र में जेहादी नासूर की वजेह से ज़लील और ख्वार  है. क्या इससे बढ़ कर कौम पर कोई क़यामत आना बाकी रह जाती है? 
ये सब उसके झूठे मुहम्मदी अल्लाह और उसके नाकिस  कुरआन की बरक़त है. आज हस्सास बा मुसलमान को सर जोड़कर बैठना होगा कि बुजुर्गों की नाकबत अनदेशी ने अपने जुग्रफियाई वजूद को कुर्बान करके अपनी नस्लों को कहीं का नहीं रक्खा.

ईरान में बज़ोरशमशीर इस्लामी वबा आई कमजोरों ने इसे निगल लिया मगर गयूर ज़रथुर्सठी  ने इसे ओढना गवारा नहीं किया, घर बार और वतन की क़ुरबानी देकर हिदुस्तान में आ बसे जिहें पारसी कहा जाता है, दुन्या में सुर्खुरू है.सिर्फ, एक पारसी टाटा के सामने तमाम ईरान पानी भरे.
मुसलामानों के सिवा हर कौम मूजिदे जदीदयात है जिनकी बरकतों से आज इंसान मिर्रीख के लिए पर तौल रहा है. इस्लाम जब से वजूद में आया है मामूली सायकिल जैसी चीज़ भी कोई मुसलमान ईजाद नहीं कर सका, हाँ इसकी मरम्मत और इसका पंचर जोड़ने के काम में ज़रूर लगा हुवा पाया जाता है.
अब भी अगर मुसलमान इस्लाम पर डटा रहा तो इसकी बद नसीबी ही होगी कि एक दिन वह दुन्या के लिए माजी की कौम बन जाएगा.

अल्लाह का गलीज़ कलाम मुलाहिजा हो  - - -

"मैं क़सम खता हूँ क़यामत के दिन की,
और क़सम खता हूँ नफ्स की, जो अपने ऊपर मलामत करे."
सूरह क़ियामह ७५- पारा २९ आयत (१-२)

कल्बे सियाक्ह मुहम्मद अपने नफ्स की भूक की क़सम खाते हैं जो मुसलसल इनको झूट बोलने पर आमादः करती है. इन पर मलामत तो कभी करती ही नहीं.नफ्स तो चाहत ही चाहत चाहती है और इसे काबू करना पड़ता है, ये इंसान को काबू में रखती है, इंसान इसका मुरीद होता है.
इंसान का ज़मीर इसको मलामत करता है, हज़त गालिबन ज़मीर की जगह नफ्स का इस्तेमाल कर रहे हैं. उनके अल्लाह को अल्फाज़ चुनना भी नहीं आता. उसे बेहूदा कसमों की आदत पड़ गई है.

"क़यामत का वक़्त कब आएगा? जिस वक़्त आँखें खैर हो जाएंगी और चाँद बेनूर हो जाएगा, सूरज और चाँद एक हालत हो जाएँगे."
सूरह क़ियामह ७५- पारा २९ आयत (१०)

लोग मक्का में इनको कभी चिढाते, कभी छेड़ते कि 
"मियाँ !कयामत कब आएगी?" 
इनका क़यामत नामः खुल जाता, हर बार लाल बुझक्कड़ क़यामती किताब से कुछ नया पढ़ कर सुना देते.मजाक मजाक में इनकी ये पोथी बनी और जेहादी लूट मार से इस्लाम वजूद में आया.

"फिर जब हम उसको पढने लगा करें तो आप उसके ताबेअ हो जाया करें, फिर इसका बयान कर देना हमारा ज़िम्मा है."
सूरह क़ियामह ७५- पारा २९ आयत (२०)

गोया खालिक भी अपनी तखलीक को नवाज़ता है? मगर कब आया? कब पढ़ा, जब मुहम्मद उसके ताबेअ में होकर रह गए?
इसे हराम जादे ओलिमा ने यूँ मेकअप किया है - - -

"हक तअला ने जिब्रील के पढने को अपना पढना क़ारार दिया है क्यूंकि जिब्रील हक तअला के पयम्बर और कुरआन लाने में महज़ वास्ता थे. मतलब ये कि जब जिब्रील आकर कुरआन पढ़ा करें तो आप ख़ामोशी से सुना करें और इनके सुना चुकने के बाद दोबारा पढ़ लिया करें, जिब्रील के पढने के दौरान में आपको ज़बान हिलाने की ज़रुरत नहीं. कुरआन आप के सीने में जमा करा देना यानी याद करा देना और आपके लिए इसकी किरत आसान कर देना, इसका साफ़ साफ़ मतलब ओ मफ़हूम, सब कुछ हमारे ज़िम्मे है. "
जब कि मुहम्मद इस बात की तलकीन कर रहे हैं कि लोग बगैर मतलब समझे कुरआन में तल्लीन हो जाया करें, मानी ओ मतलब बाद में हम गढ़ा करेंगे.

"सो उसने न तसदीक़ की थी, न नमाज़  पढ़ी थी
 और एहकाम से मुँह मोड़ा था, 
फिर नाज़ करता हुवा अपने घर चल देता है. 
तेरी कमबख्ती पर कमबख्ती आने वाली है, 
फिर तेरी कमबख्ती पर कमबख्ती आने वाली है . 
क्या इंसान ख़याल करता है यूं ही मुह्मिल छोड़ दिया जाएगा?
क्या ये शख्स एक क़तरा मनी न था? 
जो टपकाया गया था."
सूरह क़ियामह ७५- पारा २९ आयत (३१-३७)

मुहम्मदी जेहालत के जत्थे में कभी कभी कोई बेदार जेहन आ जाया करता था जिसका रवय्या जनाब बयान करते हैं. उसको जाने के बाद अल्लाह के मकरूह रसूल कोसते काटते हैं, यहाँ तक कि गालियाँ देते हैं. यही गालियाँ मुसलमान अपनी नमाज़ों में अदा करते हैं.

क्या उस शख्स को जवाब नहीं दिया जा सकता कि तुम भी तो अपनी माँ के अन्दाम निहानी में टपके हुए मनी के कतरे के अंजाम हो, 
पैगम्बर कैसे बन गए? 
किसी पैगम्बर ने तो मनी टपकने की हरकत की नहीं होगी. 
इंसान का बच्चा पैगम्बर ? 
चे मअनी?   


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 23 March 2014

Soorah mudassir 74

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह मुदस्सिर ७४ -पारा २९ 

"ऐ कपडे में लिपटने वाले! उट्ठो,
फिर डराओ,
अपने रब की बड़ाइयाँ बयान करो
और कपड़ों को पाक रखो,
और बुतों से अलग रहो,
और किसी को इस गरज़ से मत दो
 कि ज़्यादः माविज़ा चाहो."
मुसलामानों! ये तुम्हारे अल्लाह की सात बातें हैं. अगर कुछ तुम्हारे पल्ले पड़ा हो तो इक्कीसवीं सदी को दो.
अपनी भद्द मत पिटवाओ. तुम्हारा रसूल कपडे में लिपटा हुवा नंगा है, इसे देख सको तो देखो.
"मुझ को और उस शख्स को रहने दो,
जिसको हमने अकेला पैदा किया है,
इसको कसरत से माल दिया और पास रहने वाले बेटे,
और हर तरह का सामान मुहय्या कर दिया,
 फिर भी इस बात की हवस रखता है कि और ज़्यादः दूं ."

मुहम्मद अल्लाह बने हुए किसी की मेहनत की कमाई को देख नहीं सकते, जले जा रहे हैं कि उसके मॉल के हिस्सेदार वह खुद क्यूँ नहीं बन सकते. नहीं चाहते कि वह और मालदार हो जाए,
इंसानों का बद ख्वाह, इंसानों का पैगम्बर बना फिरता है.

"हरगिज़ नहीं, वह हमारी आयातों का मुख़ालिफ़ है. इसको अनक़रीब दोज़ख के पहाड़ों पर चढ़ाऊँगा.
 इस शख्स ने सोचा,
फिर एक तजवीज़ की,
सो इस पर अल्लाह की मार कैसी बात की तजवीज़ की,
 फिर देखा,
मुँह बनाया,
और ज्यादह मुँह बनाया
फिर मुँह फेरा और तकब्बुर किया.,
फिर बोला ये तो जादू है,
मन्कूल, ये तो आदमी का कलाम है.
मैं इसको जल्द दोज़ख में दाखिल कर दूंगा."

वलीद बिन मुगीरा एक अरबी था जो समाज में अपनी मज़बूत पकड़ रखता था, अल्लाह के रसूल को खातिर में नहीं लाता, न उनके कलाम को..मुहम्मद उसका कुछ उखाड़ नहीं पाते तो अल्लाह के नाम पर उसे कोस रहे हैं. ऐसे मकर के पुतले को किस तरह लोगों ने झेला होगा?
उसके मकरूह तरीक़े कार को आज मुसलमान अपने ऊपर मुसल्लत किए हुए है. हर समाज में मिनी मुहम्मद बैठा हराम रिजक पैदा कर रहा है. भेड़ चाल अवाम इनका शिकार हा रहे हैं.

"और हमने दोज़ख के कारकुन सिर्फ़ फ़रिश्ते बनाए हैं,
और हमने जो उनकी तादाद ऐसी रखी है जो काफिरों की गुमराही का ज़रीआ हो.
तो इस लिए ताकि अहले किताब और मोमनीन शक न करें,
और ताकि जिन लोगों के दिलों में मरज़ है वह और काफ़िर कहने लगें,
 कि इस अजीब मज़मून से अल्लाह का क्या मक़सूद है?
इस तरह अल्लाह जिसको चाहता है गुराह कर देता है,
और जिसको चाहता है हिदायत देता है,
और तुम्हारे रब के लश्करों को बजुज़ रब कोई नहीं जनता.
और दोज़ख सिर्फ आदमियों के नसीब के लिए है.
बिल तहकीक क़सम है चाँद की,
और रात की जब वह जाने लगे,
 और सुब्ह की जब वह रौशन हो.
वह दोज़ख भारी चीज़ है जो इंसान के लिए बड़ा डरावना है,
जो आगे बढे इसके लिए भी और
जो पीछे हटे इसके लिए भी."
 सूरह मुदस्सिर ७४ -पारा २९ ( १-३७)

मुसलमानों! देखो तुम्हारा अल्लाह शैतान की तरह बन्दों को गुमराह भी करता है. लोग पूछते हैं कि इस कलाम से अल्लाह की मुराद क्या है? तो मुहम्मद उनको अपने कलाम का मकसद तो कुछ बतला नहीं पाते मगर जो मुँह में आता है, बकते रहते हैं .
क़स्मो की किस्में  देखें,
शुक्र है उम्मत अल्लाह  की नक्ल में ऐसी कसमें नहीं खाता वर्ना इसी दुन्या में उनको पागल करार दे दिया जाता. मगर ऐसी कसमें खाने वाले को अपना अल्लाह बनाए हुए है.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 20 March 2014

Soorah Muzammil 73

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह मुज़म्मिल ७३ - पारा २९ -

आइन्दा ऐसी ही छोटी छोटी सूरह हैं जिसमे मुहम्मद अपनी बातों को ओट रहे हैं, गोया क़ुरआनी पेट भरने की बेगार कर रहे हों.
महिरीन कुरआन और ताजिराने दीन  इनको मुख्तलिफ शक्लें देकर सवाबों के खानों में बांटे हुए हैं.
इन्होंने हर सूरह की कुछ न कुछ "खवास'' बना रख्खा है. मसलन इस सूरह के बारे में मौलाना लिखते हैं 

"जो शख्स सूरह मुज़म्मिल को अपना विरद (वाचन).बना दे, वह मुहम्मद का दर्शन ख्वाबों में पाए. और इससे खैर ओ बरकत होगी. सूरह को पढ़ कर हाकिम के पास जाए तो हाकिम को मेहरबान पाए. वास्ते ज़बान बंदी और तेग बंदी के लिए मुजर्रब (परीक्सित, आज्मूदः) और अगर लिखकर मरीज़ के गले में लटका दे तो तो इसको सेहत हो और हर रोज़ सात मर्तबा पढ़े तो भोज्य अधीकाए . " 

देखिए कि लफ्ज़ी मानी ओ मतलब क्या है और बरकत क्या है - - -
"ए कपडे में लिपटने वाले! रात को खड़े रहा करो, मगर थोड़ी सी रात यानी निस्फ़  रात, या इससे भी निस्फ से किसी क़द्र कम कर दिया करो या निस्फ से कुछ बढ़ा दो और  कुरआन को खूब साफ़ साफ़ पढो "

मुहम्मद अपनी उम्मत को दिन में जेहादों में और रात को इबादतों में उलझाए रहते थे ताकि उसको कुछ और सोचने का मौक़ा ही न मिल सके. आयातों में अल्फाज़ की कारीगरी मुलाहिजा हो जैसे कि लफ़्ज़ों की मीनार चुन रहे हों, और जानते हैं कि हो सकता है.इसी तरह अल्लाह की ज़बाब होगी 

"और मुझको और इन झुटलाने वालों, नाज़ ओ नेमत में रहने वालों को छोड़ दो और इनको थोड़े दिनों की और मोहलत देदो. हमारे यहाँ बेड़ियाँ हैं और दोज़ख है और गले में फँस जाने वाला खाना."

" और तुम उस दिन से कैसे बचोगे जो बच्चों को भी बूढा कर देता है."

मुहम्मद की लगजिश देखिए कि अपने को अल्लाह के झुटलाने वालों में शामिल किए हुए हैं.
इन्हें कौन पकडे हुए हैं कि जिससे खुद को छुड़ा रहे है.
कैसा ज़ालिम अल्लाह है कि जिसको वह मनवा रहे हैं? बन्दों की मौत के बाद "बेड़ियाँ हैं और दोज़ख है और गले में फँस जाने वाला खाना देगा."
मुसलामानों की अक्ल मारी गई है.

"और अल्लाह को अच्छी तरह क़र्ज़ दो, और नेक अमल अपने लिए आगे भेज दो, इसको अल्लाह के पास पहुँच कर इससे अच्छा और सवाब में बड़ा पाओगे और अल्लाह से गुनाह मुआफ़ कराते रहा करो, बेशक अल्लाह गफूरुर रहीम है."

मुहम्मद अल्लाह अपनी इबादत का भूका प्यासा बैठा है?

सूरह मुज़म्मिल ७३ - पारा २९ - पारा(१-२०)

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 16 March 2014

Sooraqh Jinn 72

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह जिन्न ७२ -पारा २९

मुझे हैरत होती है की मुहम्मद के ज़माने में वह लोग थे जोकि  कुरानी बकवासों को मुहम्मद का परेशान ख़याल कह कर दीवाने को फ़रामोश कर दिया करते थे. वह इस लग्वियात को मुहम्मद का जेहनी खलल मानते थे, ये बातें खुद कुरआन में मौजूद है, इस लिए कि मुहम्मद लोगों की तनक़ीद को भी क़ुरआनी फरमान का हिस्सा बनाए हुए हैं. वह लोग क़ुरआनी फ़रमूदात पर ऐसे ऐसे जुमले कसते कि अल्लाह की बोलती बंद हो जाया करती थी.
 आज का इंसान उस ज़माने से कई गुना तालीम याफ्ता है,
जेहनी बलूगत भी लोगों की काफी बढ़ गई है,
तहकीकात और इन्केशाफत के कई बाब खुल चुके हैं,
फिर भी इन कुरानी लग्वियात को लोग अल्लाह का कलाम माने हुए हैं.और इस बात पर यकीन रक्खे हुए हैं.
जाहिल अवाम को मुआफ़ किया जा सकता है, मगर
कालेज के प्रोफ़ेसर, वोकला, जज और बुद्धि जीवी भी यक़ीन रखते हैं कि अल्लाह ने ही कुरआन को अपनी दानिश मंदी की शक्ल  बख्शी .
अभी तक मुहम्मद उन लोगों को पकड़ कर अपनी पब्लिसिटी कराते थे जो बकौल उनके अल्लाह के रसूल हुवा करते थे. अब उतर आए हैं जिन्नों और भूतों के स्तर पर.
वह इस तरह मक्र को वह आयतें बनाते है - - -

"आप कहिए कि मेरे पास इस बात की वह्यी आई है कि जिन्नात में से एक जमाअत ने कुरआन को सुना फिर उनहोंने कहा हमने एक अजीब कुरआन को सुना जो राहे रास्त बतलाता है सो हम तो ईमान ले आए और हम अपने रब के साथ किसी को शरीक नहीं करेंगे."

मुहम्मद कुरआन की डफली अब उस मखलूक से भी बजवा रहे हैं जो वहमों का वजूद है. जिन्न का वहम भी यहूदियों के मार्फ़त इस्लाम में आया है.

"और हमारे परवर दिगार की बड़ी शान है. इसने न किसी को बीवी बनाया न औलाद."

उस शख्स को अल्लाह के वजूद का वहम अगर है और इंसानी दिल ओ दिमाग रखने वाला अल्लाह है तो इंसानी जिसामत उसमें क्यूं नहीं? उसकी बीवी और बच्चे भी होना चहिए.
इस के बार अक्स जिन्नों मलायक की इफ़रात से मौजूदगी बगैर जिन्स के कैसे  मुमकिन है?

"और हम में जो अहमक हुए हैं वह अल्लाह की शान में बढ़ी हुई बात करते थे. और हमारा ख़याल था कि इंसान और जिन्नात कभी अल्लाह की शान में झूट बात न कहेंगे. और बहुत से लोग आदमियों में ऐसे थे कि वह जिन्नात में से बअजे लोगों की पनाह लिया करते थे, सो उन आदमियों ने इन जिन्नात लोगों की बाद दिमागी और बढ़ा दी."

क्या कहना चाहा है उम्मी ने? इसे कठ बैठे मुल्ला ही समझें.

"और हमने आसमान की तलाशी लेना चाहा, सो हमने इसको सख्त पहरों और शोलों में भरा हुवा पाया. और हम आसमान के मौकों में सुनने के लिए जा बैठा करते थे, सो अब जो कोई सुनता है एक तैयार शोला पाता है.."

अल्लाह को पोलिस बन कर अपने ही कायनात की तलाशी लेनी पड़ सकती है क्या? कि किसी मुजरिम ने आसमान में शोले छुपा रक्खा था. साथ साथ पहरे भी सख्ती के साथ थे, फिर भी अल्लाह हो असगर (यानी  शैतान) आसमान में कान  लगाए बैठा रहता है कि वहां की कोई खबर मिल सके.. गरज उसके लिए तारे का बुर्ज बना दिया  जो कि शोले के साथ उस का पीछा करता है. ये तमाम कहानियाँ गढ़ राखी हैं रसूल ने इसको  मुहम्मदी उम्मत वजू करके और टोपी लगा कर पढ़ती है.

"और हम नहीं जानते कि ज़मीन वालों को कोई तकलीफ़ पहुँचाना मक़सूद है या उनके रब ने उनको हिदायत लेने का एक किस्सा फरमाया."


ऐसे किस्सों से कुरआन भरा हुवा है, जिसे मुसलमान दिनों रात तिलावत करते हैं.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 9 March 2014

Soorah nooh 71

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह नूह ७१ पारा २९

आजकल चार छः औसत पढ़े लिखे मुसलमान जब किसी जगह इकठ्ठा होते हैं तो उनका मौजू ए गुफ्तुगू होता है 
' मुसलामानों पर आई हुई आलिमी आफतें' 
बड़ी ही संजीदगी और रंजीदगी के साथ इस पर बहेस मुबाहिसे होते हैं. सभी अपनी अपनी जानकारियाँ और उस पर रद्दे अमल पेश करते हैं. अमरीका और योरोप को और उनके पिछ लग्गुओं को जी भर के कोसा जाता है. भगुवा होता जा रहा हिन्दुस्तान को भी सौतेले भाई की तरह मुखातिब करते हैं और इसके अंजाम की भरपूर आगाही भी देते हैं. सच्चे कौमी रहनुमा जो मुस्लिमों में है, उनको '
साला गद्दार है', 
कहकर मुखातिब करते हैं. वह मुख्तलिफ होते हुए भी अपने मिल्ली रहनुमाओं का गुन गान ही करते है.अमरीकी पिट्ठू अरब देशों को भी नहीं बख्शा जाता. बस कुछ नर्म गोशा होता है तो पाकिस्तान के लिए.
इसके बाद वह मुसलामानों की पामाली की वजह एक दूसरे से उगलवाने की कोशिश करते हैं, वह इस सवाल पर एक दूसरे का मुँह देखते हैं कि कोई सच बोलने की जिसारत करे. सच बोलने की मजाल किसकी है? इसकी तो सलाहियत ही इस कौम में नहीं. बस कि वह सारा इलज़ाम खुद पर आपस में बाँट लेते हैं, कि हम मुसलमान ही गुमराह हो गए हैं. 
माहौल में कभी कभी बासी कढ़ी  की उबाल जैसी आती है . कुरआन और हदीसों की बे बुन्याद अजमतों के अंबार लग जाते हैं, गोया दुन्या भर की तमाम खूबियाँ इनमें छिपी हुई हैं. माज़ी को जिन्दा करके अपनी बरतरी के बखान होते हैं. इस महफ़िल में जो ज़रा सा इस्लामी लिटरेचर का कीड़ा होता है, वह माहौल पर छा जाता है.
वह माजी के घोड़ो से उतारते हैं, हाल के हालात पर आने के बाद सर जोड़ कर बैठते हैं कि आखिर इस मसअले  का हल क्या है? हल के तौर पर इनको, इनकी गुमराही याद आती है और सामने इनके खड़ी होती है 'नमाज़'
ज़ोर होता है कि हम लोग अल्लाह को भूल गए हैं, अपनी नमाज़ों से गाफ़िल हो गए है. उन पर कुछ दिनों के लिए नमाज़ी इंक़लाब आता है और उनमें से कुछ लोग आरज़ी तौर पर नमाज़ी बन जाते है.
असलियत ये है कि आज मुसलमान जितना दीन के मैदान में डटा हुवा है उतना कभी नहीं था. 
इनकी पस्मान्दगी की वजह इनकी नमाज और इनका दीन ही है. मुसलमान अपने चूँ चूँ के मुरब्बे की चार दानी को उठा कर अगर ताक़  पर रख दें, तो वह किसी से पीछे नहीं रहेगे.

"हम ने नूह को इनके कौम के पास भेजा था कि तुम अपनी कौम को डराओ, क़ब्ल  इसके कि इन पर दर्द नक् अज़ाब आए."

क़ुरआनी आयतें साबित करती हैं कि  इंसान का पैदा होना ही उसके लिए अज़ाब है. ये पैगाम मुसलामानों को अन्दर से कमज़ोर किए हुए है. बेमार की तौबह इनको राहत पहुँचाती है, ये वजूद पर गैर ज़रूरी तसल्लुत है. कोई किसी को दर्द नाक अज़ाब क्यूँ दे? वह भी अल्लाह? बकवास है ये रसूली आवाज़.
"उनहोंने कहा ऐ मेरी कौम! मैं तुम्हारे लिए साफ़ साफ़ डराने वाला हूँ कि तुम अल्लाह की इबादत करो और उससे डरो और हमारा कहना मानो तो वह तुम्हारे गुनाह मुआफ करेगा और तुमको वक़्त मुक़र्रर तक मोहलत देगा."
मुहम्मद झूट का लाबादः ओढ़ कर खुद नूह बन जाते हैं, कभी इब्राहीम तो कभी मूसा. अफ़सोस कि इस्लामी दुन्या एक झूठे की उम्मत कहलाना पसंद करती है.

"नूह ने दुआ की कि ऐ मेरे अल्लाह! मैंने अपनी कौम को रात को भी और दिन को भी बुलाया, सो वह मेरे बुलाने पर और ही ज़्यादः भागते रहे और हमने जब भी बुलाया कि आप उनको बख्श दें, तो उन्हों ने अपनी उंगलियाँ अपने कानों में दे लीं और अपने कपडे लपेट लिए और इसरार किया और गायत दर्जे का तकब्बुर किया."

अपने कलाम में मुहम्मद अपने मेयार के मुताबिक फ़साहत और बलूगत भरने की कोशिश कर रहे हैं जब कि जुमले को भी सहीह अदा नहीं कर पा रहे.
सुबहो-शाम की जगह  "अपनी कौम को रात को भी और दिन को भी बुलाया" जैसे जुमलों में पेश करते हैं.
मालिके कायनात को क्या ऐसी हकीर बाते बकने के लिए है. मुहम्मद ने उस हस्ती को पामाल कर रखा है.

"फिर मैंने उन्हें बा आवाज़ बुलंद बुलाया, फिर मैंने उनको एलानिया भी समझाया और कहा कि तुम अपने परवर दिगार से गुनाह बख्शुआओ, बे शक वह बख्शने वाला है."

क्या किसी पागल की गुफ्तुगू इससे हटके हो सकती है?
"कसरत से तुम पर बारिश भेजेगा"
अगर तुम उम्मी को पैगम्बर मान लो तो.
"और तुम्हारे लिए बाग़ लगा देगा और नहरें बहा देगा."
शर्त है कि उसको अल्लाह का रसूल मानो.
"तुमको क्या हुवा कि तुम उसकी अजमतों के मुअत्किद नहीं हो."
उसकी अजमतों का सेहरा मक्कार मुहम्मद पर मत बाँधो, मुसलामानों  .
"और नूह ने कहा ऐ मेरे परवर दिगार! काफिरों में से ज़मीन पर एक भी बन्दा न छोड़, अगर तू इनको रूए ज़मीन पर रहने देगा तो ये आपके बन्दों को गुमराह कर देंदे और इनसे महेज़ फजिर और काफ़िर औलादें ही पैदा होंगी ."
अल्लाह को एक बन्दा समझा रहा है कि तू अपने बन्दों का गुनहगार बन जा, उसको नशेब ओ फ़राज़ समझा रह है.
क्या ये सब तुमको मकरूह नहीं लगता?
"ऐ मेरे रब ! मुझको, मेरे माँ बाप को और जो मोमिन होने की हालत में मेरे घर दाखिल हैं, और तमाम मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतों को बख्श दे और ज़ालिमों की हलाक़त और बढ़ा दे."
सूरह नूह ७१ पारा २९ आयत (१-२७)

अल्लाह खुद किसी अल्लाह से दुआ मांग रहा है?

कितनी अहमक कौम है ये जिसको मुसलमान कहते हैं.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Thursday 6 March 2014

Soorah Maaariz 70

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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 सूरह मुआरिज ७०- २९
"
मुहम्मद का क़यामत का शगूफ़ा इतना कामयाब होगा कि इसे सोचा भी नहीं जा सकता. आज इक्कीसवीं सदी में भी क़यामत की अफ़वाह अक्सर फैला करती है, तब तो खैर दुन्या जेहालत के दौर में थी
अवाम उमूमन डरपोक हुवा  करती है. हाद्साती  अफ़वाहों को वह खुद हवा दिया करती है.
 अहले कुरैश से एक शख्स क़यामत आने की खबर समाज को देता है, इसे वह मुश्तहिर करता है. लोग हज़ार झुट्लाएं, वह बाज़ नहीं आता. उसकी वजेह से मक्का में लोगों को क़यामत का सपना आने लगा था. क़यामत की वबा फ़ैल चुकी थी, वह चाहे यकीन के तौर पर या इसका मजाक ही बन गया हो.
क़यामत का नया बाब खोलते हुए मुहम्मदी अल्लाह कहता है - -

"एक दरख्वास्त करने वाला इस अज़ाब की दरख्वास्त करता है कि जो काफिरों पर होने वाला है, जिसका कोई दिफ़अ करने वाला नहीं है  और जो कि अल्लाह की तरफ से वाकेअ होगा, जो कि सीढ़ियों का मालिक है. फ़रिश्ते और रूहें इसके पास चढ़ कर जाती हैं. ऐसे दिन में होगा जिस की मिकदार पचास हज़ार साल होगी, सो आप सब्र कीजिए और ऐसा सब्र की जिसमें शिकायत का नाम न हो.'
सूरह मुआरिज ७०-  पारा २९ - (आयत -१-५ )

मुहम्मदी अल्लाह क़यामत का वक्फ़ा यहाँ पर ५०,००० साल बतलाता है, इसके पहले हज़ार साल बतलाया था, और जल्द ही आने वाली है तो हर सूरह में बार बार दोहराता है. फ़ारसी मुहाविरा है कि 'झूट बोलने वाले की याद दाश्त कमज़ोर होती है' बहुत दिनों से मुसलामानों को चौदहवीं सदी का इन्तेज़ार था, मुहम्मद ने इस सदी के लिए पेशीन गोई कि थी जो आधी होने को है.
क्या मुसलमान मुसलसल ख़दशे की ज़िन्दगी जी रहा है?

"ये लोग इस दिन को बईद देख रहे हैं और हम इसको करीब देख रहे हैं, जिस दिन तेल तलछट की तरह हो जाएगा और पहाड़ रंगीन उन की तरह"
सूरह मुआरिज ७०-  पारा २९ - (आयत -६-९ )

मुहम्मद का साजिशी दिमाग़ हर वक़्त कुछ न कुछ उधेड़ बुन किया करता है, जिसके तहत क़यामत के खाके बना करते हैं. इस तरह से कुरआन का पेट भरता रहता है. तेल तलछट की तरह हो जाएगा तो ये भी अल्लाह की कोई बात हुई, तेल के नीचे तो तलछट ही होता है.

"और उस रोज़ कोई दोस्त, किसी दोस्त को न पूछेगा, बावजूद एक दूसरे को दिखा दिए जाएँगे और मुजरिम इस बात की तमन्ना करेगा कि अजाब से छूटने के लिए, अपने बेटों को , बीवी को, भाई को, और कुनबे को जिस में वह रहता था और तमाम अहले ज़मीन को फिदया में देदे, फिर ये इसको बचाए, ये हरगिज़ न होगा, बल्कि आग ऐसी हिगी जो ख़ाल उधेड़ देगी.'
सूरह मुआरिज ७०-  पारा २९ - (आयत१०-१६)

एक पाठक ने पिछले ब्लॉग पर मुझ से पूछा है कि दुन्या में मुसलमानों की पस्मान्दगी की वजेह क्या है?
उनको मैने इन्हीं आयतों पर पुख्ता यकीन बतलाया था.
मुसलमानों! 
क्या तुम आयत (आयत१०-१६) में मुहम्मद की साज़शी बू नहीं पा रहे हो? तुम्हारा रहनुमा तुमको और तुम्हारी नस्लों को ठग रहा है, आँखें खोलो.
जो इस्लाम से जुडा हुआ  सर गर्म है, उसे गौर से समझो कि 
वह मज़हब को ज़रीआ मुआश बनाए हुए है, 
न कि वह अच्छा इंसान है,
अच्छे और नेक तो आप लोग हो जो अपनी नस्लों को उनके यहाँ गिरवीं रक्खे हुए हो.
मैं तुम्हारी गिरवीं पड़ी अमानत को बेख़ौफ़ होकर उनसे आप के हवाले कर रह हूँ.
"जो अपनी शर्म गाहों को महफूज़ रखने वाले हैं, लेकिन अपनी बीवी से और अपनी लौंडियों से नहीं, क्यूंकि इन पर कोई इलज़ाम नहीं. हाँ जो इसके अलावा तलब गार हो, ऐसे लोग हद से निकलने वाले हैं."
सूरह मुआरिज ७०-  पारा २९ -(आयत २९-३०)

मुहम्मदी अल्लाह कहाँ से कहाँ पहुँच गया? इसी को 'बे वक़्त, बे महल बात' कहते है. उम्मी के पास कोई मुफक्किर का ज़खीरा तो था ही नहीं, लेदे के एक ही बात को बार बार औटा करता है.
मुसलमानों! क्या आज तुम लौडियाँ रखते हो?
 नहीं!
 तो फिर उस अहमक की बातों में क्यूँ मुब्तिला हो?
जैसे लौंडियाँ हराम हो गई हैं, वैसे ही इस्लाम को अपने ऊपर हराम कर लो.

"तो काफिरों को क्या हुवा कि आप की तरफ़ को दाएँ और बाएँ जमाअतें बन बन कर दौड़ रहे हैं. क्या इस में से हर शख्स इसकी हवस रखता है कि वह आशाइश की जन्नत में दाखिल होगा. ये हरगिज़ न होगा. हमने इनको ऐसी चीज़ से पैदा किया है कि जिसकी इनको भी खबर नहीं."

क्या पैगाम दे रही हैं ये अल्लाह की बातें ?
खुद मुसलमान इस की हवस रखता है कि वह आशाइश की जन्नत में दाखिल और काफिरों पर इलज़ाम है. इसी को लोग इस्लामी गलाज़त कहते हैं.
इंसान कैसे पैदा हुवा है, इसको हमारे साइंसटिस्ट साबित कर चुके हैं जो रोज़े रौशन की तरह उजागर है, खुद फरेब अल्लाह इसे राज़ ही रखना चाहता है.

"फिर मैं क़सम खता हूँ मगरिब और मशरिक के मालिक की, कि हम इस पर कादिर हैं कि इनकी जगह इन से बेहतर लोग ले आएँगे और हम आजिज़ नहीं हैं, सो इनको आप इसी शुगल में और इसी तफरीह में रहने दीजिए."
सूरह मुआरिज ७०-  पारा २९ -(आयत ३६-३९-४२)

मुहम्मदी अल्लाह दो दिशाओं की क़सम खाता है? गोलार्ध की मुख्य लीक को जो सूरज की चाल की  है, उत्तरी और दक्सिणी धुरुव को जानता भी नहीं. जिस अल्लाह की जानकारी इस कद्र सीमित हो, उसको खुदा कहने  में शर्म नहीं आती?

मुसलामानों! तुम पर दूसरी कौमें ग़ालिब हो चुकी हैं, ये इस्लाम की बरकत ही है. ईराक और लीबिया मौजूदः मिसालें हैं.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

Sunday 2 March 2014

Sooerah haqqa 69

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह हाक़क़ा ६९ - पारा २९-

"वह होने वाली चीज़ कैसी कुछ है, वह होने वाली चीज़,
आपको कुछ खबर है, कैसी कुछ है, वह आने वाली चीज़. (१-३)

मुहम्मद के सर पे क़यामत का भूत था.या  साजिशी दिमाग की पैदावार कहना ज्यादह बेहतर होगा. वह कुरान को उसी तरह बकते हैं जैसे एक आठ साल के बच्चे को बोलने के लिए कहा जाए, उसके पास अलफ़ाज़ ख़त्म हो जाते है, वह अपनी बात दोराने लगता है. उसका दिमाग थक जाता है तो वह भाषा की कवायद भी बूल जाता है. जो मुँह में आता है, आएँ बाएँ शाएँ बकने लगता है  अगर सच्चाई पर कोई आ जाए तो कुरआन का निचोड़ यही है.

''सुमूद और आद ने इस खड़ खड़ाने वाली चीज़ की तकजीब की, सुमूद तो एक ज़ोर की आवाज़ से हलाक कर दिए गए और आद जो थे, एक तेज़ तुन्द हवा से हलाक कर दिए गए. (४-६)

आपने कभी आल्हा सुना हो तो समझ सकते हैं कि उसके वाकेआत सारे के सारे लग्व और कोरे झूट हैं, इसके वाद भी अल्फाज़ की बन्दिश और सुखनवरी आल्हा को अमर किए हुए है कि सुन सुन कर श्रोता मुग्ध हो जाता है.. उसके आगे मुहम्मद का क़ुरआनी आल्हा ज़ेहन को छलनी कर जाता है, क्यूंकि इसे चूमने चाटने का मुकाम हासिल है.

''जिसको अल्लाह तअला ने सात रात और आठ दिन मुतावातिर मुसल्लत कर दिया.वह तो उस कौम को इस तरह गिरा हुवा देखता कि वह गोया गिरी हुई खजूरों के ताने हों. (७)

किस को सात रात और आठ दिन मुतावातिर मुसल्लत कर दिया ? 
किस पर मुसल्लत कर दिया? अल्लाह के इशारे पर पहाड़ और समंदर उछालने लगते हैं, फिर किस बात ने उसको मुतावातिर मुसल्लत करते रहने के अज़ाब में मुब्तिला रक्खा.
मुहम्मद का जेहनी पवाज़ भी किस क़दर फूहड़ है. अल्लाह को अरब में खजूर इन्जीर और जैतून के सिवा कुछ दिखता ही नहीं.

''फिरौन  ने और इस से पहले लोगों ने और लूत की उलटी हुई बस्तियों ने बड़े बड़े कुसूर किए, सो उन्हों ने अपने रसूल का कहना न माना तो अल्लाह ने इन्हें बहुत सख्त पकड़ा. हमने जब कि पानी को तुगयानी हुई , तुमको कश्ती में सवार किया ताकि तुम्हारे लिए हम इस मुआमले को यादगार बनाएँ और याद रखने वाले कान इसे याद रक्खें."(१०-१४)

पाषाण युग के लूत कालीन बाशिदों का ज़िक्र है कि उस गड़रिए  लूत की बातें मुहम्मद कर रहे है जो बूढा बेय़ार ओ मदर गार अपनी दो बेटियों को लेकर एक पहाड़ पर रहने लगा था.

मुहम्मद अपने लिए पेश बंदी कर रहे हैं कि मुझ रसूल की बातें न मानोगे तो अल्लाह तुम्हारी बस्तियों को ज़लज़ले और सूनामी के हवाले कर देगा.

"फिर सूर में यकबारगी फूँक मार दी जाएगी और ज़मीन और पहाड़ उठा लिए जाएँगे फिर दोनों एक ही बार में रेज़ा रेज़ा कर दिए जाएँगे, तो इस रोंज़ होने वाली चीज़ हो पड़ेगी." (१५)

जब ज़मीन और पहाड़ उठा लिए जाएँगे तो हज़रत के गुनाहगार दोजखी कहाँ होंगे?

"आसमान फट जाएगा और वह उस दिन एकदम बोदा होगा और फ़रिश्ते उसके किनारे पर आ जाएगे और आपके परवर दिगार के अर्श को उस रोंज़ फ़रिश्ते उठाए होगे."

मुसलमानों! अपने अल्लाह का ज़ेहनी मेयार देखो, उसकी अक्ल पर मातम करो, आसमान फट जाएगा, इस मुतनाही कायनात को काग़ज़ का टुकड़ा समझने वाला तुम्हारा नबी कहता है कि फिर ये बोदा (भद्दा) हो जायगा ? फटे हुए आसमान को फ़रिश्ते अपने कन्धों पर ढोते रहेंगे..
क्या इसी आसमान फाड़ने वाले अल्लाह से तुम्हारी फटती है ? ?

"उस शख्स को पकड़ लो और इसके तौक़ पहना दो, फिर दोज़ख में इसको दाखिल कर दो फिर  एक ज़ंजीर में जिसकी पैमाइश सत्तर गज़  हो इसको जकड दो. ये शख्स अल्लाह बुज़ुर्ग पर ईमान नहीं रखता था." (३०-३३)

कोई खुद्दार और खुद सर था मुहम्मद के मुसाहिबों में, जोकि उनकी इन बातों से मुँह फेरता था, उसका बाल बीका तो कर नहीं सकते थे मगर उसको अपने क़यामती डायलाग से इस तरह से ज़लील करते हैं.

मैं क़सम खाता हूँ उन चीजों की जिन को तुम देखते हो और उन चीजों की जिन को तुम नहीं देखते कि ये कुरआन कलाम है एक मुआज्ज़िज़ फ़रिश्ते का लाया हुवा और ये किसी शायर का कलाम नहीं." (३८-४१)

कौन सी चीज़ें है जो अल्लाह को भी नहीं दिखाई देतीं? क्या वह भी अपने मुसलमान बन्दों की तरह ही अँधा है. फिर कसमें खा खाकर अपनी ज़ात को क्यूं गुड गोबर किए हुए है.


मुसलमानों! 
तुम्हें इन अफीमी आयतों से मैं नजात दिला रहा हूँ., मेरी राय है कि तुम एक ईमान दार ज़िन्दगी जीने के लिए इस 'मोमिन' की बात मानों औए अपनी ज़ात को सुबुक दोश करो इन क़ुरआनी बोझ से और इन गलाज़त भरी आयातों से.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान